दूसरी ओर, जो साहित्य असीम परमेश्वर के नाम, यश, रूपों तथा लीलाओं की दिव्य महिमा के वर्णन से पूर्ण है, वह कुछ भिन्न ही रचना है जो इस जगत की गुमराह सभ्यता के अपवित्र जीवन में क्रान्ति लाने वाले दिव्य शब्दों से ओतप्रोत है। ऐसा दिव्य साहित्य, चाहे वह ठीक से न भी रचा हुआ हो, ऐसे पवित्र मनुष्यों द्वारा सुना, गाया तथा स्वीकार किया जाता है, जो नितान्त निष्कपट होते हैं।
तात्पर्य
महान चिन्तकों की विशेषता है कि वे बुरे से बुरे में से भी श्रेष्ठतम को खोज निकालते हैं। कहा गया है कि बुद्धिमान मनुष्य को चाहिए कि विष के कुण्ड से भी अमृत ग्रहण कर ले, गंदगी में भी पड़े सोने को स्वीकार करे, अज्ञात कुल की भी उत्तम तथा सुयोग्य पत्नी ग्रहण कर ले और अछूत से या अछूत कुल से सम्बद्ध शिक्षक से भी सदुपदेश प्राप्त करे। ये कुछ नैतिक शिक्षाएँ हैं जो सभी स्थानों पर, बिना किसी अपवाद के, हर एक पर लागू होती हैं। लेकिन एक सन्त सामान्य व्यक्ति से काफी उच्च स्तर पर होता है। वह निरन्तर परमेश्वर के महिमा-गान में व्यस्त रहता है, क्योंकि परमेश्वर के पवित्र नाम तथा यश का प्रसार करने से जगत का दूषित वातावरण बदल सकता है और श्रीमद्भागवत जैसे दिव्य साहित्य के प्रसार से लोग अपने व्यवहारों में समझदार हो सकते हैं। श्रीमद्भागवत के इस श्लोक की व्याख्या करते हुए हमारे समक्ष संकट उत्पन्न हो गया है। हमारे पड़ोसी मित्र चीन ने भारत की सीमा पर सैनिक-आक्रमण कर दिया है। यद्यपि राजनीतिक क्षेत्र से हमें कोई भी सरोकार नहीं है, लेकिन हम देखते हैं कि इसके पूर्व भी भारत तथा चीन थे और दोनों ही देश बिना किसी दुर्भावना के सदियों से शान्तिपूर्वक रहते रहे थे। इसका कारण यह है कि उन दिनों ईश्वर-चेतना का वातावरण था और इस महिमंडल का प्रत्येक देश ईश्वर से डरता था, शुद्ध हृदय वाला तथा सरल था और राजनीतिक कूटनीति का कोई प्रश्न ही न था। चीन तथा भारत ये दोनों देशों के बीच उस भूमि को लेकर झगड़ा करने का कोई कारण नहीं है, जो बसने के लिए उपयुक्त नहीं है, और निश्चय ही इस मामले पर युद्ध करने की तो कोई आवश्यकता ही नहीं है। किन्तु जैसाकि पहले कहा जा चुका है, कलह के युग कलि के कारण थोड़ी सी उत्तेजना से भी झगड़ा हो सकता है। यह किसी अन्य कारण से नहीं, अपितु इस युग के प्रदूषित वातावरण के कारण है—एक वर्ग के लोग परमेश्वर के नाम तथा यशोगान को रोकने के लिए नियमबद्ध प्रचार कर रहे हैं। अतएव विश्व भर में श्रीमद्भागवत के सन्देश को प्रसारित करने की परम आवश्यकता है। प्रत्येक जिम्मेदार भारतीय नागरिक का यह कर्तव्य है कि वह श्रीमद्भागवत के दिव्य संदेश को सर्वोपरि कल्याण तथा वांछित शान्ति लाने के लिए विश्व भर में प्रसारित करे। चूँकि भारत ने अपने इस उत्तरदायित्वपूर्ण कार्य की उपेक्षा की है, अतएव सारे विश्वभर में इतना संघर्ष हो रहा है तथा संकट छाया है। हमारा विश्वास है कि यदि श्रीमद्भागवत का दिव्य संदेश विश्व के अग्रणी लोगों तक ही पहुँच सके, तो निश्चित रूप से हृदय-परिवर्तन होगा और लोग सामान्य रूप से इस संदेश का पालन करेंगे। जनता आधुनिक राजनीतिकोरों तथा नेताओं के हाथ की कठपुतली बनी हुई है। यदि इन नेताओं के ही हृदय परिवर्तित हो सकें, तो विश्व के वातावरण में आमूल परिर्वतन हो सकेगा। हमें पता है कि जनसामान्य में ईश्वर-चेतना को जगाने तथा विश्व वातावरण का पुन: अध्यात्मीकरण करने के लिए दिव्य संदेशों वाले