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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 10: परम पुरुषार्थ  »  अध्याय 84: कुरुक्षेत्र में ऋषियों के उपदेश  »  श्लोक 63
 
 
श्लोक  10.84.63 
प्रागकल्पाच्च कुशलं भ्रातर्वो नाचराम हि ।
अधुना श्रीमदान्धाक्षा न पश्याम: पुर: सत: ॥ ६३ ॥
 
शब्दार्थ
प्राक्—पूर्वकाल में; अकल्पात्—अक्षमता के कारण; —तथा; कुशलम्—कुशलता; भ्रात:—हे भाई; व:—तुम्हारा; न आचराम—हमने माना नहीं; हि—निस्सन्देह; अधुना—अब; श्री—ऐश्वर्य; मद—नशे के कारण; अन्ध—अन्धी बन कर; अक्षा:—जिनकी आँखें; न पश्याम:—हम देख नहीं पाते; पुर:—सामने; सत:—उपस्थित, वर्तमान ।.
 
अनुवाद
 
 हे भ्राता, इसके पूर्व हमने आपके लाभ की कोई बात नहीं की, क्योंकि हम ऐसा करने में अशक्त थे। तो भी इस समय, यद्यपि आप हमारे समक्ष उपस्थित हैं, हमारी आँखें भौतिक सौभाग्य के मद से इस तरह अन्धी हो चुकी हैं कि हम आपकी उपेक्षा करते ही जा रहे हैं।
 
तात्पर्य
 कंस की नृशंसता के अन्तर्गत रहते हुए वसुदेव नन्द की कुछ भी सहायता करने में असमर्थ थे और कृष्ण तथा बलराम का वध करने के लिए भेजे जाने वाले अनेक असुरों से अपनी रक्षा नन्द की प्रजा को स्वयं करनी पड़ती थी।
 
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  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