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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 8: ब्रह्माण्डीय सृष्टि का निवर्तन  »  अध्याय 20: बलि महाराज द्वारा ब्रह्माण्ड समर्पण  »  श्लोक 4
 
 
श्लोक  8.20.4 
न ह्यसत्यात् परोऽधर्म इति होवाच भूरियम् ।
सर्वं सोढुमलं मन्ये ऋतेऽलीकपरं नरम् ॥ ४ ॥
 
शब्दार्थ
—नहीं; हि—निस्सन्देह; असत्यात्—असत्य से; पर:—बढक़र; अधर्म:—अधर्म; इति—इस प्रकार; ह उवाच—सचमुच कहा है; भू:—माता पृथ्वी ने; इयम्—यह; सर्वम्—सर्वस्व; सोढुम्—सहन करने के लिए; अलम्—मैं समर्थ हूँ; मन्ये—यद्यपि मैं मानता हूँ; ऋते—के अतिरिक्त, सिवाय; अलीक-परम्—अत्यन्त जघन्य झूठा; नरम्—मनुष्य ।.
 
अनुवाद
 
 असत्य से बढक़र पापमय कुछ भी नहीं है। इसी कारण से एक बार माता पृथ्वी ने कहा था, “मैं किसी भी भारी बोझ को सहन कर सकती हूँ, किसी झूठे व्यक्ति को नहीं।”
 
तात्पर्य
 पृथ्वी पर अनेक विशाल पर्वत तथा सागर हैं, जो अत्यन्त भारी हैं और उनको धारण करने में माता पृथ्वी को कोई कठिनाई नहीं होती। किन्तु वह अपने को तब अत्यधिक बोझिल अनुभव करती है जब उसे एक भी लबार (झूठे) व्यक्ति को वहन करना पड़ता है। कहा जाता है कि कलियुग में असत्य एक सामान्य बात है—मायैव व्यावहारिके (भागवत १२.२.३)। यहाँ तक कि सामान्य व्यवहार में भी लोग अनेक झूठ बोलने के आदी होते हैं। कोई भी झूठ बोलने के पापफलों से मुक्त नहीं है। ऐसी परिस्थिति में कोई भी यह अनुमान लगा सकता है कि पृथ्वी कितनी बोझिल हो चुकी है! पृथ्वी क्या, सारा ब्रह्माण्ड बोझिल है।
 
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  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