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श्लोक 2.8.13  |
कालस्यानुगतिर्या तु लक्ष्यतेऽण्वी बृहत्यपि ।
यावत्य: कर्मगतयो यादृशीर्द्विजसत्तम ॥ १३ ॥ |
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शब्दार्थ |
कालस्य—शाश्वत काल का; अनुगति:—प्रारम्भ; या तु—वे जिस रूप में; लक्ष्यते—अनुभव किये जाते हैं; अण्वी—लघु; बृहती—विशाल; अपि—भी; यावत्य:—जब तक; कर्म-गतय:—कर्म के अनुसार; यादृशी:—जिस प्रकार की; द्विज-सत्तम— हे ब्राह्मणों में शुद्धतम ।. |
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अनुवाद |
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हे ब्राह्मणश्रेष्ठ, कृपा करके मुझे काल की लघु तथा दीर्घ अवधियों एवं कर्म की प्रक्रिया के क्रम में काल के शुभारम्भ के विषय में भी बतलाएँ। |
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