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श्रील प्रभुपाद लीलमृत  »  अध्याय 1: बचपन  » 
 
 
 
 
 
हम सोते होते, और पिताजी आरती करते रहते। घंटी की घन-घन सुन हम जग जाते और देखते कि वे कृष्ण को नमन कर रहे हैं। —श्रील प्रभुपाद

जन्माष्टमी का दिन था, आज से कोई पाँच हजार वर्ष पहले श्रीकृष्ण के अवतार ग्रहण करने के उपलक्ष्य में मनाये जाने वाले वार्षिक उत्सव का दिन । कलकत्ता- निवासी, जिनमें अधिकतर बंगाली और अन्य भारतीय थे, किन्तु जिनमें कुछ मुसलमान और अंग्रेज भी थे, उत्सव मना रहे थे और श्रीकृष्ण के मंदिरों के दर्शनार्थ नगर की सड़कों में यत्र तत्र घूम रहे थे। आधी रात तक व्रत रखने वाले भक्त - वैष्णव हरे कृष्ण कीर्तन कर रहे थे और श्रीकृष्ण के जन्म और कार्य-कलापों के सम्बन्ध में श्रीमद्भागवतम् का पाठ सुन रहे थे। वे रातभर व्रत-उपवास, कीर्तन, और पूजा-पाठ करते रहे।

दूसरे दिन ( सितम्बर १, १८९६) कलकत्ता के उपनगर टालीगंज के एक छोटे मकान में एक बालक का जन्म हुआ। बालक का जन्म नन्दोत्सव के दिन हुआ था जब कि कृष्ण के पिता, नन्द महाराज ने कृष्ण जन्म के उपलक्ष्य में उत्सव मनाया था, इसलिए बालक के चाचा ने उसको नन्दूलाल कहकर पुकारा । किन्तु उसके पिता, गौर मोहन दे, और उसकी माता, रजनी, ने उसका नाम अभयचरण रखा, जिसका अर्थ है, "जो श्रीकृष्ण के कमलवत् चरणों में शरण लेने के कारण निर्भय हो ।” बंगाली परम्परा के अनुसार माँ बच्चे के जन्म के लिए अपने माँ-बाप के घर गई थीं। अतएव अभयचरण का जन्म, अपने पिता के घर से कुछ मील दूर, आदि गंगा के तट पर, मिट्टी की दीवारों से बने और खपरैल से छाए और कटहल वृक्ष के नीचे स्थित दो कमरों वाले एक छोटे से मकान में हुआ। कुछ दिन बाद अभय अपने माँ-बाप के साथ अपने घर, १५१, हरीसन रोड, आ गए ।

एक ज्योतिषी ने बालक की जन्मकुंडली बनाई और परिवार के लोग उसके शुभ लक्षणों से बहुत प्रसन्न हुए । ज्योतिषी ने विशेष भविष्यवाणी की : यह बालक जब सत्तर वर्ष का होगा तब यह समुद्र पार जायगा, धर्म का महान् व्याख्याता बनेगा और १०८ मंदिरों की स्थापना करेगा।

अभयचरण दे ऐसे भारतवर्ष में पैदा हुए थे जो विक्टोरियन साम्राज्यवाद से आक्रांत था । कलकत्ता भारत की राजधानी थी, वायसराय अर्ल आफ एलगिन और किन कर्डाइन का मुख्यालय और ब्रिटिश साम्राज्य का 'दूसरा नगर' । योरोपीय और भारतीय अलग-अलग रहते थे, यद्यपि कारोबार और शिक्षा में उनका मेल-जोल था । अँग्रेज अधिकतर मध्य कलकत्ता में रहते थे, जहाँ उनके थियेटर थे, घुड़दौर के मैदान थे, क्रिकेट के मैदान थे और सुंदर योरोपीय भवन थे । भारतीय ज्यादातर कलकत्ता के उत्तरी हिस्से में रहते थे । पुरुष धोती पहनते थे और स्त्रियाँ साड़ी । ब्रिटिश राज के प्रति स्वामिभक्त रहते हुए, वे अपने परम्परागत धर्म और संस्कृति का अनुगमन करते थे ।

अभय का घर, १५१, हरीसन रोड, उत्तरी कलकत्ता के भारतीय खंड में था। अभय के पिता, गौर मोहन दे, सामान्य आय वाले एक कपड़े के व्यापारी थे और अभिजात सुवर्ण-वणिक सम्प्रदाय में जन्मे थे। किन्तु उनका सम्बन्ध सम्पन्न मल्लिक परिवार से हो गया था जो सैंकड़ों वर्षों से अंग्रेजों के साथ सोने और नमक का व्यापार करता आया था। मल्लिक मूलत: दे परिवार के सदस्य थे जिसका सम्बन्ध प्राचीन ऋषि गौतम से था; किन्तु ब्रिटिश-पूर्व मुगल काल में एक मुसलमान शासक ने दे-परिवार की एक सम्पन्न और प्रभावशाली शाखा को मल्लिक (स्वामी) की उपाधि से सम्मानित किया था। तत्पश्चात्, कई पीढ़ियों के बाद, दे परिवार की एक कन्या का विवाह मल्लिक परिवार में हुआ, और तब से दोनों परिवार एक दूसरे के बहुत निकट बने रहे ।

हरीसन रोड की दोनों ओर की सम्पत्तियों का एक लम्बा सिलसिला लोकनाथ मल्लिक का था, और इनमें एक तीन मंजिले मकान के कुछ कमरों में गौर मोहन अपने परिवार के साथ रहते थे। उनके निवास के सामने सड़क के पार राधा-गोविन्द का एक मंदिर था जहाँ गत १५० वर्षों से मल्लिक लोग राधा कृष्ण के श्रीविग्रहों की पूजा-अर्चना करते आए थे। मल्लिकों की कई दूकानों की आय से श्रीविग्रहों और उनकी पूजा - अर्चना करने वाले पुजारियों का खर्च चलता था। हर प्रात: काल, जलपान के पूर्व, मल्लिक परिवार के सदस्य राधा-गोविन्द के श्रीविग्रहों का दर्शन करने मंदिर में जाते थे। वे एक बड़े थाल में भात, कचौरियाँ और सब्जियाँ रखकर श्रीविग्रहों को अर्पित करते और तब प्रसाद के रूप में उनका वितरण सवेरे पास-पड़ोस से आए दर्शनार्थियों में करते थे ।

अभयचरण नित्यप्रति के दर्शनार्थियों में थे। साथ में उनकी माता होतीं, पिता होते या नौकर होता ।

श्रील प्रभुपादः - मैं सिद्धेश्वर मल्लिक के साथ एक ही बच्चा - गाड़ी में सवारी करता। वह मुझे मोती कहता और उसका उपनाम सुबिधि था। नौकर हम दोनों को साथ चलाता। यदि किसी दिन मेरा यह मित्र मुझे न देखता तो वह पागल हो उठता । वह बच्चा - गाड़ी में मेरे बिना सवारी न करता । हम एक क्षण के लिए भी अलग न होते ।

***

जब नौकर बच्चा - गाड़ी को, साइकिलों और भाड़े की घोड़ा - गाड़ियों से बचाता हुआ, विस्तृत हरीसन रोड के बीचों बीच धकेलता, उस समय दोनों बच्चे ऊपर के स्वच्छ निर्मल आकाश और आर-पार के लम्बे वृक्षों पर दृष्टि गड़ाए रहते। सड़क पर चक्कर खाती बड़ी पहियों वाली घोड़ा - गाड़ियों के दृश्य और उनसे पैदा होने वाली आवाज दोनों बच्चों का मुग्ध ध्यान बरबस अपनी ओर खींच लेतीं। नौकर गाड़ी को राधाकृष्ण मंदिर के चारों ओर निर्मित लाल बलुए पत्थर में बने मेहराबदार फाटक की ओर ले चलता, और जब अभय और उनका मित्र अलंकृत धातु वाले मेहराब के नीचे से मंदिर के आँगन में प्रविष्ट होते तो वे अपने ऊपर दो प्रस्तर सिंहों को देखते जो अपने दाहिने पंजे आगे को फैलाए हुए मंदिर के आँगन के आह्वानकर्त्ता और संरक्षक की तरह स्थित थे।

