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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 9: मुक्ति  »  अध्याय 10: परम भगवान् रामचन्द्र की लीलाएँ  » 
 
 
 
 
संक्षेप विवरण:  इस दसवें अध्याय में बतलाया गया है कि किस तरह महाराज खट्वांग के वंश में भगवान् रामचन्द्र उत्पन्न हुए। इसमें भगवान् के कार्यकलापों का भी वर्णन हुआ है जिसमें रावण...
 
श्लोक 1:  शुकदेव गोस्वामी ने कहा : महाराज खट्वांग का पुत्र दीर्घबाहु हुआ और उसके पुत्र विख्यात महाराज रघु हुए। महाराज रघु से अज उत्पन्न हुए और अज से महापुरुष महाराज दशरथ हुए।
 
श्लोक 2:  देवताओं द्वारा प्रार्थना करने पर भगवान् परम सत्य अपने अंश तथा अंशों के भी अंश के साथ साक्षात् प्रकट हुए। उनके पवित्र नाम थे राम, लक्ष्मण, भरत तथा शत्रुघ्न। ये विख्यात अवतार महाराज दशरथ के पुत्रों के रूप में चार स्वरूपों में प्रकट हुए।
 
श्लोक 3:  हे राजा परीक्षित, भगवान् रामचन्द्र के दिव्य कार्यकलापों का वर्णन उन साधु पुरुषों द्वारा किया गया है जिन्होंने सत्य का दर्शन किया है। चूँकि आप सीतापति रामचन्द्र के विषय में बारम्बार सुन चुके हैं अतएव मैं इन कार्यकलापों का वर्णन संक्षेप में ही करूँगा। कृपया सुनें।
 
श्लोक 4:  अपने पिता के वचनों को अक्षत रखने के लिए भगवान् रामचन्द्र ने तुरन्त ही राजपद छोड़ दिया और अपनी पत्नी सीतादेवी के साथ एक जंगल से दूसरे जंगल में अपने उन चरणकमलों से घूमते रहे जो इतने कोमल थे कि वे सीता की हथेलियों का स्पर्श भी सहन नहीं कर सकते थे। भगवान् के साथ उनके अनुज लक्ष्मण तथा वानरों के राजा हनुमान (या एक अन्य वानर सुग्रीव) भी थे। ये दोनों जंगल में घूमते हुए राम-लक्ष्मण की थकान मिटाने में सहायक बने। शूर्पणखा की नाक तथा कान काटकर उसे कुरूप बनाकर भगवान् सीतादेवी से बिछुड़ गये। अतएव वे अपनी भौहें तानकर क्रुद्ध हुए और सागर को डराया जिसने भगवान् को अपने ऊपर से होकर पुल बनाने की अनुमति दे दी। तत्पश्चात् भगवान् रावण को मारने के लिए दावानल की भाँति उसके राज्य में प्रविष्ट हुए। ऐसे भगवान् रामचन्द्र हम सबों की रक्षा करें।
 
श्लोक 5:  अयोध्यानरेश भगवान् रामचन्द्र ने विश्वामित्र द्वारा सम्पन्न किये गए यज्ञ के क्षेत्र में अनेक राक्षसों तथा असभ्य पुरुषों का वध किया जो तमोगुण से प्रभावित होकर रात में विचरण करते थे। ऐसे रामचन्द्र जिन्होंने लक्ष्मण की उपस्थिति में इन असुरों का वध किया हमारी रक्षा करने की कृपा करें।
 
