|
|
|
अध्याय 7: पौराणिक साहित्य
|
|
|
संक्षेप विवरण: इस अध्याय में श्री सूत गोस्वामी अथर्ववेद की शाखाओं के विस्तार, पुराणों के संकलनकर्ताओं का नामोल्लेख तथा पुराणों के लक्षणों का वर्णन करते हैं। तत्पश्चात् वे... |
|
श्लोक 1: सूत गोस्वामी ने कहा : अथर्ववेद के विशेषज्ञ, सुमन्तु ऋषि, ने अपनी संहिता अपने शिष्य कबन्ध को पढ़ाई जिसने इसे पथ्य और वेददर्श से कहा। |
|
श्लोक 2: शौक्लायनि, ब्रह्मबलि, मोदोष तथा पिप्पलायनि वेददर्श के शिष्य थे। मुझसे पथ्य के भी शिष्यों के नाम सुनो। हे ब्राह्मण, वे हैं—कुमुद, शुनक तथा जाजलि। वे सभी अथर्ववेद को अच्छी तरह जानते थे। |
|
श्लोक 3: बभ्रु तथा सैधवायन नामक शुनक के शिष्यों ने अपने गुरु द्वारा संकलित अथर्ववेद के दो भागों का अध्ययन किया। सैन्धवायन के शिष्य सावर्ण तथा अन्य ऋषियों के शिष्यों ने भी अथर्ववेद के इस संस्करण का अध्ययन किया। |
|
श्लोक 4: नक्षत्रकल्प, शान्तिकल्प, कश्यप, आंगिरस तथा अन्य लोग भी अथर्ववेद के आचार्यों में से थे। हे मुनि, अब पौराणिक साहित्य के विद्वानों के नाम सुनो। |
|
श्लोक 5: त्रय्यारुणि, कश्यप, सावर्णि, अकृतव्रण, वैशम्पायन तथा हारीत—ये छ: पुराणों के आचार्य हैं। |
|
श्लोक 6: इनमें से प्रत्येक ने मेरे पिता रोमहर्षण से जोकि श्रील व्यासदेव के शिष्य थे, पुराणों की छहों संहिताओं को पढ़ा। मैं इन छहो आचार्यों का शिष्य बन गया और मैंने इस पौराणिक ज्ञान का भलीभाँति प्रस्तुतिकरण सीखा। |
|
श्लोक 7: वेदव्यास के शिष्य रोमहर्षण ने पुराणों को चार मूल संहिताओं में विभाजित कर दिया। मुनि कश्यप तथा मैंने सावर्णि तथा राम के शिष्य अकृतव्रण के साथ-साथ इन चारों संहिताओं को सीखा। |
|
श्लोक 8: हे शौनक, तुम ध्यान से पुराण के लक्षण सुनो जिनकी परिभाषा अत्यन्त प्रसिद्ध विद्वान ब्राह्मणों ने वैदिक साहित्य के अनुसार दी है। |
|
श्लोक 9-10: हे ब्राह्मण, इस विषय के विद्वान, पुराण के दस लक्षण बतलाते हैं—इस ब्रह्माण्ड की सृष्टि (सर्ग), तत्पश्चात् लोकों तथा जीवों की सृष्टि (विसर्ग), सारे जीवों का पालन-पोषण (वृत्ति), उनका भरण (रक्षा), विभिन्न मनुओं के शासन (अन्तराणि), महान् राजाओं के वंश (वंश), ऐसे राजाओं के कार्यकलाप (वंशानुचरित), संहार (संस्था), कारण (हेतु) तथा परम आश्रय (अपाश्रय)। अन्य विद्वानों का कहना है कि महापुराणों में इन्हीं दस का वर्णन रहता है, जबकि छोटे पुराणों में केवल पाँच का। |
|
श्लोक 11: अव्यक्त प्रकृति के भीतर मूल गुणों के क्षोभ से महत् तत्त्व उत्पन्न होता है। महत् तत्त्व से मिथ्या अहंकार उत्पन्न होता है, जो तीन पक्षों में बँट जाता है। यह तीन प्रकार का मिथ्या अहंकार अनुभूति के सूक्ष्म रूपों, इन्द्रियों तथा स्थूल इन्द्रिय-विषयों के रूप में, प्रकट होता है। इन सबों की उत्पत्ति सर्ग कहलाती है। |
|
श्लोक 12: गौण सृष्टि (विसर्ग), जो ईश्वर की कृपा से विद्यमान है, जीवों की इच्छाओं का व्यक्त संयोग है। जिस प्रकार एक बीज से अतिरिक्त बीज उत्पन्न होते हैं, उसी तरह कर्ता में भौतिक इच्छाओं को बढ़ाने वाले कार्य चर तथा अचर जीवों को जन्म देते हैं। |
|
