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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 2: ब्रह्माण्ड की अभिव्यक्ति  »  अध्याय 8: राजा परीक्षित द्वारा पूछे गये प्रश्न  »  श्लोक 23
 
 
श्लोक  2.8.23 
यथात्मतन्त्रो भगवान् विक्रीडत्यात्ममायया ।
विसृज्य वा यथा मायामुदास्ते साक्षिवद् विभु: ॥ २३ ॥
 
शब्दार्थ
यथा—जिस तरह; आत्म-तन्त्र:—स्वतन्त्र; भगवान्—श्रीभगवान्; विक्रीडति—लीला करते हैं; आत्म-मायया—अपनी अन्तरंगा शक्ति से; विसृज्य—त्याग कर; वा—भी; यथा—वे जिस प्रकार चाहते हैं; मायाम्—बहिरंगा शक्ति; उदास्ते—रहता है; साक्षिवत्—साक्षी की तरह; विभु:—सर्वशक्तिमान ।.
 
अनुवाद
 
 स्वतन्त्र भगवान् अपनी अन्तरंगा शक्ति से अपनी लीलाओं का आस्वादन करते हैं और प्रलय के समय वे इन्हें बहिरंगा शक्ति को प्रदान कर देते हैं और स्वयं साक्षी रूप में बने रहते हैं।
 
तात्पर्य
 भगवान् श्रीकृष्ण पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान होने तथा समस्त अन्य अवतारों के स्रोत होने के कारण वे ही एकमात्र स्वतन्त्र पुरुष हैं। वे अपनी इच्छानुसार सृष्टि द्वारा लीलाओं का आस्वादन करते हैं और प्रलय के समय इन्हें बहिरंगा शक्ति को प्रदान कर देते हैं। केवल अन्तरंगा शक्ति से ही वे पूतना का वध करते हैं, यद्यपि वे माता यशोदा की गोद में लीलाएँ करते हैं। जब वे इस संसार से प्रयाण करना चाहते हैं, तो वे अपने ही वंश (यदु-कुल) के संहार की लीला रचाते हैं और ऐसे विनाश से अप्रभावित बने रहते हैं। जो कुछ घटित हो रहा है, वे उसके साक्षी हैं, तो भी उससे उन्हें कुछ लेना देना नहीं। वे सब प्रकार से स्वतन्त्र हैं। शुद्ध भक्त को यह सब अच्छी तरह जानना चाहिए इसीलिए महाराज परीक्षित ने पूरी तरह जान लेने की जिज्ञासा प्रकट की।
 
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