श्लोक 6-7:  हे राजन्, भगवान् रामचन्द्र की लीलाएँ हाथी के बच्चे के समान अत्यन्त अद्भुत थीं। उस सभाभवन में जिसमें सीतादेवी को अपने पति का चुनाव करना था, उन्होंने इस संसार के वीरों के बीच भगवान् शिव के धनुष को तोड़ दिया। यह धनुष इतना भारी था कि इसे तीन सौ व्यक्ति उठाकर लाए थे लेकिन भगवान् रामचन्द्र ने इसे मोडक़र डोरी चढ़ाई और बीच से उसे वैसे ही तोड़ डाला जिस तरह हाथी का बच्चा गन्ने को तोड़ देता है। इस तरह भगवान् ने सीतादेवी का पाणिग्रहण किया जो उन्हीं के समान दिव्य रूप, सौन्दर्य, आचरण, आयु तथा स्वभाव से युक्त थीं। निस्सन्देह, वे भगवान् के वक्षस्थल पर सतत विद्यमान लक्ष्मी थीं। प्रतियोगियों की सभा में से उसे जीतकर उस के मायके से लौटते हुए भगवान् रामचन्द्र को परशुराम मिले। यद्यपि परशुराम अत्यन्त घमंडी थे क्योंकि उन्होंने इस पृथ्वी को इक्कीस बार राजाओं से विहीन बनाया था, किन्तु वे क्षत्रियवंशी राजा भगवान् राम से पराजित हो गये।
 
श्लोक 8:  अपनी पत्नी के वचनों से बँधे पिता का आदेश पालन करते हुए भगवान् रामचन्द्र ने उसी तरह अपना राज्य, ऐश्वर्य, मित्र, शुभचिन्तक, निवास तथा अन्य सर्वस्व त्याग दिया जिस तरह मुक्तात्मा अपना जीवन त्याग देता है। तब वे सीता सहित जंगल में चले गये।
 
श्लोक 9:  जंगल में घूमते हुए, वहाँ पर अनेक कठिनाइयों को झेलते तथा अपने हाथ में महान् धनुष-बाण लिए भगवान् रामचन्द्र ने कामवासना से दूषित रावण की बहन के नाक-कान काटकर उसे कुरूप कर दिया। उन्होंने उसके चौदह हजार मित्रों को भी मार डाला जिनमें खर, त्रिशिर तथा दूषण मुख्य थे।
 
श्लोक 10:  हे परीक्षित, जब दस शिरों वाले रावण ने सीता के सुन्दर एवं आकर्षक स्वरूप के विषय में सुना तो उसका मन कामवासनाओं से उत्तेजित हो उठा और वह उनको हरने गया। रावण ने भगवान् रामचन्द्र को उनके आश्रम से दूर ले जाने के लिए सोने के मृग का रूप धारण किये मारीच को भेजा और जब भगवान् ने उस अद्भुत मृग को देखा तो उन्होंने अपना आश्रम छोडक़र उसका पीछा करना शुरू कर दिया। अन्त में उसे तीक्ष्ण बाण से उसी तरह मार डाला जिस तरह शिवजी ने दक्ष को मारा था।
 
श्लोक 11:  जब रामचन्द्रजी जंगल में प्रविष्ट हुए और लक्ष्मण भी वहाँ नहीं थे तो दुष्ट राक्षस रावण ने विदेह राजा की पुत्री सीतादेवी का उसी तरह अपहरण कर लिया जिस तरह गडरिये की अनुपस्थिति में बाघ किसी असुरक्षित भेड़ को पकड़ लेता है। तब श्रीरामचन्द्रजी अपने भाई लक्ष्मण के साथ जंगल में इस तरह घूमने लगे मानो कोई अत्यन्त दीन व्यक्ति अपनी पत्नी के वियोग में घूम रहा हो। इस तरह उन्होंने अपने व्यक्तिगत उदाहरण से एक स्त्री-अनुरक्त पुरुष जैसी दशा प्रदर्शित की।
 
श्लोक 12:  भगवान् रामचन्द्रजी ने, जिनके चरणकमल ब्रह्माजी तथा शिवजी द्वारा पूजित हैं, मनुष्य का रूप धारण किया था। अतएव उन्होंने जटायु का दाहसंस्कार किया, जिसे रावण ने मारा था। तत्पश्चात् भगवान् ने कबन्ध नामक असुर को मारा और वानरराजों से मैत्री स्थापित करके बालि का वध किया तथा सीतादेवी के उद्धार की व्यवस्था करके वे समुद्र के तट पर गये।
 
