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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 10: परम पुरुषार्थ  »  अध्याय 19: दावानल पान  »  श्लोक 14
 
 
श्लोक  10.19.14 
कृष्णस्य योगवीर्यं तद् योगमायानुभावितम् ।
दावाग्नेरात्मन: क्षेमं वीक्ष्य ते मेनिरेऽमरम् ॥ १४ ॥
 
शब्दार्थ
कृष्णस्य—कृष्ण की; योग-वीर्यम्—योगशक्ति; तत्—वह; योग-माया—माया की अन्तरंगा शक्ति द्वारा; अनुभावितम्— प्रभावित; दाव-अग्ने:—दावाग्नि से; आत्मन:—अपना; क्षेमम्—उद्धार; वीक्ष्य—देखकर; ते—उन्होंने; मेनिरे—सोचा; अमरम्—देवता ।.
 
अनुवाद
 
 जब ग्वालबालों ने देखा कि भगवान् की अन्तरंगा शक्ति से प्रकट योगशक्ति द्वारा उन्हें दावाग्नि से बचाया जा चुका है, तो वे सोचने लगे कि कृष्ण अवश्य ही कोई देवता हैं।
 
तात्पर्य
 वृन्दावन के ग्वालबाल कृष्ण को अपना एकमात्र मित्र तथा पूजनीय मानते थे। कृष्ण ने इन सबों के आनन्द को बढ़ाने के लिए अपनी योगशक्ति का प्रदर्शन किया और उन्हें उस भयानक दावाग्नि से बचा लिया।

ये ग्वालबाल किसी भी दशा में कृष्ण से अपनी आनन्दमयी एवं प्रेममयी मित्रता का परित्याग नहीं कर सकते थे। अत: उन्होंने जब उनकी यह असाधारण शक्ति देखी तो सोचा कि कृष्ण ईश्वर नहीं, अपितु शायद कोई देवता हैं। किन्तु कृष्ण उनके प्रिय मित्र थे अत: वे उन्हीं के समान स्तर पर थे। अतएव उन्होंने अपने आपको भी देवता तुल्य ही सोचा। इस तरह कृष्ण के ग्वालमित्र आनन्दविभोर हो उठे।

 
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  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