भगवद्गीता (९.२३) में श्रीकृष्ण का कथन है— येऽप्यन्यदेवता भक्ता यजन्ते श्रद्धयान्विता:।
तेऽपि मामेव कौन्तेय यजन्त्यविधिपूर्वकम् ॥
“हे अर्जुन! अन्य देवताओं की यज्ञ द्वारा जो भी उपासना की जाती है, वह वास्तव में मेरे ही लिए होती है किन्तु यह बिना वास्तविक समझ-बूझ के की जाती है।” देवतागण तो पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् के सहायकों की तरह हैं, जो उनके हाथ-पाँव की भाँति कार्य करते हैं। जो श्रीभगवान् के वास्तविक सम्पर्क में नहीं है और न उनकी वास्तविक स्थिति को समझ सकता है उसे कभी-कभी यह सलाह दी जाती है कि देवताओं की पूजा करे क्योंकि वे भगवान् के अंगस्वरूप हैं। यदि स्त्रियाँ, जो साधारणतया अपने पतियों के प्रति अत्यधिक आसक्त होती हैं अपने पतियों को वासुदेव के प्रतिनिधियों के रूप में पूजें तो उन्हें उसी प्रकार लाभ मिल सकता है, जिस प्रकार अजामिल को अपने पुत्र नारायण का नाम लेने से। यद्यपि अजामिल को अपने पुत्र से प्यार था, किन्तु नारायण नाम के प्रति उसकी आसक्ति होने से और उस नाम का बारम्बार जप करने से ही उसे मुक्ति मिल सकी। भारत में आज भी पति को पति-गुरु कहा जाता है। यदि पति तथा पत्नी कृष्णभक्ति को बढ़ाने के लिए एक दूसरे पर आसक्त रहें तो इस प्रगति के लिए उनका यह सहयोग अत्यन्त लाभप्रद होगा। यद्यपि वैदिक मंत्रों में कभी-कभी इन्द्र तथा अग्नि के नामों का उच्चारण किया जाता है (इन्द्राय स्वाहा, अग्नये स्वाहा) किन्तु वैदिक यज्ञ वास्तव में भगवान् विष्णु को प्रसन्न करने के लिए ही किए जाते हैं। जब तक कोई भौतिक इन्द्रिय-तृप्ति के प्रति अधिक आसक्त रहता है तब तक उसे देवताओं या अपने पति की पूजा करनी चाहिए।