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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 3: यथास्थिति  »  अध्याय 25: भक्तियोग की महिमा  »  श्लोक 8
 
 
श्लोक  3.25.8 
तस्य त्वं तमसोऽन्धस्य दुष्पारस्याद्य पारगम् ।
सच्चक्षुर्जन्मनामन्ते लब्धं मे त्वदनुग्रहात् ॥ ८ ॥
 
शब्दार्थ
तस्य—उस; त्वम्—तुम; तमस:—अज्ञान; अन्धस्य—अन्धकार का; दुष्पारस्य—पार करना दुष्कर; अद्य—अब; पार- गम्—पार जाना; सत्—दिव्य; चक्षु:—नेत्र; जन्मनाम्—जन्मों के; अन्ते—अन्त में; लब्धम्—प्राप्त किया; मे—मेरा; त्वत्-अनुग्रहात्—तुम्हारी कृपा से ।.
 
अनुवाद
 
 हे प्रभो, आप ही अज्ञान के इस घने अन्धकार से बाहर निकलने के एकमात्र साधन हैं, क्योंकि आप ही मेरे दिव्य नेत्र हैं जिसे मैंने आपके अनुग्रह से अनेकानेक जन्मों के पश्चात् प्राप्त किया है।
 
तात्पर्य
 यह श्लोक अत्यन्त शिक्षाप्रद है, क्योंकि यह गुरु तथा शिष्य के सम्बन्ध को बताने वाला है। शिष्य या बद्धजीव को अज्ञान के इस महानतम क्षेत्र में रखा जाता है, फलत: वह इन्द्रियतृप्ति के संसार में फँस जाता है। इस बन्धन से निकल कर स्वतन्त्रता प्राप्त करना अत्यन्त कठिन है, किन्तु यदि कोई इतना भाग्यवान होता है कि उसे कपिलमुनि जैसे गुरु या उनके प्रतिनिधि की संगति प्राप्त हो जाती है, तो उनकी कृपा से अज्ञान के कीचड़ से उसका उद्धार किया जा सकता है। अत: गुरु की पूजा उस व्यक्ति के रूप में की जाती है, जो ज्ञान के प्रकाशपुंज से शिष्य को अज्ञान के कीचड़ से उबार लेता है। पारगम् शब्द अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। पारगम् उसके लिए आया है, जो शिष्य को उस पार ले जा सकता है। इस ओर बद्धजीव है और उस ओर (पार) उन्मुक्त जीवन है। गुरु ज्ञान के द्वारा शिष्य की आँखें खोलकर उस पार ले जाता है। हम सभी अज्ञान के कारण कष्ट भोगते हैं। गुरु के उपदेश से अज्ञान का अन्धकार हटता है और शिष्य स्वतन्त्रता की ओर जाने में समर्थ होता है। भगवद्गीता में कहा गया है कि मनुष्य अनेकानेक जन्मों के बाद श्रीभगवान् की शरण ग्रहण करता है। इसी प्रकार यदि अनेक जन्मों के बाद किसी को प्रामाणिक गुरु मिल जाता है और वह कृष्ण के ऐसे किसी प्रामाणिक प्रतिनिधि की शरण लेता है, तो वह प्रकाश का किनारा प्राप्त कर सकता है।
 
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