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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 3: यथास्थिति  »  अध्याय 29: भगवान् कपिल द्वारा भक्ति की व्याख्या  » 
 
 
 
 
श्लोक 1-2:  देवहूति ने जिज्ञासा की : हे प्रभु, आप सांख्य दर्शन के अनुसार सम्पूर्ण प्रकृति तथा आत्मा के लक्षणों का अत्यन्त वैज्ञानिक रीति से पहले ही वर्णन कर चुके हैं। अब मैं आपसे प्रार्थना करूँगी कि आप भक्ति के मार्ग की व्याख्या करें, जो समस्त दार्शनिक प्रणालियों की चरम परिणति है।
 
श्लोक 3:  देवहूति ने आगे कहा : हे प्रभु, कृपया मेरे तथा जन-साधारण दोनों के लिए जन्म- मरण की निरन्तर चलने वाली प्रक्रिया का विस्तार से वर्णन करें, जिससे ऐसी विपदाओं को सुनकर हम इस भौतिक जगत के कार्यों से विरक्त हो सकें।
 
श्लोक 4:  कृपया काल का भी वर्णन करें जो आपके स्वरूप का प्रतिनिधित्व करता है और जिसके प्रभाव से सामान्य जन पुण्यकर्म करने में प्रवृत्त होते हैं।
 
श्लोक 5:  हे भगवान्, आप सूर्य के समान हैं, क्योंकि आप जीवों के बद्धजीवन के अन्धकार को प्रकाशित करने वाले हैं। उनके ज्ञान-चक्षु बन्द होने से वे आपके आश्रय के बिना उस अन्धकार में लगातार सुप्त पड़े हुए हैं, फलत: वे अपने कर्मों के कार्य-कारण प्रभाव से झूठे ही व्यस्त रहते हैं और अत्यन्त थके हुए प्रतीत होते हैं।
 
श्लोक 6:  श्री मैत्रेय ने कहा : हे कुरुश्रेष्ठ, अपनी महिमामयी माता के शब्दों से प्रसन्न होकर तथा अत्यधिक अनुकम्पा से द्रवित होकर महामुनि कपिल इस प्रकार बोले।
 
श्लोक 7:  भगवान् कपिल ने उत्तर दिया : हे भामिनि, साधक के विभिन्न गुणों के अनुसार भक्ति के अनेक मार्ग हैं।
 
श्लोक 8:  ईर्ष्यालु, अहंकारी, हिंस्त्र तथा क्रोधी और पृथकतावादी व्यक्ति द्वारा की गई भक्ति तमोगुण प्रधान मानी जाती है।
 
श्लोक 9:  मन्दिर में एक पृथकतावादी द्वारा भौतिक भोग, यश तथा ऐश्वर्य के प्रयोजन से की जानेवाली विग्रह-पूजा रजोगुणी भक्ति है।
 
श्लोक 10:  जब भक्त भगवान् की पूजा करता है और अपने कर्मों की त्रुटि से मुक्त होने के लिए अपने कर्मफलों को अर्पित करता है, तो उसकी भक्ति सात्त्विक होती है।
 
श्लोक 11-12:  जब मनुष्य का मन प्रत्येक व्यक्ति के हृदय के भीतर वास करने वाले भगवान् के दिव्य नाम तथा गुणों के श्रवण की ओर तुरन्त आकृष्ट हो जाता है, तो निर्गुण भक्ति का प्राकट्य होता है। जिस प्रकार गंगा का पानी स्वभावत: समुद्र की ओर बहता है, उसी प्रकार ऐसा भक्तिमय आह्लाद बिना रोक-टोक के परमेश्वर की ओर प्रवाहित होता है।
 
श्लोक 13:  शुद्ध भक्त सालोक्य, सार्ष्टि, सामीप्य, सारूप्य या एकत्व में से किसी प्रकार का मोक्ष स्वीकार नहीं करते, भले ही ये भगवान् द्वारा क्यों न दिये जा रहे हों।
 