श्लोक 13:  समुद्र तट पर पहुँच कर भगवान् रामचन्द्र ने तीन दिन तक उपवास किया और वे साक्षात् समुद्र के आने की प्रतीक्षा करते रहे। जब समुद्र नहीं आया तो भगवान् ने अपनी क्रोध लीला प्रकट की और समुद्र पर दृष्टिपात करते ही समुद्र के सारे प्राणी, जिनमें घडिय़ाल तथा मगर सम्मिलित थे, भय के मारे उद्विग्न हो उठे। तब शरीर धारण करके डरता हुआ समुद्र पूजा की सारी सामग्री लेकर भगवान् के पास पहुँचा। उसने भगवान् के चरणकमलों पर गिरते हुए इस प्रकार कहा।
 
श्लोक 14:  हे सर्वव्यापी परम पुरुष, हम लोग मन्द बुद्धि होने के कारण यह नहीं जान पाये कि आप कौन हैं, किन्तु अब हम जान पाये हैं कि आप सारे ब्रह्माण्ड के स्वामी, अक्षर तथा आदि परम पुरुष हैं। देवता लोग सतोगुण से, प्रजापति रजोगुण से तथा भूतों के ईश तमोगुण द्वारा अन्धे हो जाते हैं, किन्तु आप इन समस्त गुणों के स्वामी हैं।
 
श्लोक 15:  हे प्रभु, आप इच्छानुसार मेरे जल का उपयोग कर सकते हैं। निस्सन्देह, आप इसे पार करके उस रावण की पुरी में जा सकते हैं जो उपद्रवी है और तीनों जगतों को रुलाने वाला है। वह विश्रवा का पुत्र है, किन्तु मूत्र के समान तिरस्कृत है। कृपया जाकर उसका वध करें और अपनी पत्नी सीतादेवी को फिर से प्राप्त करें। हे महान् वीर, यद्यपि मेरे जल के कारण आपको लंका जाने में कोई बाधा नहीं होगी लेकिन आप इसके ऊपर पुल बनाकर अपने दिव्य यश का विस्तार करें। आपके इस अद्भुत असामान्य कार्य को देखकर भविष्य में सारे महान् योद्धा तथा राजा आपकी महिमा का गान करेंगे।
 
श्लोक 16:  शुकदेव गोस्वामी ने कहा : जल में उन पर्वत शृंगों को फेंककर जिनके सारे वृक्ष बन्दरों द्वारा हाथ से हिलाये गये थे, समुद्र के ऊपर पुल बना चुकने के बाद भगवान् रामचन्द्र सीतादेवी को रावण के चंगुल से छुड़ाने के लिए लंका गये। रावण के भाई विभीषण की सहायता से भगवान् सुग्रीव, नील, हनुमान इत्यादि वानर सैनिकों के साथ रावण के राज्य लंका में प्रविष्ट हुए जिसे हनुमान ने पहले ही भस्म कर दिया था।
 
श्लोक 17:  लंका में प्रवेश करने के बाद सुग्रीव, नील, हनुमान आदि वानर सेनापतियों के नेतृत्व में वानर सैनिकों ने सारे विहारस्थलों, अन्न के गोदामों, खजानों, महलों के द्वारों, नगर के फाटकों, सभाभवनों, महल के छज्जों और यहाँ तक कि कबूतरघरों में अधिकार कर लिया। जब नगरी के सारे चौराहे, चबूतरे, झंडे तथा गुम्बदों पर रखे सुनहरे गमले ध्वस्त कर दिये गये तो समूची लंका नगरी उस नदी के सदृश प्रतीत हो रही थी जिसे हाथियों के झुंड ने मथ दिया हो।
 
श्लोक 18:  जब राक्षसपति रावण ने वानर सैनिकों द्वारा किये जा रहे उपद्रवों को देखा तो उसने निकुम्भ, कुम्भ, धूभ्राक्ष, दुर्मुख, सुरान्तक, नरान्तक तथा अन्य राक्षसों एवं अपने पुत्र इन्द्रजित को भी बुलवाया। तत्पश्चात् उसने प्रहस्त, अतिकाय, विकम्पन को और अन्त में कुम्भकर्ण को बुलवाया। इसके बाद उसने अपने सारे अनुयायियों को शत्रुओं से लडऩे के लिए प्रोत्साहित किया।
 
