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श्लोक 3.18.14  |
सृजन्नमर्षित: श्वासान्मन्युप्रचलितेन्द्रिय: ।
आसाद्य तरसा दैत्यो गदयान्यहनद्धरिम् ॥ १४ ॥ |
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शब्दार्थ |
सृजन्—निकालते हुए; अमर्षित:—अत्यन्त क्रुद्ध; श्वासान्—साँसें; मन्यु—क्रोध से; प्रचलित—विक्षुब्ध; इन्द्रिय:— जिसकी इन्द्रियाँ; आसाद्य—आक्रमण करके; तरसा—शीघ्रता से; दैत्य:—असुर; गदया—गदा से; न्यहनत्—वार किया; हरिम्—भगवान् हरि पर ।. |
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अनुवाद |
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क्रोध के मारे सारे अंगों को कँपाते तथा फुफकारता हुआ वह राक्षस तुरन्त भगवान् के ऊपर झपट पड़ा और उस ने अपनी शक्तिशाली गदा से उन पर प्रहार किया। |
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