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अध्याय 3: सुकन्या तथा च्यवन मुनि का विवाह
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संक्षेप विवरण: इस अध्याय में मनु के अन्य पुत्र शर्याति के वंश का वर्णन है और इसमें सुकन्या तथा रेवती का भी उल्लेख हुआ है।
देवज्ञ शर्याति ने अंगिरसों के यज्ञ के दूसरे दिन सम्पन्न... |
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श्लोक 1: श्री शुकदेव गोस्वामी ने आगे कहा : हे राजा, मनु का दूसरा पुत्र राजा शर्याति वैदिक ज्ञान में पारंगत था। उसने अंगिरावंशियों द्वारा सम्पन्न होने वाले यज्ञ के दूसरे दिन के उत्सवों के विषय में आदेश दिए। |
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श्लोक 2: शर्याति के सुकन्या नामक एक सुन्दर कमलनेत्री कन्या थी जिसके साथ वे जंगल में च्यवन मुनि के आश्रम को देखने गये। |
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श्लोक 3: जब वह सुकन्या जंगल में अपनी सहेलियों से घिरी हुई, वृक्षों से विविध प्रकार के फल एकत्र कर रही थी तो उसने बाँबी के छेद में दो जुगुनू जैसी चमकीली वस्तुएँ देखीं। |
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श्लोक 4: मानो विधाता से प्रेरित होकर उस तरुणी ने बिना जाने उन दोनों जुगुनुओं को एक काँटे से छेद दिया जिससे उनमें से रक्त फूटकर बाहर आने लगा। |
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श्लोक 5: उसके बाद ही शर्याति के सारे सैनिकों को तुरन्त ही मल-मूत्र में अवरोध होने लगा। यह देखकर शर्याति बड़े अचम्भे में आकर अपने संगियों से बोला। |
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श्लोक 6: यह कितनी विचित्र बात है कि हममें से किसी ने भृगुपुत्र च्यवन मुनि का कुछ अहित करने का प्रयास किया है। निश्चय ही, ऐसा लगता है कि हममें से किसी ने इस आश्रम को अपवित्र कर दिया है। |
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श्लोक 7: अत्यन्त भयभीत सुकन्या ने अपने पिता से कहा : मैंने कुछ गलती की है क्योंकि मैंने अज्ञानवश इन दो चमकीली वस्तुओं को काँटे से छेद दिया है। |
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श्लोक 8: अपनी पुत्री से यह सुनकर राजा शर्याति अत्यधिक डर गये। उन्होंने अनेक प्रकार से च्यवन मुनि को शांत करने का प्रयत्न किया क्योंकि वे ही उस बाँबी के छेद के भीतर बैठे थे। |
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श्लोक 9: अत्यन्त विचारमग्न होकर और च्यवन मुनि के प्रयोजन को समझकर राजा शर्याति ने मुनि को अपनी कन्या दान में दे दी। इस प्रकार बड़ी मुश्किल से संकट से मुक्त होकर उसने च्यवन मुनि से अनुमति ली और वह घर लौट गया। |
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श्लोक 10: च्यवन मुनि अत्यन्त क्रोधी थे, किन्तु क्योंकि सुकन्या ने उन्हें पति रूप में प्राप्त किया था, अत: उसने सावधानी से उनके मनोनुकूल व्यवहार किया। उसने बिना घबराए उनकी सेवा की। |
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श्लोक 11: कुछ काल बीतने के बाद दोनों अश्विनीकुमार जो स्वर्गलोक के वैद्य थे, च्यवन मुनि के आश्रम आये। उनका सत्कार करने के बाद च्यवन मुनि ने उनसे यौवन प्रदान करने के लिए प्रार्थना की क्योंकि वे ऐसा करने में सक्षम थे। |
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श्लोक 12: च्यवन मुनि ने कहा : यद्यपि तुम दोनों यज्ञ में सोमरस पीने के पात्र नहीं हो, किन्तु मैं वचन देता हूँ कि मैं तुम्हें सोमरस का पूरा बर्तन भर कर दूँगा। कृपा करके मेरे लिए सौन्दर्य तथा तारुण्य की व्यवस्था करो क्योंकि तरुणी स्त्रियों को ये आकर्षक लगते हैं। |