श्लोक 19:  लक्ष्मण तथा सुग्रीव, हनुमान, गन्धमाद, नील, अंगद, जाम्बवन्त तथा पनस नामक वानर सैनिकों से घिरे हुए भगवान् रामचन्द्र ने उन राक्षस सैनिकों पर आक्रमण कर दिया जो विविध अजेय हथियारों से, यथा तलवारों, भालों, बाणों, प्रासों, ऋष्टियों, शक्तिबाणों, खड्गों तथा तोमरों से सज्जित थे।
 
श्लोक 20:  अंगद तथा रामचन्द्र के अन्य सेनापतियों ने शत्रुओं के हाथियों, पैदल सैनिकों, घोड़ों तथा रथों का सामना किया और उन पर बड़े-बड़े वृक्ष, पर्वत-शृंग, गदा तथा बाण फेंके। इस तरह श्री रामचन्द्रजी के सैनिकों ने रावण के सैनिकों को जिनका सौभाग्य पहले ही लुट चुका था, मार डाला क्योंकि सीतादेवी के क्रोध से रावण पहले ही ध्वस्त हो चुका था।
 
श्लोक 21:  तत्पश्चात् जब राक्षसराज रावण ने देखा कि उसके सारे सैनिक मारे जा चुके हैं तो वह अत्यन्त क्रुद्ध हुआ। अतएव वह अपने विमान में सवार हुआ जो फूलों से सजाया हुआ था और रामचन्द्रजी की ओर बढ़ा जो इन्द्र के सारथी मातलि द्वारा लाये गये तेजस्वी रथ पर आसीन थे। तब रावण ने भगवान् रामचन्द्र पर तीक्ष्ण बाणों की वर्षा की।
 
श्लोक 22:  भगवान् रामचन्द्र ने रावण से कहा : तुम मानवभक्षियों में अत्यन्त गर्हित हो। निस्सन्देह, तुम उनकी विष्ठा तुल्य हो। तुम कुत्ते के समान हो क्योंकि वह घर के मालिक के न होने पर रसोई से खाने की वस्तु चुरा लेता है। तुमने मेरी अनुपस्थिति में मेरी पत्नी सीतादेवी का अपहरण किया है। इसलिए जिस तरह यमराज पापी व्यक्तियों को दण्ड देता है उसी तरह मैं भी तुम्हें दण्ड दूँगा। तुम अत्यन्त नीच, पापी तथा निर्लज्ज हो। अतएव आज मैं तुम्हें दण्ड दूँगा क्योंकि मेरा वार कभी खाली नहीं जाता।
 
श्लोक 23:  इस प्रकार रावण को धिक्कारने के बाद भगवान् रामचन्द्र ने अपने धनुष पर बाण रखा और रावण को निशाना बनाकर बाण छोड़ा जो रावण के हृदय में वज्र के समान बेध गया। इसे देखकर रावण के अनुयायियों ने चिल्लाते हुए तुमुल ध्वनि की “हाय! हाय!” “क्या हो गया?” क्योंकि रावण अपने दसों मुखों से रक्त वमन करता हुआ अपने विमान से उसी तरह नीचे गिर पड़ा जिस प्रकार कोई पुण्यात्मा अपने पुण्यों के चुक जाने पर स्वर्ग से पृथ्वी पर आ गिरता है।
 
श्लोक 24:  तत्पश्चात् वे सारी स्त्रियाँ जिनके पति युद्ध में मारे जा चुके थे, रावण की पत्नी मन्दोदरी के साथ लंका से बाहर आईं। वे निरन्तर विलाप करती हुई रावण तथा अन्य राक्षसों के शवों के निकट पहुँचीं।
 
