हे राजन्! अब तुम्हें ऐसे व्यक्ति के कष्ट का वास्तविक अनुभव हो रहा है, जिसके पुत्र तथा पुत्रियाँ होती हैं। हे सूरसेन देश के राजा! पत्नी, घर, राज्य का ऐश्वर्य, अन्य सम्पत्ति तथा इन्द्रिय अनुभूति के विषय—ये सब इस बात में एक-से हैं, कि वे अनित्य हैं। राज्य, सैनिक, शक्ति, कोष, नौकर, मंत्री, मित्र तथा सम्बन्धी—ये सभी भय, मोह, शोक तथा दुख के कारण हैं। ये गंधर्व-नगर की भाँति हैं, जिसे जंगल के बीच स्थित समझा जाता है, किन्तु जिसका अस्तित्व नहीं होता। चूँकि ये सब वस्तुएँ अनित्य हैं, अत: ये मोह, स्वप्न तथा मनोरथों से श्रेष्ठ नहीं हैं।
तात्पर्य
इस श्लोक में संसार का बन्धन वर्णित है। इस संसार में जीवात्मा के पास अनेक वस्तुएँ होती हैं, यथा—देह, संतान, पत्नी इत्यादि (देहापत्य कलत्रादिषु)। मनुष्य ऐसा सोच सकता है कि ये उसे सुरक्षा प्रदान करेंगी किन्तु ऐसा असम्भव है। इतना सब होते हुए भी आत्मा को वर्तमान स्थिति का परित्याग करके दूसरी स्थिति ग्रहण करनी होती है। अगली स्थिति प्रतिकूल हो सकती है, किन्तु यदि अनुकूल भी रहे तो भी उसे इसका परित्याग करके दूसरा शरीर ग्रहण करना होगा। इस प्रकार इस जगत में दुखों का क्रम टूटता नहीं। किसी भी बुद्धिमान व्यक्ति को यह भली-भाँति समझना चाहिए कि इन वस्तुओं से वह कभी सुखी नहीं रह सकता। मनुष्य को चाहिए कि अपने आध्यात्मिक स्वरूप में स्थित रहकर भक्त के रूप में श्रीभगवान् की सदा सर्वदा सेवा करे। अंगिरा ऋषि तथा नारद मुनि ने महाराज चित्रकेतु को यही उपदेश दिया।
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