तब अनन्त भगवान्, जिन्होंने वामन का रूप धारण कर रखा था, भौतिक शक्ति की दृष्टि से आकार में बढऩे लगे यहाँ तक कि ब्रह्माण्ड की सारी वस्तुएँ जिनमें पृथ्वी, अन्य लोक, आकाश, दिशाएँ, ब्रह्माण्ड के विभिन्न छिद्र, समुद्र, पक्षी, पशु, मनुष्य, देवता तथा ऋषिगण सम्मिलित थे, उनके शरीर के भीतर समा गये।
तात्पर्य
बलि महाराज वामनदेव को दान देना चाह रहे थे, किन्तु भगवान् ने अपने शरीर का ऐसा विस्तार किया कि बलि यह देख लें कि इस ब्रह्माण्ड की प्रत्येक वस्तु पहले से ही भगवान् के शरीर में है। वस्तुत: कोई भी व्यक्ति भगवान् को कुछ भी नहीं दे सकता क्योंकि वे प्रत्येक वस्तु से पूर्ण हैं। कभी-कभी कोई भक्त गंगानदी को गंगाजल अर्पित करते देखा जाता है। वह गंगा में स्नान करने के बाद अंजुली में गंगा-जल भरकर गंगा को वापस अर्पित करता है। वस्तुत: जब कोई गंगा से एक अंजुली जल लेता है, तो गंगा का कुछ घटता नहीं। इसी प्रकार जब कोई भक्त गंगा में एक अंजुली जल डालता है, तो उससे गंगाजी में कोई वृद्धि नहीं होती। किन्तु ऐसे अर्पण से भक्त माता गंगा का भक्त बनने का यज्ञ प्राप्त करता है। इसी प्रकार जब हम श्रद्धा तथा भक्ति के साथ कोई वस्तु अर्पित करते हैं, तो अर्पित की गई वस्तु न तो हमारी होती है न ही इससे भगवान् के ऐश्वर्य में कोई वृद्धि होती है। किन्तु यदि कोई मनुष्य अपना सब कुछ अर्पित करता है, तो वह भक्त के रूप में मान्य हो जाता है। इस सम्बन्ध में यह उदाहरण दिया जाता है कि यदि कोई अपने मुखमण्डल को माला तथा चन्दन के लेप से सजाकर दर्पण में अपना प्रतिबिम्ब देखे तो उसके चेहरे का प्रतिबिम्ब अपने आप सुन्दर लगने लगता है। हर वस्तु के मूल स्रोत भगवान् हैं, जो हमारे भी आदि स्रोत हैं। अतएव जब भगवान् को सजाया जाता है, तो भक्त तथा सारे जीव स्वत: सज जाते हैं।
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