आंगन के अंदर का मार्ग वृत्ताकार था, और अंडाकार लॉन पर गैस की बत्तियोंवाले दीपस्तम्भ खड़े थे। परिधान - युक्त युवती की एक प्रतिमा भी वहाँ खड़ी थी। तेजी से चहकते हुए गौरये झाड़ियों और वृक्षों में फुदकते रहते या एक-एक कर जमीन में चोंच मारते हुए घास में इधर से उधर कूदते रहते। कबूतर समूह गान में गूटरू - गूं करते रहते, फिर कभी अचानक वे अपने पंखों को फड़फड़ाते हुए ऊपर उड़ जाते और उसके बाद या तो दूसरे अड्डों पर जा बैठते या नीचे आंगन में उतर आते। सादी सूती साड़ियाँ और सफेद धोतियाँ पहने हुए, इधर-उधर आते-जाते बंगालियों से तरह-तरह की ध्वनियाँ उठ रही होतीं। कोई बच्चा - गाड़ी के पास तनिक रुक कर काली चमकदार आँखों वाले स्वर्णिम चमड़ी वाले बच्चों को पुचकारता, किन्तु अधिकतर लोग तेजी से चलते हुए मंदिर में प्रवेश कर जाते ।

अंदर के आंगन की ओर जाने वाले भारी, दुहरे किवाड़ खुले थे, और नौकर ने बच्चा - गाड़ी को एक फुट नीचे की सीढ़ी पर धीरे से उतारा और गैलरी से आगे बढ़कर उसे दूसरी सीढ़ी पर उतारा और फिर वह सूर्य के प्रकाश से चमचमाते मुख्य आंगन में प्रविष्ट हुआ। वहाँ उनका सामना चार - फुट - स्तंभ पर आसीन गरुड़ की पत्थर की एक प्रतिमा से हुआ। विष्णु के वाहक गरुड़, जो आधा मनुष्य और आधा पक्षी हैं, एक घुटने पर झुके थे, उनके हाथ प्रार्थना में जुड़े थे, उनकी चोंच बाज पक्षी की तरह मजबूत थी और पंख पीछे की ओर खिंचे थे। बच्चा - गाड़ी पत्थर से बने आँगन को बुहारते और धोते हुए दो नौकरों से आगे बढ़ी। अब आंगन के पार मंदिर केवल कुछ कदम रह गया था ।

स्वयं मंदिर क्षेत्र, जो पैविलियन की तरह खुला था, ऊँचा चबूतरे जैसा था जिसके ऊपर पन्द्रह फुट ऊँचे, मजबूत खंभों पर टिकी पत्थर की छत थी। मंदिर के पैविलियन की बाईं ओर के सिरे पर उपासकों की भीड़, आसन पर विराजमान श्रीविग्रहों का दर्शन करती हुई, खड़ी थी। नौकर बच्चा - गाड़ी को और निकट ले गया; दोनों बच्चों को बाहर निकाला और हाथ पकड़कर आदरपूर्वक वह उन्हें अर्चा-विग्रह के सम्मुख ले गया ।

श्रील प्रभुपाद : राधा-गोविन्द मंदिर के द्वार पर खड़े होकर राधा-गोविन्द की मूर्ति के सामने प्रार्थना करने का मुझे स्मरण है। मैं घंटो मूर्ति को देखा करता । तिरछे नेत्रों वाली वह मूर्ति कितनी सुंदर थी ।

सद्यः स्नात और विभूषित राधा और गोविन्द अब महकते हुए फूलों वाले कलशों के बीच चाँदी के सिंहासन पर विराजमान थे। गोविन्द लगभग डेढ़ फुट लम्बे थे और राधारानी, जो उनके बाएँ खड़ी थीं, कुछ छोटी थीं । दोनों स्वर्ण-निर्मित थे। राधा और गोविन्द दोनों एक ही सुंदर टेढ़ी नृत्य - भंगिमा नृत्य-भंगिमा में थे, दाहिनी टाँग घुटने पर मुड़ी हुई और दाहिना पग बाएँ के आगे स्थित । चमकदार रेशम की साड़ी में सजी राधा रानी लालवर्ण की हथेली वाले दाहिने हाथ को आशीर्वचन की मुद्रा में ऊपर उठाए थीं और रेशमी कुर्ते और धोती में सजे कृष्ण सुनहरी बाँसुरी बजा रहे थे ।

गोविन्द के चरणकमलों पर तुलसी की पत्तियाँ पड़ी थीं और उन पर चन्दन का मोटा लेप लगा था। दोनों श्रीवरों के गलों से रात्रि में खिलने वाली मालती के फूलों की कितनी ही मालाएँ लटक रही थीं, जो लगभग उनके चरण-कमलों तक पहुँचती थीं, तूरी- सरीखे पुष्प उनके दैवी शरीर को कोमलता से आच्छादित किए हुए थे। सोने, मोती और हीरे से बने उनके कण्ठमाल चमचमा रहे थे। राधारानी के बाजूबंद सोने के थे और वे और कृष्ण, दोनों सुनहरे तारों से अलंकृत रेशम की चादरें कंधों पर ओढ़े थे उनके हाथों और बालों में सुसज्जित पुष्प छोटे और कोमल थे और सिरों पर स्थित चाँदी के मुकुट रत्नों से जड़े थे। राधा और कृष्ण मंद-मंद मुस्करा रहे थे।

सुन्दर वस्त्रों में सजे, रजत वितान के नीचे पुष्पों से आवृत, चाँदी के सिंहासन पर नृत्य की मुद्रा में विराजमान वे अभय को अत्यन्त आकर्षक लगे । हरीसन रोड और उसके इधर-उधर का जीवन विस्मृत हो गया । आँगन में पक्षी कलरव करते रहे, दर्शनार्थी आते और जाते रहे, किन्तु अभय मौन खड़े रहे, परम ईश्वर श्रीकृष्ण और उनकी नित्य सहवासिनी राधारानी के सुन्दर रूपों के अवलोकन में आत्मविभोर ।

तब भक्तों के मंत्रोच्चार और ढोलकों और करतालों के वादन के साथ कीर्तन आरंभ हुआ। अभय और उनके मित्र देखते रहे, पुजारियों ने अगरबत्तियाँ अर्पित कीं, उनकी धूम - तरंगें हवा में उठती रहीं, तब एक प्रज्जवलित दीप चढ़ाया गया, फिर एक शंख, एक रूमाल, पुष्प, एक चामर, और एक मोरपंख । अंत में पुजारी ने ऊंचे स्वर में शंख बजाया और आरती का विधान पूरा हुआ ।

***

जब अभय डेढ़ वर्ष के थे तब वे टायफायड से बीमार पड़े। परिवार के डाक्टर बोस ने मुर्गी का सूप देने को कहा ।

" नहीं,” गौर मोहन ने विरोध किया, “मैं इसे नहीं देने दूँगा । "

" देना है, नहीं तो वह मर जायगा ।'

“किन्तु हम मांस भक्षी नहीं हैं, " गौर मोहन ने तर्क किया । " हमारे रसोई घर में मुर्गी नहीं पकाई जा सकती ।'

“चिन्ता न करें,” डा. बोस ने कहा । "मैं इसे अपने घर में तैयार करूँगा और एक जार में लाऊँगा । आप केवल ... "

गौर मोहन ने यह कहते हुए स्वीकार कर लिया, "यदि यह मेरे बेटे के जीवन के लिए आवश्यक हो ।” अस्तु, डाक्टर मुर्गी का सूप ले आए और अभय को दिया । अभय को तुरंत उल्टी होने लगी ।

डाक्टर ने स्वीकार किया, "जाने दीजिए, यह ठीक नहीं।” तब गौर मोहन ने मुर्गी का सूप बाहर फेंक दिया और अभय मांस खाये बिना ही टायफायड से धीरे धीरे ठीक होने लगे।

अभय की नानी के घर की छत पर फूलों का एक छोटा-सा उद्यान था, घास थी और कुछ पेड़ थे । अन्य नाती-पोतों के साथ दो वर्ष की आयु के अभय को इन पौधों को हजारे से पानी देने में बड़ा आनन्द आता । किन्तु उनकी विशेष प्रवृत्ति इन पौधों के बीच अकेले बैठने की थी। वे एक बढ़िया झाड़ी खोज लेते और वहाँ अपने बैठने का स्थान बना लेते।

