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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 4: चतुर्थ आश्रम की उत्पत्ति  »  अध्याय 9: ध्रुव महाराज का घर लौटना  »  श्लोक 65
 
 
श्लोक  4.9.65 
उत्तानपादो राजर्षि: प्रभावं तनयस्य तम् ।
श्रुत्वा दृष्ट्वाद्भुततमं प्रपेदे विस्मयं परम् ॥ ६५ ॥
 
शब्दार्थ
उत्तानपाद:—राजा उत्तानपाद; राज-ऋषि:—साधु प्रकृति का महान् राजा; प्रभावम्—प्रभाव; तनयस्य—अपने पुत्र का; तम्— उसे; श्रुत्वा—सुनकर; दृष्ट्वा—देखकर; अद्भुत—आश्चर्यमय; तमम्—अधिकतम; प्रपेदे—सुखपूर्वक अनुभव किया; विस्मयम्—विस्मय; परम्—परम ।.
 
अनुवाद
 
 राजर्षि उत्तानपाद ने ध्रुव महाराज के यशस्वी कार्यों के विषय में सुना और स्वयं भी देखा कि वे कितने प्रभावशाली और महान् थे, इससे वे अत्यधिक प्रसन्न हुए, क्योंकि ध्रुव महाराज के कार्य अत्यन्त विस्मयकारी थे।
 
तात्पर्य
 जब ध्रुव महाराज जंगल में तपस्या कर रहे थे तो उनके पिता उत्तानपाद ने उसके आश्चर्यजनक कार्य-कलापों के सम्बन्ध में सब कुछ सुन लिया था। यद्यपि ध्रुव महाराज राजपुत्र थे और केवल पाँच वर्ष के थे, किन्तु वे जंगल जाकर कठिन तपस्या के द्वारा भक्तियोग में लगे रहे। अत: उनके सारे कार्य आश्चर्यजनक थे और जब वे घर वापस आ गये तो स्वाभाविक था कि अपने आध्यात्मिक गुणों के कारण वे नागरिकों में अत्यन्त लोकप्रिय हो गये। उन्होंने भगवतत्कृपा से अनेक विस्मयजनक कार्य किये होंगे। जो व्यक्ति इस प्रकार के यशस्वी कार्य करे, उसका पिता भला क्यों न इतना प्रसन्न हो? महाराज उत्तानपाद सामान्य राजा न थे, वे राजर्षि थे। पहले के समय में इस पृथ्वी पर एक ही राजर्षि राज्य करता था। राजाओं को साधु प्रकृति वाले बनने की शिक्षा दी जाती थी, अत: उनके पास प्रजा के कल्याण के अतिरिक्त कोई काम नहीं रहता था। इन राजर्षियों को समुचित शिक्षा दी जाती थी और जैसाकि भगवद्गीता में भी उल्लेख है, ईश्वरीय ज्ञान अथवा भक्तियोग जिसे भगवद्गीता कहते हैं राजर्षि सूर्य को प्रदान किया गया और क्रमश: वह सूर्य तथा चन्द्रमा से उत्पन्न क्षत्रिय राजाओं को प्राप्त हुआ। यदि राज्य का प्रधान साधु प्रकृति का होता है, तो प्रजा भी वैसी ही होती है और प्रजा परम प्रसन्न रहती हैं, क्योंकि उसकी भौतिक तथा आध्यात्मिक आवश्यकताओं तथा आकांक्षाओं की पूर्ति होती रहती है।
 
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