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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 8: ब्रह्माण्डीय सृष्टि का निवर्तन  »  अध्याय 20: बलि महाराज द्वारा ब्रह्माण्ड समर्पण  »  श्लोक 6
 
 
श्लोक  8.20.6 
यद् यद्धास्यति लोकेऽस्मिन्सम्परेतं धनादिकम् ।
तस्य त्यागे निमित्तं किं विप्रस्तुष्येन्न तेन चेत् ॥ ६ ॥
 
शब्दार्थ
यत् यत्—जो कुछ भी; हास्यति—छोड़ेगा; लोके—संसार में; अस्मिन्—इस; सम्परेतम्—पहले से मृत; धन-आदिकम्— उसका धनधान्य; तस्य—ऐसी सम्पत्ति के; त्यागे—त्याग में; निमित्तम्—हेतु; किम्—क्या है; विप्र:—ब्राह्मण जो गुप्त रूप में भगवान् विष्णु है; तुष्येत्—प्रसन्न किया जाना चाहिए; —नहीं है; तेन—ऐसे धन से; चेत्—काश ।.
 
अनुवाद
 
 हे प्रभु! आप यह भी देख सकते हैं कि इस संसार का सारा भौतिक ऐश्वर्य उसके स्वामी की मृत्यु के समय निश्चित रूप से विलग हो जाता है। अतएव यदि ब्राह्मण वामनदेव दिये गये उपहारों (दान) से तुष्ट नहीं होते तो क्यों न उन्हें उस धन से तुष्ट कर लिया जाये जो मृत्यु के समय चला जाने वाला है?
 
तात्पर्य
 विप्र शब्द का अर्थ “ब्राह्मण” होने के साथ-साथ “गोपनीय” भी होता है। बलि महाराज ने बिना विचार-विमर्श किये गुप्त रीति से वामनदेव को दान देने का निर्णय लिया था, किन्तु चूँकि ऐसे निर्णय से असुरों तथा उनके गुरु शुक्राचार्य के दिल दुखी होने थे इसलिए उन्होंने अनिश्चित रूप से बात कही। शुद्ध भक्त के रूप में बलि महाराज ने पहले ही भगवान् विष्णु को समस्त भूमि देने का निर्णय कर लिया था।
 
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  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