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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 8: ब्रह्माण्डीय सृष्टि का निवर्तन  »  अध्याय 20: बलि महाराज द्वारा ब्रह्माण्ड समर्पण  »  श्लोक 19
 
 
श्लोक  8.20.19 
तदासुरेन्द्रं दिवि देवतागणा
गन्धर्वविद्याधरसिद्धचारणा: ।
तत्कर्म सर्वेऽपि गृणन्त आर्जवं
प्रसूनवर्षैर्ववृषुर्मुदान्विता: ॥ १९ ॥
 
शब्दार्थ
तदा—उस समय; असुर-इन्द्रम्—असुरों के राजा बलि महाराज को; दिवि—स्वर्गलोक में; देवता-गणा:—देवता लोग; गन्धर्व—गन्धर्वगण; विद्याधर—विद्याधर; सिद्ध—सिद्धलोक के वासी; चारणा:—चारण लोक के वासी; तत्—उस; कर्म— काम; सर्वे अपि—सारे के सारे; गृणन्त:—घोषित करते हुए; आर्जवम्—सरल; प्रसून-वर्षै:—फूलों की वर्षा से; ववृषु:—वर्षा की; मुदा-अन्विता:—उससे परम प्रसन्न होकर ।.
 
अनुवाद
 
 उस समय र्स्वगलोक के निवासी—यथा देवता, गन्धर्व, विद्याधर, सिद्ध तथा चारण सभी—बलि महाराज के इस सरल द्वैतरहित कार्य से परम प्रसन्न हुए और उन्होंने उनके गुणों की प्रशंसा की तथा उन पर लाखों फूल बरसाये।
 
तात्पर्य
 आर्जवम् अर्थात् सरलता या द्वैत से रहित होना ब्राह्मण तथा वैष्णव का गुण है। वैष्णव को स्वत: ब्राह्मण के सारे गुण प्राप्त हो जाते हैं—

यस्यास्ति भक्तिर्भगवत्यकिञ्चना सर्वैर्गुणैस्तत्र समासते सुरा: (भागवत ५.१८.१२) वैष्णव में ब्राह्मण के सारे गुण—यथा सत्य, शम, दम, तितिक्षा तथा आर्जव होने चाहिए। वैष्णव के आचरण में दोगलापन नहीं हो सकता। जब बलि महाराज ने अचल श्रद्धा तथा भक्ति के साथ भगवान् विष्णु के चरणकमलों की सेवा की तो र्स्वगलोक के समस्त वासियों ने इस कार्य की परम प्रशंसा की।

 
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