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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 10: परम पुरुषार्थ  »  अध्याय 34: नन्द महाराज की रक्षा तथा शंखचूड़ का वध  »  श्लोक 31
 
 
श्लोक  10.34.31 
अविदूर इवाभ्येत्य शिरस्तस्य दुरात्मन: ।
जहार मुष्टिनैवाङ्ग सहचूडमणिं विभु: ॥ ३१ ॥
 
शब्दार्थ
अविदूरे—पास ही; इव—मानो; अभ्येत्य—की ओर आकर; शिर:—सिर; तस्य—उसका; दुरात्मन:—दुष्ट; जहार—अलग कर लिया; मुष्टिना—अपनी मुट्ठी से; एव—केवल; अङ्ग—हे राजन्; सह—साथ; चूड-मणिम्—सिर के मणि को; विभु:— सर्वशक्तिमान भगवान् ने ।.
 
अनुवाद
 
 हे राजन्, शक्तिशाली भगवान् ने दूर से ही शंखचूड़ को पकड़ लिया मानो निकट से हो और तब अपनी मुट्ठी से उस दुष्ट के सिर को चूड़ामणि समेत धड़ से अलग कर दिया।
 
 
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  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