कर्दम मुनि ने सम्राट स्वायंभुव से अत्यन्त सुन्दरी पत्नी के लिए अपनी इच्छा व्यक्त की और सम्राट की पुत्री से विवाह करना स्वीकार कर लिया। कर्दम मुनि आश्रम में रहकर पूर्ण ब्रह्मचर्य का पालन कर रहे थे। यद्यपि उसके मन में विवाह करने की इच्छा थी, किन्तु वे आजीवन गृहस्थ जीवन भी नहीं बिताना चाह रहे थे, क्योंकि वे मनुष्य जीवन के वैदिक सिद्धान्तों से पूर्णतया भिज्ञ थे। वैदिक सिद्धान्तों के अनुसार जीवन के प्रारम्भिक भाग को चरित्र (शील) तथा गुणों के विकास के उद्देश्य से ब्रह्मचर्य में बिताना चाहिए। जीवन के बाद वाले भाग में वह विवाह करके सन्तान उत्पन्न कर सकता है, किन्तु मनुष्य को चाहिए कि कुत्तों-बिल्लियों की भाँन्ति सन्तान उत्पन्न न करे। कर्दम मुनि ऐसी संतान उत्पन्न करना चाहते थे, जो पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् की एक किरण हो। मनुष्य को चाहिए कि ऐसी सन्तान उत्पन्न करे जो भगवान् विष्णु की सेवा कर सके, अन्यथा कोई सन्तान न जने। उत्तम पिता के दोनों प्रकार की सन्तानें उत्पन्न होती हैं—एक तो वे जो कृष्णभक्ति में प्रशिक्षित हों जिससे उसी जीवन में माया के बंधन से मुक्त हो सकें और दूसरी जो पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् की किरण होती हैं, जो विश्व भर को जीवन के परम लक्ष्य की शिक्षा देती हैं। आगे के अध्यायों में बताया जाएगा कि कर्दम मुनि के ऐसा ही पुत्र, कपिल, उत्पन्न हुआ जो भगवान् का अवतार था और जिसने सांख्य-दर्शन का प्रतिपादन किया। बड़े बड़े गृहस्थ भगवान् से प्रार्थना करते रहते हैं कि वे अपना प्रतिनिधि भेजें जिससे मानव समाज में एक कल्याणकारी अभियान चलने लगे। सन्तान उत्पन्न करने का एक कारण यह है। दूसरा कारण यह है कि अत्यन्त प्रबुद्ध माता-पिता अपनी सन्तान को कृष्णभक्ति की शिक्षा देते हैं जिससे इस दुखमय संसार में उसका फिर से आना न हो। माता-पिता का यह उत्तरदायित्व है कि बच्चे को फिर से किसी माँ के गर्भ में न लौटना पड़े। यदि इसी जीवन में बच्चे को मुक्ति की शिक्षा नहीं दी जाती तो न तो ब्याह करने की और न सन्तान उत्पन्न करने की आवश्यकता है। यदि मानव समाज में सामाजिक व्यवस्था को भंग करने के लिए कुत्ते-बिल्लियों की तरह सन्तानें उत्पन्न की जावें तो यह संसार नरक बन जायेगा जैसाकि इस कलियुग में हो रहा है। इस युग में न तो माता-पिता, न ही सन्तानें प्रशिक्षित हैं। दोनों ही पशु सदृशहैं और वे केवल खाते, सोते, संभोग करते, रक्षा करते और अपनी इन्द्रियों को ही तुष्टि देते हैं। सामाजिक जीवन की इस अव्यवस्था से मानव समाज में शान्ति नहीं लाई जा सकती। कर्दम मुनि ने पहले ही यह बता दिया कि वे देवहूति के साथ आजीवन नहीं रह पावेंगे। वे उसके साथ तभी तक रहेंगे जब तक कोई सन्तान उत्पन्न नहीं हो जाती। दूसरे शब्दों में, विषयी जीवन का सदुपयोग उत्तम सन्तान उत्पन्न करने में होना चाहिए, अन्य किसी कार्य के लिए नहीं। मनुष्य जीवन भगवान् की पूर्ण भक्ति करने के लिए है। यही भगवान् चैतन्य का दर्शन है।
उत्तम सन्तान उत्पन्न करने के बाद मनुष्य को संन्यास ग्रहण करना चाहिए और सिद्धि की परमहंस अवस्था प्राप्त करनी चाहिए। परमहंस जीवन की सर्वोच्च सिद्धि की अवस्था है। संन्यास जीवन में चार अवस्थाएँ होती हैं जिनमें परमहंस सर्वोच्च अवस्था है। श्रीमद्भागवत को परमहंस संहिता कहते हैं, जो उच्च श्रेणी के मनुष्यों के हेतु ग्रंथ है। परमहंस द्वेषमुक्त होता है। अन्य अवस्थाओं में, यहाँ तक गृहस्थ जीवन में भी स्वार्थ और द्वेष पाया जाता है, किन्तु परमहंस अवस्था में मनुष्य कृष्णभावनामृत में पूर्णतया अनुरक्त रहता है, अत: द्वेष के लिए कोई स्थान नहीं रहता। कर्दम मुनि की ही तरह लगभग १०० वर्ष पूर्व ठाकुर भक्तिविनोद भी ऐसा पुत्र उत्पन्न करना चाहते थे, जो भगवान् चैतन्य के दर्शन तथा उपदेशों का प्रचार कर सके। भगवत्कृपा से उनके एक पुत्र हुआ जिनका नाम भक्तिसिद्धान्त सरस्वती गोस्वामी महाराज था, जो सम्प्रति पूरे विश्व में अपने प्रामाणिक शिष्यों की सहायता से भगवान् चैतन्य के दर्शन का उपदेश दे रहे हैं।