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श्रील प्रभुपाद लीलमृत  »  अध्याय 10: ‟आवश्यकता की यह महत्त्वपूर्ण घड़ी”  » 
 
 
 
 
 
विषय-वस्तु को उपयुक्त भाषा में, विशेष कर एक विदेशी भाषा में, प्रस्तुत करने की हमारी योग्यता विफल रहेगी और उसको सही ढंग से प्रस्तुत सचमुच करने के हमारे सच्चे प्रयत्नों के बावजूद हमारी भाषा में बहुत-सी साहित्यक त्रुटियाँ हो सकती हैं। किन्तु हमें विश्वास है कि, हमारी त्रुटियाँ कितनी भी क्यों न हों, प्रस्तुत (विषय-वस्तु) के गांभीर्य पर तब भी लोगों का ध्यान जायगा और समाज के नेता उसे स्वीकार करेंगें, क्योंकि यह एक सच्चा प्रयत्न है सर्वशक्तिमान परमात्मा के वैभव के प्रकाशन का, जिसकी इस समय घोर आवश्यकता है।

- श्रीमद् भागवतम् स्कंद १, खंड १ से

भक्तिवेदान्त स्वामी ने केशव मठ के कुछ भक्तों को साथ लेकर, प्रचार के लिए आगरा, कानपुर, झाँसी और दिल्ली की अल्पकालिक यात्रा की । फिर वे अपने स्थान, वंशीगोपालजी मंदिर, को शीघ्र लौट आए। अब उन्हें अभय बाबू कोई नहीं कहता था; मित्रों के बीच भी वे स्वामीजी या महाराज हो गए थे। वे प्रायः स्वामी भक्तिवेदान्तजी, स्वामी महाराज, ए. सी. भक्तिवेदान्त स्वामी आदि सम्बोधनों से पुकारे जाते। लोग तुरन्त उन्हें साधु मानने लगे और सम्मान देने लगे। इतना होने पर भी उनकी मूलभूत समस्या त्यों की त्यों थी । वे लिखना चाहते थे और अपने लिखे हुए को प्रकाशित करना चाहते थे, लेकिन उनके पास धन नहीं था। वे भगवान् के संदेश को प्रसारित करना चाहते, लेकिन कोई सुनने वाला नहीं था । उनके स्वामी हो जाने से इन चीजों में कोई अंतर नहीं आया था ।

जब एक पुस्तकालयाध्यक्ष ने भक्तिवेदान्त स्वामी को सलाह दी कि वे पुस्तकें लिखें (क्योंकि वे स्थायी होती हैं, जबकि समाचार पत्र पढ़ने के बाद फेंक दिए जाते हैं) तब उन्हें लगा कि इस व्यक्ति के माध्यम से उनके आध्यात्मिक गुरु ही बोल रहे हैं। भारतीय सेना के एक अधिकारी ने भी, जिसे बैक टु गाडहेड पसन्द थी, यही बात कही । भक्तिवेदान्त स्वामी को प्रतीत हुआ कि उनके आध्यात्मिक गुरु यह सब उनके लिए उद्घाटित कर रहे हैं। अपने आध्यात्मिक गुरु के अधीनस्थ सेवक के रूप में वे सदा उनकी इच्छाओं के विषय में सोचा करते थे और बदले में गुरु के आशीर्वचन और उनकी व्यक्तिगत उपस्थिति की अनुभूति उन्हें होती रहती थी । श्रील भक्तिसिद्धान्त के विश्वस्त सम्पर्क की भावना उन में जितनी अधिक अनुभूत होती थी, उतनी ही अधिक वे पुस्तकें लिखने की प्रेरणा अनुभव करने लगे ।

उनका ध्यान श्रीमद्भागवत पर गया क्योंकि वह सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण और आधिकारिक वैष्णव धर्म-ग्रंथ था । यद्यपि भगवद्गीता सम्पूर्ण वैदिक ज्ञान का सार तत्त्व थी पर वह संक्षेप में वर्णित थी, जबकि श्रीमद्भागवत का रूप विस्तृत था । और श्रील भक्तिसिद्धान्त सरस्वती तथा भक्तिविनोद ठाकुर दोनों ने भागवत पर बँगला में टीकाएँ लिखी थीं। सच तो यह है कि अतीत में वैष्णव आचार्यों में से अधिकतर श्रीमद्भागवत पर भाष्य लिख चुके थे। स्वयं भगवान् चैतन्य ने श्रीमद्भागवत की शुद्ध वैदिक साहित्य के रूप में संस्तुति की थी। इस ग्रंथ का अँग्रेजी अनुवाद और टीका किसी दिन अखिल विश्व का हृदय परिवर्तन कर सकती हैं। और यदि वे थोड़ी सी भी पुस्तकें प्रकाशित कर सकें, तो उनके प्रचार कार्य में अभिवृद्धि होगी; वे विश्वास के साथ विदेश जा सकते थे और वहाँ लोगों के सामने उन्हें खाली हाथ नहीं उपस्थित होना पड़ेगा ।

एक दिन राधा - दामोदर मंदिर के मालिक, स्वामी गौरचन्द गोस्वामी, भक्तिवेदान्त स्वामी के पास गए और उन्होंने उन्हें राधा दामोदर मंदिर में रहने के लिए आमंत्रित किया; जीव गोस्वामी और रूप गोस्वामी का शाश्वत अधिवास होने के कारण वह उनके लेखन और अनुवाद कार्य के लिए अधिक उपयुक्त स्थान होगा । भक्तिवेदान्त स्वामी को रुचि हो गई। उन्होंने वहाँ नित्य जाना कभी बंद नहीं किया था और भगवान् चैतन्य के आन्दोलन के महान् नेताओं, जीव गोस्वामी और रूप गोस्वामी, की समाधियों के दर्शन से उन्हें बराबर प्रेरणा मिलती थी । लेकिन जब वे उन दो कमरों को देखने गए जो उन्हें मिलने वाले थे, तो उन्होंने उन्हें खराब दशा में पाया; वर्षों से उनकी मरम्मत नहीं हुई थी, न उनमें कोई रहा था। लेकिन वे अवसर को खोना नहीं चाहते थे; अतः पाँच रुपए महीने पर उन्होंने उन्हें ले लिया। उन्होंने हिसाब लगाया कि पाँचसौ रुपये से कुछ अधिक में कमरों में बिजली लग जायगी और अच्छी तरह उनकी मरम्मत हो जायगी; जब यह सब हो जायगा तो वे उनमें रहने लगेंगे।

भक्तिवेदान्त स्वामी को आमंत्रण शुभ लगा, वहाँ रहते हुए वे श्रीमद्भागवत के अँग्रेजी अनुवाद की योजना में सहायता प्राप्त कर सकेंगे। वृंदावन के सभी मंदिरों में से राधा - दामोदर मंदिर में छह गोस्वामियों और उनके शिष्यों के मौलिक लेखों का सबसे बड़ा संग्रह था । वहाँ दो हजार से अधिक पृथक् पाण्डुलिपियाँ थीं; बहुत-सी पाण्डुलिपियाँ तीन सौ और कुछ चार सौ वर्ष भी पुरानी थीं। भक्तिवेदान्त स्वामी प्रतीक्षा करने लगे कि किसी दिन वहाँ, श्रील रूप गोस्वामी और श्रील जीव गोस्वामी के साहचर्य में, रहने का अवसर मिलेगा। अभी वे वंशीगोपाल मंदिर में रहेंगे और जो कुछ धन उनके हाथ लगेगा उससे राधा - दामोदर मंदिर के कमरों की मरम्मत कराएँगे ।

***

भक्तिसिद्धान्त सरस्वती का यह एक महत्त्वपूर्ण सिद्धान्त था कि प्रचारक को नगरों में जाना चाहिए और किसी तीर्थस्थान के एकान्त में वास नहीं करना चाहिए । इसी विचार से भक्तिवेदान्त स्वामी दिल्ली जाते रहे, यद्यपि उनके लिए वह नरक के समान था और वहाँ उनका कोई निश्चित निवासस्थान नहीं था । प्रायः व्यवसायी लोग उन्हें अपने यहाँ ठहरा लेते, क्योंकि वे उस भारतीय संस्कृति के कारण अनुगृहीत अनुभव करते थे, जो यह कहती है कि यदि कोई भला आदमी भगवान् की कृपा का भाजन बनना चाहता है तो उसे साधुओं को शरण देनी चाहिए, उन्हें भोजन और रहने का स्थान देना चाहिए । लेकिन ऐसे साधुओं का दृष्टिकोण हिन्दुत्व की भावुकता पर आधारित था और उनका आदर-सत्कार कृत्रिम होता था । व्यवसायी वर्ग भक्तिवेदान्त स्वामी के कार्य की सही परख नहीं कर सकता था । और भक्तिवेदान्त स्वामी ऐसे व्यक्ति नहीं थे जो किसी पर अपने को लादते ।

तब उन्होंने राधा प्रेस के मैनेजर मिस्टर हितशरण शर्मा से बात की। मिस्टर शर्मा लीग आफ डिवोटीज़ के लिए पहले इश्तिहार और लेखन सामग्री छाप चुके थे और भक्तिवेदान्त स्वामी किसी अवसर पर उनके घर में ठहर चुके थे । मिस्टर शर्मा ने भक्तिवेदान्त स्वामी का परिचय पंडित श्री कृष्ण शर्मा से कराया जो जातिगत ब्राह्मण और सक्रिय धार्मिक पुरुष थे और दिल्ली की सौ वर्ष पुरानी धार्मिक संस्था, श्री नवल प्रेम सभा के सचिव थे। भक्तिवेदान्त स्वामी के साहित्यिक कार्यों के प्रति सहानुभूति से प्रेरित होकर, कृष्ण पंडित ने उन्हें पुरानी दिल्ली के छिप्पीवाड़ा के पास राधाकृष्ण मंदिर में एक कमरा रहने के लिए दिया । अब भक्तिवेदान्त स्वामी को दिल्ली में एक स्थायी कार्यालय मिल गया।

मथुरा से चलकर गाड़ी चाँदनी चौक के निकट पुरानी दिल्ली स्टेशन पहुँचती थी । चाँदनी चौक की चौड़ी सड़क पर भीड़ की एक नदी जैसी उमड़ती रहती- रिक्शाओं से सड़क भरी रहती; एक दूसरे के अगल-बगल कभी-कभी एक दर्जन तक साइकिल सवार साथ भागते होते, कुछ कम संख्या में ऑटो रिक्शा भी चलते रहते; भारी ठेलों को खींचते हुए आदमी पैदल दौड़ते रहते, कभी - कभी भारी बोझों से लदे गधों, भेंसों, ऊँटों और हाथियों को, हाथ में कोड़े लिए हुए आदमी हाँकते होते ।

