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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 6: मनुष्य के लिए विहित कार्य  »  अध्याय 15: नारद तथा अंगिरा ऋषियों द्वारा राजा चित्रकेतु को उपदेश  »  श्लोक 21-23
 
 
श्लोक  6.15.21-23 
अधुना पुत्रिणां तापो भवतैवानुभूयते ।
एवं दारा गृहा रायो विविधैश्वर्यसम्पद: ॥ २१ ॥
शब्दादयश्च विषयाश्चला राज्यविभूतय: ।
मही राज्यं बलं कोषो भृत्यामात्यसुहृज्जना: ॥ २२ ॥
सर्वेऽपि शूरसेनेमे शोकमोहभयार्तिदा: ।
गन्धर्वनगरप्रख्या: स्वप्नमायामनोरथा: ॥ २३ ॥
 
शब्दार्थ
अधुना—इस समय; पुत्रिणाम्—पुत्रवानों को; ताप:—कष्ट; भवता—आपके द्वारा; एव—निस्सन्देह; अनुभूयते—अनुभव किया जाता है; एवम्—इस प्रकार; दारा:—सुपत्नी; गृहा:—घर; राय:—धन; विविध—नाना प्रकार के; ऐश्वर्य—ऐश्वर्य; सम्पद:—सम्पत्ति; शब्द-आदय:—शब्द इत्यादि; —तथा; विषया:—इन्द्रियतृप्ति की वस्तुएँ; चला:—क्षणिक; राज्य—राज्य का; विभूतय:—ऐश्वर्य; मही—पृथ्वी; राज्यम्—राज्य; बलम्—बल; कोष:—खजाना; भृत्य—नौकर; अमात्य—मंत्री; सुहृत्-जना:—मित्र; सर्वे—सभी; अपि—निस्सन्देह; शूरसेन—हे शूरसेन के राजा; इमे—ये; शोक—शोक का; मोह—मोह का; भय—भय का; अर्ति—तथा दुख; दा:—देने वाले; गन्धर्व-नगर-प्रख्या:—गंधर्व नगर (जंगल के मध्य एक बड़ा महल) की माया-दृष्टि से प्रेरित; स्वप्न—स्वप्न; माया—माया; मनोरथा:—तथा कल्पनाएँ ।.
 
अनुवाद
 
 हे राजन्! अब तुम्हें ऐसे व्यक्ति के कष्ट का वास्तविक अनुभव हो रहा है, जिसके पुत्र तथा पुत्रियाँ होती हैं। हे सूरसेन देश के राजा! पत्नी, घर, राज्य का ऐश्वर्य, अन्य सम्पत्ति तथा इन्द्रिय अनुभूति के विषय—ये सब इस बात में एक-से हैं, कि वे अनित्य हैं। राज्य, सैनिक, शक्ति, कोष, नौकर, मंत्री, मित्र तथा सम्बन्धी—ये सभी भय, मोह, शोक तथा दुख के कारण हैं। ये गंधर्व-नगर की भाँति हैं, जिसे जंगल के बीच स्थित समझा जाता है, किन्तु जिसका अस्तित्व नहीं होता। चूँकि ये सब वस्तुएँ अनित्य हैं, अत: ये मोह, स्वप्न तथा मनोरथों से श्रेष्ठ नहीं हैं।
 
तात्पर्य
 इस श्लोक में संसार का बन्धन वर्णित है। इस संसार में जीवात्मा के पास अनेक वस्तुएँ होती हैं, यथा—देह, संतान, पत्नी इत्यादि (देहापत्य कलत्रादिषु)। मनुष्य ऐसा सोच सकता है कि ये उसे सुरक्षा प्रदान करेंगी किन्तु ऐसा असम्भव है। इतना सब होते हुए भी आत्मा को वर्तमान स्थिति का परित्याग करके दूसरी स्थिति ग्रहण करनी होती है। अगली स्थिति प्रतिकूल हो सकती है, किन्तु यदि अनुकूल भी रहे तो भी उसे इसका परित्याग करके दूसरा शरीर ग्रहण करना होगा। इस प्रकार इस जगत में दुखों का क्रम टूटता नहीं। किसी भी बुद्धिमान व्यक्ति को यह भली-भाँति समझना चाहिए कि इन वस्तुओं से वह कभी सुखी नहीं रह सकता। मनुष्य को चाहिए कि अपने आध्यात्मिक स्वरूप में स्थित रहकर भक्त के रूप में श्रीभगवान् की सदा सर्वदा सेवा करे। अंगिरा ऋषि तथा नारद मुनि ने महाराज चित्रकेतु को यही उपदेश दिया।
 
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