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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 1: सृष्टि  »  अध्याय 5: नारद द्वारा व्यासदेव को श्रीमद्भागवत के विषय में आदेश  »  श्लोक 7
 
 
श्लोक  1.5.7 
त्वं पर्यटन्नर्क इव त्रिलोकी-
मन्तश्चरो वायुरिवात्मसाक्षी ।
परावरे ब्रह्मणि धर्मतो व्रतै:
स्‍नातस्य मे न्यूनमलं विचक्ष्व ॥ ७ ॥
 
शब्दार्थ
त्वम्—आप; पर्यटन्—विचरण करते हुए; अर्क:—सूर्य; इव—सदृश; त्रि-लोकीम्—तीनों लोकों में; अन्त:-चर:— प्रत्येक व्यक्ति के हृदय में प्रवेश करने वाले; वायु: इव—सर्वव्यापी वायु की भाँति; आत्म—स्वरूपसिद्ध; साक्षी—गवाह; परावरे—कार्य तथा कारण के मामले में; ब्रह्मणि—ब्रह्म में; धर्मत:—अनुशासन सम्बन्धी नियमों के अन्तर्गत; व्रतै:—व्रत में; स्नातस्य—लीन रहने वाले; मे—मेरा; न्यूनम्—कमी, दोष; अलम्—स्पष्ट रूप से; विचक्ष्व—खोज निकालें ।.
 
अनुवाद
 
 आप सूर्य के समान तीनों लोकों में विचरण कर सकते हैं और वायु के समान प्रत्येक व्यक्ति के अन्दर प्रवेश कर सकते हैं। इसलिए आप सर्वव्यापी परमात्मा के तुल्य हैं। अत: आपसे प्रार्थना है कि नियमों तथा व्रतों का पालन करते हुए दिव्यता में लीन रहने पर भी मुझमें जो कमी हो, उसे खोज निकालें।
 
तात्पर्य
 दिव्य अनुभूति, पुण्यकर्म, देव-पूजा, दान, दया, अहिंसा तथा कड़े अनुशासनिक नियमों के साथ शास्त्रों का अध्ययन—ये सदैव मनुष्य के सहायक बनते हैं।
 
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  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