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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 6: मनुष्य के लिए विहित कार्य  »  अध्याय 2: विष्णुदूतों द्वारा अजामिल का उद्धार  »  श्लोक 28
 
 
श्लोक  6.2.28 
वृद्धावनाथौ पितरौ नान्यबन्धू तपस्विनौ ।
अहो मयाधुना त्यक्तावकृतज्ञेन नीचवत् ॥ २८ ॥
 
शब्दार्थ
वृद्धौ—वृद्ध; अनाथौ—जिनकी देखरेख करने वाला कोई न हो; पितरौ—अपने माता-पिता; न अन्य-बन्धू—जिनके कोई अन्य मित्र नहीं था; तपस्विनौ—जिन्होंने बड़े कष्ट सहे थे; अहो—हाय; मया—मेरे द्वारा; अधुना—सम्प्रति; त्यक्तौ—त्यागे हुए; अकृत-ज्ञेन—अकृतज्ञ द्वारा; नीच-वत्—सबसे निन्दनीय व्यक्ति की तरह ।.
 
अनुवाद
 
 मेरे माता-पिता वृद्ध थे और उनकी देखरेख करने वाला कोई अन्य पुत्र या मित्र न था। चूँकि मैंने उनकी देखभाल नहीं की, अतएव उन्हें बहुत ही कष्ट में रहना पड़ा। हाय! एक निन्दनीय निम्न जाति के पुरुष की तरह मैंने उस स्थिति में अकृतज्ञतापूर्वक उन्हें छोड़ दिया।
 
तात्पर्य
 वैदिक सभ्यता के अनुसार हर व्यक्ति पर ब्राह्मणों, वृद्धों, स्त्रियों, बालकों तथा गौवों की देखरेख करने का उत्तरदायित्त्व होता है। यह हर एक का, विशेषतया उच्च जाति के मनुष्य का, कर्तव्य है। अजामिल ने वेश्या की संगति के कारण अपने सारे कर्तव्यों का परित्याग कर दिया। इस पर पश्चात्ताप करते हुए अब वह अपने को पूरी तरह पतित मान रहा था।
 
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  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