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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 4: चतुर्थ आश्रम की उत्पत्ति  »  अध्याय 9: ध्रुव महाराज का घर लौटना  »  श्लोक 56
 
 
श्लोक  4.9.56 
प्राकारैर्गोपुरागारै: शातकुम्भपरिच्छदै: ।
सर्वतोऽलड़्क़ृतं श्रीमद्विमानशिखरद्युभि: ॥ ५६ ॥
 
शब्दार्थ
प्राकारै:—परकोटों से; गोपुर—नगर-द्वारों; आगारै:—घरों से; शातकुम्भ—सुनहले; परिच्छदै:—अलंकृत काम से, कारीगरी से; सर्वत:—चारों ओर; अलङ्कृतम्—सजाया हुआ; श्रीमत्—बहुमूल्य, सुन्दर; विमान—विमान; शिखर—चोटी, कँगूरे; द्युभि:—चमकते हुए ।.
 
अनुवाद
 
 राजधानी में अनेक महल, नगर-द्वार तथा परकोटे थे, जो पहले से ही अत्यन्त सुन्दर थे, किन्तु इस अवसर पर उन्हें सुनहले आभूषणों से सजाया गया था। नगर के महलों के कँगूरे तो चमक ही रहे थे साथ ही नगर के ऊपर मँडराने वाले सुन्दर विमानों के शिखर भी।
 
तात्पर्य
 यहाँ पर विमानों का जो उल्लेख हुआ है, उसके सम्बन्ध में श्रीमद् विजयध्वज तीर्थ ने यह सुझाया है कि इस अवसर पर स्वर्गलोक के देवता भी अपने-अपने विमानों में चढक़र राजा की राजधानी में ध्रुव महाराज के आगमन पर आशीर्वाद देने पधारे थे। ऐसा भी प्रतीत होता है कि नगर के सभी महलों के कँगूरे तथा विमानों के शिखर सुनहरी कारीगरी से अलंकृत किये गये थे और सूर्य प्रकाश से प्रतिबिम्बित वे चमक रहे थे। हम आसानी से ध्रुव महाराज के काल तथा आधुनिक काल के अन्तर को समझ सकते हैं, क्योंकि तब विमान सोने के बनाये जाते थे और आज-कल वे अलमुनियम बनेहोते है। इससे ध्रुव महाराज के समय के ऐश्वर्य और आधुनिक युग की गरीबी का पता चलता है।
 
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