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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 1: सृष्टि  »  अध्याय 3: समस्त अवतारों के स्रोत : कृष्ण  »  श्लोक 26
 
 
श्लोक  1.3.26 
अवतारा ह्यसङ्ख्येया हरे: सत्त्वनिधेर्द्विजा: ।
यथाविदासिन: कुल्या: सरस: स्यु: सहस्रश: ॥ २६ ॥
 
शब्दार्थ
अवतारा:—अवतार; हि—निश्चय ही; असङ्ख्येया:—असंख्य; हरे:—हरि के, भगवान् के; सत्त्व-निधे:—अच्छाई (सतोगुण) के सागर के; द्विजा:—ब्राह्मण; यथा—जिस तरह; अविदासिन:—अक्षय; कुल्या:—नाले; सरस:—विशाल झीलों के; स्यु:—है; सहस्रश:—हजारों ।.
 
अनुवाद
 
 हे ब्राह्मणों, भगवान् के अवतार उसी तरह असंख्य हैं, जिस प्रकार अक्षय जल के स्रोत से निकलने वाले (असंख्य) झरने।
 
तात्पर्य
 भगवान् के अवतारों की यहाँ पर दी गई सूची पूर्ण नहीं है। यह केवल समस्त अवतारों की आंशिक झलक है। अन्य अनेक अवतार हैं—यथा श्रीहयग्रीव, हरि, हंस, पृश्निगर्भ, विभु, सत्यसेन, वैकुण्ठ, सार्वभौम, विष्वक्सेन, धर्मसेतु, सुधामा, योगेश्वर, बृहदभानु तथा प्राचीन युग के अन्य अनेक अवतार। श्री प्रह्लाद महाराज ने अपनी स्तुति में कहा है, “हे प्रभु, आप अपने भक्तों के पालन तथा अभक्तों के संहार के लिए उतने ही अवतार धारण करते हैं, जितनी कि जलचर, वनस्पतियाँ, सरीसृप, पक्षी, जन्तु, मनुष्य, देवता आदि योनियाँ हैं। इस प्रकार आप विभिन्न युगों की आवश्यकतानुसार स्वयं अवतरित होते हैं। कलियुग में आप भक्त के वेश में अवतरित हुए हैं।” कलियुग में भगवान् का यह अवतार भगवान् चैतन्य महाप्रभु के रूप में है। भागवत तथा अन्य शास्त्रों में ऐसे कई स्थल हैं, जहाँ श्री चैतन्य महाप्रभु के रूप में भगवान् के अवतार का स्पष्ट उल्लेख हुआ है। ब्रह्म-संहिता में भी परोक्ष रूप में कहा गया है कि यद्यपि भगवान् के अनेक अवतार हुए हैं यथा राम, नृसिंह, वराह, मत्स्य, कूर्म आदि, लेकिन कभी-कभी भगवान् खुद अवतरित होते हैं। अत: भगवान् कृष्ण तथा भगवान् श्री चैतन्य महाप्रभु अवतार नहीं हैं, अपितु वे अन्य समस्त अवतारों के मूल उद्गम हैं। इसकी स्पष्ट व्याख्या अगले श्लोक में की गई है। इस तरह भगवान् उन असंख्य अवतारों के अक्षय स्रोत हैं, जिनका उल्लेख सदा नहीं किया जाता। किन्तु ऐसे अवतार विशिष्ट अलौकिक कार्यकलापों के कारण विख्यात होते हैं जो किसी सामान्य जीव द्वारा सम्पन्न नहीं हो सकते। भगवान् के प्रत्यक्ष तथा अप्रत्यक्ष शक्त्यावेशित अवतारों की यही सामान्य पहचान है। ऐसे कुछ अवतार, जिनका ऊपर उल्लेख हुआ है, प्राय: पूर्णांश हैं। उदाहणार्थ, कुमारगण दिव्य ज्ञान से विभूषित थे। नारद भक्ति से आविष्ट थे। महाराज पृथु प्रशासनिक कार्य की शक्ति से युक्त थे। मत्स्य अवतार प्रत्यक्ष पूर्णांश है। इस तरह समग्र ब्रह्माण्डों में भगवान् के असंख्य अवतार उसी तरह से निरन्तर होते रहते हैं, जिस प्रकार जल प्रपातों से निरन्तर जल बहता रहता है।
 
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