हे विद्वान ब्राह्मण, अच्युत भगवान् की कथा के अमृत का, जो आपकी वाणी रूपी समुद्र से बह रहा है, मेरे द्वारा पान करने से मुझे उपवास रखने के कारण किसी प्रकार की कमजोरी नहीं लग रही।
तात्पर्य
ब्रह्मा, नारद, व्यास तथा शुकदेव गोस्वामी की शिष्य-परम्परा अन्यों से विशेष रूप से भिन्न है। अन्य मुनियों की शिष्य-परम्पराएँ समय की बरबादी जैसी हैं, क्योंकि वे अच्युत कथा से विहीन हैं। कारण तथा तर्क के द्वारा चिन्तक अपने-अपने सिद्धान्तों को अच्छी तरह से प्रस्तुत कर सकते हैं, किन्तु ये कारण तथा तर्क अचूक नहीं होते, क्योंकि उनसे उत्तम अन्य चिन्तकों द्वारा वे परास्त कर दिये जाते हैं। महाराज परीक्षित को चंचल मन के शुष्क चिन्तन के प्रति तनिक भी रुचि नहीं थी, वे तो भगवद्कथा में रुचि रखते थे, क्योंकि उन्हें लगा कि शुकदेव गोस्वामी के मुख से ऐसी अमृतकथा सुनने के कारण उन्हें कमजोरी का अनुभव नहीं हो रहा था, यद्यपि वे आसन्न मृत्यु के कारण अनशन कर रहे थे।
कोई चाहे तो ऐसे चिन्तकों को सुन सकता है, किन्तु दीर्घकाल तक ऐसा नहीं चल पाता। मनुष्य ऐसे घिसे-पिटे चिन्तन को सुनकर शीघ्र ही ऊब उठेगा और संसार का कोई भी व्यक्ति ऐसे व्यर्थ के चिन्तन को सुनकर तुष्टि नहीं पाता। शुकदेव गोस्वामी जैसे महापुरुष से भगवान् की कथा सुनते हुए कोई थकेगा नहीं, भले ही अन्य कारणों से वह क्षीण क्यों न हो चुका हो।
श्रीमद्भागवत के कुछ संस्करणों में इस श्लोक की अन्तिम पंक्ति का पाठ इस प्रकार है—अन्यत्र कुपिताद् द्विजात् जिसका अर्थ है कि राजा सर्पदंश के कारण सन्निकट मृत्यु के विचार से भाव-विह्वल हो सकता है। सर्प भी द्विजन्मा होता है और इसका क्रोध अज्ञानी ब्राह्मण बालक के शाप के तुल्य माना जाता है। महाराज परीक्षित मृत्यु से बिल्कुल भयभीत नहीं थे, क्योंकि उन्हें भगवत्कथा से पूर्ण रूप से प्रेरणा प्राप्त हो चुकी थी। जो अच्युत कथा में पूर्ण रूप से निमग्न रहता है, वह इस जगत में किसी से भयभीत नहीं हो सकता।
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