ऐसी भीड़ से भरे चाँदनी चौक से होकर भक्तिवेदान्त स्वामी लाल किला से आगे छिप्पीवाड़ा के लिए छोटा रास्ता अपनाते । गौरीशंकर मंदिर को अपने बाएँ छोड़ते हुए वे विशाल जामा मस्जिद से आगे एक गली में से निकलते । छिप्पीवाड़ा के निकट सड़क और सँकरी हो जाती । १९४७ ई. में हिन्दुस्तान-पाकिस्तान का बँटवारा होने के पहले छिप्पीवाड़ा मुस्लिम बस्ती थी। बाद में वहाँ हजारो पंजाबी हिन्दू बस गए। छिप्पीवाड़ा हिन्दू-मुसलमानों की एक मिली-जुली बस्ती बन गई, इतनी घनी बस्ती कि उसकी सड़कों पर मोटर गाड़ियों का जाना मना था, केवल बैलगाड़ियाँ और रिक्शे ही उसकी सँकरी भीड़-भरी गलियों में प्रवेश कर सकते थे, और किसी-किसी क्षेत्र में रिक्शों को भी जाने से रोकने के लिए लोहे के खंभे गाड़ दिए गए थे। सड़कों और गलियों में क्रय-विक्रय करने वालों और चलने वाले कामगरों का ऐसा घना जमघट होता कि उनके बीच से किसी साइकिल वाले का भी निकल जाना गड़बड़ पैदा कर देता था । गलियाँ, दर गलियाँ इतनी पास-पास और तंग थीं कि उनकी ऊपरी मंजिलों के छज्जों में कुछ इंचों का फासला रह गया था। जैसे उनसे सड़क के ऊपर छत-सी बन गई हो। उसके नीचे सड़क पर चलने वालों को आकाश का संकरा खंड-भर दिखाई पड़ता था । निजी बाड़ों, दूकानों, गलियों और सार्वजनिक सड़कों का अतंर मिट सा गया था । यद्यपि अधिकतर दुकानों पर साइन बोर्ड हिन्दी और अँग्रेजी में लगे थे, कुछ दुकानों के साइन बोर्ड घुमावदार अरबी अक्षरों में भी थे और काले कपड़ों में पर्दे ( नकाब ) वाली स्त्रियाँ आमतौर से दिखाई देती थीं। शहरी जीवन के ऐसे घने भाग में कृष्ण पंडित के राधाकृष्ण मंदिर का सँकरा प्रवेश द्वार था जिस पर गणेश देवता का फलक लगा था और जिसके सादे मेहराबदार दरवाजे के ठीक ऊपर घोंसला बनाने वाले कबूतरों की एक पंक्ति बैठी थी ।

मंदिर और उसमें रहने वाले परिवारों का वातावरण कुछ कुछ पड़ोस की कोठरियों से मिलता-जुलता था । यद्यपि मंदिर का कमरा अँधेरा था, किन्तु आसन पर विराजमान राधाकृष्ण के श्रीविग्रह भलीभाँति आलोकित थे । राधारानी का रंग गेहुँआ था, कृष्ण श्याम वर्ण के संगमरमर के और लगभग दो फुट लम्बे थे । ताजे घिसे चंदन की बिन्दियों से उनका श्रृंगार किया गया था और माथे पर पीले चंदन का लेप था। दोनों श्रीविग्रह रेशम के परिधान से ढँके थे। श्रीविग्रहों के कमरे के ठीक ऊपर का कमरा अतिथि - शाला था— भक्तिवेदान्त स्वामी का कमरा । नग्न सीमेंट की दीवारें और फर्श । फर्श के बीच में से ऊपर उठा हुआ एक तीन फुट का कंकरीट से बना सर्पिल पिरामिड था जो इस बात की सूचना देता था कि श्रीविग्रह ठीक उसके नीचे अवस्थित हैं।

भक्तिवेदान्त स्वामी को शीघ्र मालूम हो गया कि उनका कमरा एकान्त में नहीं था, वरन् उसके अगल-बगल अन्य आवासीय कमरे भी थे। दरवाजे के बाहर धातु की एक जाली थी, जो वंशीगोपालजी मंदिर और केशवजी मठ की जालियों से भी छोटी थी, और जिससे नीचे मंदिर का छोटा-सा आँगन दिखाई देता था। छत पर से कठिनाई से शायद ही कोई वृक्ष दिखाई पड़ता था। आसपास की कोठरियों की छतें एक दूसरे से इतनी सटी सटी थीं कि ऐसा लगता था कि कोई, चाहे तो, एक छत से दूसरी छत पर से होता हुआ विशाल जामा मस्जिद तक पहुँच सकता था । मस्जिद के बड़े-बड़े तीन गुम्बद, जिनके अगल-बगल उनसे भी ऊँची मीनारें थीं, आम मकानों से ऊंचे दिखाई देते थे। कबूतरों के झुंड के झुंड उड़कर आते और उन गुम्बदों पर बैठते या आकाश में गोलाई में उड़ते ।

कृष्ण पंडित काले रंग का हल्का सूती कोट पहनते थे, जो पंडित नेहरू के द्वारा अन्तर्राष्ट्रीय पहचान प्राप्त कर चुका था। वे गाँधी टोपी भी पहनते थे। वे अच्छी अँग्रेजी बोलते थे और बातूनी थे। पास-पड़ोस में उनकी अच्छी ख्याति थी और लोग उनका आदर करते थे। उन्होंने भक्तिवेदान्त स्वामी को भगवान द्वारा प्रेषित के रूप में देखा - ऐसे साधु के रूप में जिनकी उन्हें देखभाल करनी थी और इस प्रकार एक बार पुनः हिन्दू संस्कृति की धर्मपरायणता सिद्ध करनी थी। उन्हें अपने नए अतिथि अच्छे लगे-सीधे-सादे, सौम्य, कृपालु, निष्णात वैष्णव विद्वान् ।

कृष्ण पंडित ने कहा कि वे भक्तिवेदान्त स्वामी के सनातन धर्म के मिशन का महत्त्व और दिल्ली में एक कार्यालय की उनकी आवश्यकता को समझते थे और उन्होंने प्रण किया कि उनके अतिथि की जो भी जरूरत होगी उसे वे पूरी करेंगे। यद्यपि भक्तिवेदान्त स्वामी को अपने लिए कुछ भी माँगने में संकोच था, कृष्ण पंडित उनके बैठने के लिए एक आसन और एक छोटा मेज ले आए और उन्हें पिरामिड के सामने रखकर, वे एक गद्दी भी ले आए। उन्होंने भक्तिवेदान्त को बताया कि कमरे में लगा हुआ एकमात्र बल्ब कैसे जलाया और बुझाया जाता है। धातु का शेड और बल्ब एक तार से लटके थे और हाथ से उन्हें नीचे या ऊपर किया जा सकता था। वे राधा और कृष्ण का एक चित्र लाए जिसे जयपुर के महाराज ने उनके गुरु को दिया था। उन्होंने दीवार के एक ताक में चित्र को रख दिया, आनन्द के साथ यह सोचते हुए कि भक्तिवेदान्त स्वामी एक सच्चे भक्त की दृष्टि से उसे देख सकेंगे।

भक्तिवेदान्त स्वामी चाहते थे कि पश्चिम जाने के पहले उन्हें पुस्तकें लिखने का एक सुरक्षित स्थान मिल जाय और भगवान् कृष्ण ने उसकी व्यवस्था कर दी थी। अब वे लिखने का कार्य चाहे वृंदावन में करें, चाहे दिल्ली में । उन्होंने बैक टु गाडहेड का प्रकाशन तुरन्त ही फिर आरंभ कर दिया और वे उसमें पहले की पाण्डुलिपियों से क्रमशः लेख देने लगे। साथ ही उन्होंने श्रीमद्भागवत का लिखना आरंभ किया ।

जब कृष्ण पंडित को मालूम हुआ कि उन के अतिथि भक्तिवेदान्त बैक टु गाडहेड को निकालने में अकेले संघर्ष कर रहे हैं, तो उसके व्यापार सम्बन्धी कुछ कार्यों में स्वेच्छा से सहायता करने को वे आगे आए। भक्तिवेदान्त स्वामी कृष्ण पंडित की हार्दिक सहायता से सचमुच बहुत प्रसन्न हुए और सराहना - स्वरूप उन्होंने उनके नाम के आगे 'हरि-भक्तानुदास' जोड़ दिया। छिप्पीवाड़ा में छह महीने बिताने के बाद भक्तिवेदान्त स्वामी ने मंदिर की अतिथि-नोट में बुक यह प्रशंसा दर्ज की :

मुझे यहाँ यह लिखते प्रसन्नता होती है कि मैं अपने मुख्य स्थान १ / ८५९, केशीघाट, वृंदावन (उ.प्र.) से केवल भगवान् की भक्ति के प्रचार का आध्यात्मिक उद्देश्य लेकर यहाँ आया। और मुझे यह लिखते और भी प्रसन्नता है कि श्रीमान् श्रीकृष्ण शर्मा, हरिभक्तानुदास ने मेरे साहित्यिक कार्यकलाप के लिए मुझे उपयुक्त कमरा दिया। मैं यहां से बैक टु गाडहेड पाक्षिक पत्रिका निकाल रहा हूँ और नवल प्रेम सभा के सचिव, श्री कृष्णजी, श्रीमद्भागवत् पर मेरे प्रतिदिन व्याख्यान की व्यवस्था करते हैं ।

श्रीकृष्णजी के पिता स्वर्गीय श्री ज्योति प्रसाद शर्मा भी मेरे परिचित थे और उनके जीवन काल में मैं जब भी दिल्ली आता था, वे मेरे ठहरने के लिए स्थान की व्यवस्था करते थे। उनके योग्य पुत्र भी अपने शीलवान पिता के चरण- चिह्नों पर चल रहे हैं और नवल प्रेम सभा के सचिव के रूप में वे सारे नगर में राम नाम के प्रचार की सेवा में तत्पर हैं।

सुपाठ्य अँग्रेजी अक्षरों में भक्तिवेदान्त स्वामी लिखते गए कि उनकी राय में मंदिरों का उपयोग जनता को केवल आध्यात्मिक मूल्यों की शिक्षा देने के लिए होना चाहिए और उनके जीवन का उद्देश्य, मंदिरों का संगठन, इसी कार्य के लिए करना था ।

मंदिर उन सामान्य गृहस्थों के लिए नहीं हैं जो पाश्विक वृत्तियों में लगे रहते हैं । मंदिर में रहने का अधिकार केवल उनको है जो उसके अधिपति भगवान् की सेवा में सचमुच लगे हैं, अन्य लोगों को नहीं ।

