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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 11: सामान्य इतिहास  »  अध्याय 6: यदुवंश का प्रभास गमन  »  श्लोक 26-27
 
 
श्लोक  11.6.26-27 
नाधुना तेऽखिलाधार देवकार्यावशेषितम् ।
कुलं च विप्रशापेन नष्टप्रायमभूदिदम् ॥ २६ ॥
तत: स्वधाम परमं विशस्व यदि मन्यसे ।
सलोकाँल्ल‍ोकपालान् न: पाहि वैकुण्ठकिङ्करान् ॥ २७ ॥
 
शब्दार्थ
न अधुना— और अधिक नहीं; ते—तुम्हारे लिए; अखिल-आधार—सभी वस्तुओं के आधार; देव-कार्य—देवताओं की ओर से किया गया कार्य; अवशेषितम्—शेष भाग; कुलम्—आपका वंश; —तथा; विप्र-शापेन—ब्राह्मण के शाप से; नष्ट प्रायम्—एक तरह से विनष्ट; अभूत्—हो गया है; इदम्—यह; तत:—इसलिए; स्व-धाम—अपने धाम; परमम्—परम; विशस्व—प्रवेश कीजिए; यदि—यदि; मन्यसे—आप ऐसा मानते हैं; स-लोकान्—सारे लोकों के निवासियों सहित; लोक- पालान्—लोकों के संरक्षक; न:—हमको; पाहि—रक्षा करते रहें; वैकुण्ठ—विष्णु का वैकुण्ठ; किङ्करान्—सेवकों को ।.
 
अनुवाद
 
 हे प्रभु, इस समय देवताओं की ओर से, आपको करने के लिए कुछ भी शेष नहीं रहा। आपने पहले ही अपने वंश को ब्राह्मण के शाप से उबार लिया है। हे प्रभु, आप सारी वस्तुओं के आधार हैं और यदि आप चाहें, तो अब वैकुण्ठ में अपने धाम को लौट जाय। साथ ही, हमारी विनती है कि आप सदैव हमारी रक्षा करते रहें। हम आपके विनीत दास हैं और आपकी ओर से हम ब्रह्माण्ड का कार्यभार सँभाले हुए हैं। हमें अपने लोकों तथा अनुयायियों समेत आपके सतत संरक्षण की आवश्यकता है।
 
 
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  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