वास्तविक आत्म-साक्षात्कार का अर्थ है भगवान् का शुद्ध भक्त बन जाना। भक्त के अस्तित्व का अर्थ होता है भक्ति का कार्य तथा भक्ति का विषय। अन्तत: श्रीभगवान् तथा जीवों को समझना ही आत्म-साक्षात्कार है। अपने को जानना तथा भगवान् और जीव के बीच प्रेमा-भक्ति का आदान-प्रदान ही वास्तविक आत्म-साक्षात्कार है। इसे निर्विशेषवादी या अन्य अध्यात्मवादी प्राप्त नहीं कर सकते; वे भक्तियोग के विज्ञान को नहीं समझ सकते। भगवान् की असीम अहैतुकी कृपा से ही शुद्ध भक्त को भक्ति प्रकट होती है। भगवान् ने इसे यहाँ पर विशेष रूप से मत्-प्रसादेन “मेरी विशेष कृपा से” कहा है। भगवद्गीता में भी इसकी पुष्टि हुई है। जो प्रेम तथा श्रद्धा के साथ भक्ति में लगे रहते हैं, वे ही भगवान् से आवश्यक बुद्धि प्राप्त करते हैं जिससे वे क्रमश: प्रगति करते हुए भगवान् के धाम की ओर बढ़ सकते हैं। नि:श्रेयस का अर्थ है “चरम गन्तव्य”। स्व-संस्थान सूचित करता है कि निर्विशेषवादियों के ठहरने का कोई विशेष स्थान नहीं होता। वे अपने व्यक्तित्व का समर्पण इसीलिए करते हैं जिससे जीवित स्फुलिंग भगवान् के दिव्य शरीर से उद्भूत निर्गुण तेज में लीन हो जाय, किन्तु भक्त का एक निश्चित धाम होता है। सारे लोक सूर्यप्रकाश में थमे हुए हैं, किन्तु सूर्यप्रकाश का कोई विशेष स्थल नहीं है। जब कोई किसी लोक में पहुँच जाता है, तो उसका एक विश्राम- स्थल होता है। आध्यात्मिक आकाश, जिसे कैवल्य कहते हैं, चारों ओर से केवल आनन्दमय प्रकाश है और वह भगवान् के संरक्षण में रहता है। जैसाकि भगवद्गीता (१४.२७) में कहा गया है—ब्रह्मणो हि प्रतिष्ठाहम्—निराकार ब्रह्मतेज भगवान् के शरीर में स्थित रहता है। दूसरे शब्दों में, भगवान् का शारीरिक तेज ही कैवल्य या निराकार ब्रह्म है। इस निराकार तेज में अनेक दिव्य लोक हैं, जिन्हें वैकुण्ठ कहते हैं जिनमें कृष्णलोक प्रमुख है। कुछ भक्त वैकुण्ठलोक जाते हैं और कुछ कृष्णलोक को। भक्त विशेष की इच्छानुसार उसे विशेष धाम प्रदान किया जाता है, जो स्व-संस्थान अर्थात् उसका अभीष्ट गन्तव्य कहलाता है। भगवान् की कृपा से भक्ति में तत्पर स्वरूपसिद्ध भक्त भौतिक शरीर में रहते हुए ही अपने गन्तव्य (धाम) को जानता है। अत: वह बिना संशय के स्थिर भाव से भक्तिकर्म करता है और शरीर त्यागने के बाद तुरन्त ही उस धाम में पहुँच जाता है, जिसकी वह तैयारी करता रहता है। उस धाम में पहुँचकर वह फिर कभी इस संसार में नहीं लौटता।
यहाँ पर आये लिङ्गात्-विनिर्गमे शब्दों का अर्थ है “सूक्ष्म तथा स्थूल इन दो प्रकार के भौतिक शरीर से मुक्त होने के बाद।” सूक्ष्म शरीर मन, बुद्धि, अहंकार तथा कल्मषमय चेतना से निर्मित रहता है और स्थूल शरीर पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु तथा शून्य इन पाँच तत्त्वों से निर्मित रहता है। जब कोई दिव्य लोक को भेजा जाता है, तो वह इस संसार में दोनों प्रकार के—स्थूल तथा सूक्ष्म—शरीरों को त्याग देता है। वह अपने शुद्ध आध्यात्मिक शरीर के साथ दिव्य लोक में प्रवेश करता है और किसी एक दिव्य लोक में स्थिर हो जाता है। यद्यपि निर्विशेषवादी भी अपने सूक्ष्म तथा स्थूल शरीर त्याग कर दिव्यव्योम को जाते हैं, किन्तु उन्हें दिव्य लोक में नहीं रखा जाता, उन्हें अपनी इच्छानुसार भगवान् के दिव्य शरीर से उद्भूत आध्यात्मिक तेज में लीन होने दिया जाता है। स्व-स्थानम् शब्द भी अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। चूँकि जीव तैयारी करता रहता है, अत: उसे उसका धाम मिलता है। निर्विशेषवादियों को निराकार ब्रह्मतेज प्रदान किया जाता है, किन्तु जो वैकुण्ठ में नारायण रूप में भगवान् के दिव्य रूप की संगति चाहते हैं या कृष्णलोक में कृष्ण की संगति चाहते हैं, वे उन धामों को जाते हैं जहाँ से वे कभी नहीं लौटते।