छिप्पीवाड़ा में श्रीमद्भागवत की रचना के प्रयत्न में लगे हुए भक्तिवेदान्त के मन में अगल-बगल के परिवारों के शोरगुल से, जो उनके भक्तिहीन पारिवारिक कलहों से होता था, यह भाव उत्पन्न हुआ कि मंदिर को आवासीय भवन के रूप में उपयोग में नहीं लाना चाहिए ।

***

स्थिर होकर श्रीमद्भागवत का अनुवाद आरंभ करने के महान् कार्य की योजनाओं के बावजूद, भक्तिवेदान्त स्वामी अन्य तरीकों से भी प्रचार करने को तैयार थे। अक्तूबर १९५९ ई. में उन्होंने टाइम्स आफ इंडिया में एक समाचार लेख पढ़ा था। दो अमरिकी वैज्ञानिकों को एंटीप्रोटोन की खोज करने के लिए भौतिक विज्ञान में नोबेल पुरस्कार मिला था। लेख में कहा गया था कि “ इस नई खोज की एक मूलभूत मान्यता यह है कि एक दूसरे संसार या अभौतिक संसार का अस्तित्व संभव है।” दूसरे संसार से, भक्तिवेदान्त को श्रीमद्भागवत में वर्णित शाश्वत आध्यात्मिक संसार का स्मरण हो आया। वे अच्छी तरह जानते थे कि 'अभौतिक संसार' को वैज्ञानिक, शाश्वत या आध्यात्मिक संसार के अर्थ में प्रयोग नहीं कर रहे थे; लेकिन वैज्ञानिक मनोवृत्ति के लोगों की अभिरुचि पर अधिकार पाने के लिए, उनके मन में वैज्ञानिक शब्दावली के प्रयोग का विचार आया। उन्होंने एक ऐसे निबन्ध की कल्पना की जिसमें अभौतिक कण या अभौतिक संसार की शब्दावली में भगवद्गीता के ईश्वरवादी विज्ञान का प्रस्तुतीकरण हो ।

यह वह समय था जबकि सारे संसार में अंतरिक्ष यात्रा की चर्चा हो रही थी । भारतीय संचार - साधनों से रूसी स्पुतनिक का विवरण दो वर्ष पहले मिल चुका था । अंतरिक्ष यात्रा की होड़ शुरू हो चुकी थी। अंतरिक्ष यात्रा में प्रचलित जन - रुचि का लाभ उठाकर भक्तिवेदान्त स्वामी ने वर्णन किया कि भक्ति-योग से आत्मा किस प्रकार अंतरिक्ष की अधिकतम सीमाओं को पार करके आध्यात्मिक जगत के शाश्वत लोकों में पहुँच सकता है जहाँ जीवन आनंदमय और ज्ञानमय है । भगवद्गीता के श्लोकों के अपने हाल के अनुवाद से उन्होंने उद्धरण दिए जो अभौतिक कण और अभौतिक संसार की परिकल्पना वाले नए भौतिक विज्ञान की भाषा में व्यक्त किए गए थे। "ईजी जर्नी टू अदर प्लैनेट्स" (अन्य ग्रहों की सरल यात्रा ) शीर्षक लेख पन्द्रह हजार शब्दों में पूरा हुआ था। उन्होंने पाण्डुलिपि राधा प्रेस के हितशरण शर्मा को दिखाई, लेकिन उस छोटी सी पुस्तिका को छापने के लिए उनके पास पैसे नहीं थे ।

फरवरी १९६० ई. में भक्तिवेदान्त ने उसे बैक टु गाडहेड में दो किश्तों में स्वयं छापने का निश्चय किया । गुजरात विश्वविद्यालय, अहमदाबाद के भौतिक विज्ञानी श्री वाई. जी. नायक की, जो बैक टु गाडहेड डाक से मँगाते थे, उन लेखों पर तुरन्त प्रतिक्रिया मिली। उनका विचार था कि भक्तिवेदान्त स्वामी का अभौतिक सिद्धान्त का यह प्रयोग " सचमुच महत्त्वपूर्ण है। निस्सन्देह, यह एक उत्कृष्ट निबन्ध है।” डा. नायक ने भौतिक विज्ञान और आध्यात्मिक ज्ञान के विषय में और आगे विचार-विनिमय में अपनी रुचि व्यक्त की और भक्तिवेदान्त स्वामी ने उसी उत्साह के साथ उनको उत्तर दिया। अंत में उन्होंने डा. नायक से आग्रह किया कि भारत की सांस्कृतिक सभ्यता को समस्त संसार में वितरित करने में वे उनका साथ दें।

भक्तिवेदान्त स्वामी को विश्वास हो गया कि उनके इस प्रकार के निबन्ध में अँग्रेजी बोलने वालों को प्रभावित करने की बड़ी शक्ति है, इसलिए उन्होंने "ईजी जर्नी टू अदर प्लैनेट्स” को सस्ते कागज पर पुस्तक के रूप में छापने के निमित्त धन संग्रह करने के लिए कड़ा परिश्रम किया। अंत में १९६० ई. की पतझड़ ऋतु में पुस्तक छप गई। दिल्ली विश्वविद्यालय के उपकुलपति डा. एन. के. सिद्धान्त, का प्राक्कथन देर से पहुँचा लेकिन उसे पुस्तक के अंदर सम्मिलित कर लिया गया ।

इस पुस्तक को पढ़ने से हर एक को लाभ होगा; विशेष कर विद्यार्थियों को इसे ध्यानपूर्वक पढ़ना चाहिए और भक्तियोग का अभ्यास करना चाहिए। उससे मस्तिष्क को बल मिलेगा और चरित्र का निर्माण होगा। मुझे प्रसन्नता होगी, यदि विद्यार्थी और अध्यापक दोनों इसे पढ़ें।

बहुत से भारतीय वैज्ञानिकों और विद्वानों ने पुस्तक की समीक्षाएँ भेजीं जिनमें उन्होंने उसके “ वैज्ञानिक एवं आध्यात्मिक दृष्टिकोण" को रेखांकित किया और " अंतरिक्ष को पार करने के लिए यांत्रिक विधि से गति को तीव्र बनाने की अपेक्षा मनोवैज्ञानिक प्रयास और आध्यात्मिक मुक्ति की विधि को श्रेष्ठ बताया । " पुस्तक में केवल अड़तीस पृष्ठ थे, लेकिन यह उनकी प्रथम पुस्तक थी— एक पृष्ठवाली बैक टु गाडहेड पत्रिका के अतिरिक्त । उन्होंने इस छोटी पुस्तक को वितरित करने की भरपूर कोशिश की । उसकी एक प्रति उन्होंने राष्ट्रीय अजायबघर, नई दिल्ली के डा. पी. बनर्जी को दी।

डा. बनर्जी : वे पुस्तकालय आया करते थे और पुस्तकें देखा करते थे। मेरी मुलाकात उनसे वहीं हुई। उन्होंने मुझे एक पुस्तक दी — ईजी जर्नी टु अदर प्लैनेट्स । उसकी कुछ प्रतियाँ उन्होंने एक रुपया या आठ आने प्रति पुस्तक की दर से वितरित करने को दी।

मुझे उनकी ओर आकर्षण हुआ। मुझे लगा कि वे एक संत- पुरुष हैं, बिना बाह्य आडम्बर के, सच्ची भक्ति वाले। अपने नाम और यश के लिए लोगों को वे अपनी ओर आकृष्ट नहीं करना चाहते थे। उनकी सहायता करने वाला कोई नहीं था। वे छिप्पीवाड़ा में एक छोटे से कमरे में अकेले रहते थे। अपने अध्ययन में वे लगे रहते थे। इसलिए मैंने पूछा, “महोदय, यदि आपके पास समय हो और मेरे यहाँ आने में आपको संकोच न हो तो कृपा करके हर रविवार को मेरे यहां आइए और घर में भागवत् सुनाइए। वे तुरन्त राजी हो गए। वे अच्छे विद्वान् थे। धर्मशास्त्रों में उनकी गति थी और दूसरों तक अपने विचार पहुँचाने में उनकी रुचि थी। वे बहुत अच्छे वक्ता थे और वार्तालाप में पारंगत थे। वे बहुत विनयशील थे।

वे जो कुछ कहते, उसे बहुत स्पष्टता से कहते थे। वे बँगला में बोलते थे और श्लोकों के सारांश की व्याख्या करते थे। कभी-कभी वे टीकाओं का भी निर्देश करते थे— केवल मुझे अतिरिक्त जानकारी देने के लिए। अन्य लोगों को टीकाओं में या कठिन प्रकरणों को जानने में रुचि नहीं थी; लेकिन चूँकि वे जानते थे कि उस क्षेत्र में मेरा कुछ अध्ययन है, इसलिए मेरे लिए, और एक दो और सज्जनों के लिए, जो वयोवृद्ध और सुविज्ञ थे, वे टीकाओं की व्याख्या किया करते थे ।

मेरे घर पर लगभग बीस से तीस लोग तक एकत्र होते थे और वे अपनी व्याख्या एक-दो घण्टे तक करते रहते। तब वे हरे कृष्ण मंत्र का कीर्तन करते थे और हम सब करताल और हारमोनियम बजाकर उनका साथ देते। इस तरह बैठक में बड़ा आनन्द आता था, क्योंकि वे कठिन बातों को बहुत आसान बना देते थे और वे हर चीज की व्याख्या हमारी आवश्यकताओं के अनुसार कर देते थे। वे जानते थे कि इतना इस व्यक्ति के लिए है, इतने का वास्ता उस व्यक्ति से है और इतने का औरों से ।

बैठक के बाद वे मेरे घर में थोड़ा विश्राम करते थे। मैं उनसे भोजन के लिए प्रार्थना करता तो वे कहते कि दूसरों का बनाया भोजन वे ग्रहण नहीं करते। लेकिन जब वे मेरी पत्नी से मिले और उन्होंने कहा कि उनके लिए भोजन बनाने में उन्हें प्रसन्नता होगी, तब वे बोले, “बहुत अच्छा, मैं भोजन करूँगा।” उसके बाद जब वे रविवार को मेरे यहाँ आने को होते, मेरी पत्नी उनके लिए भोजन बनाया करती थीं ।

कभी-कभी वे मुझसे पूछते कि इस क्षेत्र में अधिकाधिक लोगों को कैसे आकृष्ट किया जाय। लेकिन सरकारी अधिकारी होने के नाते मैं खुले रूप में किसी से कुछ कह नहीं सकता था । न ही किसी बड़े स्तर पर कोई व्यवस्था करने के लिए मेरे पास समय था, किन्तु इससे उन्हें संतोष नहीं था। उन्होंने मुझसे पूछा कि क्या बैठक की व्यवस्था मैं अधिक बड़े पैमाने पर कर सकता हूँ। वे जानते थे कि जो लोग मेरे घर की बैठक में भाग लेते थे वे बहुत वृद्ध थे- सत्तर, अस्सी के या एक तो नब्बे वर्ष के थे। सभी अवकाश प्राप्त और सुशिक्षित थे।

