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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 2: ब्रह्माण्ड की अभिव्यक्ति  »  अध्याय 8: राजा परीक्षित द्वारा पूछे गये प्रश्न  »  श्लोक 24
 
 
श्लोक  2.8.24 
सर्वमेतच्च भगवन् पृच्छतो मेऽनुपूर्वश: ।
तत्त्वतोऽर्हस्युदाहर्तुं प्रपन्नाय महामुने ॥ २४ ॥
 
शब्दार्थ
सर्वम्—ये सब; एतत्—प्रश्न; —न पूछ सकने के कारण भी; भगवन्—हे ऋषि; पृच्छत:—जिज्ञासु का; मे—मैं स्वयं; अनुपूर्वश:—प्रारम्भ से; तत्त्वत:—सत्य के अनुसार; अर्हसि—कृपा करके बताएँ; उदाहर्तुम्—जैसे आप बताएँगे; प्रपन्नाय— घिरा हुआ; महा-मुने—हे ऋषि! ।.
 
अनुवाद
 
 हे भगवान् के प्रतिनिधिस्वरूप महर्षि, आप मेरी उन समस्त जिज्ञासाओं को जिनके विषय में मैंने आपसे प्रश्न किये हैं तथा उनके विषय में भी जिन्हें मैं जिज्ञासा करने के प्रारंभ से प्रस्तुत नहीं कर सका, उनके बारे में कृपाकरके जिज्ञासा शान्त कीजिये। चूँकि मैं आपकी शरण में आया हूँ, अत: मुझे इस सम्बन्ध में पूर्ण ज्ञान प्रदान करें।
 
तात्पर्य
 गुरु अपने शिष्य को ज्ञान प्रदान करने के लिए सदैव उद्यत रहता है, विशेष रूप से तब जबकि शिष्य अत्यन्त उत्सुक हो। प्रगतिशील शिष्य के लिए उत्सुकता बनाए रखना अत्यावश्यक है। महाराज परीक्षित विलक्षण शिष्य थे, क्योंकि वे नितान्त उत्सुक थे। यदि कोई आत्म-साक्षात्कार के लिए अत्यधिक उत्सुक नहीं होता, तो केवल शिष्यता दिखाने के लिए गुरु के पास नहीं जाना चाहिए। महाराज परीक्षित न केवल जो कुछ उन्होंने पूछा है उसके विषय में जानने के उत्सुक हैं, वरन् जो कुछ वे नहीं पूछ पाये, उसके विषय में भी जानने के लिए उत्सुक हैं। वस्तुत: मनुष्य के लिए गुरु से हर एक बात पूछना संभव नहीं है, किन्तु प्रामाणिक गुरु सब प्रकार से शिष्य के लाभ हेतु उसे प्रकाश दे सकता है।
 
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  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