श्लोक 13: वृत्ति का अर्थ है भरण या निर्वाह की विधि जिससे चेतन प्राणी जड़ प्राणियों पर निर्वाह करते हैं। मनुष्य के लिए वृत्ति का विशेष अर्थ होता है अपनी जीविका के लिए इस तरह से कार्य करना जो उसके निजी स्वभाव के अनुकूल हो। ऐसा कार्य या तो स्वार्थ की इच्छानुसार या फिर ईश्वर के नियमानुसार पूरा किया जा सकता है। |
|
श्लोक 14: अच्युत भगवान् प्रत्येक युग में पशुओं, मनुष्यों, ऋषियों तथा देवताओं के बीच प्रकट होते हैं। वे इन अवतारों में अपने कार्यकलापों से ब्रह्माण्ड की रक्षा करते हैं और वैदिक संस्कृति के शत्रुओं का वध करते हैं। |
|
श्लोक 15: मनु के प्रत्येक शासनकाल (मन्वन्तर) में भगवान् हरि के रूप में छह प्रकार के पुरुष प्रकट होते हैं—शासक मनु, मुख्य देवता, मनुपुत्र, इन्द्र, महर्षि तथा भगवान् के अंशावतार। |
|
श्लोक 16: ब्रह्मा से लेकर भूत, वर्तमान तथा भविष्य तक लगातार फैली हुई राजाओं की सरणियाँ (पंक्तियाँ) वंश हैं। ऐसे वंशों के, विशेष रूप से सर्वाधिक प्रमुख व्यक्तियों के, विवरण वंश इतिहास के प्रमुख विषय होते हैं। |
|
श्लोक 17: ब्रह्म प्रलय के चार प्रकार हैं—नैमित्तिक, प्राकृतिक, नित्य तथा आत्यन्तिक। ये सारे के सारे भगवान् की अन्तर्निहित शक्ति द्वारा प्रभावित होते हैं। विद्वान पंडितों ने इस विषय का नाम विलय रखा है। |
|
श्लोक 18: जीव अज्ञानवश भौतिक कर्म करता है और इस तरह वह, एक अर्थ में, ब्रह्माण्ड के सृजन, पालन तथा संहार का हेतु बन जाता है। कुछ विद्वान जीव को भौतिक सृष्टि में निहित पुरुष मानते हैं जबकि अन्य उसे अव्यक्त आत्मा कहते हैं। |
|
श्लोक 19: परब्रह्म, जागरूकता की सभी अवस्थाओं—जागृत, सुप्त तथा सुषुप्ति—में, माया द्वारा प्रकट किये जाने वाली सारी घटनाओं में तथा सारे जीवों के कार्यों में उपस्थित रहते हैं। वे इन सबों से पृथक् होकर भी उपस्थित रहते हैं। इस तरह अपने ही अध्यात्म में स्थित, वे परम तथा अद्वितीय आश्रय हैं। |
|
श्लोक 20: यद्यपि भौतिक वस्तु विविध रूप तथा नाम धारण कर सकती है, किन्तु इसका मूलभूत अवयव सदैव इसके अस्तित्व का आधार बना रहता है। इसी तरह परब्रह्म अकेले तथा एकसाथ मिल कर, सदैव भौतिक शरीर की विभिन्न अवस्थाओं में, गर्भधारण से लेकर मृत्यु तक, उपस्थित रहता है। |
|
श्लोक 21: मनुष्य का मन या तो अपने आप से या नियमित आध्यात्मिक अभ्यास से जाग्रत, सुप्त तथा सुषुप्त अवस्थाओं में भौतिक स्तर पर कार्य करना बन्द कर देता है। तब वह परमात्मा को समझ पाता है और भौतिक प्रयास करना बन्द कर देता है। |
|
श्लोक 22: प्राचीन इतिहास में दक्ष मुनियों ने घोषित किया है कि अपने विविध लक्षणों के अनुसार, पुराणों को अठारह प्रधान पुराणों और अठारह गौण पुराणों में विभाजित किया जा सकता है। |
|
श्लोक 23-24: अठारह प्रधान पुराणों के नाम हैं—ब्रह्मा, पद्म, विष्णु, शिव, लिंग, गरुड़, नारद, भागवत, अग्नि, स्कन्द, भविष्य, ब्रह्मवैवर्त, मार्कण्डेय, वामन, वराह, मत्स्य, कूर्म तथा ब्रह्माण्ड पुराण। |
|
श्लोक 25: हे ब्राह्मण, मैंने तुमसे वेदों की शाखाओं के महामुनि व्यासदेव, उनके शिष्यों तथा शिष्यों के भी शिष्यों द्वारा किये गये विस्तार का भलीभाँति वर्णन किया है। जो इस कथा को सुनता है उसकी आध्यात्मिक शक्ति बढ़ जाती है। |
|
|
शेयर करें
 |