बैठकों का क्रम एक वर्ष तक चलता रहा। उसके बाद उन्होंने कहा कि वे अन्य स्थानों को जाने का प्रयत्न करेंगे। उन्होंने मुझसे बैठकें चलाते रहने को कहा। लेकिन मैने कहा कि “मैं दीक्षित नहीं हूँ।” उन्होंने कहा कि फिर भी मैं बैठकें चला सकता था क्योंकि मैं जन्म से ब्राह्मण था । कुछ समय तक बैठकें चलाने का उन्होंने मुझे अधिकार दिया। लेकिन मैं चला नहीं सका, क्योंकि मुझे बाहरं जाना पड़ता था। उनके जाने के बाद मेरी रुचि जाती रही। मैं सरकारी अधिकारी था।

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“ ईज़ी जर्नी टू अदर प्लैनेट्स" एक प्रकार की तैयारी थी, श्रीमद्भागवत को प्रस्तुत करने के उनके वास्तविक कार्य की । लेकिन पुस्तकों की आवश्यकता के विषय में उन्हें और अधिक विश्वास हो गया । प्रचार के लिए उन्हें पुस्तकें चाहिए थीं, विशेषकर यदि उन्हें पश्चिमी संसार में जाना था। पुस्तकों की सहायता से वे आध्यात्मिक क्रान्ति पैदा कर सकते थे। पश्चिम में साहित्य बहुत था लेकिन पश्चिमी लोगों के पास उनके आध्यात्मिक शून्य को भरने के लिए ऐसा कुछ नहीं था ।

यद्यपि श्रीमद्भागवत को वे अधिक से अधिक समय देना चाहते थे, तो भी बैक टु गाडहेड को चलाने में वे लगे रहे और उपलब्ध पुस्तकों की पाण्डुलिपियों से उद्धरण लेकर उन्हें लेख के रूप में उसमें देते रहे। लेकिन कभी कभी वे नए लेख भी लिखते और छापते । "रिलेवेंट इनक्वायरी” (प्रासंगिक जिज्ञासा) में उन्होंने लिखा :

भगवान के धाम में लौटने का प्रचार करके हम केवल मानव जाति को बचाने का विनीत प्रयास कर रहे हैं। यह प्रचार झूठा नहीं है। यदि सत् का अस्तित्व है तो भगवान् के धाम में लौटने का यह प्रचार उस सतयुग का आरंभ है ।

ए गाडलेस सिविलिजेशन" ( एक अनीश्वरतावादी सभ्यता ) नामक लेख में भक्तिवेदान्त स्वामी ने प्रधानमंत्री नेहरू की इन शिकायतों का उल्लेख किया कि धर्म के नाम पर जनता के धन का दुरुपयोग किया जाता है। भक्तिवेदान्त स्वामी ने टिप्पणी की कि, यद्यपि निस्सन्देह ऐसे उदाहरण बहुत से हैं जहाँ धार्मिक नेता आपराधिक मामलों में फँसे पाये जाते हैं, लेकिन यदि आँकड़ों की तुलना की जाय तो राजनीतिक धूर्तों की संख्या धार्मिक धूर्तों से बढ़ जायगी । धार्मिक धूर्तता के प्रति पंडित नेहरू की चेतावनी सही थी, लेकिन वह चेतावनी आध्यात्मिक संस्थाओं में पूरा सुधार लाए बिना कारगर नहीं हो सकती थी और वह सुधार राज-नेताओं के पूर्ण सहयोग से ही संभव था । भक्तिवेदान्त स्वामी ने अपने उस पत्र से उद्धरण दिया जिसमें उन्होंने प्रधानमंत्री नेहरू से भगवद्गीता का अध्ययन शुरू करने को कहा था। परन्तु, जैसा कि भक्तिवेदान्त स्वामी ने बैक टु गाडहेड के पाठकों को सूचित किया, पंडित नेहरू ने उनके उस पत्र का उत्तर कभी नहीं दिया । " आध्यात्मिक ज्ञान के अभाव में उन्होंने सोचा कि लीग आफ डिवोटीज़ (भक्त - संघ ) भी उन बहुत से मठों और मंदिरों की तरह ही था जो उनके लिए सिरदर्द हो रहे थे ।"

भक्तिवेदान्त स्वामी का पंडित नेहरू पर अभियोग यह था कि वे समझते थे कि कोई आध्यात्मिक संस्था “जनता से धन संग्रह करने का तहखाना है और बाद में उस धन का शंकास्पद कार्यों में दुरुपयोग किया जाता है।

किन्तु वे उन तथाकथित साधुओं का समर्थन करते हैं जो सामाजिक सेवा करते हैं पर आध्यात्मिक विज्ञान के विषय में बकवास करते हैं। ऐसा इसलिए है कि पंडित नेहरू को स्वयं आध्यात्मिक ज्ञान नहीं है, यद्यपि वे ब्राह्मण और पंडित हैं। आध्यात्मिक ज्ञान का अभाव शूद्रों या श्रमिकों का गुण है ।

उन्होंने पंडित नेहरू से प्रार्थना की कि वे भगवान् या कृष्ण शब्द से भयभीत न हों: " पर हम उन्हें विश्वास दिला सकते हैं कि भय का कोई कारण नहीं है, क्योंकि कृष्ण हर एक के हितैषी हैं और हर एक की सहायता करने में सक्षम हैं।" भक्तिवेदान्त स्वामी ने अपने लेख का अंत यह कहकर किया कि अनैतिक व्यवहार भारत के देवालयों तक ही सीमित नहीं है, वरन् वे सारे संसार की भौतिकतावादी सभ्यताओं में समान रूप से व्याप्त है। विशेष कर युवा वर्ग के विक्षोभों का उन्होंने उदाहरण दिया जो १९६०-७० के बीच सर्वत्र व्यापक हो रहे थे ।

अच्छा होगा कि डाक्टर पहले स्वयं अपनी दवा करें; क्योंकि नास्तिकतावादी सभ्यता में, जबकि मठों और मंदिरों के पुजारी पंडित नेहरू के लिए सिर दर्द बने हुए हैं, ऐसे ही लोग, दूसरे नामों से, योरप और एशिया के राज-नेताओं के सिर दर्द के कारण हैं। उन देशों में बेलगाम छोकरे, जिन्हें, इंगलैंड में "टेडी ब्यायज़,” अमेरिका में "रेबेल्स विदआउट काज़,” जर्मनी में "हाफ स्ट्रोंग, " स्वेडन में “ लेदर जैकेट्स, " जापान में “चिल्डरेन आफ द सन,” और रूस में “ स्टाइल ब्यायज़" कहा जाता है, नास्तिकतावादी सभ्यता की ही उपज हैं। और सारे सिर दर्द का मूल कारण यही है । उसका पूरा उपचार जरूरी है।

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छिप्पीवाड़ा में भक्तिवेदान्त स्वामी की दिनचर्या लगभग वैसी ही थी जैसी कि केशीघाट पर । अंतर केवल यह था कि यहाँ बैक टु गाडहेड के लिए लिखने-पढ़ने का कुछ काम कृष्णपंडित कर देते थे, इसलिए श्रीमद्भागवत को अधिक समय देने के लिए वे स्वतंत्र थे ।

कृष्ण पंडित: वे श्रीमद्भागवत का अनुवाद सूर्योदय के पूर्व किया करते थे, लगभग ३ बजे से। आरंभ में टाइपराइटर नहीं था, बाद में उन्होंने एक पोर्टेबल टाइपराइटर की व्यवस्था कर ली थी। वे नित्य प्रति अनुवाद का यह कार्य करते; तब अपना भोजन स्वयं बनाते। भोजन की सामग्री मैं इकठ्ठी कर लेता था। कभी कभी वे मेरे परिवार में आते और मेरी पत्नी से कुछ भोजन माँगते । कभी कभी वे तीसरे पहर ५ या ६ बजे भी नहाते थे ।

हर दिन वे टाइप करते, और भागवत का स्वयं पाठ करते, और मंदिर में दर्शन को जाते। तब वे बाहर चले जाते और कभी कभी तीसरे पहर २ या ४ बजे वापस लौटते। उसके बाद वे टाइप करते और बैक टु गाडहेड के प्रूफ देखते और उन्हें कहीं भेजते। वे इस तरह सारे कार्य करते । उनका मुख्य कार्य दिन-भर में कई घंटे टाइप करना था ।

भक्तिवेदान्त स्वामी अनुवाद का कार्य श्रील भक्तिसिद्धान्त सरस्वती द्वारा संपादित एक संस्कृत और बँगला के भागवत तथा उसके एक बृहन् संस्करण से करते थे जिसमें बारह महान् आचार्यों की मौलिक टीकाएँ थीं। उनके अनुवाद का एक मानक रूप था : वे देवनागरी में लिखित संस्कृत को रोमन अक्षरों में लिखते; तब हर शब्द का अँग्रेजी पर्याय देते; फिर अँग्रेजी में उसका गद्य अनुवाद करते, और अंत में अँग्रेजी में श्लोक का तात्पर्य देते। परन्तु अपनी ओर से तात्पर्य देने के पहले वे आचार्यों की टीकाएँ देख लेते, विशेषकर श्रील भक्तिसिद्धान्त सरस्वती, विश्वनाथ चक्रवर्ती, जीव गोस्वामी, विजयध्वज तीर्थ और श्रीधर स्वामी की टीकाएँ ।

जिस परियोजना में वे लगे थे उसके आयाम का उन्होंने अनुमान लगाया था। भागवत् में अठारह हजार श्लोक थे। पहले स्कंध के सत्रह अध्याय प्रत्येक चार सौ पृष्ठ वाले तीन खण्डों में आते थे। और दूसरे स्कंध के दस अध्यायों को दो खंड चाहिए थे। नवे स्कंध तक इस तरह हो सकता है तीस खंड हो जायँ । दसवें स्कंध में नब्बे अध्याय थे, उनके लिए बीस खंड चाहिए थे । सब मिलाकर बारह स्कंध थे और इस तरह खंडो की संख्या कम से कम साठ होगी। उन्होंने सोचा कि पाँच से सात वर्षों में वे कार्य पूरा कर लेंगे:

" यदि भगवान् ने मुझे स्वस्थ रखा, तो मैं श्रील प्रभुपाद की इच्छा की पूर्तिस्वरुप कार्य पूरा कर लूँगा ।”

