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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 10: परम पुरुषार्थ  »  अध्याय 19: दावानल पान  »  श्लोक 7
 
 
श्लोक  10.19.7 
तत: समन्ताद्देवधूमकेतु-
र्यद‍ृच्छयाभूत् क्षयकृद् वनौकसाम् ।
समीरित: सारथिनोल्बणोल्मुकै-
र्विलेलिहान: स्थिरजङ्गमान् महान् ॥ ७ ॥
 
शब्दार्थ
तत:—तब; समन्तात्—चारों ओर; दव-धूमकेतु:—भीषण जंगल की अग्नि; यदृच्छया—सहसा; अभूत्—प्रकट हुई; क्षय- कृत्—नष्ट करने पर तुली; वन-ओकसाम्—जंगल में उपस्थित प्राणियों को; समीरित:—हाँकी गई; सारथिना—सारथी तुल्य हवा द्वारा; उल्बण—भयानक; उल्मुकै:—उल्का जैसी चिनगारियों से युक्त; विलेलिहान:—चाटती हुई; स्थिर-जङ्गमान्—समस्त चर तथा अचर प्राणियों को; महान्—महान ।.
 
अनुवाद
 
 सहसा चारों दिशाओं में महान् दावाग्नि प्रकट हुई जिससे जंगल के समस्त प्राणियों के नष्ट होने का संकट उत्पन्न हो गया। सारथी तुल्य वायु, अग्नि को आगे बढ़ाती जा रही थी और चारों ओर भयानक चिनगारियाँ निकल रही थीं। निस्सन्देह, इस महान् अग्नि ने अपनी ज्वालाओं रूपी जिह्वाओं को समस्त चल और अचर प्राणियों की और लपलपा दिया था।
 
तात्पर्य
 अभी कृष्ण, बलराम तथा ग्वालबाल अपनी गौवें लेकर घर लौटने ही वाले थे कि जो दावाग्नि लगी थी वह काबू के बाहर हो गई और उसने उन सबों को घेर लिया।
 
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  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