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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 2: ब्रह्माण्ड की अभिव्यक्ति  »  अध्याय 8: राजा परीक्षित द्वारा पूछे गये प्रश्न  »  श्लोक 14
 
 
श्लोक  2.8.14 
यस्मिन् कर्मसमावायो यथा येनोपगृह्यते ।
गुणानां गुणिनां चैव परिणाममभीप्सताम् ॥ १४ ॥
 
शब्दार्थ
यस्मिन्—जिसमें; कर्म—कर्म; समावाय:—संग्रह; यथा—जहाँ तक; येन—जिससे; उपगृह्यते—ग्रहण करता है; गुणानाम्— विभिन्न गुणों का; गुणिनाम्—जीवों का; —भी; एव—निश्चय ही; परिणामम्—बची हुई, शेष; अभीप्सताम्—आकांक्षाओं का ।.
 
अनुवाद
 
 इसके आगे आप कृपा करके बताएँ कि किस प्रकार भौतिक प्रकृति के विभिन्न गुणों से उत्पन्न फलों का आनुपातिक संचय इच्छा करनेवाले जीव पर अपना प्रभाव दिखाते हुए उसे विभिन्न योनियों में—देवताओं से लेकर अत्यन्त क्षुद्र प्राणियों तक को—ऊपर उठाता या नीचे गिराता है।
 
तात्पर्य
 प्रकृति के भौतिक गुणों में समस्त कर्म और कर्मफल, लघु रुप में अथवा बृहद् रुप में, संचित होते रहते हैं और इस प्रकार इन संचित कर्मों के फल उसी अनुपात में प्रकट होते हैं। महाराज परीक्षित ब्राह्मणश्रेष्ठ शुकदेव गोस्वामी से पूछते हैं कि ये कर्म तथा उनके फल किस प्रकार घटित होते हैं, इसके लिए कौन सी विभिन्न विधियाँ हैं और वे किस अनुपात में कार्यशील होते हैं? उच्च लोक, जिन्हें स्वर्ग के देवों का धाम कहते हैं, अन्तरिक्षयान के बल पर नहीं (जैसी कि अब अनुभवहीन वैज्ञानिकों द्वारा कल्पना की जाती है), अपितु सात्विक कर्मों से प्राप्त किये जाते हैं। जिस लोक में हम अब रह रहे हैं उसमें भी जिस देश के लोग समृद्ध हैं उसके भीतर विदेशियों का प्रवेश प्रतिबन्धित है। उदाहरणार्थ, अमरीकी सरकार ने कम समृद्ध देशों से आने वाले विदेशियों के प्रवेश में अनेक प्रतिबन्ध लगा रखे हैं। इसका कारण यह है कि अमरीकी ऐसे किसी विदेशी के साथ अपनी सम्पन्नता में साझेदार नहीं बनना चाहते, जिन्होंने अपने आप को अमरीका के नागरिकों की भाँति योग्य नहीं बनाया है। यही मनोवृत्ति उन लोकों में पाई जाती है जहाँ के निवासी अधिक बुद्धिमान हैं। उच्च लोकों का रहन-सहन सतोगुणी है, अत: जो भी चन्द्र, सूर्य तथा शुक्र जैसे उच्चतर लोकों में प्रवेश करना चाहता है उसे सतोगुणी कर्मों द्वारा पूर्ण रूप से योग्य होना चाहिए।

महाराज परीक्षित के प्रश्न सतोगुणी कर्मों के अनुपात पर आधारित हैं जिनके कारण इस लोक का प्राणी ब्रह्माण्ड के उच्चतम लोकों में जाने के योग्य हो सकता है।

जिस लोक में हम रह रहे हैं उसमें भी जब तक कोई आनुपातिक रुप से उत्तम कर्म नहीं करता तब तक उसे समाज में अच्छा स्थान प्राप्त नहीं होता। कोई व्यक्ति उच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति की कुर्सी पर बिना उस पद के लिए योग्यता के बल-प्रयोग से नहीं बैठ सकता। इसी प्रकार जब तक इस जीवन में उत्तम कर्म नहीं किये जाते, तब तक उच्चतर लोकों में प्रविष्ट नहीं हुआ जा सकता। रजो तथा तमोगुणी व्यक्ति केवल इलेक्ट्रानिक यंत्रो के बल से उच्च लोकों में प्रवेश नहीं कर सकते।

भगवद्गीता (९.२५), के कथन के अनुसार जो लोग उच्चतर लोकों में जाने के लिए अपने को योग्य बनाते हैं, वे वहाँ पहुँच सकते हैं; इसी प्रकार जो लोग पितृलोक जाना चाहते हैं, वे वहाँ जा सकते हैं। ठीक इसी प्रकार से, इस पृथ्वी पर रह कर जो दशा सुधारना चाहते हैं, वे ऐसा कर सकते हैं और जो लोग भगवान् के धाम जाने के काम में लगे हैं, वे वैसा परिणाम पा सकते हैं। सतोगुण में सम्पन्न समस्त कर्म, भक्तियुक्त शुभ कर्म, भक्तियुक्त ज्ञान का अनुशीलन, भक्तियुक्त योग तथा (अन्त में) नितान्त शुद्ध भक्ति के नाम से जाने जाते हैं। यह शुद्ध भक्ति दिव्य होती है और परा भक्ति कहलाती है। केवल इसी के द्वारा ईश्वर के दिव्य धाम को पाया जा सकता है। ऐसा दिव्य धाम कोई पौराणिक कल्पना नहीं है, अपितु उतना ही वास्तविक है जितना कि चन्द्रमा। ईश्वर तथा ईश्वर के धाम को समझने के लिए मनुष्य मेंं दिव्य गुण होने चाहिए।

 
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