श्लोक 25:  लक्ष्मण के बाणों द्वारा मारे गये अपने-अपने पतियों के शोक में अपनी छाती पीटती हुई स्त्रियों ने अपने-अपने पतियों का आलिंगन किया और फिर वे कारुणिक स्वर में रोदन करने लगीं जो हर एक को द्रवित करने वाला था।
 
श्लोक 26:  हे नाथ! हे स्वामी! तुम अन्यों की मुसीबत की प्रतिमूर्ति थे; अतएव तुम रावण कहलाते थे। किन्तु अब जब तुम पराजित हो चुके हो, हम भी पराजित हैं क्योंकि तुम्हारे बिना इस लंका के राज्य को शत्रु ने जीत लिया है। बताओ न अब लङ्का किसकी शरण में जायेगी?
 
श्लोक 27:  हे परम सौभाग्यवान, तुम कामवासना के वशीभूत हो गये थे; अतएव तुम सीतादेवी के प्रभाव (तेज) को नहीं समझ सके। तुम भगवान् रामचन्द्र द्वारा मारे जाकर सीताजी के शाप से इस दशा को प्राप्त हुए हो।
 
श्लोक 28:  हे राक्षसकुल के हर्ष, तुम्हारे ही कारण अब लंका-राज्य तथा हम सबों का भी कोई संरक्षक नहीं रहा। तुमने अपने कृत्यों के ही कारण अपने शरीर को गीधों का आहार और अपनी आत्मा को नरक जाने का पात्र बना दिया है।
 
श्लोक 29:  श्री शुकदेव गोस्वामी ने कहा : रावण के पवित्र भाई तथा रामचन्द्र के भक्त विभीषण को कोसल के राजा भगवान् रामचन्द्र से अनुमति प्राप्त हो गई तो उसने अपने परिवार के सदस्यों को नरक जाने से बचाने के लिए आवश्यक अन्त्येष्टि कर्म सम्पन्न किये।
 
श्लोक 30:  तत्पश्चात् भगवान् रामचन्द्र ने सीतादेवी को अशोकवन में शिंशपा नामक वृक्ष के नीचे एक छोटी सी कुटिया में बैठी पाया। वे राम के वियोग के कारण दुखी होने से अत्यन्त दुबली-पतली हो गई थीं।
 
श्लोक 31:  अपनी पत्नी को उस दशा में देखकर भगवान् रामचन्द्र अत्यधिक दयार्द्र हो उठे। जब वे पत्नी के समक्ष आये तो वे भी अपने प्रियतम को देखकर अत्यन्त प्रसन्न हुईं और उनके कमल सदृश मुख से आह्लाद झलकने लगा।
 
श्लोक 32:  भगवान् रामचन्द्र ने विभीषण को लंका के राक्षसों पर एक कल्प तक राज्य करने का अधिकार सौंपकर सीतादेवी को पुष्प से सज्जित विमान (पुष्पक विमान) में बैठाया और फिर वे स्वयं उसमें बैठ गये। अपने वनवास की अवधि समाप्त होने पर, हनुमान, सुग्रीव तथा अपने भाई लक्ष्मणसमेत, भगवान् अयोध्या लौट आये।
 
श्लोक 33:  जब भगवान् रामचन्द्र अपनी राजधानी अयोध्या लौटे तो मार्ग पर लोकपालों ने उनके स्वागतार्थ उनके शरीर पर सुन्दर सुगन्धित फूलों की वर्षा की और ब्रह्मा तथा अन्य देवताओं जैसे महापुरुषों ने परम प्रसन्न होकर भगवान् के कार्यों का गुणगान किया।
 
श्लोक 34:  अयोध्या पहुँचकर भगवान् रामचन्द्र ने सुना कि उनकी अनुपस्थिति में उनका भाई भरत गोमूत्र में पकाये जौ को खाता था, अपने शरीर को वृक्षों की छाल से ढकता था, सिर पर जटा बढ़ाये, कुशों की चटाई पर सोता था। अत्यन्त कृपालु भगवान् ने इस पर अत्यधिक सन्ताप व्यक्त किया।
 
