निरन्तर मेरे अर्थात् पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान के कीर्तन तथा श्रवण में संलग्न रहकर साधुगण किसी प्रकार का भौतिक कष्ट नहीं पाते, क्योंकि वे सैदव मेरी लीलाओं तथा कार्यकलापों के विचारों में ही निमग्न रहते हैं।
तात्पर्य
इस संसार में नाना प्रकार के क्लेश हैं—शारीरिक तथा मानसिक, अन्य जीवों द्वारा पहुँचाये जाने वाले और प्राकृतिक उत्पातों से मिलने वाले। किन्तु साधु ऐसी कष्टप्रद परिस्थितियों से विचलित नहीं होता, क्योंकि उसका मन सदैव कृष्णभावनामृत से भरा रहता है, फलत: वह भगवान् के कार्यकलापों के अतिरिक्त अन्य किसी की चर्चा नहीं करना चाहता। महाराज अम्बरीष भगवान् की लीलाओं के वर्णन के अतिरिक्त कुछ भी नहीं बोलते थे। वचांसि वैकुण्ठगुणानुवर्णने (भागवत ९.४.१८)। वे अपनी वाणी का सदुपयोग केवल श्रीभगवान् की महिमा-गायन में करते थे। साधुगण सदैव भगवान् या उनके भक्तों के कार्यकलापों के विषय में सुनने के लिए उत्सुक रहते हैं। चूँकि वे कृष्णभक्ति से पूरित रहते हैं, अत: उन्हें भौतिक क्लेशो की विस्मृति हो जाती है। सामान्य बद्धजीव भगवान् के कार्यकलापों को विस्मृत कर देने के कारण सदैव चिन्ताओं एवं भौतिक क्लेशों से पूर्ण रहते हैं। दूसरी ओर चूँकि भक्तगण सदैव भगवान् की कथाओं में लगे रहते हैं, अत: वे संसार के कष्टों को भूले रहते हैं।
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