उन्होंने निर्णय किया कि पहले खंड का आरंभ भगवान् चैतन्य महाप्रभु के जीवन चरित के साथ किया जाय, “जो भागवत के आदर्श प्रचारक थे।” पाठक को भागवत को सर्वोत्तम रूप में परखने - सराहने का अवसर भगवान् चैतन्य के व्यावहारिक जीवन में उसके दर्शन से मिलेगा । भगवान् चैतन्य ने भागवत को जिस रूप में प्रस्तुत किया था उसकी विशेषता उनकी यह इच्छा थी कि “ श्रीमद्भागवत का प्रचार, भारत में जन्म लेने वाले हर व्यक्ति द्वारा, संसार के हर कोने में किया जाय।” भगवान् चैतन्य श्रीमद्भागवत को “निर्मल पुराण" कहते थे और हरे कृष्ण मंत्र के साथ श्रीमद्भागवत के पठन और श्रवण को वे ईश्वर में सच्चे प्रेम का विकास करने के लिए पूर्ण वैज्ञानिक प्रक्रिया मानते थे ।

भक्तिसिद्धान्त सरस्वती द्वारा संपादित चैतन्य चरितामृत और चैतन्य - भागवत के भाष्य को आधार मानकर भक्तिवेदान्त स्वामी ने भगवान् चैतन्य के जीवन और उनके संकीर्तन-आन्दोलन की रूपरेखा पचास पृष्ठों में दी। उन्होंने भगवान् चैतन्य की दिव्य भाव- समाधि का, समकालीन विद्वानों से उनकी दार्शनिक टक्करों का और उनके द्वारा प्रारंभ किए गए संकीर्तन आन्दोलन का वर्णन किया । भक्तिवेदान्त स्वामी ने भगवान् चैतन्य के जीवन और उनकी शिक्षाओं को विशेष रूप से इतिहास की वर्तमान संकटापन्न घड़ी से जोड़ कर वर्णित किया । " आवश्यकता की इस निर्णायक घड़ी में" मानवता की सहायता वैदिक साहित्य, और विशेष रूप से, श्रीमद्भागवत से हो सकती है:

हम जानतें हैं कि विदेशी आक्रमणकारियों ने भारत के कुछ विशाल भवनों को ध्वस्त कर दिया, लेकिन वे संस्कृत भाषा में वैदिक ज्ञान के रूप में संरक्षित मानव-सभ्यता के श्रेष्ठ आदर्शों को नष्ट नहीं कर सके।

संस्कृत भाषा ने इन रहस्यों की रक्षा हजारों शताब्दियों तक की, लेकिन अब इन रहस्यों को संसार के लिए प्रकट कर देना आवश्यक था ।

श्रीमद्भागवत के प्रारंभिक श्लोकों के निकट पहुँचते-पहुँचते भक्तिवेदान्त स्वामी भागवत के उद्देश्यों में खो गए। उन श्लोकों में बलपूर्वक कहा गया है कि केवल भागवत ही कलियुग के दुष्प्रभावों से समाज की रक्षा कर सकता है। इस युग के लिए श्रीमद्भागवत की संस्तुति यही है कि केवल सच्चे भक्तों के मुख से परम भगवान् कृष्ण, का गुणगान सुना जाय ।

भागवत का प्रारंभ आज से लगभग पाँच हजार वर्ष पूर्व, वर्तमान कलियुग के आदि में, नैमिषारण्य में संतों के समागम से होता है। मानवता के पतन का पूर्वाभास होने पर संतों ने सभा के वरिष्ठ सदस्य, सूत गोस्वामीं से पूछा, "अब, जबकि भगवान् कृष्ण, जो सभी धार्मिक सिद्धान्तों के शरण - स्थल हैं, अपने आध्यात्मिक लोक को चले गए हैं, धार्मिक सिद्धान्त कहाँ से प्राप्त होंगे ?" सूत जी का उत्तर था कि श्रीमद्भागवत पुराण “जो सूर्य के समान देदीप्यमान है,” भगवान् का साहित्यिक अवतार है और वही कलियुग के घने अंधकार में खोए मनुष्यों को दिशा-बोध कराएगा ।

श्रीमद्भागवत के प्रारंभ में श्रील व्यासदेव, अपने आध्यात्मिक गुरु, नारद मुनि, के आदेशानुसार ध्यान-मग्न होकर बैठ गए। समाधि की दशा में उन्होंने परम भगवान्, उनकी शक्तियों और कलियुग की दुख भोगती आत्माओं को देखा । उन्होंने यह भी देखा कि उनके दुख की औषधि विशुद्ध भक्ति है । ऐसी अन्तर्दृष्टि प्राप्त करके और अपने आध्यात्मिक गुरु के आदेशों को प्रेरणा मान कर, व्यासदेव ने, कलियुग का दुख भोगती आत्माओं को सर्वश्रेष्ठ लाभ पहुँचाने के लिए, श्रीमद्भागवत की रचना आरंभ की।

भगवान् के साहित्यिक अवतार श्रीमद्भागवत को पाश्चात्य संसार के लिए प्रस्तुत करते हुए, भक्तिवेदान्त स्वामी को ऐसा अनुभव हुआ कि वे श्रील व्यासदेव के चरण-चिह्नों पर चलकर एक बहुत महत्त्वपूर्ण कार्य कर रहे थे । जिस प्रकार श्रील व्यास को कृष्ण के विषय में अन्तर्दृष्टि प्राप्त हुई थी और अपने साहित्यिक अभियान के पूर्व उन्हें अपने आध्यात्मिक गुरु से आदेश मिला था, उसी प्रकार भक्तिवेदान्त स्वामी को भी अन्तर्दृष्टि प्राप्त हुई और अपने आध्यात्मिक गुरु से आदेश मिला । भक्तिवेदान्त स्वामी को दिखाई दिया । कि मानो वे श्रील वेदव्यास का ग्रंथ बहुत बड़ी संख्या में वितरित कर रहे हैं। वे न केवल पुस्तक का अनुवाद करेंगे, वे स्वयं उसे पश्चिम में ले जायँगे, बाँटेंगे और वहाँ के लोगों को सिखाएँगे – पुस्तक के माध्यम से और व्यक्तिगत रूप में भी — कि भगवान् का सच्चा प्रेम कैसे विकसित किया जाता है।

श्रील प्रभुपाद : साम्यवादी दल केवल अपना साहित्य वितरित करके जन - प्रिय हो गया है। कलकत्ता में साम्यवादी एजेंट मित्रों को आमंत्रित करते हैं और अपना साहित्य पढ़ कर उन्हें सुनाते हैं। रूसी भारत में कभी नहीं आए, लेकिन हर भाषा में अपना साहित्य वितरित करके, उन्होंने बहुत बड़ी संख्या में लोगों को अपना अनुयायी बना लिया है। यदि सामान्य, तीसरे दर्जे का, लौकिक साहित्य ऐसा कर सकता है, तो दिव्य साहित्य सारे संसार में अपने भक्त क्यों नहीं पैदा कर सकता ? ऐसे साहित्य का गाँव-गाँव में जोरदार प्रचार करने की बहुत जरूरत है। भागवत धर्म मानव समाज का आदि धर्म है। धर्म के नाम से जिस किसी भी चीज का चलन दिखाई देता है वह सब वैदिक साहित्य से आया है। लोग वैदिक साहित्य पर आधारित पुस्तकें चाहते हैं। वे उनके लिए तड़प रहे हैं। भगवान् चैतन्य ने कहा था कि संसार के हर नगर और हर गाँव में संकीर्तन आन्दोलन के संदेश से लोग अवगत होंगे। इसका तात्पर्य यह है कि संसार के गाँव और नगर में ऐसे लोग हैं जो इस संदेश की प्रतीक्षा कर रहे हैं। यह साहित्य दिव्य है। उसे कोई चुनौती नहीं दे सकता। इसकी रचना इतनी सुंदर है कि उसमें कोई दोष नहीं है; वह सर्वथा निर्दोष पुराण है।

भक्तिवेदान्त स्वामी ने अपना सारा विश्वास श्रीमद्भागवत में केन्द्रित कर दिया, और प्रचार के अन्य प्रकार के सभी कार्यों को लगभग छोड़ दिया। और उनके आध्यात्मिक गुरु और भगवान् चैतन्य का यही उपदेश था, यही दृष्टान्त था । उनकी रुचि बहुत लागत वाले मंदिरों के निर्माण या बहुत से नए शिष्य पैदा करने में नहीं थी। श्रील भक्तिसिद्धान्त सरस्वती ने प्रचार पर बल दिया था । प्रचार के लिए ग्रंथ चाहिए थे और सर्वोत्तम ग्रंथ था श्रीमद्भागवत । सामान्य जनता के ज्ञान के लिए भागवत की रचना करना और छापना भगवान् की सच्ची सेवा थी । यह श्रील भक्तिसिद्धान्त सरस्वती का मत था। मंदिरों के निर्माण की तुलना में उन्हें पुस्तकें प्रकाशित करना अधिक पसंद था और उन्होंने अपने शिष्यों को विशेष रूप से कहा था कि वे पुस्तकें लिखें। पुस्तकें लिखना, उन्हें प्रकाशित करना और दूर दूर तक वितरित करना उन्नत शक्तिप्रदत्त शिष्यों का काम था। हर जगह दिव्य साहित्य - वितरण के कार्यक्रम से (जिसमें साम्यवादियों से भी अधिक विशेषज्ञ लगे हों) अमेरिका और योरप के लोगों पर गहरा अनुकूल प्रभाव पैदा किया जा सकता था । और यदि अमेरिका और योरप के लोग श्रीकृष्णभावनामृत की ओर उन्मुख हो गए तो शेष संसार के लोग उनका अनुकरण करेंगे। भक्तिवेदान्त स्वामी छिप्पीवाड़ा में अपने कमरे में बैठे अकेले कार्य में लगे रहे। वे इस विचार में खोए रहते कि कृष्ण के संदेश को उन्हें इतने बड़े पैमाने पर फैलाना था जितने पर पहले कभी नहीं फैलाया गया था ।

वे कभी-कभी इस सोच में पड़ जाते कि पश्चिम के लोग, जो वैदिक संस्कृति से इतने दूर हैं, कृष्ण के संदेश को कैसे ग्रहण करेंगे। वे मांसभक्षी थे, म्लेच्छ थे। भक्तिवेदान्त स्वामी के एक गुरुभाई जब इंगलैंड गए थे, तो मारक्विस आफ जेटलैंड, उनसे पापकर्ममय जीवन से बचने के लिए चार निषेधों को सुनकर, “असंभव” कहते हुए विद्रूप हँसी हँस पड़े थे। किन्तु श्रीमद्भागवत की बात अटल थी ।