श्लोक 14:  जैसा कि मैं बता चुका हूँ, भक्ति का उच्च पद प्राप्त करके मनुष्य प्रकृति के तीनों गुणों के प्रभाव को लाँघ सकता है और दिव्य पद पर स्थित हो सकता है, जिस तरह भगवान् हैं।
 
श्लोक 15:  भक्त को अपने नियत कार्यों को सम्पन्न करना चाहिए, जो यशस्वी हों और बिना किसी भौतिक लाभ के हों। उसे अधिक हिंसा किये बिना अपने भक्ति कार्य नियमित रूप से करने चाहिए।
 
श्लोक 16:  भक्त को नियमित रूप से मन्दिर में मेरी प्रतिमा का दर्शन करना, मेरे चरणकमल स्पर्श करना तथा पूजन सामग्री एवं प्रार्थना अर्पित करना चाहिए। उसे सात्त्विक भाव से वैराग्य दृष्टि रखनी चाहिए और प्रत्येक जीव को आध्यात्मिक दृष्टि से देखना चाहिए।
 
श्लोक 17:  भक्त को चाहिए कि गुरु तथा आचार्यों को सर्वोच्च सम्मान प्रदान करते हुए भक्ति करे। उसे दीनों पर दयालु होना चाहिए और अपनी बराबरी के व्यक्तियों से मित्रता करनी चाहिए, किन्तु उसके सारे कार्यकलाप नियमपूर्वक तथा इन्द्रिय-संयम के साथ सम्पन्न होने चाहिए।
 
श्लोक 18:  भक्त को चाहिए कि आध्यात्मिक बात ही सुने और अपने समय का सदुपयोग भगवान् के पवित्र नाम के जप में करे। उसका आचरण सुस्पष्ट एवं सरल हो। किन्तु वह ईर्ष्यालु न हो। वह सबों के प्रति मैत्रीपूर्ण होते हुए भी ऐसे व्यक्तियों की संगति से बचे जो आध्यात्मिक दृष्टि से उन्नत नहीं हैं।
 
श्लोक 19:  जब मनुष्य इन समस्त लक्षणों से पूर्णतया सम्पन्न होता है और इस तरह उसकी चेतना पूरी तरह शुद्ध हो लेती है, तो वह मेरे नाम या मेरे दिव्य गुण के श्रवण मात्र से तुरन्त ही आकर्षित होने लगता है।
 
श्लोक 20:  जिस प्रकार वायु का रथ गन्ध को उसके स्रोत से ले जाता है और तुरन्त घ्राणेन्द्रिय तक पहुँचाता है, उसी प्रकार जो व्यक्ति निरन्तर कृष्णभावनाभावित भक्ति में संलग्न रहता है, वह सर्वव्यापी परमात्मा को प्राप्त कर लेता है।
 
श्लोक 21:  मैं प्रत्येक जीव में परमात्मा रूप में स्थित हूँ। यदि कोई ‘परमात्मा सर्वत्र है’ इसकी उपेक्षा या अवमानना करके अपने आपको मन्दिर के विग्रह-पूजन में लगाता है, तो यह केवल स्वाँग या दिखावा है।
 
श्लोक 22:  जो मन्दिरों में भगवान् के विग्रह का पूजन करता है, किन्तु यह नहीं जानता कि परमात्मा रूप में परमेश्वर प्रत्येक जीव के हृदय में आसीन हैं, वह अज्ञानी है और उसकी तुलना उस व्यक्ति से की जाती है, जो राख में आहुतियाँ डालता है।
 
श्लोक 23:  जो मुझे श्रद्धा अर्पित करता है, किन्तु अन्य जीवों से ईर्ष्यालु है, वह इस कारण पृथकतावादी है। उसे अन्य जीवों के प्रति शत्रुतापूर्ण व्यवहार करने के कारण कभी भी मन की शान्ति प्राप्त नहीं हो पाती।
 
