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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 3: यथास्थिति  »  अध्याय 25: भक्तियोग की महिमा  »  श्लोक 21
 
 
श्लोक  3.25.21 
तितिक्षव: कारुणिका: सुहृद: सर्वदेहिनाम् ।
अजातशत्रव: शान्ता: साधव: साधुभूषणा: ॥ २१ ॥
 
शब्दार्थ
तितिक्षव:—सहनशील; कारुणिका:—दयालु; सुहृद:—सुहृद; सर्व-देहिनाम्—समस्त जीवों के; अजात-शत्रव:— किसी के प्रति शत्रुता न रखने वाले; शान्ता:—शान्त; साधव:—शास्त्रों के अनुसार चलने वाले; साधु-भूषणा:— अलौकिक गुणों से भूषित ।.
 
अनुवाद
 
 साधु के लक्षण हैं कि वह सहनशील, दयालु तथा समस्त जीवों के प्रति मैत्री-भाव रखता है। उसका कोई शत्रु नहीं होता, वह शान्त रहता है, वह शास्त्रों का पालन करता है और उसके सारे गुण अलौकिक होते हैं।
 
तात्पर्य
 जैसाकि ऊपर कहा गया है, साधु भगवान् का भक्त होता है, अत: उसका मुख्य कार्य लोगों में भगवान् की भक्ति जगाना है। यही उसकी दया है। वह जानता है कि भगवान् की भक्ति के बिना मनुष्य-जीवन चौपट हो जाता है। भक्त संसार भर में भ्रमण करके द्वार-द्वार जाकर उपदेश देता है, “कृष्ण-भक्त बनो, अपनी पाशविक प्रवृत्तियों को ही पूरा करने में अपना जीवन नष्ट न करो। यह मानव जीवन आत्म-साक्षात्कार या कृष्ण भक्ति के लिए है।” ये ही साधु के उपदेश हैं। वह अपने मोक्ष से सन्तुष्ट नहीं होता। वह सदैव दूसरों के विषय में सोचता रहता है। वह समस्त पतितात्माओं के प्रति अत्यन्त दयालु व्यक्ति होता है। अत: उसका एक गुण है—कारुणिकता—पतितात्माओं के प्रति दया। उपदेश कार्य करते हुए उसे अनेक विरोधी तत्त्वों का सामना करना पड़ता है, अत: साधु या भगवद्भक्तों को अत्यन्त सहनशील या सहिष्णु होना पड़ता है। कोई व्यक्ति उसके साथ दुर्व्यवहार कर सकता है, क्योंकि बद्धजीव भक्ति के दिव्य ज्ञान को प्राप्त करने के लिए राजी नहीं होते। वे इसे पसन्द नहीं करते, यही उनका रोग है। साधु को भक्ति की महत्ता को समझाने का प्रशंसारहित कार्य करना होता है। कभी-कभी भक्तों के ऊपर हिंसक प्रहार कर दिया जाता है। जीसस क्राइस्ट को क्रूस पर चढ़ा दिया गया, हरिदास ठाकुर को बाईस जगह भरे बाजार में बेंत से पीटा गया और भगवान् चैतन्य के प्रमुख सहायक नित्यानन्द पर जगाई तथा माधाई द्वारा हिंसक प्रहार किया। तो भी वे सहिष्णु बने रहे, क्योंकि उनका उद्देश्य पतितों का उद्धार करना था। साधु में सबसे बड़ा गुण यह होता है कि वह सहिष्णु होता है और पतितों के प्रति दयालु होता है। वह दयालु होता है, क्योंकि वह समस्त जीवों का शुभचिन्तक है। वह न केवल मानव समाज का शुभचिन्तक होता है, अपितु पशु-समाज का भी होता है। यहाँ पर सर्व-देहिनाम् कहा गया है, जो उन समस्त जीवों का सूचक है, जो भौतिक शरीर धारण किए हुए हैं। न केवल मनुष्यों को भौतिक शरीर मिला हुआ है, अपितु अन्य जीवों को, यथा कुत्तों, बिल्लियों को भौतिक शरीर प्राप्त हैं। भगवद्भक्त प्रत्येक के प्रति—चाहे कुत्ता हो, बिल्ली हो, वृक्ष हो, कुछ भी हो—दयालु होता है। वे समस्त जीवों के साथ ऐसा व्यवहार करते हैं जिससे अन्तत: वे इस भवबन्धन से मोक्ष प्राप्त कर सकें। भगवान् चैतन्य के शिष्य शिवानन्द सेन ने दिव्य व्यवहार से एक कुत्ते को मोक्ष दिलाया। ऐसे अनेक उदाहरण हैं, जिनमें साधु की संगति से कुत्ते तक को मोक्ष प्राप्त हो सका, क्योंकि साधु समस्त जीवों के हित के लिए परोपकारी कार्यों में लगा रहता है। फिर भी यद्यपि साधु किसी से शत्रुता नहीं रखता, किन्तु यह संसार इतना कृतघ्न है कि साधु के भी अनेक शत्रु हो जाते हैं।

एक शत्रु तथा मित्र में क्या अन्तर है? यह अन्तर व्यवहार में होता है। समस्त बद्धजीवों को भवबन्धन से छुटकारा दिलाने के लिए ही साधु सबों के प्रति व्यवहार करता है, अत: बद्धजीवों को मोक्ष दिलाने में साधु से बढक़र कोई मित्र नहीं हो सकता। साधु शान्त होता है और वह शान्तिपूर्वक शास्त्र के नियमों का पालन करता है। साधु का अर्थ है, वह जो शास्त्र के नियमों का पालन करे और साथ ही भगवद्भक्त भी हो। जो वास्तव में शास्त्र के नियमों का पालन करता है उसे भगवद्भक्त होना चाहिए, क्योंकि सारे शास्त्र हमें यही उपदेश देते हैं कि भगवान् के आदेशों का पालन किया जाय। अत: साधु का अर्थ है शास्त्रों के आदेशों का पालन करने वाला तथा भगवान् का भक्त। भक्त में ये सारे गुण होते हैं। भक्त में देवताओं के सारे गुण विकसित होते हैं, किन्तु अभक्त चाहे विद्या की दृष्टि से कितना ही योग्य क्यों न हो उसमें वास्तविक सद्गुणों या उत्तम लक्षणों का अभाव रहता है।

 
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