श्लोक 35-38:  जब भरतजी को पता चला कि भगवान् रामचन्द्र अपनी राजधानी अयोध्या लौट रहे हैं तो तुरन्त ही वे भगवान् की खड़ाऊँ अपने सिर पर रखे और नन्दिग्राम स्थित अपने खेमे से बाहर आ गये। भरतजी के साथ मंत्री, पुरोहित, अन्य भद्र नागरिक, मधुर गायन करते पेशेवर गवैये तथा वैदिक मंत्रों का उच्चस्वर से पाठ करने वाले विद्वान ब्राह्मण थे। उनके पीछे जुलूस में रथ थे जिनमें सुन्दर घोड़े जुते थे जिनकी लगामें सुनहरी रस्सियों की थीं। ये रथ सुनहरी किनारी वाली पताकाओं तथा अन्य विविध आकार-प्रकार की पताकाओं से सजाये गये थे। सैनिक सुनहरे कवचों से लैस थे, नौकर पान-सुपारी लिए थे और साथ में अनेक विख्यात सुन्दर वेश्याएँ थीं। अनेक नौकर पैदल चल रह थे और वे छाता, चामर, बहुमूल्य रत्न तथा उपयुक्त विविध राजसी सामान लिए हुए थे। इस तरह प्रेमानन्द से आर्द्र हृदय एवं अश्रुओं से पूरित नेत्रोंवाले भरतजी भगवान् रामचन्द्र के निकट पहुँचे और अत्यन्त भावविभोर होकर उनके चरणकमलों पर गिर गये।
 
श्लोक 39-40:  भगवान् रामचन्द्र के समक्ष खड़ाओं को रखकर भरतजी आँखों में आँसू भरकर और दोनों हाथ जोडक़र खड़े रहे। भगवान् रामचन्द्र अपनी दोनों भुजाओं में भरत को भरकर दीर्घकाल तक आलिंगन करते रहे और उन्होंने उन्हें अपने आँसुओं से नहला दिया। तत्पश्चात् सीतादेवी तथा लक्ष्मण के साथ रामचन्द्र ने विद्वान ब्राह्मणों तथा परिवार के गुरुजनों को नमस्कार किया। समस्त अयोध्यावासियों ने भगवान् को सादर नमस्कार किया।
 
श्लोक 41:  अयोध्या के नागरिकों ने अपने राजा को दीर्घकाल के बाद लौटे देखकर उन्हें फूल की मालाएँ अर्पित कीं, अपने उत्तरीय वस्त्र (दुपट्टे) हिलाए और वे परम प्रसन्न होकर खूब नाचे।
 
श्लोक 42-43:  हे राजा, भरतजी भगवान् राम की खड़ाऊँ लिये थे, सुग्रीव तथा विभीषण चँवर तथा सुन्दर पंखा लिये थे, हनुमान सफेद छाता लिये हुए थे, शत्रुघ्न धनुष तथा दो तरकस लिए थे तथा सीतादेवी तीर्थस्थानों के जल से भरा पात्र लिए थीं। अंगद तलवार लिए थे और ऋक्षराज जाम्बवान सुनहरी ढाल लिए थे।
 
श्लोक 44:  हे राजा परीक्षित, अपने पुष्पक विमान पर बैठे भगवान् रामचन्द्र स्त्रियों द्वारा स्तुति किये जाने पर तथा बन्दीजनों द्वारा गुणगान किये जाने पर ऐसे प्रतीत हो रहे थे मानों तारों तथा ग्रहों के बीच चन्द्रमा हो।
 
श्लोक 45-46:  तत्पश्चात् अपने भाई भरत द्वारा स्वागत किये जाकर भगवान् रामचन्द्र एक उत्सव के बीच अयोध्या नगरी में प्रविष्ट हुए। जब वे महल में घुसे तो उन्होंने कैकेयी तथा महाराज दशरथ की अन्य पत्नी एवं अपनी माता कौशल्या—इन सभी माताओं को नमस्कार किया। उन्होंने अपने गुरुओं को, यथा वसिष्ठ को भी प्रणाम किया। उनके हमउम्र मित्रों तथा उनसे कम आयु वाले मित्रों ने उनकी पूजा की तो उन्होंने भी उनका अभिवादन किया। लक्ष्मण तथा सीतादेवी ने भी वैसा ही किया। इस प्रकार वे सभी महल में प्रविष्ट हुए।
 