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श्लोक 13: उन महान् वैद्य अश्विनीकुमारों ने च्यवन मुनि के प्रस्ताव को सहर्ष स्वीकार कर लिया। उन्होंने उस ब्राह्मण से कहा “आप इस सिद्धिदायक झील में गोता लगाइये। (जो इस झील में नहाता है उसकी कामनाएँ पूरी होती हैं)। |
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श्लोक 14: यह कहकर अश्विनीकुमारों ने च्यवन मुनि को पकड़ा जो वृद्ध थे और जिनके रुग्ण शरीर की चमड़ी झूल रही थी, बाल सफेद थे तथा सारे शरीर में नसें दिख रही थीं और वे तीनों उस झील में घुस गये। |
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श्लोक 15: तत्पश्चात् झील से तीन अत्यन्त सुन्दर स्वरूप वाले व्यक्ति ऊपर उठे। वे अच्छे वस्त्र धारण किये थे और कुण्डलों तथा कमल की मालाओं से विभूषित तीनों ही समान सुन्दरता वाले थे। |
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श्लोक 16: साध्वी एवं परम सुन्दरी सुकन्या अपने पति एवं उन दोनों अश्विनीकुमारों में अन्तर न कर पाई क्योंकि वे समान रूप से सुन्दर थे। अतएव अपने असली पति को पहचान पाने में असमर्थ होने के कारण उसने अश्विनीकुमारों की शरण ग्रहण की। |
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श्लोक 17: दोनों अश्विनीकुमार सुकन्या के सतीत्व एवं निष्ठा को देखकर अत्यन्त प्रसन्न हुए। अत: उन्होंने उसे उसके पति च्यवन मुनि को दिखलाया और फिर उनसे अनुमति लेकर वे अपने विमान से स्वर्गलोक को वापस लौट गये। |
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श्लोक 18: तत्पश्चात् यज्ञ सम्पन्न करने की इच्छा से राजा शर्याति च्यवन मुनि के आवास में गये। वहाँ उन्होंने अपनी पुत्री के बगल में सूर्य के समान एक तेजस्वी सुन्दर तरुण पुरुष को देखा। |
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श्लोक 19: राजा की पुत्री ने पिता के चरणों की वन्दना की, किन्तु राजा उसे आशीष देने की बजाय उससे अत्यधिक अप्रसन्न प्रतीत हुआ और उससे इस प्रकार बोला। |
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श्लोक 20: हे दुष्ट लडक़ी, तुमने यह क्या कर दिया? तुमने अपने अत्यन्त सम्माननीय पति को धोखा दिया है क्योंकि मैं देख रहा हूँ कि उसके वृद्ध, रोगग्रस्त तथा अनाकर्षक होने के कारण तुमने उसका साथ छोडक़र इस तरुण पुरुष को अपना पति बनाना चाहा है जो भिक्षुक जैसा प्रतीत होता है। |
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श्लोक 21: हे पूज्य कुल में उत्पन्न मेरी पुत्री, तुमने अपनी चेतना को किस तरह इतना नीचे गिरा दिया है? तुम किस तरह परपति को इतनी निर्लज्जतापूर्वक रख रही हो? इस तरह तुम अपने पिता तथा अपने पति दोनों के कुलों को नरक में धकेल कर बदनाम करोगी। |
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श्लोक 22: किन्तु अपने सतीत्व पर गर्वित सुकन्या अपने पिता की डाँट फटकार सुनकर मुस्काने लगी। उसने हँसते हुए कहा “हे पिता, मेरी बगल में बैठा यह तरुण व्यक्ति आपका असली दामाद, भृगुवंश में उत्पन्न, च्यवन मुनि है।” |
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श्लोक 23: तब सुकन्या ने बतलाया कि किस तरह उसके पति को तरुण पुरुष का सुन्दर शरीर प्राप्त हुआ। जब राजा ने इसे सुना तो वह अत्यधिक चकित हुआ और परम हर्षित होकर उसने अपनी प्रिय पुत्री को गले से लगा लिया। |
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श्लोक 24: च्यवन मुनि ने अपने पराक्रम से राजा शर्याति से सोमयज्ञ सम्पन्न कराया। मुनि ने अश्विनीकुमारों को सोमरस का पूरा पात्र प्रदान किया यद्यपि वे इसे पीने के अधिकारी नहीं थे। |