एक दिन जब अभय तीन साल के थे वे एक घातक अग्निकांड से बाल-बाल बचे। वे अपने घर के सामने दियासलाई की तीलियों से खेल रहे थे कि उनके कपड़े में आग लग गई। अचानक एक आदमी वहाँ पहुँच गया और उसने आग बुझा दी। अभय बच गए, यद्यपि उनकी टाँग पर एक निशान रह गया।

सन् १९०० ई. में, जब अभय चार वर्ष के थे, कलकत्ता में बड़े जोर का प्लेग फैला। दर्जनों व्यक्ति हर दिन मरने लगे और हजारों ने शहर छोड़ दिया। जब प्लेग रोकने का कोई उपाय नहीं रह गया तब एक बाबाजी ने सारे कलकत्ता में हरे कृष्ण संकीर्त्तन का आयोजन किया। धर्म का विचार न कर हिन्दू, मुसलमान, ईसाई, पारसी सभी उसमें सम्मिलित हुए और दल बना कर वे गली-गली और द्वार-द्वार — हरे कृष्ण, हरे कृष्ण, कृष्ण कृष्ण, हरे हरे / हरे राम, हरे राम, राम राम हरे हरे-गाते हुए घूमते रहे। यह दल गौर मोहन के घर १५१, हरीसन रोड, पहुँचा और गौर मोहन ने उत्कण्ठापूर्वक उसका स्वागत किया। यद्यपि तब अभय छोटे बच्चे थे और उनका सिर मुश्किल से संकीर्त्तनियों के घुटनों तक पहुँचता था, किन्तु वे भी उनके नाच-गान में शामिल हो गए। उसके कुछ समय बाद ही प्लेग शान्त हो गया।

***

गौर मोहन विशुद्ध वैष्णव थे और उन्होंने अपने पुत्र का पालन-पोषण श्रीकृष्णभावनामृत के लिए किया। उनके अपने माता-पिता भी वैष्णव थे, इसलिए गौर मोहन ने कभी मांस, मछली, अंडा, चाय या काफी का स्पर्श नहीं किया था। उनका रंग गोरा था और स्वभाव से वे गंभीर थे। रात में वे अपनी कपड़े की दूकान बंद करते, तो उसके बीच फर्श पर भात का कटोरा रख देते ताकि चूहे उसे खाकर संतुष्ट हो जाँय और भूख के कारण वे कपड़े न कुतरें, फिर वे घर लौटते । घर पर वे चैतन्य - चरितामृत और वैष्णव बंगालियों के मुख्य धर्मग्रंथ श्रीमद् भागवतम् का पाठ करते, मंत्रोच्चार के साथ माला जपते और भगवान् कृष्ण के अर्चा-विग्रह की पूजा करते । वे कोमल स्वभाव और पुत्र - वत्सल थे और अभय को कभी दंड नहीं देते थे। जब कभी विवश होकर अभय को उन्हें समझाना होता तो पहले वे क्षमा-याचना करते थे : “ तुम मेरे पुत्र हो, इसलिए तुम्हें समझाना जरूरी है । यह मेरा कर्त्तव्य है। चैतन्य महाप्रभु के पिताजी भी उन्हे ताड़ना देते थे । इसलिए बुरा न मानना ।'

श्रील प्रभुपाद : मेरे पिताजी की आमदनी २५० रूपए से अधिक नहीं थी, किन्तु अभाव का कोई प्रश्न नहीं था । आम के मौसम में, जब हम बच्चे थे, हम खेलते हुए घर में दौड़ते-फिरते और इस दौड़-भाग में हम आम झपट लेते। दिन भर हम आम खाते रहते। हमें यह सोचने की जरूरत न होती, “क्या मैं एक आम ले सकता हूँ।” पिताजी बराबर हमारे लिए सदैव भोजन की व्यवस्था करते। तब आम एक रुपया दर्जन के हिसाब से बिकते थे।

जीवन सादा था, किन्तु सब चीजें पर्याप्त थीं। हम मध्यम वर्ग के थे, किन्तु हर दिन हमारे यहाँ चार-पाँच मेहमान आते रहते। मेरे पिताजी को चार बेटियों का ब्याह करना पड़ा, लेकिन उन्हें कोई कठिनाई नहीं हुई । यह ठीक है कि जीवन बहुत भोग-विलासपूर्ण नहीं था, किन्तु खाने, पहनने या रहने की कोई कठिनाई नहीं थी । प्रतिदिन ढाई किलो दूध आता था । पिताजी कोयला फुटकर खरीदना पसन्द नहीं करते थे, वे साल भर के लिए गाड़ी के हिसाब से खरीद लेते थे ।

हम सुखी थे— ऐसा नहीं था कि हमारे पास मोटरकार नहीं थी, इसलिए हम दुखी हों। मेरे पिताजी कहा करते थे— “भगवान् के दस हाथ हैं। यदि वे तुमसे कोई वस्तु छीन लेना चाहते हों तो दो हाथों से तुम कितना विरोध कर सकते हो ? और यदि वे तुम्हें दस हाथों से देना चाहते हों तो दो हाथों में तुम कितना ग्रहण कर सकते हो ?"

मेरे पिताजी कुछ देर से उठते थे, सात या आठ बजे के आस-पास । तब स्नान के बाद वे बाजार करने चले जाते थे। उसके बाद दस बजे से तीसरे पहर के एक बजे तक वे पूजा करते। तब वे दोपहर का भोजन करते और व्यवसाय के लिए निकल जाते । दूकान में वे एक घंटा विश्राम करते । दूकान से वे रात में दस बजे घर वापस आते और पूजा में लग जाते । सचमुच, उनका मुख्य व्यवसाय पूजा था । हम सोते होते और पिताजी आरती करते रहते। घंटी की घन घन सुन हम जग जाते और देखते कि पिताजी कृष्ण को नमन कर रहे हैं।

गौर मोहन की अभिलाषा अपने पुत्र को वैष्णव बनाने की थी। वे चाहते थे कि अभय राधारानी के सेवक बनें, भागवतम् का प्रचार करें और मृदंग का भक्तिपूर्ण वादन सीखें। उनके घर पर साधू-संत नित्य आते, और वे उनसे हमेशा यही प्रार्थना करते, “कृपा करके मेरे पुत्र को आशीर्वाद दीजिए कि राधारानी उन पर प्रसन्न हों और उसे अपने वरदान का पात्र बनाएँ । ”

एक दूसरे के साथ का आनन्द लेते हुए पिता-पुत्र दस मील तक पैदल चले जाते और इस प्रकार ट्राम का पाँच पैसा भाड़ा बचा लेते । समुद्र-तट पर वे एक योगी का दर्शन करते जो उस स्थान पर वर्षों से, बिना हिले-डुले, बैठा था। एक दिन वहाँ योगी का लड़का बैठा था और उसके चारों ओर लोग इकट्ठे हो गए थे। लड़का अपने पिता के स्थान को ग्रहण किए था । गौर मोहन ने योगियों को कुछ दक्षिणा दी और अपने पुत्र के लिए आशीर्वाद माँगा ।

जब अभय की माँ ने कहा कि वे चाहती हैं कि उनका पुत्र बड़ा होने पर अंग्रेजी वकील बने (जिसका तात्पर्य था कि अध्ययन के लिए उसे लंदन जाना होगा ) तो मल्लिक परिवार के एक "चाचा" को यह विचार अच्छा लगा। लेकिन गौर मोहन को यह सुनना भी पसंद नहीं था। वे सोचते, यदि अभय इंगलैंड गया तो वह योरोपीय वेश-भूषा और रंग-ढंग से प्रभावित हो जायगा । "वह शराब पीने लगेगा और औरतों के पीछे भागेगा, ' गौर मोहन ने आपत्ति की, "मुझे उसकी कमाई नहीं चाहिए ।"

