मानव समाज असल में कृष्णभावनामृत में पूर्णता प्राप्त करने के निमित्त है। इसमें अपनी पत्नी तथा सन्तान के साथ रहने पर कोई प्रतिबन्ध नहीं है, किन्तु जीवनपद्धति ऐसी हो कि मनुष्य धर्म, अर्थ, काम तथा मोक्ष के विपरीत न जाने पाए। वैदिक नियम इस प्रकार बनाये गये हैं कि बद्ध आत्मा जो इस संसार में आये हैं भौतिक इच्छाओं को पूरा करने में उनका मार्गदर्शन हो और साथ ही साथ मुक्त होकर भगवान् के धाम अर्थात् घर को वापस जा सकें। ऐसा ज्ञात होता है कि स्वायंभुव मनु इन नियमों का पालन करते हुए गृहस्थ जीवन का आनन्द उठा रहे थे। यहाँ यह उल्लेख है कि नित्य प्रात:काल गायकवृन्द वाद्य-संगीत के साथ भगवान् के यश का गान करते थे और सम्राट सपरिवार परमेश्वर की लीलाओं का श्रवण करते थे। भारत के कुछ मन्दिरों तथा राजपरिवारों में आज भी यह प्रथा प्रचलित है जहाँ वृत्तिक गवैये शहनाई बजाते हैं और घर के लोग प्रमुदित वातावरण में नींद से उठते हैं। सोते समय भी गवैये शहनाई के साथ भगवान् की लीलाओं का गान करते हैं और घर के लोग भगवान् का स्मरण करते हुए सोते हैं। ऐसे गायन कार्यक्रम के अतिरिक्त प्रत्येक घर में संध्या समय भागवत उपदेश की व्यवस्था रहती है, परिवार के सभी सदस्य बैठते हैं, हरेकृष्ण कीर्तन करते हैं, श्रीमद्भागवत तथा भगवद्गीता के उपदेश सुनते हैं और सोने के पूर्व संगति का आनन्द उठाते हैं। ऐसे संकीर्तन से उत्पन्न वातावरण उनके मस्तिष्कों में बना रहता है और सोते हुए भी वे ऐसे ही संगति एवं भगवान की लीलाओं के स्वप्न देखते हैं। इस प्रकार से कृष्णभावनामृत में सिद्धि प्राप्त की जा सकती है। यह प्रथा अत्यन्त प्राचीन है, जैसाकि भागवत के इस श्लोक से ज्ञात होता है। लाखों वर्ष पूर्व स्वायंभुव मनु ने गृहस्थ जीवन में शान्ति एवं कृष्णभावनामृत के वातावरण में रहने के लिए इस सुअवसर का लाभ उठाया था।
जहाँ तक मन्दिरों का प्रश्न है, प्रत्येक राजमहल में या धनी व्यक्ति के घर में निश्चित रूप से एक सुन्दर मन्दिर रहता है जहाँ परिवार के सभी लोग प्रात:काल जाकर मंगलारात्रि का उत्सव देखते हैं। यह उत्सव प्रथम प्रात:कालीन पूजा होती है। आरात्रिका उत्सव में देवताओं के समक्ष आरती की जाती हैं, शंख बजाये जाते हैं और पुष्प अर्पित करके पंखा झला जाता है। ऐसा माना जाता है कि भगवान् भोर होते जगकर कुछ नाश्ता करते हैं और भक्तों को दर्शन देते हैं। तब भक्तगण अपने-अपने घर चले जाते हैं, अथवा मन्दिर में ही भगवान् के गुणों का गायन करते रहते हैं। अब भी भारतीय मन्दिरों तथा महलों में प्रात:काल का उत्सव सम्पन्न होता है। मन्दिर सामान्य लोगों के एकत्र होने के स्थान होते हैं। महलों के भीतर बने मन्दिर राजपरिवारों के लिए होते हैं, किन्तु इनमें से कई मन्दिरों में जनता को भी जाने दिया जाता है। जयपुर नरेश के महल के भीतर मन्दिर बना है, किन्तु उसमें जनता को जाने दिया जाता है और वहाँ सदैव कम से कम पाँच सौ भक्त एकत्र मिलेंगे। मंगलारात्रिका उत्सव के पश्चात् वे विविध वाद्ययन्त्रों के द्वारा भगवान् का यशोगान करते हैं और इस प्रकार जीवन का आनन्द लूटते हैं। भगवद्गीता में भी राजपरिवार द्वारा मन्दिर पूजा का वर्णन हुआ है, जिसमें यह कहा गया है कि जो इस जीवन में भक्तियोग में असफल होते हैं उन्हें अगले जन्म में किसी धनी परिवार में या राजपरिवार में अथवा विद्वान ब्राह्मणों या भक्तों के परिवार में जन्म लेने का अवसर प्रदान किया जाता है। यदि उसे इन परिवारों में जन्म ग्रहण करने का सुयोग प्राप्त होता है, तो उसे बिना किसी कठिनाई के कृष्णभावनामृत का वातावरण प्राप्त कर सकता है। कृष्णभावनाभावित वातावरण में उत्पन्न बालक निश्चित रूप से कृष्ण-भक्त बनता है। जिस सिद्धि को वह पिछले जन्म में नहीं प्राप्त कर सका था उसे इस जीवन में अवसर दिया जाता है और निश्चिच उसे सिद्धि मिल सकती है।