श्लोक 24:  हे माते, भले ही कोई पुरुष सही अनुष्ठानों तथा सामग्री द्वारा मेरी पूजा करता हो, किन्तु यदि वह समस्त प्राणियों में मेरी उपस्थिति से अनजान रहता है, तो वह मन्दिर में मेरे विग्रह की कितनी ही पूजा क्यों न करे, मैं उससे कभी प्रसन्न नहीं होता।
 
श्लोक 25:  मनुष्य को चाहिए कि अपने निर्दिष्ट कर्म करते हुए भगवान् के अर्चाविग्रह का तब तक पूजन करता रहे, जब तक उसे अपने हृदय में तथा साथ ही साथ अन्य जीवों के हृदय में मेरी उपस्थिति का अनुभव न हो जाय।
 
श्लोक 26:  जो भी अपने में तथा अन्य जीवों के बीच भिन्न दृष्टिकोण के कारण तनिक भी भेदभाव करता है उसके लिए मैं मृत्यु की प्रज्ज्वलित अग्नि के समान महान् भय उत्पन्न करता हूँ।
 
श्लोक 27:  अत: दान तथा सत्कार के साथ ही साथ मैत्रीपूर्ण आचरण से तथा सबों पर एक सी दृष्टि रखते हुए मनुष्य को मेरी पूजा करनी चाहिए, क्योंकि मैं सभी प्राणियों में उनके आत्मा के रूप में निवास करता हूँ।
 
श्लोक 28:  हे कल्याणी माँ, जीवात्माएँ अचेतन पदार्थों से श्रेष्ठ हैं और इनमें से जो जीवन के लक्षणों से युक्त हैं, वे श्रेष्ठ हैं। इनकी अपेक्षा विकसित चेतना वाले पशु श्रेष्ठ हैं और इनसे भी श्रेष्ठ वे हैं जिनमें इन्द्रिय अनुभूति विकसित हो चुकी है।
 
श्लोक 29:  इन्द्रियवृत्ति (अनुभूति) से युक्त जीवों में से जिन्होंने स्वाद की अनुभूति विकसित कर ली है वे स्पर्श अनुभूति विकसित किये हुए जीवों से श्रेष्ठ हैं। इनसे भी श्रेष्ठ वे हैं जिन्होंने गंध की अनुभूति विकसति कर ली है और इनसे भी श्रेष्ठ वे हैं जिनकी श्रवणेन्द्रिय विकसित है।
 
श्लोक 30:  ध्वनि सुन सकने वाले प्राणियों की अपेक्षा वे श्रेष्ठ हैं, जो एक रूप तथा दूसरे रूप में अन्तर जान लेते हैं। इनसे भी अच्छे वे हैं जिनके ऊपरी तथा निचले दाँत होते हैं और इनसे भी श्रेष्ठ अनेक पाँव वाले जीव हैं। इनसे भी श्रेष्ठ चौपाये और चौपाये से भी बढक़र मनुष्य हैं।
 
श्लोक 31:  मनुष्यों में वह समाज सर्वोत्तम है, जो गुण तथा कर्म के अनुसार विभाजित किया गया है और जिस समाज में बुद्धिमान जनों को ब्राह्मण पद दिया जाता है, वह सर्वोत्तम समाज है। ब्राह्मणों में से जिसने वेदों का अध्ययन किया है, वही सर्वोत्तम है और वेदज्ञ ब्राह्मणों में भी वेद के वास्तविक तात्पर्य को जानने वाला सर्वोत्तम है।
 
श्लोक 32:  वेदों का तात्पर्य समझने वाले ब्राह्मण की अपेक्षा वह मनुष्य श्रेष्ठ है, जो सारे संशयों का निवारण कर दे और उससे भी श्रेष्ठ वह है, जो ब्राह्मण-नियमों का दृढ़तापूर्वक पालन करता है। उससे भी श्रेष्ठ है समस्त भौतिक कल्मष से मुक्त व्यक्ति। इससे भी श्रेष्ठ वह शुद्ध भक्त है, जो निष्काम भाव से भक्ति करता है।
 