अभय के बचपन से ही गौर मोहन ने अपनी योजना लागू कर दी थी। उन्होंने एक पेशेवर मृदंगवादक को रखा था जो अभय को कीर्तन की संगत वाली मानक तालें सिखाता था। रजनी को इसमें संदेह था, "ऐसे छोटे बच्चे को मृदंग सिखाने का क्या मतलब है ? यह जरूरी नहीं ।" लेकिन गौर मोहन एक ऐसे पुत्र का स्वप्न देखते थे जो भजन गाते, मृदंग बजाते और श्रीमद्भागवतम् पर प्रवचन करते बड़ा होगा ।

जब अभय मृदंग बजाने बैठते तो अपने दाहिने और बाएँ बाजुओं को फैलाने पर भी उनके छोटे-छोटे हाथ ढोलक के केवल सिरों तक ही पहुँचते थे । शिक्षक का अनुकरण करते हुए वे दाहिनी कलाई से हाथ भर ठेका देते और अंगुलियों से ऊँचा स्वर उत्पन्न करते― ती नी ती नी ता- और तब ढोलक के बाएँ सिरे पर खुला बायाँ हाथ मारते - बूम बूम । अभ्यास और बड़े होने के साथ वे धीरे धीरे खास-खास लय-ताल बजाने लगे और गौर मोहन उन्हें सुन कर प्रसन्न होते ।

अभय अपने माँ-बाप की सर्वमान्य प्रिय संतान थे। बचपन के मोती, नन्दूलाल, नन्दू, कोचा नामों के अतिरिक्त उनकी दादी उन्हें कचौरी - मुखी नाम से भी पुकारा करती थीं क्योंकि उन्हें कचौरियाँ बहुत पसंद थीं। उनकी दादी और माँ दोनों उन्हें कचौरियाँ दिया करती थीं जिन्हें वे अपने छोटे कुर्ते की बहुत सारी जेबों में रखते जाते थे। भीड़-भाड़ भरी सड़क की पटरी पर खोमचे वालों को कचौरियाँ पकाते देखना उन्हें पसन्द था और वे खोमचे वालों और पड़ोसियों से कचौरियाँ तब तक लेते जाते जब तक कि उनसे उनके कुर्ते के भीतर और बाहर की सभी जेबें न भर जातीं ।

कभी-कभी जब अभय माँग करते कि उनके लिए कचौरियाँ बनाई जायँ तो उनकी माँ मना कर देती थीं। एक बार तो उन्होंने अभय को बिस्तर में सुला दिया। जब गौर मोहन घर आए और पूछा कि, “अभय कहाँ है ?" तो रजनी ने बताया कि वह कचौरियों के लिए किस तरह जिद कर रहा था और उन्होंने उनके बिना ही उसे सुला दिया था । पिता ने कहा, "नहीं, हमें उसके लिए कचौरियाँ बनानी चाहिए।" उन्होंने अभय को जगाया और स्वयं ही उनके लिए पूरियाँ - कचौरियाँ बनाईं। गौर मोहन अभय के प्रति सदा उदार थे और इसका ध्यान रखते थे कि उनका पुत्र जो कुछ चाहे वह उसे मिल जाय। जब गौर मोहन रात में घर लौटते तो उनकी आदत थोड़ी मूढ़ी या लाई खाने की थी । अभय भी कभी-कभी उनके साथ बैठ कर मूढ़ी खाते ।

एक बार गौर मोहन ने अभय के लिए इंगलैंड से आयातित एक जोड़ा जूता छह रूपए में खरीदा और हर वर्ष वे, काश्मीर का चक्कर लगाने वाले एक मित्र के माध्यम से, अपने पुत्र के लिए, हाथ से सिले सुंदर किनारे वाली एक काश्मीरी शाल मँगाकर भेंट करते थे।

एक दिन अभय ने बाजार में खेलने की बंदूक देखी, जिसे वे माँगने लगे। उनके पिताजी ने मना कर दिया, और अभय रोने लगे। "अच्छा, अच्छा, " गौर मोहन बोले, और उन्होंने बंदूक खरीद दी। तब अभय ने दूसरी बंदूक की माँग की । “एक तो तुम्हारे पास है," पिता ने कहा, “दूसरी क्यों चाहते हो?"

" हर हाथ के लिए एक चाहिए,” अभय बोले, और वे सड़क में पैर पटकते हुए लेट गए। जब गौर मोहन दूसरी बंदूक खरीदने को राजी हुए तो अभय शान्त हो गए।

अभय के जन्म के समय उनकी माँ तीस वर्ष की थीं। अभय के पिता की तरह उनकी माता भी दीर्घ परम्परा वाले एक गौड़ीय वैष्णव परिवार की थीं। पति से उनका रंग साँवला था और जहाँ पति शान्त स्वभाव के थे, वे शीघ्र आवेश में आ जाती थीं। अभय ने पाया कि उनके माता-पिता का जीवन शान्तिपूर्ण था; घर में कोई पारिवारिक कलह या जटिल असंतोष नहीं था। रजनी पतिव्रता और धार्मिक विचारों की थीं, परम्परागत वैदिक अर्थ में एक आदर्श पत्नी, जिनका जीवन पति और बच्चों की देख-भाल को अर्पित था । अभय देखते कि उनकी माता अपनी प्रार्थनाओं, मनौतियों और धार्मिक कृत्यों द्वारा सदैव यही सहज एवं भावुक प्रयत्न करतीं कि उनके पुत्र का जीवन सुरक्षित रहे। वे जब कभी खेलने के लिए भी बाहर जाते उनकी माँ उन्हें ठीक से कपड़े पहनातीं और अँगुली में थूक लेकर उनके माथे पर लगातीं । अभय की समझ में इसका महत्त्व कभी नहीं आया, किन्तु चूँकि वे उनकी माता थीं, अतः जब वे यह सब करती रहतीं तो अभय " मालिक के बगल में कुत्ते की भाँति" विनम्रतापूर्वक खड़े रहते ।

गौर मोहन की भाँति ही रजनी अभय को बहुत प्यार करती थीं । किन्तु जहाँ उनके पति पुत्र के प्रति अपना प्यार अपनी उदारता और उसकी आध्यात्मिक सफलता की योजनाओं द्वारा प्रकट करते, वहाँ वे अभय को खतरों, रोगों और मृत्यु से बचाने के लिए अपने प्रयत्नों से करतीं। एक बार उन्होंने अपने स्तन का खून एक देवता को इस प्रार्थना के साथ चढ़ाया कि वह हर ओर के खतरों से अभय की रक्षा करे ।

अभय के जन्म पर उनकी माँ ने तब तक बाएँ हाथ से खाने का व्रत लिया, जब तक कि अभय उसे लक्ष्य करके यह न कहे कि माँ तू गलत हाथ से क्यों खा रही है। एक दिन जब अभय ने सचमुच यह प्रश्न किया तब माँ ने वैसा करना तुरन्त बंद कर दिया। अभय के दीर्घ जीवी होने का यह भी एक विधान था, क्योंकि उनकी माँ का विचार था कि उनके व्रत के बल पर अभय सुरक्षित बढ़ता जायगा, कम से कम तब तक जब तक कि वह उनके व्रत के विषय में न पूछे। यदि अभय ने प्रश्न न किया होता तो वे अपने दाहिने हाथ से कभी न खातीं और उनके विश्वास के अनुसार, उनके व्रत से सुरक्षित अभय का जीवन चलता रहता ।

अभय की सुरक्षा के लिए माँ ने उनके पैर में लोहे का कड़ा पहना दिया। उनके साथियों ने उनके बारे में पूछा तो अभय का ध्यान उस पर गया; वे आत्म-चेतना के कारण माँ के पास गए और बोले, "यह कड़ा निकाल दो।” जब माँ ने कहा, "इसे मैं बाद में निकालूंगी, तो अभय रोने लगे, "अभी निकालो, अभी!” एक बार अभय तरबूज का एक बीज निगल गए। उनके मित्रों ने कहा कि यह बढ़ कर उनके पेट में तरबूज बन जायगा । वे दौड़कर माँ के पास पहुँचे। माँ ने उन्हें धीरज दिया कि चिन्ता की कोई बात नहीं, वे मंत्र द्वारा उनकी रक्षा करेंगी ।

