मेरे लिए तो सर्वोच्च अधिकारी अनन्त श्रीभगवान् हैं जिनसे यह विचित्र सृष्टि उद्भूत होती है और जिन पर इसका भरण तथा विलय आश्रित है। वे उन समस्त प्रजापतियों के मूल हैं, जो इस संसार में जीवात्माओं को उत्पन्न करने वाले महापुरुष हैं।
तात्पर्य
कर्दम मुनि के पिता प्रजापति ने उन्हें सन्तान उत्पन्न करने का आदेश दिया था। सृष्टि के प्रारम्भ में प्रजापतियों का कार्य अनेक सन्तानों को जन्म देना था, जो इस विराट ब्रह्माण्ड लोकों में बस सकें। किन्तु कर्दम मुनि ने कहा कि यद्यपि मेरे पिता प्रजापति हैं, जिन्होंने मुझे सन्तानें उत्पन्न करने का आदेश दिया है, किन्तु वास्तव में उनके मूल पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् विष्णु ही हैं, क्योंकि भगवान् विष्णु ही सबों के मूल हैं। वे ही इस ब्रह्माण्ड के असली सृजनकर्ता हैं, वे ही इसके पालक हैं और जब प्रत्येक वस्तु विनष्ट हो जाती है, तो यह उन्हीं पर आश्रित रहता है। श्रीमद्भागवत का यही निष्कर्ष है। सृष्टि, पालन तथा संहार के तीन देवता ब्रह्मा, विष्णु तथा महेश्वर (शिव) हैं, किन्तु ब्रह्मा तथा महेश्वर तो विष्णु के गुणात्मक अंश हैं। विष्णु मध्यवर्ती स्वरूप हैं, फलत: वे पालन का भार ग्रहण करते हैं। उनके अतिरिक्त अन्य कोई समस्त सृष्टि का पालन नहीं कर सकता। जीव असंख्य हैं और उनकी आवश्यकताएँ भी अनन्त हैं। विष्णु के अतिरिक्त इन असंख्य जीवों की अनन्त आवश्यकताओं को कोई अन्य पूरा नहीं कर सकता। ब्रह्मा को सृष्टि करने तथा शिव को संहार करने का आदेश दिया गया है। बीच का कार्य, जो पालन का है, वह विष्णु के जिम्मे है। कर्दम मुनि अपने प्रगतिशील आत्म जीवन के कारण भलीभाँति जान रहे थे कि श्रीभगवान् विष्णु ही एकमात्र पूज्य विग्रह हैं। जो कुछ विष्णु चाहते हैं वही करणीय है। इसके अतिरिक्त और कुछ नहीं। वे अनेक सन्तानें उत्पन्न करने के लिए उद्यत न थे। वे एक ही पुत्र उत्पन्न करना चाहते थे, जो विष्णु के सन्देश का संवाहक बने। जैसाकि भगवद्गीता में कहा गया है, कि जब-जब धर्म की हानि होती है तब तब धर्म की रक्षा के लिए तथा असुरों के विनाश के लिए भगवान् इस पृथ्वी पर अवतरित होते हैं।
ब्याह करके सन्तान उत्पन्न करने से मनुष्य जिस परिवार में उत्पन्न होता है उसके ऋण-भार से वह मुक्त होता है। ऐसे अनेक ऋण हैं, जो सन्तान के जन्म के पश्चात् उस पर लाद दिये जाते हैं। इसके अतिरिक्त परिवार, देवता, पितर, ऋषि आदि के प्रति भी ऋण होते हैं। किन्तु यदि कोई श्रीभगवान् की ही सेवा में अपने को अनुरक्त रखता है, तो अन्य ऋणों को चुकाये बिना ही वह समस्त ऋणों से मुक्त हो जाता है। कर्दम मुनि ने भगवान् की सेवा में दास के रूप में परमहंस बनकर जीवन अर्पित करना और उसी उद्देश्य के लिए पुत्र उत्पन्न करना श्रेयस्कर समझा। वे विश्व के रिक्त-स्थानों को पूरा भरने के लिए अनेक सन्तानें उत्पन्न करना नहीं चाह रहे थे।
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