श्लोक 47:  अपने पुत्रों को देखकर राम, लक्ष्मण भरत तथा शत्रुघ्न की माताएँ तुरन्त उठ खड़ी हुईं मानो निश्चेष्ट शरीर में चेतना आ गई हो। माताओं ने अपने पुत्रों को अपनी गोदों में भर लिया और उन्हें आँसुओं से नहलाकर अपने दीर्घकालीन विछोह के सन्ताप से छुटकारा पा लिया।
 
श्लोक 48:  कुलगुरु वसिष्ठ ने भगवान् रामचन्द्र के सिर की जटाएँ मुँड़वा दीं। तत्पश्चात् कुल के गुरुजनों के सहयोग से उन्होंने चारों समुद्रों के जल तथा अन्य सामग्रियों के द्वारा भगवान् रामचन्द्र का अभिषेक उसी तरह सम्पन्न किया जिस तरह राजा इन्द्र का हुआ था।
 
श्लोक 49:  भलीभाँति स्नान करके तथा अपना सिर घुटा करके भगवान् रामचन्द्र ने अपने आपको सुन्दर वस्त्रों से सज्जित और एक माला तथा आभूषणों से अलंकृत किया। इस प्रकार वे अपने ही समान वस्त्र तथा आभूषण धारण किये अपने भाइयों तथा पत्नी के साथ अत्यन्त तेजोमय लग रहे थे।
 
श्लोक 50:  तब भरत की पूर्ण शरणागति से प्रसन्न होकर भगवान् रामचन्द्र ने राजसिंहासन स्वीकार किया। वे प्रजा की रक्षा पिता की भाँति करने लगे और प्रजा ने भी वर्ण तथा आश्रम के अनुसार अपने- अपने वृत्तिपरक कार्यों में लगकर उन्हें पितृतुल्य स्वीकार किया।
 
श्लोक 51:  भगवान् रामचन्द्र त्रेतायुग में राजा बने थे, किन्तु उनकी सरकार अच्छी होने से वह युग सत्ययुग जैसा था। प्रत्येक व्यक्ति धार्मिक एवं पूर्ण सुखी था।
 
श्लोक 52:  हे भरतश्रेष्ठ महाराज परीक्षित, भगवान् रामचन्द्र के राज में सारे वन, नदियाँ, पर्वत, राज्य, सातों द्वीप तथा सातों समुद्र सारे जीवों को जीवन की आवश्यक वस्तुएँ प्रदान करने के लिए अनुकूल थे।
 
श्लोक 53:  जब भगवान् रामचन्द्र इस जगत के राजा थे तो सारे शारीरिक तथा मानसिक कष्ट, रोग, बुढ़ापा, विछोह, पश्चाताप, दुख, डर तथा थकावट का नामोनिशान न था। यहाँ तक कि न चाहने वालों के लिए मृत्यु भी नहीं थी।
 
श्लोक 54:  भगवान् रामचन्द्र ने एक पत्नी रखने का तथा किसी अन्य स्त्री से सम्बन्ध न रखने का व्रत ले रखा था। वे एक साधु राजा थे और उनका चरित्र उत्तम था; क्रोध उन्हें छू तक नहीं गया था। उन्होंने हर एक को, विशेष रूप से गृहस्थों को वर्णाश्रम धर्म के रूप में सदाचरण का पाठ पढ़ाया। इस तरह उन्होंने अपने निजी कार्यकलापों से सामान्य जनता को शिक्षा दी।
 
श्लोक 55:  सीतादेवी अत्यन्त विनीत, आज्ञाकारिणी, लज्जालु तथा सती थीं और सदा अपने पति के भाव को समझने वाली थीं। इस प्रकार अपने चरित्र एवं प्रेम तथा सेवा से वे भगवान् के मन को पूरी तरह मोह सकीं।
 
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