"परम भगवान् श्रीकृष्ण, जो सबके हृदय में वास करने वाले परमात्मा, और सच्चे भक्तों के कल्याणकर्ता भी हैं, अपने उन भक्तों के मन से भौतिक भोग-विलास की वासना दूर कर देते हैं जिन्होंने उनके संदेशों को सुनने की उग्रता विकसित कर ली है। समुचित रूप से कहने और सुनने में ये संदेश स्वयं नैतिकता से भरे हैं। "

यद्यपि भक्तिवेदान्त स्वामी की ख्याति अँग्रेजी में प्रचार करने वाले के रूप में थी, किन्तु उस विदेशी भाषा में उनकी प्रस्तुति में दोष हमेशा रहते थे; और उन्हें दूर करने वाला कोई संशोधक नहीं था। लेकिन ऐसे तकनीकी दोषों के कारण वे श्रीमद्भागवत के मुद्रण से विरत नहीं हो सकते थे । भागवत् के आरंभ के अध्यायों में उन्होंने यह बात कह भी दी । " जो साहित्य असीम अनन्त भगवान् के नाम, यश, रूपों और लीलाओं के दिव्य वैभवों के वर्णनों से भरा है वह दिव्य शब्दावली की एक अलग ही सृष्टि है । उसका उद्देश्य संसार की दिग्भ्रमित सभ्यता के कलुषपूर्ण जीवन में क्रान्ति घटित करना है। ऐसे दिव्य साहित्य को, चाहे उसकी रचना अव्यवस्थित रूप में हुई हो, पवित्र आत्मा वाले मनुष्य, जो सम्पूर्ण रूप से सत्यनिष्ठ हैं, सुनते हैं, पढ़ते हैं और स्वीकार करते हैं। "

अपने तात्पर्य में भक्तिवेदान्त स्वामी ने लिखा “हम जानते हैं कि संसार के वातावरण को पुनः आध्यात्मिकता से भरने के नाम पर जन-सामान्य में भगवान् की चेतना को पुनर्जागरित करने वाले दिव्य संदेश के वाहक इस महान् साहित्य को प्रस्तुत करने का हमारा सच्चा प्रयत्न बहुत सी कठिनाइयों से भरा है... विषयवस्तु को समुचित भाषा में, विशेषकर एक विदेशी भाषा में, प्रस्तुत करने में हम अवश्य असमर्थ सिद्ध होंगे और विषयवस्तु को सही रूप में प्रस्तुत करने का हम चाहे जितना भी प्रयत्न करें, हमसे बहुत-सी साहित्यिक भूलें होंगी। लेकिन हमें विश्वास है कि इस सम्बन्ध में हमारी सारी भूलों के बावजूद विषयवस्तु की गंभीरता पर लोगों का ध्यान जायगा और समाज के नेता उसे स्वीकार करेंगे, क्योंकि वह सर्वशक्तिमान भगवान के, जिसकी इस समय इतनी घोर आवश्यकता है, यश-गान का सच्चा प्रयत्न है। जब घर में आग लगी हो तो घर के निवासी पड़ोसियों से सहायता माँगने जाते हैं। वे पड़ोसी बिल्कुल विदेशी भी हो सकते है; तो भी बिना समुचित भाषा के, आग का शिकार बने घर वाले अपनी आवश्यकता पड़ोसियों को बताते हैं और अपूर्ण रूप से भी व्यंजित उनकी बात को पड़ोसी समझ जाते हैं। संसार की वर्तमान स्थिति के दूषित वातावरण में श्रीमद्भागवत के दिव्य संदेश के प्रसारण के लिए ऐसी ही सहयोग - भावना अपेक्षित है। कुछ भी हो, श्रीमद्भागवत आध्यात्मिक मूल्यों का प्राविधिक विज्ञान है और इसलिए हमारा सम्बन्ध, विशेष रूप से, उसकी प्रविधि से है, न कि भाषा से। यदि इस महान् साहित्य की प्रविधि को संसार के लोग समझ लें तो हमें सफलता मिल जाएगी।"

सचमुच कलियुग आपात स्थिति थी— घर में आग लगी थी। जो सच्चे लोग थे और समय की आवश्यकता को समझते थे, उनके लिए श्रीमद्भागवत स्वागत - योग्य वस्तु थी, यद्यपि उसका अँग्रजी- रूपान्तरण “भाषागत अनेक त्रुटियों से भरा था । " भक्तिवेदान्त स्वामी श्रीमद्भागवत को जैसा का वैसा प्रस्तुत कर रहे थे। श्रील व्यासदेव के प्रति उनके मन में अत्यधिक सम्मान था । और यही उनका आधारभूत गुण था। वे अपनी स्वयं की अनुभूतियों को जोड़ रहे थे, लेकिन पूर्वगामी आध्यात्मिक गुरुओं से बढ़ जाने की भावना से नहीं । नितान्त 'परम्परा' के अनुसार विषयवस्तु को प्रस्तुत करने की जो सर्व महत्त्वपूर्ण बात थी, उसमें भक्तिवेदान्त स्वामी को कोई भी कठिनाई 'त्रुटिपूर्ण, अपूर्ण भाषिक प्रविधियों" के कारण नहीं हुई। वे जानते थे कि 'परम्परा' के बिना भागवत के तात्पर्यो का कोई मूल्य नहीं होगा। डेस्क के सामने बैठे वे दिन-रात टाइप करने में लगे रहते और छत से लटकते तार में बंधे छोटे लैम्प को जरूरत के अनुसार घुमा-फिरा लेते। वे एक पतली चटाई पर बैठते थे और उनकी तनी हुई पीठ पिरामिड की ओर होती थी— उस साज-सज्जा - हीन कमरे में । पन्ने पर पन्ने इकठ्ठे होते जाते थे और पत्थरों से दबाकर वे उन्हें अपनी जगह पर रखते जाते । भोजन और निद्रा — यद्यपि दोनों आवश्यक थे— उनके लिए आकस्मिक थे। उन्हें पूरा विश्वास हो गया था कि उनका श्रीमद्भागवत दिग्भ्रमित सभ्यता में क्रान्ति उत्पन्न कर देगा । अस्तु, वे अत्यन्त सावधानी और ध्यान से हर शब्द का अनुवाद करते और तात्पर्य लिखते । किन्तु कार्य जितनी शीघ्रता से हो सके पूरा होना था ।

***

सन् १९६१ ई. की फरवरी में, श्रील भक्तिसिद्धान्त सरस्वती की जन्म जयन्ती, व्यास - पूजा, के दिन भक्तिवेदान्त स्वामी फिर वृन्दावन लौटे। श्रील भक्तिसिद्धान्त के कुछ शिष्य, उनके सम्मान में, उस दिन एकत्रित हुए थे। उन्होंने उनके चित्र को पुष्प अर्पित किए थे और मंदिर में सामुदायिक कीर्तन किया था । लेकिन भक्तिवेदान्त स्वामी का विचार था कि उन्हें उससे भी अधिक करना चाहिए था। उन्हें विश्वव्यापी प्रचार आन्दोलन की योजनाएँ बनानी और उनको कार्यान्वित करना चाहिए, जैसी कि भक्तिसिद्धान्त सरस्वती की इच्छा थी । उसके स्थान पर, वे स्वंतत्र व्यक्तियों की भाँति इकठ्ठे हुए थे। उनमें हर एक का अपना छोटा-मोटा विचार था; हर एक अलग केन्द्र में रहता था, या अपना अलग केन्द्र चला रहा था। किसी के पास विश्वव्यापी कार्यक्रम न था, यहां तक कि अखिल देश व्यापी कार्यक्रम भी न था । अपना जीवन-यापन करने के अतिरिक्त उनमें से अधिकतर के पास न कोई योजनाएँ थीं और न ही दूर - दृष्टि । भक्तिवेदान्त स्वामी चाहते थे कि उनके आन्दोलन का संचालन करने के लिए कोई शासी- मण्डल हो, किन्तु शासी- मण्डल जैसी कोई चीज नहीं थी और यहाँ तक कि आन्दोलन जैसी कोई चीज भी नहीं थी। जिन लोगों में पहले घोर संघर्ष हुए थे, अब उनमें बातचीत शुरू हो गई थी । उन्हें डर था कि संस्थागत प्रयत्नों की बात होने पर ऐसा न हो कि उनके बीच के पुराने विद्वेष फिर जाग उठें। अभी इतना तो था कि कम से कम वे एक स्थान पर एकत्रित हो जाते थे और अपने आध्यात्मिक गुरु को एक साथ श्रद्धा-सम्मान अर्पण करते थे ।

अपने गुरुभाइयों के मध्य भक्तिवेदान्त स्वामी एक कनिष्ठ संन्यासी थे । यद्यपि लेखक और सम्पादक के रूप में वे मान्य थे, लेकिन उनका कोई मंदिर या कोई अनुयायी नहीं था। तब भी वे जानते थे कि वे भक्तिसिद्धान्त सरस्वती के अनुगमन का प्रयत्न कर रहे थे। माया की विशाल शक्तियों के विरुद्ध, उन्होंने अपने को असहाय और अकेला पाया। उनके गुरुभाई माया की इन शक्तियों के विरुद्ध एक संयुक्त सेना जैसे नहीं थे, वरन् वे विरक्त मठवासियों जैसे थे जो धार्मिक सिद्धान्तों और कर्मकाण्डों में लगे हुए धीरे धीरे बूढ़े हो रहे थे और जीवन शक्ति से हीन थे। एक जगह इकठ्ठे होकर वे अपने आध्यात्मिक गुरु की आराधना कैसे कर सकते थे जब तक वे शोकपूर्ण मन से अपनी असफलता को अंगीकार न करें और "कभी नहीं से अच्छा, देर से ही सही" के भाव से अपनी भूलों को सुधारने के लिए तैयार न हो जायँ ?

यह नियम था कि व्यास - पूजा के दिन हर शिष्य अपने आध्यात्मिक गुरु का महत्त्व दर्शाने वाली एक प्रशस्ति लिखता था और गुरुभाइयों की सभा में उसे सुनाता था । भक्तिवेदान्त स्वामी ने भी एक प्रशस्ति लिखी—जो प्रशंसा की अपेक्षा विस्फोट से अधिक भरी थी। अपने गुरुभाइयों की प्रतिक्रिया जानने के लिए उन्होंने उसे उनके सामने विनम्र भाव से प्रस्तुत किया । किया

अब भी, मेरे गुरुभाइयों, गुरु के आदेश पर आप यहाँ एकत्र होते हैं और एक साथ उनकी पूजा करते हैं ।

किन्तु पुष्पों, फलों के उत्सव मात्र से पूजा नहीं होती। जो गुरु के संदेश का वाहक होता है, सच्चा पुजारी वही है ।

कितनी लज्जा की बात है, मेरे बंधुओ, जिस व्यापारी ढंग से आप शिष्य समुदाय बढ़ाते हैं, क्या उससे आपको संकोच नहीं होता ?

