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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 3: यथास्थिति  »  अध्याय 25: भक्तियोग की महिमा  »  श्लोक 12
 
 
श्लोक  3.25.12 
मैत्रेय उवाच
इति स्वमातुर्निरवद्यमीप्सितं
निशम्य पुंसामपवर्गवर्धनम् ।
धियाभिनन्द्यात्मवतां सतां गति-
र्बभाष ईषत्स्मितशोभितानन: ॥ १२ ॥
 
शब्दार्थ
मैत्रेय: उवाच—मैत्रेय ने कहा; इति—इस प्रकार; स्व-मातु:—अपनी माता की; निरवद्यम्—कल्मषहीन; ईप्सितम्— इच्छा को; निशम्य—सुनकर; पुंसाम्—लोगों के; अपवर्ग—मोक्ष; वर्धनम्—बढ़ते हुए; धिया—मानसिक रूप से; अभिनन्द्य—धन्यवाद देकर; आत्म-वताम्—आत्म-साक्षात्कार में रुचि रखने वाले, आत्मज्ञ; सताम्—सत्यपुरुष, गुणातीतवादी; गति:—पथ, मार्ग; बभाषे—कह सुनाया; ईषत्—कुछ-कुछ; स्मित—हँसते हुए; शोभित—सुन्दर; आनन:—मुखमण्डल ।.
 
अनुवाद
 
 मैत्रेय ने कहा : दिव्य साक्षात्कार के लिए अपनी माता की कल्मषरहित इच्छा को सुनकर भगवान् ने मन-ही-मन उनके प्रश्नों के लिए धन्यवाद दिया और इस प्रकार मुस्कान-युत मुख से उन्होंने आत्म-साक्षात्कार में रुचि रखने वाले अध्यात्मवादियों के मार्ग की व्याख्या की।
 
तात्पर्य
 देवहूति ने भवबन्धन अपने उलझे होने की स्वीकृति तथा उससे छुटकारे की इच्छा से आत्म-समर्पण कर दिया। जो लोग भवबन्धन से मोक्ष पाने के इच्छुक हैं और मानव जीवन की पूर्णता की अवस्था प्राप्त करना चाहते हैं उनके लिए देवहूति द्वारा कपिल से पूछे गये प्रश्न अत्यन्त रोचक हैं। जब तक कोई अपने आध्यात्मिक जीवन या अपनी स्वाभाविक स्थिति को समझने में रुचि नहीं रखता और जब तक इस संसार में असुविधा का अनुभव नहीं करता, तब तक उसका मनुष्य जीवन वृथा जाता है। जो जीवन की इन दिव्य आवश्यकताओं की परवाह न करके पशु की भाँति खाने, सोने, डरने तथा संभोग करने में लगा रहता है, वह अपना जीवन गँवा देता है। भगवान् कपिल अपनी माता के प्रश्नों से अत्यधिक प्रसन्न थे, क्योंकि उनके उत्तर संसार के बद्धजीवन से मुक्ति की इच्छा को जागरित करने वाले हैं। ऐसे प्रश्न अपवर्ग वर्धनम् कहलाते हैं। जिनमें वास्तविक आध्यात्मिक रुचि होती है वे सत् अथवा भक्त कहलाते हैं। सतां प्रसङ्गात्। सत् का अर्थ है “जिसका शाश्वत अस्तित्व है” और असत् का अर्थ है “जो शाश्वत नहीं है।” जब तक मनुष्य आध्यात्मिक स्थिति (पद) को प्राप्त नहीं होता वह सत् नहीं होता; वह असत् है। असत् ऐसी स्थिति में रहता है, जिसका अस्तित्व नहीं होता और जो भी आध्यात्मिक स्थिति पर होता है उसका अस्तित्व शाश्वत होता है। आत्मा के रूप में प्रत्येक व्यक्ति का अस्तित्व शाश्वत है, किन्तु असत् तो भौतिक जगत को अपना आश्रय बनाता है, फलत: वह चिन्ता से पूर्ण रहता है। असद्-ग्राहान् जो आत्मा पदार्थ को भोगने का झूठा विचार रखे उसकी असंगत स्थिति उसके असत् होने का कारण है। वास्तव में, आत्मा असत् नहीं है। ज्योंही मनुष्य इस तथ्य के प्रति सचेत हो जाता है और वह कृष्णभावनामृत अपना लेता है, तो वह सत् बन जाता है। सतां गति: या नित्य का मार्ग उन व्यक्तियों के लिए अत्यन्त रुचिकर है, जो मुक्ति चाहते हैं और भगवान् कपिल ने इसी मार्ग के विषय में कहना प्रारम्भ किया।
 
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