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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 1: सृष्टि  »  अध्याय 5: नारद द्वारा व्यासदेव को श्रीमद्भागवत के विषय में आदेश  »  श्लोक 28
 
 
श्लोक  1.5.28 
इत्थं शरत्प्रावृषिकावृतू हरे-
र्विश‍ृण्वतो मेऽनुसवं यशोऽमलम् ।
सङ्कीर्त्यमानं मुनिभिर्महात्मभि-
र्भक्ति: प्रवृत्तात्मरजस्तमोपहा ॥ २८ ॥
 
शब्दार्थ
इत्थम्—इस प्रकार; शरत्—शरद् ऋतु; प्रावृषिकौ—वर्षा ऋतु; ऋतू—दो ऋतुएँ; हरे:—भगवान् का; विशृण्वत:— निरन्तर श्रवण करते हुए; मे—मैं स्वयं; अनुसवम्—निरन्तर; यश: अमलम्—धवल कीर्ति; सङ्कीर्त्यमानम्—जपी जाकर; मुनिभि:—मुनियों द्वारा; महा-आत्मभि:—महात्माओं द्वारा; भक्ति:—भक्तिमय सेवा; प्रवृत्ता—प्रवाहित होने लगी; आत्म—जीव; रज:—रजोगुण; तम—तमोगुण; उपहा—नाश करने वाली ।.
 
अनुवाद
 
 इस प्रकार वर्षा तथा शरद् दोनों ऋतुओं में, मुझे इन महामुनियों से भगवान् हरि की धवल कीर्ति का निरन्तर कीर्तन सुनते रहने का सुअवसर प्राप्त हुआ। ज्योंही मेरी भक्ति का प्रवाह होने लगा कि रजोगुण तथा तमोगुण के सारे आवरण विलुप्त हो गये।
 
तात्पर्य
 परमेश्वर की दिव्य भक्तिमय सेवा प्रत्येक जीव की सहज प्रवृत्ति होती है। यह प्रवृत्ति प्रत्येक प्राणी में सु-सुप्त रहती है, लेकिन भौतिक प्रकृति के सम्पर्क के कारण रजोगुण तथा तमोगुण अनन्त काल से इसे आच्छादित करते रहे हैं। यदि भगवान् तथा उनके महान भक्तों के अनुग्रह से कोई जीव इतना भाग्यशाली होता है कि उसे विशुद्ध भक्तों की संगति प्राप्त हो जाय और भगवान् के निर्मल महिमा गान को सुनने का अवसर मिल जाय, तो निश्चय ही भक्ति का प्रवाह नदी के प्रवाह की ही तरह होने लगता है। जिस प्रकार नदी तब तक प्रवाहित होती रहती है, जब तक वह समुद्र तक न पहुँच जाय, उसी प्रकार शुद्ध भक्तों की संगति से विशुद्ध भक्ति की धारा तब तक प्रवाहित होती रहती है जब तक वह चरम लक्ष्य अर्थात् भगवान् के दिव्य प्रेम तक नहीं पहुँच जाती। भक्ति का ऐसा प्रवाह रोके नहीं रुकता, अपितु यह असीमित रूप से अधिकाधिक बढ़ता जाता है। भक्ति का प्रवाह इतना सक्षम होता है कि कोई दर्शक भी रजोगुण तथा तमोगुण के प्रभाव से मुक्त हो जाता है। इस प्रकार प्रकृति के ये दोनों गुण दूर हो जाते हैं और जीव अपनी मूल स्थिति को प्राप्त करके मुक्त हो जाता है।
 
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