हमारे गुरु का आदेश था— प्रचार करो! नए शिष्यों को मंदिरों में रहने दो और उन्हें केवल घंटियाँ बजाने दो ।...

किन्तु जो भयानक परिस्थिति उत्पन्न हो हर एक इन्द्रिय-सुख में लीन हो गया है है.... गई है, उस पर ध्यान से दृष्टिपात करो ।और हर एक ने प्रचार कार्य छोड़ दिया ।

सागर- पृथ्वी के आर-पार, ब्रह्माण्ड को भेदकर एक हो जाओ और इस श्रीकृष्णभावनामृत का उपदेश करो।

तभी हमारे आध्यात्मिक गुरु की उपयुक्त आराधना होगी। आज वचन दो, राजनीति, कूटनीति का त्याग करो ।

यदि भक्तिसिद्धान्त सरस्वती के शिष्य एक जुट होकर प्रचार कार्य में लग जाते, तो इस बात की पूरी संभावना थी कि वे इस पापपूर्ण संसार में आध्यात्मिक क्रान्ति ला सकते। श्रील भक्तिसिद्धान्त सरस्वती को ऐसी ही आशा थी और भक्तिवेदान्त स्वामी ने उस आशा को व्यास - पूजा की अपनी प्रशस्ति में अभिव्यक्ति दी ।

वह दिन कब आएगा जब एक मंदिर की स्थापना होगी हर घर में, दुनिया के - हर कोने में ?

कब उच्च न्यायालय का न्यायाधीश एक गौड़ीय वैष्णव होगा सुंदर तिलक से सुशोभित ललाट वाला ?

कब वैष्णव मतों के बल पर देश का राष्ट्रपति बनेगा और प्रचार फैलेगा चारों ओर ?

जब वे कविता पढ़ रहे थे और वयोवृद्ध संन्यासियों की उस सभा में उसके सत्य का उद्घाटन हो रहा था, तो कुछ ने तो उसका समर्थन किया और कुछ क्रुद्ध हो उठे। उस सभा में कोई नया निर्णय नहीं हुआ; एक साथ बैठ कर कोई नयी योजना नहीं बनाई गई, जैसा कि भक्तिवेदान्त स्वामी का आग्रह था। स्वामी महाराज की कविता को केवल भावात्मक अभिव्यक्ति या उनके मत के रूप में ग्रहण किया गया। गुरुभाई इस मत के लगते थे कि समय के साथ पुराने घावों को भरने दिया जाय । पुराने मामलों को फिर उठाना, मिशन को पुनः उस रूप में संगठित करना जैसा कि वह श्रील भक्तिसिद्धान्त सरस्वती के समय में था, और उन सभी महत्त्वाकांक्षा पूर्ण कार्यक्रमों को चलाने का प्रयत्न करना — यह सब कैसे संभव था ? वे सब वृद्ध हो रहे थे। कुछ वृंदावन की शरण से बाहर नहीं जाना चाहते थे । वे उस पवित्र धाम में ही भक्तिसिद्धान्त सरस्वती की आराधना करना चाहते थे। यदि भक्तिंवेदान्त स्वामी कुछ और करना चाहते थे तो आगे बढ़ें और प्रयास करें।

विचार से भरे भक्तिवेदान्त स्वामी केशीघाट लौटे। पारिवारिक प्रतिबद्धताओं के कारण वे कई वर्षों से मिशन के कार्यकलापों में प्रधान भूमिका नहीं निभा सके थे। सन् १९३५ में, बम्बई में, उनके गुरुभाइयों ने उनसे मठ का अध्यक्ष बनने को कहा था, लेकिन भक्तिसिद्धान्त सरस्वती का कहना था कि यह जरूरी नहीं कि अभयचरण दे उन के साथ मिलें उन्हें अपने ढंग से उसमें आने देना चाहिए। अब अपने आध्यात्मिक गुरु के अनुग्रह से वे संन्यास का आशय चरितार्थ करने को तैयार थे। जिस कृष्णभावनामृत से पूर्ण विश्व का वर्णन उन्होंने अपनी कविता में किया था, वह कल्पनालोक की वस्तु नहीं थी जो उनके गुरुभाइयों को केवल उकसाने के लिए कही गई हो या जो किसी स्वप्नदर्शी की असंभव संबंधी वार्ता हो । उनका वर्णन सर्वथा व्यवहारिक था। जो भी हो, उन्हें तो कृष्णभावनामृत के विषय में लिखना और छापना था और बाहरी संसार में उसका प्रचार करना था । श्रील भक्तिसिद्धान्त सरस्वती यही चाहते थे । यदि उनके गुरुभाई मिल-जुलकर इसे नहीं कर सकते तो वे उसे अकेले करेंगे।

जनवरी १९६१ ई. में भक्तिवेदान्त स्वामी के दिल्ली - निवासी एक परिचित ने १० मई से २० मई तक टोकियो में होने वाले कांग्रेस फार कल्टीवेटिंग ह्यूमन स्पिरिट के अधिवेशन का घोषणा पत्र उन्हें दिखाया था । अधिवेशन में मुख्य विचारणीय विषय मानवीयता के द्वारा विश्व शान्ति की स्थापना था । उसमें सम्मिलित होने के लिए सभी देशों के लोग आमंत्रित थे । घोषणा-पत्र देखने के साथ भक्तिवेदान्त स्वामी के मन में टोकियो जाने का विचार आया था । यद्यपि उनकी अभिरुचि शुरू से ही संयुक्त राज्य अमेरिका में थी, लेकिन यदि जापान जाने का अवसर पहले मिले तो वहाँ क्यों न जाया जाय ? और आमंत्रण-पत्र भी अँग्रेजी में था । यदि उन्हें आरक्षण मिल जाता है तो अधिवेशन में होटल और खाने का खर्च वे दे देंगे। यात्रा का व्यय तो उन्हें स्वयं वहन करना था ।

भक्तिवेदान्त स्वामी ने इंटरनेशनल फाउन्डेशन फार कल्चरल हारमोनी (सांस्कृतिक सामंजस्य के लिए अन्तर्राष्ट्रीय संस्था ) के संस्थापकों को लिखा और " मानवीयता का विकास कैसे करना चाहिए" विषय पर भाषण देने का प्रस्ताव किया। संस्था के प्रधान सचिव मिस्टर तोशीहिरो नकानो ने केशीघाट के पते पर उत्तर भेजा। उन्होंने भारत की आध्यात्मिक संस्कृति और भक्तिवेदान्त स्वामी द्वारा प्रस्तावित विषय के सम्बन्ध में बड़ा सम्मान प्रकट किया। मिस्टर नकानो ने एक आधिकारिक प्रमाण-पत्र संलग्न किया; जिसके लिए भक्तिवेदान्त स्वामी ने प्रार्थना की थी। उसमें लिखा था कि भक्तिसिद्धान्त स्वामी अधिवेशन में एक अधिकृत सम्भागी होंगे और जापान में उनका सारा व्यय अधिवेशन द्वारा वहन किया जायगा । " सभी सम्बन्धित लोगों से” यह भी प्रार्थना की गई थी कि उन्हें पारपत्र और प्रवेश पत्र समय से दिये जायँ ताकि वे जापान में १० मई तक पहुँच सकें । '

तब भक्तिवेदान्त स्वामी के मन में अधिवेशन के लिए एक विशेष योजना का विचार पैदा हुआ । श्रीमद्भागवत के दसवें स्कंध के बीसवें अध्याय में वृंदावन में शरद् ऋतु का वर्णन आता है। भागवत वृंदावन की हर ऋतु के समानान्तर वैदिक शिक्षा का वर्णन करता है। उदाहरण के लिए, वह शरद् ऋतु की वर्षा वाली, मेघाच्छादित काली संध्या की तुलना कलियुग से करता है जब वैदिक ज्ञान के तारे (संत-महात्मा और धर्म ग्रंथ) नास्तिकतावादी सभ्यता के अंधकार से थोड़े समय के लिए ढँक जाते हैं। इस अध्याय में इस तरह के दर्जनों उदाहरण हैं। भक्तिवेदान्त स्वामी ने प्रस्ताव किया कि ऐसे पचास उदाहरणों के चित्र बनाएँ जायँ; हर चित्र की उनके द्वारा लिखित व्याख्या हो और चित्रों को अधिवेशन में प्रदर्शित किया जाय। उन्होंने व्याख्याएँ लिखना आरंभ कर दिया और उनका नाम 'भागवत का प्रकाश" (द लाइट आफ भागवत ) रखा। चित्र बनाने वाले कलाकार के लिए, हर उपदेश के अनुसार एक चित्र बनाने के लिए, वे निर्देश लिखते गए। उन्हें लगा कि उन पचास चित्रों और उनकी व्याख्याओं के प्रदर्शन से अधिवेशन में आए दर्शकों पर बहुत अच्छा प्रभाव पड़ेगा। अधिवेशन के संगठनकर्ताओं को उनका यह विचार पसंद आया ।

जहाँ तक आपका यह प्रस्ताव है कि आपके निर्देशानुसार आपकी व्याख्याओं पर चित्र बनवाएं जाँय, तो आपकी व्याख्याओं के कुछ नमूने प्राप्त होते ही कलाकारों की नियुक्ति के बारे में हम विचार आरंभ कर देंगे । इसलिए हमें यथाशीघ्र आपके निर्देश प्राप्त हो जाने चाहिए ।

भक्तिवेदान्त स्वामी तेजी से कार्य करने लगे। उन्होंने बीस हजार शब्दों की पाण्डुलिपि तैयार की— पचास 'पाठ', पचास चित्रों के लिए। चित्रों में वर्षाकाल में वृन्दावन के वनों, खेतों और आसमानों का चित्रण होना था । पाठों में यत्रतत्र नास्तिकतावादी सरकार की, भौतिकतावादियों की और झूठे धार्मिकों की आलोचनाएँ थीं। कहीं-कहीं, उनमें नैतिक सिद्धान्तों और भगवत्-चेतना का वर्णन था और कहीं-कहीं, भगवान् कृष्ण और वृन्दावन में उनके शाश्वत सहचारियों के विषय में उल्लेख थे।