श्रील प्रभुपाद : यशोदा माँ दिन भर के खतरों से कृष्ण की रक्षा करने के लिए हर सवेरे मंत्र - पाठ करती थीं। जब कृष्ण किसी राक्षस का वध करते तो वे सोचती थीं कि यह उनके मंत्र - पाठ का फल है। मेरी माँ भी मेरे लिए ऐसा ही करतीं ।

अभय की माँ उन्हें प्राय: गंगाजी ले जातीं और उन्हें स्वयं नहलातीं । वे उन्हें हारलिक्स नामक पूरक आहार भी देतीं। जब उन्हें पेचिश हो जाती तो माँ गरम पूरियों और भुने हुए लवण मिश्रित बैगन से उनका उपचार करतीं; यद्यपि बीमार होने पर अभय कभी-कभी दवा लेने से इनकार कर अपनी हठवादिता का प्रदर्शन करते थे। परन्तु जिस प्रकार वे हठी थे उसी प्रकार उनकी माँ भी दृढ़ निश्चयी थीं और वे उनके मुख में दवा बलात् डालतीं, यद्यपि ऐसा करने में उन्हें पकड़ने के लिए कभी कभी तीन-तीन सहायकों की जरूरत पड़ती ।

श्रील प्रभुपाद: जब मैं बालक था, मैं बहुत शरारती था। मैं कोई भी चीज तोड़ देता। जब मैं क्रोधित होता तो मैं शीशे की गुड़गुड़ी तोड़ देता, जो मेरे पिताजी अतिथियों के लिए रखते थे। एक बार जब माताजी मुझे स्नान करा रही थीं, और मैं मना कर रहा था, मैंने अपना सिर जमीन पर पटक दिया और उससे खून बह निकला । सब दौड़ते हुए आ गए और कहने लगे, " आप क्या कर रही हैं, आप तो बच्चे को मार डालेंगी । "

जब माँ अपने गर्भों के सातवें और नवें महीने में शाध-होत्र करतीं, उस समय अभय उपस्थित रहते । सद्यः स्नात वे नए परिधान में अपने बच्चों के साथ बैठतीं और इच्छानुसार स्वादिष्ट भोजन का आनन्द लेतीं। उधर उनके पति स्थानीय ब्राह्मणों को, जो माँ और आने वाले शिशु की स्वच्छता - शुचिता के लिए मंत्र पढ़ते थे, दान-दक्षिणा देते ।

अभय अपनी माँ पर पूर्णत: निर्भर थे। कभी-कभी वे उन्हें कमीज उल्टा पहना देतीं और अभय उसे ज्यों की त्यों स्वीकार कर लेते। यद्यपि वे कभी कभी हठी बन जाते, फिर भी अपनी माँ के मार्ग-दर्शन और उद्बोधन की उन्हें सदा जरूरत रहती। जब उन्हें शौचालय जाना होता तो वे माँ की साड़ी पकड़कर कूदने - फांदने लगते और कहते, "पेशाब, माँ, पेशाब । "

" तो तुम्हें रोक कौन रहा है?" वे कहतीं । “हाँ, तुम जा सकते हो।

" केवल तब, उनकी अनुमति पाने पर ही, वे जाते ।

कभी-कभी, निर्भरता - जनित घनिष्ठता में, उनकी माँ उनकी विरोधी बन जातीं। एक बार जब उनका दूध का दाँत टूट गया और माँ की सलाह मान कर अभय ने रात में उसे तकिये के नीचे रख दिया तो दाँत गायब हो गया और उसके स्थान पर कुछ पैसे मिले। अभय ने पैसे माँ को संभाल कर रखने को दे दिए। दोनों के निरन्तर संसर्ग में एक बार जब उनकी माँ ने उनका विरोध किया तो उन्होंने मांग की, "मैं अपने पैसे वापस चाहता हूँ। मैं घर से चला जाऊँगा। अब आप मेरे पैसे मुझे वापस दे दीजिए। "

जब माँ को जूड़ा बंधवाना होता तो इसके लिए वे बराबर अपनी बेटियों से कहतीं । किन्तु जब अभय उपस्थित होते तो वे स्वयं जूड़ा बाँधने का आग्रह करते और ऐसी बाधा पैदा करते कि बेटियाँ उनसे हार मान जातीं । एक बार महिलाओं की प्रथा का अनुकरण करते हुए, जो पर्वादि के अवसरों पर अपने तलवे रंगती हैं, अभय ने अपने पैर के तलवों को लाल रंग से रंग डाला। उनकी माँ ने मना करना चाहा, यह कहते हुए कि बच्चे ऐसा नहीं करते। लेकिन अभय ने आग्रह किया, "नहीं, मैं जरूर करूँगा । "

अभय स्कूल जाना नहीं चाहते थे। वे सोचते, "मैं स्कूल क्यों जाऊँ ? मैं दिन-भर खेलूँगा।” जब माँ ने गौर मोहन से शिकायत की तो, इस विश्वास के साथ कि पिता उन्हें लाड़-प्यार देंगे, अभय ने कहा, "नहीं, मैं कल स्कूल जाऊँगा ।"

"ठीक है, वह कल स्कूल जायगा, ” गौर मोहन ने कहा, “यह बहुत अच्छा है।” लेकिन दूसरे दिन सवेरे अभय ने बीमारी का बहाना किया और पिता ने उनकी बात मान ली।

रजनी को इस बात से बड़ी चिन्ता हुई कि बच्चा स्कूल नहीं जाना चाहता। उन्होंने उसे स्कूल ले जाने के लिए एक आदमी को चार रुपए पर रखा। वह आदमी, जिसका नाम दामोदर था, अभय की कमर में रस्सी बाँधकर — जो उस समय दंड देने का एक आम ढंग था — उन्हें स्कूल ले जाता और अध्यापक के सामने प्रस्तुत करता । जब अभय भाग जाने का प्रयत्न करते तो दामोदर उन्हें पकड़ लेता और गोद में उठाकर ले जाता । कई बार, इस प्रकार बलपूर्वक भेजे जाने पर अभय अपने से स्कूल जाने लगे ।

वे ध्यान लगाकर पढ़ने वाले और नेक चाल व्यवहार के विद्यार्थी सिद्ध हुए, यद्यपि कभी-कभी वे शरारत कर बैठते थे। एक बार जब अध्यापक ने उनका कान उमेंठ दिया, अभय ने लालटेन उठाकर जमीन पर पटक दी जिससे आग लग गई।

उन दिनों कोई देहाती, चाहे वह निरक्षर ही क्यों न हो, रामायण, महाभारत या भागवतम् के श्लोक सुना सकता था । विशेष कर लोग गाँवों में शाम को एकत्र होते और इन धर्मग्रंथों का पाठ सुनते। इसी उद्देश्य से अभय के परिवार के लोग कभी कभी उनके मामा के घर, जो दस मील दूर था, जाते और वहाँ एकत्र होकर सब श्रीभगवान् की दिव्य लीलाओं की कथाएँ सुनते। उन कथाओं को दुहराते और उनके बारे में चर्चा करते वे घर लौटते और रामायण, महाभारत, भागवतम् का स्वप्न देखते हुए सो जाते । तीसरे पहर के विश्राम और स्नान के बाद अभय प्राय: एक पड़ोसी के घर चले जाते और महाभारत के श्याम श्वेत चित्रों का अवलोकन करते । उनकी दादी उनको बंगला - महाभारत से नित्य पाठ करने को कहतीं। इस प्रकार चित्रों को देख-देखकर और दादी के साथ पाठ करके अभय की महाभारत में पैठ हो गई ।

अभय की बाल-क्रीड़ा में उनकी छोटी बहिन भवतरिणी प्राय: उनका साथ देती । वे साथ-साथ मल्लिक के मंदिर में राधा-गोविन्द के अर्चा-विग्रह का दर्शन करने जाते। अपनी बाल क्रीड़ा में जब कभी उन्हें बाधा होती तो सहायता के लिए वे भगवान् की प्रार्थना करते। पतंग उड़ाने के लिए भागते हुए वे कहते, "कृष्ण भगवान्, कृपा करके पतंग उड़ाने में हमारी सहायता कीजिए।”

