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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 2: ब्रह्माण्ड की अभिव्यक्ति  »  अध्याय 8: राजा परीक्षित द्वारा पूछे गये प्रश्न  »  श्लोक 7
 
 
श्लोक  2.8.7 
यदधातुमतो ब्रह्मन् देहारम्भोऽस्य धातुभि: ।
यद‍ृच्छया हेतुना वा भवन्तो जानते यथा ॥ ७ ॥
 
शब्दार्थ
यत्—क्योंकि; अधातु-मत:—भौतिक रूप से निर्मित न होते हुए; ब्रह्मन्—हे विद्वान ब्राह्मण; देह—भौतिक शरीर; आरम्भ:— शुभारम्भ; अस्य—जीव का; धातुभि:—पदार्थ से; यदृच्छया—अकारण, आकस्मिक; हेतुना—किसी कारण से; वा—अथवा; भवन्त:—आप; जानते—जैसा जानते हों; यथा—उसी रूप में मुझे बताएँ ।.
 
अनुवाद
 
 हे विद्वान ब्राह्मण, दिव्य आत्मा भौतिक देह से पृथक् है। तो फिर क्या उसे (आत्मा को) किसी कारणवश या अकस्मात् ही देह की प्राप्ति होती है? आपको यह ज्ञात है, अत: कृपा करके मुझे समझाइये।
 
तात्पर्य
 विशिष्ट भक्त होने के कारण महाराज परीक्षित शिष्य-पराम्परा से ब्रह्माजी के प्रतिनिधी द्वारा श्रीमद्भागवत सुनने के महत्त्व की पुष्टि से ही सन्तुष्ट नहीं होते वरन् वे श्रीमद्भागवत के दार्शनिक आधार को भी स्थापित करना चाहते हैं। श्रीमद्भागवत पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान विषयक तत्त्व-ज्ञान है, अत: किसी जिज्ञासु के मन में इसके विषय में जितने भी प्रश्न उठें, उनका स्पष्टीकरण प्रामाणिक कथनों के द्वारा होना चाहिए। भक्ति-मय सेवा के पथ का पथिक ईश्वर तथा जीव विषयक सारी जिज्ञासाएँ अपने गुरु के समक्ष रख सकता है। भगवद्गीता के साथ ही साथ श्रीमद्भागवत से यह स्पष्ट है कि भगवान् तथा जीव गुणात्मक रूप से एक हैं। भौतिक संसार में बद्ध अवस्था में होने के कारण, जीव भौतिक शरीर का निरन्तर देहान्तरण करता हुआ अनेक योनियों में जाता रहता है। किन्तु भगवान् के अंश द्वारा शरीर धारण करने के कारण कौन-कौन से हैं? महाराज परीक्षित, आत्म-साक्षात्कार के पथ तथा भगवान् की भक्ति में अग्रसर होने वाले समस्त वर्गों के प्राणियों के हेतु इस महत्त्वपूर्ण विषय के सम्बन्ध में जिज्ञासा व्यक्त कर रहे हैं।

अप्रत्यक्ष रूप से इसकी पुष्टि होती है कि परमात्मा शरीर को इस प्रकार बदलता नहीं रहता। आध्यात्मिक दृष्टि से वह पूर्ण है और बद्ध-जीवों के विपरीत उसके शरीर तथा आत्मा में कोई अन्तर नहीं होता। मुक्त जीव, जो सदेह भगवान् के साथ रहते हैं, भगवान् के ही समान होते हैं। केवल वे बद्धजीव अपना शरीर बदलते हैं, जो मुक्ति की प्रतीक्षा में हैं, किन्तु यह क्रिया सर्वप्रथम किस प्रकार प्रारम्भ हुई? भक्तियोग में प्रथम सोपान गुरु की शरण ग्रहण करना और फिर भक्ति के विषय में गुरु से जिज्ञासा करना है। ऐसी जिज्ञासा अनिवार्य है, जिससे भक्तिमार्ग में होने वाले समस्त प्रकार के अपराधों के प्रति निश्चेष्टता बनी रहे। महाराज परीक्षित की भाँति भक्ति में स्थित होते हुए भी भक्त को आत्मसिद्ध गुरु से इसके विषय में जिज्ञासा करनी चाहिए। दूसरे शब्दों में, गुरु को भी अत्यन्त सक्षम एवं पारंगत होना चाहिए जिससे वह भक्तों की इन समस्त जिज्ञासाओं को शमित कर सके। अत: जो प्रामाणिक शास्त्रों में दक्ष न हो और इन संगत जिज्ञासाओं का उत्तर देने में समर्थ न हो, उसे भौतिक लाभ के लिए गुरु बनने का स्वाँग नहीं करना चाहिए। जो शिष्य का उद्धार करने में असमर्थ हो उसका गुरु बनना है।

 
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