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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 10: परम पुरुषार्थ  »  अध्याय 37: केशी तथा व्योम असुरों का वध  »  श्लोक 31
 
 
श्लोक  10.37.31 
स निजं रूपमास्थाय गिरीन्द्रसद‍ृशं बली ।
इच्छन्विमोक्तुमात्मानं नाशक्नोद्ग्रहणातुर: ॥ ३१ ॥
 
शब्दार्थ
स:—वह असुर; निजम्—अपने मूल; रूपम्—रूप को; आस्थाय—धारण करके; गिरि-इन्द्र—राजसी पर्वत; सदृशम्—के सदृश; बली—शक्तिशाली; इच्छन्—चाहते हुए; विमोक्तुम्—मुक्त करने के लिए; आत्मानम्—स्वयं को; न अशक्नोत्—वह समर्थ नहीं था; ग्रहण—बलपूर्वक पकड़े जाने से; आतुर:—अशक्त हुआ ।.
 
अनुवाद
 
 वह असुर अपने मूल रूप में परिणत होकर विशाल पर्वत के समान बड़ा तथा बली बन गया। किन्तु वह कठोर प्रयास के बावजूद अपने को छुड़ा न पाया क्योंकि भगवान् की मजबूत पकड़ में होने से वह अपनी शक्ति खो चुका था।
 
 
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  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