श्लोक 33:  अत: मुझे उस व्यक्ति से बड़ा कोई नहीं दिखता जो मेरे अतिरिक्त कोई अन्य रुचि नहीं रखता, जो अनवरत मुझे ही अपने समस्त कर्म तथा अपना सारा जीवन—सब कुछ अर्पित करता है।
 
श्लोक 34:  ऐसा पूर्ण भक्त प्रत्येक जीव को प्रणाम करता है, क्योंकि उसका दृढ़ विश्वास है कि भगवान् प्रत्येक जीव के शरीर के भीतर परमात्मा या नियामक के रूप में प्रविष्ट रहते हैं।
 
श्लोक 35:  हे माता, हे मनुपुत्री, जो भक्त इस प्रकार से भक्ति तथा योग का साधन करता है उसे केवल भक्ति से ही परम पुरुष का धाम प्राप्त हो सकता है।
 
श्लोक 36:  वह पुरुष जिस तक प्रत्येक जीव को पहुँचना है, उस भगवान् का शाश्वत रूप है, जो ब्रह्म तथा परमात्मा कहलाता है। वह प्रधान दिव्य पुरुष है और उसके कार्यकलाप अध्यात्मिक हैं।
 
श्लोक 37:  विभिन्न भौतिक रूपान्तरों को उत्पन्न करने वाला काल भगवान् का ही एक अन्य स्वरूप है। जो व्यक्ति यह नहीं जानता कि काल तथा भगवान् एक ही हैं वह काल से भयभीत रहता है।
 
श्लोक 38:  समस्त यज्ञों के भोक्ता भगवान् विष्णु कालस्वरूप हैं तथा समस्त स्वामियों के स्वामी हैं। वे प्रत्येक के हृदय में प्रविष्ट करने वाले हैं, वे सबके आश्रय हैं और प्रत्येक जीव का दूसरे जीव के द्वारा संहार कराने का कारण हैं।
 
श्लोक 39:  भगवान् का न तो कोई प्रिय है, न ही कोई शत्रु या मित्र है। किन्तु जो उन्हें भूले नहीं हैं, उन्हें वे प्रेरणा प्रदान करते हैं और जो उन्हें भूल चुके हैं उनका क्षय करते हैं।
 
श्लोक 40:  भगवान् के ही भय से वायु बहती है, उन्हीं के भय से सूर्य चमकता है, वर्षा का देवता पानी बरसाता है और उन्हीं के भय से नक्षत्रों का समूह चमकता है।
 
श्लोक 41:  भगवान् के भय से वृक्ष, लताएँ, जड़ी-बूटियाँ तथा मौसमी पौधे और फूल अपनी- अपनी ऋतु में फूलते और फलते हैं।
 
श्लोक 42:  भगवान् के भय से नदियाँ बहती हैं तथा सागर कभी भरकर बाहर नहीं बहते। उनके ही भय से अग्नि जलती है और पृथ्वी अपने पर्वतों सहित ब्रह्माण्ड के जल में डूबती नहीं।
 
श्लोक 43:  भगवान् के ही नियन्त्रण में अन्तरक्षि में आकाश सारे लोकों को स्थान देता है जिनमें असंख्य जीव रहते हैं। उन्हीं के नियन्त्रण में ही सकल विराट शरीर अपने सातों कोशों सहित विस्तार करता है।
 
श्लोक 44:  भगवान् के भय से ही प्रकृति के गुणों के अधिष्ठाता देवता सृष्टि, पालन तथा संहार का कार्य करते हैं। इस भौतिक जगत की प्रत्येक निर्जीव तथा सजीव वस्तु उनके ही अधीन है।
 
श्लोक 45:  शाश्वत काल खण्ड का न आदि है और न अन्त। वह इस पातकी संसार के स्रष्टा भगवान् का प्रतिनिधि है। वह दृश्य जगत का अन्त कर देता है, एक को मार कर दूसरे को जन्म देता है और इसका सृजन कार्य करता है। इसी तरह मृत्यु के स्वामी यम को भी नष्ट करके ब्रह्माण्ड का विलय कर देता है।
 
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