नारद मुनि ने आगे कहा—तत्पश्चात् कृष्ण ने शिवजी को अपनी निजी शक्ति से, जो धर्म, ज्ञान, त्याग, ऐश्वर्य, तपस्या, विद्या तथा कर्म से युक्त थी, सभी प्रकार की साज-सामग्री से— यथा रथ, सारथी, ध्वजा, घोड़े, हाथी, धनुष, ढाल तथा बाण से संयुक्त कर दिया। इस तरह से संयुक्त होकर शिव जी अपने धनुष-बाण द्वारा असुरों से लडऩे के लिए रथ पर आसीन हुए।
तात्पर्य
जैसाकि श्रीमद्भागवत (१२.१३.१६) में कहा गया है—वैष्णवानां यथा शम्भु:—शिवजी वैष्णवों में सर्वश्रेष्ठ हैं। निस्सन्देह, वे वैष्णव दर्शन के बारह महाजनों में से एक हैं (स्वयम्भूर्नारद: शम्भु: कुमार: मनु:...)। भगवान् कृष्ण सभी तरह से अपने समस्त महाजनों तथा भक्तों की सहायता करने के लिए सदैव उद्यत रहते हैं (कौन्तेय प्रतिजानीहि न मे भक्त: प्रणश्यति )। यद्यपि शिवजी अत्यन्त शक्तिशाली थे किन्तु वे असुरों से पराजित हो गये; अतएव वे खिन्न एवं निराश थे। किन्तु भगवान् के प्रमुख भक्त होने के कारण स्वयं भगवान् ने उन्हें युद्ध की सारी सामग्री से युक्त किया। अतएव भक्त को चाहिए कि वह भगवान् की सेवा निष्ठापूर्वक करे। शत्रु से सदैव भक्त की रक्षा करने तथा आवश्यकता पडने पर उसे शत्रु से युद्ध के लिए युक्त करने के लिए भगवान् उसके पीछे रहते है। भक्तों के लिए कृष्णभावनामृत आन्दोलन का प्रचार करने के लिए ज्ञान या भौतिक उपादानों की कोई कमी नहीं रहती।
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