इस महान ग्रंथ को प्रस्तुत करने का हमारा सद्प्रयास अनेक कठिनाइयों से भरा है। इस विषय को यथेष्ठ भाषा में विशेष रूप से विदेशी भाषा में, प्रस्तुत करना निश्चित रूप से विफल प्रयास होगा और चाहे हम जितना भी प्रयास करें इसमें अनेक साहित्यिक त्रुटियाँ रह जाएँगी। लेकिन हमारा विश्वास है कि इस सम्बन्ध में चाहे कितनी भी त्रुटियाँ रह जाँए, विषय की गम्भीरता पर विचार किया जायेगा और समाज के नेता सर्वशक्तिमान भगवान् के महिमा गान करने के इस ईमानदार प्रयास के कारण इसको स्वीकार करेंगे। जब किसी घर में आग लग जाती है, तो उस घर के रहने वाले अपने पड़ोसियों से, चाहे वे विदेशी हों, सहायता प्राप्त करने के लिए दौड़ जाते हैं और वे बेचारे उनकी भाषा न जानते हुए भी अपने भाव व्यक्त करते हैं और पड़ोसी उनकी आवश्यकता समझ लेते हैं, भले ही वे भाव उनकी भाषा में व्यक्त न हुए हों। श्रीमद्भागवत के इस दिव्य संदेश को विश्व के प्रदूषित वायुमण्डल में प्रसारित करने के लिए वैसी ही सहयोग-भावना की आवश्यकता है। आखिर, यह आध्यात्मिक मूल्यों से युक्त तकनीकी विज्ञान है, अतएव हमें तकनीक के विषय में चिन्तित होना है, भाषा के विषय में नहीं। यदि इस महान साहित्य की तकनीकों को विश्व के लोग समझ लें, तो उन्हें सफलता मिल सकती है।
जब विश्व भर की जनता में अनेकानेक भौतिकतावादी कार्य-कलाप चलते रहते हैं, तो इसमें कोई आश्चर्य नहीं है कि कोई व्यक्ति या राष्ट्र तनिक सी उत्तेजना पर किसी दुसरे व्यक्ति या राष्ट्र पर आक्रमण कर दे। इस कलि या कलह युग का यही नियम है। वातावरण पहले से सभी तरह के भ्रष्टाचार से प्रदूषित है और प्रत्येक व्यक्ति इससे भलीभाँति अवगत है। इन्द्रिय-तृप्ति के भौतिकतावादी विचारों से पूर्ण न जाने कितना अवांछित साहित्य भरा पड़ा है। अनेक देशों में अश्लील साहित्य की जाँच करने तथा उस पर प्रतिबन्ध लगाने के लिए सरकार द्वारा अनेक समितियाँ नियुक्त की जाती हैं। इसका अर्थ यही है कि न तो सरकार, न ही जिम्मेदार जन-नेता ऐसा साहित्य चाहते हैं, तो भी यह बाजारों में मिलता है, क्योंकि लोग इन्द्रिय-तुष्टि के लिए इसे चाहते हैं। सामान्य रूप से लोग कुछ पढऩा चाहते हैं(यह प्राकृतिक प्रवृत्ति है), लेकिन चूँकि उनके मस्तिष्क दूषित हैं, अतएव वे ऐसा साहित्य पसन्द करते हैं। ऐसी परिस्थितियों में श्रीमद्भागवत जैसे दिव्य साहित्य से न केवल सामान्य जनों के भ्रष्ट मन के कार्यकलाप घटेंगे, अपितु यह उनकी उस चाह को शमित करेगा जिसके लिए वे रोचक साहित्य पढऩा चाहते हैं। प्रारम्भ में, वे इसे पसन्द न भी करें, क्योंकि जिसे पीलिया हो जाता है वह मिश्री नहीं खाना चाहता, लेकिन हमें यह ज्ञात होना चाहिए कि मिश्री ही पीलिया का एक मात्र उपचार है। इसी प्रकार भगवद्गीता तथा श्रीमद्भागवत के पठन को लोकप्रिय बनाने का विधिवत् प्रचार कार्य होना चाहिए, क्योंकि यह इन्द्रियतृप्ति रूपी पीलिया के लिए मिश्री का काम करेगा। जब लोग इस साहित्य के प्रति रुचि उत्पन्न कर लेंगे, तो वह अन्य साहित्य, जो समाज में विष फैला रहा है, स्वत: ही समाप्त हो जायेगा।
अत: हमारा विश्वास है कि मानव समाज का प्रत्येक व्यक्ति श्रीमद्भागवत का स्वागत करेगा, भले ही उसके प्रस्तुत रूप में अनेक त्रुटियाँ क्यों न हों, क्योंकि इसकी संस्तुति श्री नारद ने की है, जो कृपा करके इस अध्याय में प्रकट हुए हैं।
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