आपने जैसा बताया है कि योग पद्धति का उद्देश्य पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् को प्राप्त करने और सांसारिक अस्तित्व (माया) के पूर्णतया विनाश के लिए है, तो कृपया मुझे उस योग पद्धति की प्रकृति बतलाएँ। उस अलौकिक योग को यथार्थ रूप में कितनी विधियों से समझा जा सकता है?
तात्पर्य
योग पद्धति के कई प्रकार हैं जिनका लक्ष्य परम सत्य की विभिन्न अवस्थाओं को जानना है। ज्ञानयोग का लक्ष्य निर्गुण ब्रह्मतेज है और हठयोग का लक्ष्य घट-घट वासी परमात्मा है, जबकि श्रवण, कीर्तन आदि नौ भिन्न विधियों से सम्पन्न होने वाले भक्तियोग का लक्ष्य परमेश्वर का पूर्ण साक्षात्कार है। आत्म-साक्षात्कार की भी विभिन्न विधियाँ हैं। किन्तु देवहूति भक्तियोग का विशेष उल्लेख करती है, जिसे भगवान् पहले ही समझा चुके थे। भक्तियोग पद्धति के विभिन्न अंग हैं—श्रवण, कीर्तन, स्मरण, वन्दन, अर्चन, सेवन, आज्ञा पालन (दास्य), उनसे मित्रता करना (सख्य) तथा अन्तत: भगवान् की सेवा में सब कुछ अर्पित करना (आत्म निवेदन)। इस श्लोक में निर्वाणात्मन् शब्द अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। भक्ति विधि को स्वीकार किये बिना इस संसार के आवागमन से छूटा नहीं जा सकता। जहाँ तक ज्ञानियों का सम्बन्ध है वे ज्ञानयोग में रुचि रखते हैं, किन्तु यदि कोई संयम का पालन करता हुआ ब्रह्मतेज तक ऊपर उठ जाय तो भी इस संसार में पुन: गिर जाने की सम्भावना बनी रहती है। अत: वास्तव में ज्ञानयोग से सांसारिक अस्तित्व का अन्त नहीं होता। इसी प्रकार हठयोग में, जिसका लक्ष्य अन्तर्यामी परमात्मा को प्राप्त करना होता है, यह अनुभव किया गया है कि विश्वामित्र जैसे अनेक योगी भी नीचे आ गिरते हैं। किन्तु भक्ति योगी, एक बार भगवान् के पास पहुँच कर फिर कभी इस संसार में वापस नहीं आते जैसाकि भगवद्गीता में पुष्टि की गई है। यद् गत्वा न निवर्तन्ते—मनुष्य जाकर फिर कभी नहीं लौटता। त्यक्त्वा देहं पुनर्जन्म नैति— इस शरीर का परित्याग करने पर उसे शरीर ग्रहण करने नहीं आना पड़ता। निर्वाण से आत्मा का अस्तित्व समाप्त नहीं होता। आत्मा चिर विद्यमान है। अत: निर्वाण का अर्थ है अपने संसार की समाप्ति करना जिसका अर्थ है भगवान् के धाम वापस जाना।
कभी-कभी लोग पूछते हैं कि जीवात्मा स्वर्ग से इस लोक में किस तरह गिर जाता है? इसका उत्तर यहाँ मिलता है। जब तक मनुष्य भगवान् के प्रत्यक्ष सम्पर्क में वैकुण्ठलोक में नहीं पहुँच जाता तब तक उसके नीचे गिरने का भय बना रहता है चाहे वह निर्गुण ब्रह्म साक्षात्कार से हो या ध्यान की समाधि-अवस्था से हो। इस श्लोक का एक अन्य शब्द भगवद्-बाण: शब्द भी अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। बाण: का अर्थ है “तीर”। भक्तियोग तीर के समान है, जिसका लक्ष्य श्रीभगवान् होता है। भक्तियोग पद्धति कभी किसी को निर्गुण ब्रह्मतेज की ओर या परमात्मा-साक्षात्कार की ओर जाने को नहीं कहती। यह बाण (तीर) इतना तीक्ष्ण तथा वेगवान होता है कि यह निर्गुण ब्रह्म तथा अन्तर्यामी परमात्मा के क्षेत्रों को बेधता हुआ सीधे भगवान् तक पहुँचता है।
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