अभय के खिलौनों में दो बंदूकें शामिल थीं, चाभी ऐंठने से चलने वाली एक कार थी, एक गाय थी जिसमें लगे रबर - बल्ब को दबाने से वह कूदने लगती और एक कुत्ता था जिसमें लगे यंत्र के बल से वह नाचता था । कुत्ता डा. बोस से प्राप्त हुआ था जो पारिवारिक चिकित्सक थे और जिन्होंने अभय की बगल में एक मामूली घाव का उपचार करते समय उसे उन्हें दिया था। कभी कभी अभय डाक्टर होने का नाटक करते और अपने मित्रों को “दवा" देते जो धूलि के अतिरिक्त कुछ न होती ।

कलकत्ता में प्रतिवर्ष होने वाले जगन्नाथजी के रथ यात्रा - समारोहों के पीछे अभय मुग्ध थे । मल्लिक की कलकत्ता रथ-यात्रा सबसे विशाल होती, जिसमें तीन अलग-अलग रथों में जगन्नाथ जी, बलदेव जी और सुभद्रा जी के श्रीविग्रह सजाये जाते । राधा-गोविन्द मंदिर से आरंभ करके, रथ हरीसन रोड पर थोड़ी दूर जाते और फिर वापस आ जाते। मल्लिक लोग उस दिन जनता को भारी मात्रा में जगन्नाथ जी का प्रसाद वितरण करते।

रथ-यात्रा भारत के सभी नगरों में निकाली जाती थी; परन्तु मूल और विशाल रथ यात्रा, जिसमें हर वर्ष लाखों तीर्थ यात्री सम्मिलित होते, कलकत्ता से दक्षिण की ओर तीन सौ मील की दूरी पर, जगन्नाथ पुरी में होती थी। भगवान् कृष्ण की एक शाश्वत लीला की स्मृति में, पैंतालीस - फुट ऊँचे तीन काठ के रथ जनसमूह द्वारा, दो मील के यात्रा - पथ पर, शताब्दियों से खींचे जाते रहे थे। अभय ने सुन रखा था कि चार सौ वर्ष पूर्व, किस प्रकार स्वयं महाप्रभु चैतन्य रथ यात्रा - समारोह में भावविभोर होकर, नाचते थे और 'हरे कृष्ण' कीर्तन का नेतृत्व करते थे। अभय कभी-कभी रेलवे टाइम टेबल देखते या वृन्दावन और पुरी का किराया पूछते । वे यही सोचते रहते कि किस तरह उनके पास किराए के पैसे इकठ्ठे हों और वे इन स्थानों को जा सकें।

अभय की इच्छा थी कि उनका अपना रथ हो और वे अपनी रथ यात्रा निकाल सकें। सहायता के लिए उन्होंने अपने पिताजी से कहा । गौर मोहन राजी हो गए, लेकिन इसमें कठिनाइयाँ थीं। जब वे अभय को कई बढ़इयों की दूकानों पर ले गए तो उन्होंने पाया कि रथ बनवाना उनके वश की बात नहीं। जब वे घर लौटने लगे, तो अभय रोने लगे और एक वृद्ध बंगाली महिला उनके पास गई और उसने पूछा कि बात क्या है। गौर मोहन ने बताया कि बच्चा रथ यात्रा के लिए रथ चाहता है, लेकिन उसे बनवाना उनके लिए संभव नहीं है । "ओह, मेरे पास एक रथ है," महिला ने कहा और उन्हें अपने घर आमन्त्रित करके उसने रथ दिखाया। रथ पुराना था, लेकिन वह तब भी काम चलाऊ था और उसका आकार भी ठीक था, करीब तीन फुट ऊँचा । गौर मोहन ने उसे खरीद लिया और उसकी मरम्मत करा के उसे सजाने में सहायता की। पिता-पुत्र ने मिल कर उस पर, सहारे के लिए सोलह खंभे बनाए और उनके ऊपर वितान तान दिया, जो पुरी के बड़े रथों पर लगे वितानों से लगभग मिलता हुआ था । रथ के आगे उन्होंने परम्परागत काठ का घोड़ा और उसका चालक भी लगा दिया । अभय का आग्रह था कि रथ असली लगना चाहिए। गौर मोहन रंग ले आए और अभय ने रथ की स्वयं रंगाई की, पुरी के मूल रथों का अनुकरण करते हुए। उनमें बड़ा उत्साह था और समारोह के विविध पक्षों की व्यवस्था उन्होंने बड़ी लगन से की। लेकिन जब उन्होंने एक पुस्तक में दिए गए चित्रों और विधियों को क्रियान्वित करते हुए आतिशबाजी करने का प्रयत्न किया तो रजनी ने मना कर दिया ।

अभय अपने साथियों से सहायता लेते, विशेषकर अपनी बहिन भवतरिणी से, और वे उनके स्वाभाविक नेता बन गए। उनकी बाल क्रीड़ा से प्रसन्न, पड़ोस की वृद्ध महिलाएँ, उनकी प्रार्थना पर उनके लिए, विशेष व्यंजन बना देतीं ताकि वे अपने रथ यात्रा - समारोह में प्रसाद बाँट सकें।

पुरी की रथ यात्रा की तरह, अभय की रथ यात्रा भी लगातार आठ दिन चलती। उनके परिवार के लोग जमा होते, और पड़ोस के बच्चे यात्रा में शामिल होते, रथ खींचते, ढोल और करताल बजाते तथा भजन गाते । ग्रीष्म की गरमी में बिना कुर्ता-कमीज के, केवल धोती पहने, अभय हरे कृष्ण और समयोपयुक्त बंगाली भजन ' की कर राइ कमलिनी गाने में बच्चों का मार्ग-दर्शन करते ।

आप क्या कर रही हैं, श्रीमती राधारानी ?

कृपया बाहर आइए और देखिए ।

वे चुरा रहे हैं आपके सर्वाधिक कोष-

कृष्ण को, श्याम रत्न को ।

काश युवा राधारानी जान पातीं !

कि युवक कृष्ण,

उनके हृदय का रत्न

अब उन्हें त्याग रहा है।

अभय ने बड़ों के धार्मिक उत्सवों में जो कुछ देखा था, उसका उन्होंने अनुकरण किया। उन्होंने अर्चा-विग्रहों को वस्त्राभूषणों से सजाया, उन्हें नैवेद्य अर्पण किया, घी के दीपक और अगरबत्ती से आरती की और साष्टांग प्रणाम किया। हरीसन रोड से जुलूस राधा-गोविन्द मंदिर के आंगन में गोल सड़क पर आया और अर्चा-विग्रहों के सामने थोड़ी देर के लिए स्थिर हो गया। यह सब तमाशा देखकर गौर मोहन के मित्र उनके पास गए और बोले, “आपने हमें आमंत्रित क्यों नहीं किया? यह तो आप एक बड़ा उत्सव कर रहें हैं और आप हम लोगों को आमंत्रित नहीं कर रहे यह क्या है?"

अभय के पिता ने उत्तर दिया, "यह सब केवल बच्चों का खेल है । " मित्रों ने व्यंग्य किया, “हाँ, यह सब केवल बच्चों का खेल है ! ऐसा कह कर आप हम लोगों को उसके आनंद से वंचित कर रहे है ?"

