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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 3: यथास्थिति  »  अध्याय 23: देवहूति का शोक  »  श्लोक 53
 
 
श्लोक  3.23.53 
एतावतालं कालेन व्यतिक्रान्तेन मे प्रभो ।
इन्द्रियार्थप्रसङ्गेन परित्यक्तपरात्मन: ॥ ५३ ॥
 
शब्दार्थ
एतावता—इतना; अलम्—व्यर्थ ही; कालेन—समय; व्यतिक्रान्तेन—बीतने पर; मे—मेरा; प्रभो—हे स्वामी; इन्द्रिय- अर्थ—इन्द्रिय-तृप्ति; प्रसङ्गेन—रतिक्रीड़ा में; परित्यक्त—परवाह न करके, उपेक्षा करके; पर-आत्मन:—परमेश्वर का ज्ञान ।.
 
अनुवाद
 
 अभी तक हमने अपना सारा समय परमेश्वर के ज्ञान के अनुशीलन की उपेक्षा करके इन्द्रियतृप्ति में ही व्यर्थ गँवाया है।
 
तात्पर्य
 मनुष्य जीवन पशुओं की तरह इन्द्रियतृप्ति के कार्य में बिताने के लिए नहीं है। पशु सदैव इन्द्रियतृप्ति में—आहार, निद्रा, भय तथा मैथुन में—लगे रहते हैं, किन्तु यह मनुष्यों का व्यापार नहीं है, यद्यपि भौतिक देह पाने के कारण इन्द्रियतृप्ति की उन्हें भी आवश्यकता रहती है किन्तु नियामक सिद्धान्तों के अनुसार। अत:, वास्तव में देवहूति ने अपने पति से यह कहा, “अभी तक हमारे ये पुत्रियाँ ही हैं और हमने सारे ब्रह्माण्ड की यात्रा करते हुए हवाई प्रासाद में सुखोपभोग किया है। आपकी कृपा से ही ये सारे वर प्राप्त हुए हैं, किन्तु वे सब इन्द्रियतृप्ति के हेतु थे। अब मुझे आत्मिक उन्नति के लिए कुछ चाहिए।”
 
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  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