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श्लोक 25: उद्विग्न एवं क्रुद्ध होने से इन्द्र ने च्यवन मुनि को मार डालना चाहा अतएव उसने बिना सोचे विचारे अपना वज्र धारण कर लिया। लेकिन च्यवन मुनि ने अपने पराक्रम से इन्द्र की उस बाँह को संज्ञाशून्य कर दिया जिससे उसने वज्र पकड़ रखा था। |
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श्लोक 26: यद्यपि अश्विनीकुमार मात्र वैद्य थे और इसी कारण से उन्हें यज्ञों में सोमरस-पान से बाहर रखा जाता था, किन्तु देवताओं ने इसके बाद उन्हें सोमरस पीने के लिए अनुमति प्रदान कर दी। |
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श्लोक 27: राजा शर्याति के उत्तानबर्हि, आनर्त तथा भूरिषेण नामक तीन पुत्र हुए। आनर्त के पुत्र का नाम रेवत था। |
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श्लोक 28: हे शत्रुओं के दमनकर्ता महाराज परीक्षित, इस रेवत ने समुद्र के भीतर कुशस्थली नामक राज्य का निर्माण कराया। वहाँ रहकर उसने आनर्त इत्यादि भूखण्डों पर शासन किया। उसके एक सौ सुन्दर पुत्र थे जिनमें सबसे बड़ा ककुद्मी था। |
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श्लोक 29: ककुद्मी अपनी पुत्री रेवती को लेकर ब्रह्मा के पास ब्रह्मलोक में गया जो भौतिक प्रकृति के तीनों गुणों से परे है और उसके लिए पति के विषय में पूछताछ की। |
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श्लोक 30: जब ककुद्मी वहाँ पहुँचा तो ब्रह्माजी गन्धर्वों का संगीत सुनने में व्यस्त थे और उन्हें बात करने की तनिक भी फुरसत न थी। अतएव ककुद्मी प्रतीक्षा करता रहा और संगीत समाप्त होने पर उसने ब्रह्माजी को नमस्कार करके अपनी चिरकालीन इच्छा व्यक्त की। |
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श्लोक 31: उसके वचन सुनकर शक्तिशाली ब्रह्माजी जोर से हँसे और ककुद्मी से बोले: हे राजा, तुमने अपने हृदय में जिन लोगों को अपना दामाद बनाने का निश्चय किया है वे कालक्रम से मर चुके हैं। |
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श्लोक 32: सत्ताईस चतुर्युग बीत चुके हैं। तुमने जिन लोगों को रेवती का पति बनाना चाहा होगा वे अब सब चले गये हैं और उनके पुत्र, पौत्र तथा अन्य वंशज भी नहीं रहे हैं। अब तुम्हें उनके नाम भी नहीं सुनाई पड़ेंगे। |
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श्लोक 33: हे राजा, तुम यहाँ से जाओ और अपनी पुत्री भगवान् बलदेव को अर्पित करो जो अभी भी उपस्थित हैं। वे अत्यन्त शक्तिशाली हैं। निस्सन्देह, वे भगवान् हैं और उनके स्वांश विष्णु हैं। उन्हें दान में दिये जाने के लिए तुम्हारी पुत्री सर्वथा उपयुक्त है। |
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श्लोक 34: बलदेवजी भगवान् हैं। जो कोई उनका श्रवण और उनका कीर्तन करता है वह पवित्र हो जाता है। चूँकि वे समस्त जीवों के सतत हितैषी हैं अतएव वे अपने सारे साज-सामान सहित सारे जगत को शुद्ध करने तथा इसका भार कम करने के लिए अवतरित हुए हैं। |
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श्लोक 35: ब्रह्माजी से यह आदेश पाकर ककुद्मी ने उन्हें नमस्कार किया और अपने निवासस्थान को लौट गया। तब उसने देखा कि उसका आवास रिक्त है, उसके भाई तथा अन्य कुटुम्बी उसे छोडक़र चले गये हैं और यक्षों जैसे उच्चतर जीवों के भय से वे समस्त दिशाओं में रह रहे हैं। |
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श्लोक 36: तत्पश्चात् राजा ने अपनी परम सुन्दरी पुत्री परम शक्तिशाली बलदेव को दान में दे दी और सांसारिक जीवन से विरक्त होकर वह नर-नारायण को प्रसन्न करने के लिए बदरिकाश्रम चला गया। |
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