कंस के आदेश से केशी असुर ने विशाल घोड़े का रूप धारण किया और वह व्रज में गया। पहुँचते ही जब उसने जोर की हिनहिनाहट की तो सारे निवासी डर गये और श्रीकृष्ण का मुँह जोहने लगे। उस असुर को देखकर कृष्ण ने आगे बढक़र उसे निकट आने के लिए ललकारा। केशी ने कृष्ण पर आक्रमण कर दिया और अपने अगले पाँवों से उन पर प्रहार करने की कोशिश की किन्तु भगवान् ने उसे पावों से पकड़ लिया, फिर उसे कई बार चारों ओर घुमाया और तब एक सौ धनुष-दूरी पर फेंक दिया। केशी कुछ समय तक अचेत पड़ा रहा। जब उसे चेत हुआ तो उसने खुले मुँह पुन: कृष्ण पर आक्रमण किया। तब भगवान् ने अपनी बाईं भुजा उस अश्व असुर के मुख में डाल दी और जब केशी ने उस भुजा को काटना चाहा तो वह उसे गर्म लोहे की फाल जैसी प्रतीत हुई। कृष्ण की भुजा फैलती गई जिससे असुर का दम घुटने लगा और उसने अत्यधिक वेदना के कारण अपने प्राण त्याग दिये। तब कृष्ण ने अपनी भुजा निकाल ली। वे शान्त खड़े रहे। देवताओं ने आकाश से उन पर पुष्प-वर्षा की और उनका यशोगान किया किन्तु उनके मुख से असुर मारने से कोई अहंकार लक्षित नहीं हो रहा था। इस के तुरन्त बाद देवर्षि नारद कृष्ण के पास आये और भगवान् की भावी लीलाओं की प्रशंसा करते हुए उन्होंने अनेक प्रकार से उनकी स्तुति की। तत्पश्चात् नारद उन्हें प्रणाम करके प्रस्थान कर गये। एक दिन गाय चराते समय कृष्ण, बलराम तथा ग्वालबाल लुकाछिपी (आँख-मिचौनी) के खेल में व्यस्त थे। कुछ बालक भेड़ बने थे, कुछ चोर और कुछ गडरिये। चोरों द्वारा भेड़ें चुराने पर गडरिये भेड़ों को ढूँढ़ते थे। इस खेल का लाभ उठाकर कंस द्वारा भेजा गया व्योम नामक असुर ग्वाले का वेश बनाकर चोरों के समूह में जा मिला। वह एकसाथ कुछ ग्वालों का हरण करके उन्हें एक पर्वत-गुफा में फेंक आया और गुफा के द्वार को एक बड़े पत्थर से ढक दिया। क्रमश: व्योमासुर चार या पाँच ग्वालों को छोड़ शेष सारे ग्वालों को चुरा ले गया। जब कृष्ण ने उस असुर की करतूत देखी तो वे उसके पीछे दौड़े, उसे जा दबोचा और बलि के पशु की तरह उसे मार डाला। |