अभय भाव-विभोर होकर रथ यात्रा के जुलूस में जुटे रहे, उधर गौर मोहन लगातार आठ दिन धन व्यय करते रहे और रजनी जगन्नाथ जी पर चढ़ाने के लिए विविध व्यंजन और फूल-मालाएँ तैयार करती रहीं । यद्यपि अभय ने जो कुछ किया वह केवल अनुकरण था, लेकिन रथ-यात्रा निकालने के पीछे उनकी प्रेरणा और अविचल स्फूर्ति वास्तविक और सच्ची थी। उनकी स्वतः - प्रेरणा से बच्चों का यह उत्सव आठ दिन तक चलता रहा। उत्तरोत्तर हर वर्ष नया उत्सव आता और अभय उसी उत्साह से उसे मनाते ।

जब अभय छह वर्ष के हुए, तो उन्होंने अपने पिताजी से, पूजा के लिए अलग अर्चा-विग्रह की माँग की। बचपन से, उन्होंने घर में पिताजी को पूजा करते देखा था। राधा-गोविन्द की नियमित आराधना को देखकर, वे सोचते, “इस तरह कृष्ण की पूजा करने योग्य मैं कब होऊँगा?” अभय की प्रार्थना पर उनके पिता ने राधा-कृष्ण के श्रीविग्रहों की एक छोटी-सी जोड़ी खरीदी और अभय को दे दी। तब से, अभय जो कुछ खाते, उसे वे पहले राधा और कृष्ण को अर्पण करते। अपने पिता और राधा - गोविन्द के पुजारियों का अनुकरण करते हुए, वे अर्चा-विग्रहों को घी का दीपक चढ़ाते और रात में उन्हें सुला देते ।

अभय और उनकी बहिन भवतरिणी, राधा-कृष्ण के छोटे-से अर्चा-विग्रहों के पक्के भक्त बन गए। वे अपना अधिकतर समय उनको सँवारने में, उनकी आराधना करने में और यदा-कदा भजन गाने में बिताने लगे। उनकी बहिनें और भाई उन पर हँसते और उन्हें यह कह कर चिढ़ाते कि चूँकि पढ़ने-लिखने की अपेक्षा उनकी रुचि अर्चा-विग्रह की पूजा में अधिक है, इसलिए वे अधिक समय तक जीवित नहीं रहेंगे। लेकिन अभय जवाब देते कि हमें इसकी चिन्ता नहीं है।

एक बार एक पड़ोसी ने अभय की माता से पूछा, “आपके छोटे लड़के की क्या आयु है?" उन्होंने उत्तर दिया, “अभय सात साल का है।" अभय इस बात को रुचि - पूर्वक सुन रहे थे। उन्होंने अपनी आयु के विषय में, किसी को बात करते, पहले नहीं सुना था, लेकिन अब उन्हें पहली बार मालूम हुआ कि वे सात साल के हो गए हैं।

किंडरगार्टन में शिक्षा पाने के अतिरिक्त, जहाँ अभय को पहले बलात् ले जाया गया था, वे पाँच से आठ साल की आयु तक घर पर ट्यूटर से भी पढ़ते रहे। वे बंगाली में पढ़ना सीख गए और संस्कृत सीखने लगे । उसके बाद सन् १९०४ ई. में, जब अभय आठ साल के हो गए, उन्हें हरीसन और सेन्ट्रल रोड के कोने पर स्थित, मुठ्ठीलाल सील फ्री स्कूल में दाखिल कराया गया ।

मुठ्ठीलाल स्कूल लड़कों का स्कूल था जिसकी स्थापना सन् १८४२ ई. में, एक सम्पन्न सुवर्ण-वणिक वैष्णव ने की थी। स्कूल का भवन पत्थर का बना था, वह दो मंजिला था और उसके चारों ओर पत्थर की चहारदीवारी थी। उसके अध्यापक भारतीय थे और विद्यार्थी स्थानीय सुवर्ण-वणिक परिवारों के बंगाली थे । धोती और कुर्ता पहने हुए लड़के सवेरे अपने घरों से निकलते और हाथ में कुछ किताबें और टिफिन लिए हुए, वे छोटे-छोटे समूहों में चलते हुए, स्कूल की ओर बढ़ते । स्कूल के अहाते में पहुँचकर वे एक साथ खेलते और बातें करते, जब तक कि घंटे की घन घन उन्हें अपनी कक्षाओं में जाने को न बुलाती । बच्चे कमरों को पार करते हुए, सीढ़ियों से चढ़ते-उतरते, स्कूल की दूसरी मंजिल पर सामने के विस्तृत बरामदे में जा पहुँचते । तब उनके अध्यापक उन्हें लकड़ी की डेस्कों के पीछे बेंचों पर बैठाते, जहाँ गणित, विज्ञान, इतिहास, भूगोल और उनके अपने वैष्णव धर्म और संस्कृति में उन्हें शिक्षा दी जाती ।

कक्षाएँ अनुशासित थीं और नियम-बद्ध रूप से चलती थीं। हर लम्बी बेंच पर चार बच्चे बैठते, चारों के लिए डेस्क एक थी जिसमें चार दवातें बनी होती थीं। यदि कोई लड़का शरारत करता, तो उसके अध्यापक उसे " बेंच पर खड़े हो जाओ" का आदेश देते थे। बंगाली पुस्तक का नाम, जिसे बच्चे पढ़ते थे, “फोक टेल्स आफ बंगाल " था । वह परम्परागत बंगाली लोक-कथाओं का संग्रह थी, — ऐसी लोक-कथाओं का, जिन्हें दादी वहाँ के बच्चों को सुनाया करती थीं जैसे चुड़ैलों, भूतों, तांत्रिकों, वार्तालाप करने वाले पशुओं, सज्जन ब्राह्मणों (या कभी-कभी दुष्ट ब्राह्मणों) शूरवीर सैनिकों, चोरों, राजकुमारों, राजकुमारियों, आध्यात्मिक त्यागों, धार्मिक विवाहों आदि की कथाएँ ।

नित्य स्कूल जाने-आने में अभय और उनके मित्र कलकत्ता की सड़कों पर नियमित चलने वालों को पहचानने लगे थे— और नहीं तो, अपने बचकाने दृष्टिकोण से । इनमें प्राय: घोड़ा- गाड़ियों में चलने वाले गोरे साहब थे; भाड़े की गाड़ियाँ चलाने वाले ड्राइवर थे, झाडू से सड़कें साफ करने वाले भंगी थे और यहाँ तक कि स्थानीय जेबकट और सड़क के मोड़ों पर खड़ी रहने वाली वेश्याएँ भी थीं।

जिस साल हरीसन रोड पर बिजली की ट्राम गाड़ियाँ चलाने के लिए, लोहे की पटरियाँ बिछाई गईं, उसी साल अभय दस साल के हुए। वे श्रमिकों को पटरियाँ बिछाते हुए देखते रहते और जब उन्होंने पहली बार, ट्रालीकार में लगी हुई छड़ को, ऊपर के तार का स्पर्श करते हुए देखा, तो उन्हें अचंभा हुआ। उन्हें दिवास्वप्न आने लगे कि एक छड़ी के द्वारा वे सिर के ऊपर का तार छू रहे हैं और बिजली के बल से भाग रहे हैं। यद्यपि बिजली कलकत्ता के लिए नई वस्तु थी ( और केवल सम्पन्न लोग ही अपने घरों में बिजली लगवा सकते थे), लेकिन बिजली की ट्राम के साथ सड़कों पर बिजली की नई बत्तियाँ जलने लगीं और पुरानी गैस - लाइट खत्म हो गई। अभय और उनके मित्र सड़कों पर घूम कर ऐसे खराब बल्बों की तलाश करते जो बिजली के कर्मचारी सड़कों पर छोड़ जाते थे। जब अभय ने पहली बार अपना ग्रामोफोन बक्सा देखा, तो उन्होंने सोचा कि उसमें कोई बिजली का आदमी या भूत गा रहा है।

अभय को कलकत्ता की भीड़ से भरी सड़कों पर साइकिल चलाना बहुत पसंद था । यद्यपि स्कूल में फुटबाल क्लब की स्थापना के बाद उन्होंने गोलकीपर बनाए जाने की प्रार्थना की थी जिससे उन्हें दौड़ना न पड़े, किन्तु वे साइकिल चलाने में बड़े तेज थे। उन्हें दक्षिण की ओर डैलहौजी स्क्वायर जाना बहुत पसंद था, जहाँ बड़े-बड़े फौव्वारे हवा में जल की पिचकारियाँ छोड़ते रहते थे । यह स्थान राजभवन के निकट था, जहाँ वायसराय का निवास था जिसमें अभय दरवाजों से झांक सकते थे। साइकिल से और आगे बढ़ते हुए वे मैदान के खुले मेहराबों को पार करते, जो कलकत्ता का मुख्य सार्वजनिक पार्क था। उस पार्क में चौरंगी और अंग्रेजों की भव्य इमारतों और वृक्षों की ओर फैला हुआ सुंदर चौरस हरी घास का मैदान था। पार्क में साइकिल चलाने के लिए और भी रोमांचकारी स्थल थे, जैसे दौड़ का मैदान, फोर्ट विलियम और स्टेडियम मैदान गंगा के तट पर था । (जिसका स्थानीय नाम हुगली है।) कभी - कभी अभय इसके किनारे-किनारे साइकिल चलाते हुए घर लौटते । वहाँ उन्हें बहुत से नहाने के घाट दिखाई देते, जहाँ गंगा के अंदर जाती हुई पत्थर की सीढ़ियाँ बनी थीं और इन सीढ़ियों के सिरों पर प्रायः मंदिर स्थित थे। एक श्मशान भी था जहाँ मुर्दे जलाए जाते थे और अभय के घर के निकट ही पीपे का पुल था, जो नदी के पार हुगली शहर में जाता था ।

बारह वर्ष की आयु होने पर अभय ने एक वृत्तिमान् गुरु से दीक्षा ली, यद्यपि उन पर इसका कोई विशेष प्रभाव नहीं हुआ। गुरु ने उन्हें स्वयं अपने गुरु के बारे में बताया, जो एक महान् योगी थे और जिन्होंने, एक बार, उनसे पूछा था कि, "तुम क्या खाना चाहते हो ?”

अभय के परिवार के गुरु ने उत्तर दिया था, " अफगानिस्तान के ताजे अनार ।"

योगी बोले थे, " बहुत अच्छा, बगल के कमरे में जाओ ।" और वहाँ उन्हें अनार के फलों की एक शाखा मिली थी । अनार इतने पके थे मानो पेड़ से अभी तोड़ कर लाए गए हों। एक योगी, जो अभय के पिता के पास आए थे, कहने लगे कि वे एक बार, अपने गुरु के पास बैठे थे और उनके शरीर का स्पर्श करते ही वे पल - मात्र में योग की शक्ति से द्वारका पहुँच गए थे।

बंगाल में निरन्तर बढ़ते तथा कथित साधुओं के बारे में गौर मोहन की राय अच्छी नहीं थी। इन साधुओं में भक्तिरहित, निर्विशेषवादी दार्शनिक, देवताओं के पूजक, गाँजा पीने वाले, भीख माँगने वाले सभी शामिल थे लेकिन गौर मोहन इतने दानशील थे कि उनके घर का दरवाजा सभी मिथ्याचारियों के लिए खुला था। अभय देखते कि उनके पिता के अभ्यागत के रूप में, बहुत से तथा कथित साधु, और कुछ सच्चे संत-महात्मा भी, भोजन के लिए, प्रतिदिन घर में आते थे। उनके वार्तालाप और कार्यकलाप से अभय को बहुत सी बातें मालूम हुईं जिनमें योगिक शक्तियाँ भी थीं। एक बार एक सर्कस में, अभय और उनके पिता ने देखा कि एक योगी के हाथ पैर बाँधकर, उसे एक थैले में बंद कर दिया गया । थैला सील करके एक बक्स में रखा गया, और बक्स में ताला लगाकर उसे भी सील कर दिया गया; फिर भी योगी बाहर निकल आया। लेकिन अभय ने इन चीजों को उतना महत्त्व नहीं दिया, जितना वे पिता द्वारा सिखाए गये, अपने भक्ति - परक कार्यकलापों, राधा-कृष्ण की उपासना और रथ यात्रा के आयोजन को, देते थे ।

***

कलकत्ता में हिन्दू और मुसलमान आपस में शान्तिपूर्वक रहते थे और वे प्रायः एक दूसरे के सामाजिक और धार्मिक उत्सवों में, सम्मिलित होते थे। उनमें आपसी मतभेद थे, लेकिन सामंजस्य बराबर बना रहता। इसलिए, जब उत्पात आरंभ हुआ, तो अभय के परिवार को यह अंग्रेजों की राजनीतिक चाल लगी। जब पहला हिन्दू-मुस्लिम दंगा हुआ, उस समय अभय की आयु तेरह साल की थी। उनकी समझ में नहीं आया कि सचमुच यह क्या था, लेकिन उन्होंने अपने को उसके मध्य पाया ।

श्रील प्रभुपाद : हरीसन रोड पर हमारे चारों ओर मुसलमान थे । मल्लिक परिवार और हमारा परिवार सम्मानित परिवार थे, अन्यथा चारों ओर ऐसी आबादी थी जिसे कस्बा और बस्ती कहते हैं। सो, दंगा शुरू हो गया, और उस समय मैं खेलने गया था। मुझे नहीं मालूम था कि मार्केट स्क्वायर में दंगा हो गया है। मैं घर लौट रहा था, तो मेरे एक मित्र ने कहा, " अपने घर मत जाओ । उधर दंगा हो रहा है।

हम मुसलमानों के बीच रहते थे और दोनों सम्प्रदाय आपस में लड़ रहे थे। लेकिन मैने सोचा - हो सकता है यह दो गुंडों के बीच की लड़ाई - जैसी हो । एक बार मैने एक गुंडे को, दूसरे गुंडे द्वारा छुरा भोंकते हुए, देखा था और मैने जेबकटों को भी देखा था। वे हमारे पड़ोसी थे। इसलिए मैने सोचा यह वैसा ही कुछ चल रहा होगा ।

लेकिन जब मैं हरीसन रोड और हालीडे स्ट्रीट के क्रासिंग पर पहुँचा, तो मैने एक दुकान लुटती हुई देखी । तब मैं केवल एक बच्चा था। मैने "यह क्या हो रहा है?" इस बीच घर में मेरे परिवार के लोग, मेरे पिताजी और माताजी सब घबराकर सोच रहे थे, "बच्चा घर नहीं लौटा। वे इतने घबरा गए कि वे सब घर से बाहर आ गए, इस व्यग्रता में कि "बच्चा कहाँ से आता होगा ?"

ऐसी स्थिति में मैं क्या कर सकता था ? जब मैने दंगा होते देखा तो मैं अपने घर की ओर भागा। सामने एक मुसलमान था । वह मेरी हत्या करना चाहता था। अपना चाकू निकाल कर वह मेरे पीछे दौड़ा। लेकिन किसी तरह, मैं निकल भागा और बच गया । अस्तु, जब मैं दौड़ता हुआ अपने दरवाजे के सामने पहुँचा, तो मेरे माँ-बाप की जान में जान आई।

बिना कुछ कहे, मैं अपने सोने के कमरे में गया। जाड़े की ऋतु थी । बिना बोले मैं लेट गया और रजाई से अपने को लपेट लिया। बाद में जब मैं उठा, तो मैंने पूछा, “क्या सब समाप्त हो गया, दंगा बंद हो गया ?"

***

जब अभय पन्द्रह साल के थे, तब उन्हें बेरीबेरी रोग हो गया और उनकी माँ, जो स्वयं इस रोग से पीड़ित थीं, सूजन कम करने के लिए नित्य उनके पैरों में कैलशियम क्लोराइड पाउडर की मालिश करती थीं । अभय शीघ्र अच्छे हो गए, और उनकी माँ भी, जिन्होंने अपना कोई भी काम बंद नहीं किया था, अच्छी हो गईं।

किन्तु एक साल बाद ही, छियालीस वर्ष की आयु में, उनकी माँ का अचानक देहान्त हो गया। उनकी मृत्यु से, अभय के कोमल बचपन के दृश्यों पर, एकबारगी पटाक्षेप हो गया। प्यार भरा उनका लालन-पालन, पुत्र की सुरक्षा के लिए उनकी प्रार्थनाएँ, मंत्र जाप, खिलाना - पिलाना, पहराना-संवारना, कर्त्तव्य - प्रेरित उनकी डाँट फटकार, सब समाप्त हो गया। उनकी बहिनों पर, उनकी तुलना में, माता की मृत्यु का अधिक प्रभाव हुआ। पिता से निश्चय ही अब उन्हें अधिक लाड़-प्यार मिलने लगा । वे सोलह साल के हो चुके थे। लेकिन अब उन्हें अपने बूते पर बड़े होकर संसार की जिम्मेदारियाँ सँभालने के लिए तैयार होना था ।

उनके पिता उन्हें सांत्वना देते। वे अभय को शिक्षा देते कि संसार में किसी वस्तु के लिए दुखी नहीं होना चाहिए: आत्मा अमर है, और कृष्ण की इच्छा से हर चीज होती है। इसलिए कृष्ण में विश्वास होना चाहिए और उन्हीं पर निर्भर रहना चाहिए। अभय इन बातों को सुनते और समझते ।

 
 
 
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