भक्तिवेदान्त स्वामी और जापान में अधिवेशन के संगठनकर्ताओं के बीच सभी कार्य ठीक चला। भक्तिवेदान्त स्वामी की समस्या यात्रा के लिए किराया जुटाने की थी। उन्होंने सभी संभव स्त्रोत आजमाए । केन्द्रीय सरकार के वैज्ञानिक अनुसंधान और सांस्कृतिक मामलों के मंत्रालय को पत्र लिखते हुए उन्होंने मिस्टर नकानो का प्रमाण-पत्र संलग्न किया और एक संन्यासी के रूप में अपनी स्थिति स्पष्ट की। मार्च के अंत में उन्हें एक प्रपत्र पूरा करके लौटाने के लिए प्राप्त हुआ । समय थोड़ा रह गया था । २९ मार्च को उन्होंने उपराष्ट्रपति डा. राधाकृष्णन को, जिनसे उनकी कुछ जान पहचान थी ( और दार्शनिक मत-भेद था ) एक पत्र लिखा ।

आप जानते हैं कि मैं एक संन्यासी हूँ और बैंक से मेरा कुछ लेना-देना नहीं है । न किसी अन्य वित्तीय संस्थान से मेरा कोई रिश्ता है। किन्तु जापानी संगठनकर्ताओं को मेरा साहित्य पसंद आया है और वे चाहते हैं कि मैं वहाँ पहुँचूँ ।

उन्होंने तर्क प्रस्तुत किया कि चूँकि प्राचीनकाल में भारत के महान् आचार्य अपने ज्ञान का प्रसार संसार के कल्याण के लिए करते रहे, इसलिए आज की भारत सरकार को भी चाहिए कि उन आचार्यों के प्रतिनिधियों को “आत्मा का संदेश देने के लिए" भेजे। उन्होंने बम्बई में सिन्धिया स्टीम नेवीगेशन कम्पनी के उपप्रबन्धक को भी लिखा और उन्हें स्मरण कराया कि १९५८ ई. में संयुक्त राज्य अमेरिका की यात्रा के किराये में वे उन्हें पचास प्रतिशत छूट देने को तैयार थे। जापान के मिस्टर नकानो के आमंत्रण के बारे में बताने के बाद, भक्तिवेदान्त स्वामी ने लिखा कि जापान जाने-आने का पूरा किराया अमेरिका के किराये के आधे से भी कम होगा।

अधिवेशन का समय डेढ़ महीने से भी कम रह गया था। सभी संभावनाओं को एक साथ टटोलते हुए, उन्होंने एक संभाव्य अनुदानकर्ता, मिस्टर ब्रजरतन एस. मोहता को लिखा जिन्होंने कभी भक्तिवेदान्त स्वामी को दक्षिण अमेरिका भेजने की तत्परता दिखाई थी । वहाँ के एक भारतीय ने आध्यात्मिक विषयों में रुचि प्रकट करते हुए उन्हें दक्षिण अमेरिका आने के लिए लिखा था । उस समय भक्तिवेदान्त स्वामी को भारत सरकार से समुचित प्रमाण-पत्र प्राप्त नहीं हो सका था। उन्होंने लिखा कि इस समय अनुरक्त समुदाय की अन्तर्राष्ट्रीय सभा में वैदिक साहित्य के संदेश को प्रस्तुत करने का नया अवसर था । जापान की यात्रा भी दक्षिण अमेरिका की यात्रा से कम थी। जिस दिन उन्होंने मिस्टर मोहता को लिखा, उसी दिन वैज्ञानिक अनुसंधान मंत्रालय को प्रपत्र पूरा करके भेजा। इस प्रश्न के उत्तर में कि वे अनुदान क्यों मांग रहे थे और क्या पहले भी उन्होंने कभी अनुदान माँगा था, उन्होंने लिखा:

इसके पूर्व मैने मंत्रालय से वित्तीय सहायता कभी नहीं चाही, क्योंकि इसकी कोई आवश्यकता नहीं थी। एक संन्यासी के रूप में मैं वित्तीय सहायता तभी माँग सकता हूँ जब मुझे उसकी अनिवार्य आवश्यकता हो। हमारा जीवन इस बात के लिए समर्पित है कि हम प्रसुप्त आध्यात्मिक चेतना को जागरित करके समस्त मानवता की सेवा करें।

इस बीच वे जापान के पूरे सहयोग से अन्य सारे प्रबन्ध करते रहे । 'भागवत् प्रकाश' के पहले बीस सोदाहरण विचार चित्रण के लिए, उन्होंने मिस्टर नकानो को भेज दिए थे। उन्होंने लिखा कि “जापान कलात्मक कार्यों के लिए प्रसिद्ध है और भारत अपनी आध्यात्मिक संस्कृति के लिए विख्यात है। हमें अब एकजुट हो जाना चाहिए।” उन्होंने सुझाव दिया कि विचारों और चित्रों को पुस्तक के रूप में भी प्रकाशित किया जाय ।

मिस्टर नकानो ने भक्तिवेदान्त स्वामी को लिखा कि वे सब हनेडा हवाई अड्डे पर उनकी प्रतीक्षा में रहेंगे। उन लोगों को पहचानना आसान होगा क्योंकि वे एक पताका लिए होंगे। और यदि भक्तिवेदान्त स्वामी चाहें तो वे जापान में एक पूरे महीने तक रह सकेंगे और नियुक्त अधिवेशन के बाद जगह-जगह सभाएं कर सकेंगे। मिस्टर नकानो ने भक्तिवेदान्त स्वामी से एक प्रार्थना और की। वह यह थी कि वे जापान के तीन नगरों के मेयरों से सम्बन्ध दृढ़ बनाएँ और उन्हें लिखें कि आध्यात्मिक अधिवेशन को वे पूरा सहयोग दें। भक्तिवेदान्त स्वामी ने यह कार्य तुरन्त किया ।

लेकिन अब अप्रैल आ गया था और धन कहीं से नहीं आया। अंत में डा. राधाकृष्णन से व्यक्तिगत रूप में मिलने और उनसे कोरा नकारात्मक उत्तर पाने के पश्चात् भक्तिवेदान्त स्वामी निराश होकर मिस्टर नकानो की ओर मुड़े । १८ अप्रैल को उन्होंने लिखा:

आपका दिनांक ९ अप्रैल का पत्र प्राप्त हुआ। जो कुछ आपने मेरे प्रति लिखा है उसके लिए मैं आपका आभारी हूँ। मैं एक दीन-हीन प्राणी हूँ और इस संबंध में जो कुछ सेवा मुझसे हो सकती है, उसे करने की कोशिश कर रहा हूँ क्योंकि मेरे आध्यात्मिक गुरु श्री भक्तिसिद्धान्त सरस्वती गोस्वामी महाराज का यही आदेश था । ...

मेरे स्वागत की जो व्यवस्था आप कर रहे हैं, उसे जानकर मुझे अतीव प्रसन्नता है, लेकिन आपको मेरी यह विनम्र सूचना है कि मेरी यात्रा के किराये का जो लगभग ३५००/ = रुपए है, मामला अभी तय नहीं हुआ है। मैने सहायता के लिए भारत सरकार को एक आवेदन-पत्र भेजा था, उसकी प्रतिलिपि भी संलग्न है। मैने डा. एस. राधाकृष्णन को एक व्यक्तिगत पत्र भी इस सम्बन्ध में लिखा था और जो उत्तर मुझे मिला, वह भी यहाँ संलग्न कर रहा हूँ।

यह सब कुछ मेरे लिए उत्साहवर्धक नहीं है। इसलिए आज मैं उपराष्ट्रपतिजी से स्वयं मिला। लेकिन उन्होंने वही कहा जो वे पत्र में लिख चुके थे । यद्यपि मैं अभी एकदम निराश नहीं हूँ, लेकिन मुझे यह सोच कर चिंता अवश्य है कि यदि सरकार ने सहायता देने से इनकार कर दिया तो मैं क्या करूँगा । इसलिए इस सम्बन्ध में मैं आपका सत्परामर्श चाहता हूँ। डा. एस. राधाकृष्णन ने मुझे बताया कि अधिवेशन में सम्मिलित होने के लिए आपने उन्हें भी आमंत्रित किया था और उनका ऐसा मत है कि उनका यात्रा व्यय शायद आपकी ओर से दिया जाने वाला था ।

अधिवेशन से आशा और अपेक्षा निस्सन्देह बहुत बड़ी हैं और मेरी ऐसी अभिलाषा है कि इस अवसर का पूरा उपयोग मैं अखिल मानव समाज के सामान्य कल्याण के लिए कर सकूँ । मैने अपने विचारों को पूरी तरह से उन वक्तव्यों में अभिव्यक्त किया है जो मैं आपके पास प्रकाशनार्थ भेज चुका हूँ। उन विचारों का सारांश मैंने मेयरों को भेजे गए पत्र में भी दे दिया है जिसकी प्रतिलिपि भी यहाँ संलग्न है ।

संन्यासी होने के नाते मेरे पास खर्च के लिए धन नहीं है। ऐसी परिस्थिति में यदि सरकार ने यात्रा - व्यय देने से इनकार किया तो उसके लिए मुझे आपसे प्रार्थना करनी पड़ेगी, अन्यथा अधिवेशन में सम्मिलित होना मेरे लिए एक सपना बनकर रह जायगा। राज नेताओं के व्यवहार में मेरा विश्वास नहीं है, विशेषकर भारतीय राजनेताओं के व्यवहार में ।

डा. एस. राधाकृष्णन की बात से ऐसा लगा कि सरकार ऐसे अधिवेशनों का अनुमोदन नहीं करती जिनका संगठन लोग निजी तौर पर करते हैं और इसलिए सरकार ऐसे अधिवेशन में भाग नहीं लेती। मैं अंतिम निर्णय के लिए एक सप्ताह तक और प्रतीक्षा करूँगा – जब हाँ या न के रूप में मामला साफ हो जायगा ।

भारत में जिन लोगों से सहायता मिल सकती थी उनकी ओर से इनकार आ गया । २० अप्रैल को भक्तिवेदान्त स्वामी ने मि. नकानो को तार भेजा।

चूँकि आपका मुझसे गहरा प्रेम हो गया है इसलिए मुझे साहस हो रहा है कि आपको लिखूँ कि जापान पहुँचने के लिए मेरी वित्तीय सहायता कीजिए । मेरे विचार से आप दिल्ली स्थित अपने दूतावास को आदेश भिजवा सकते हैं कि आपकी ओर से मुझे जापान भेजने के लिए वह आवश्यक व्यवस्था करे । आपसे मिलने और कांग्रेस में शामिल होने की मेरी तीव्र इच्छा है जिससे हम लोग आध्यात्मिकता के अनुशीलन के लिए एक मजबूत संगठन बना सकें। अपना कार्यक्रम निश्चित करने के लिए मैं तार द्वारा आपके निर्देश की प्रतीक्षा करूँगा ।

किन्तु मिस्टर नकानो सहायता नहीं कर सके। और भक्तिवेदान्त स्वामी के सारे प्रयत्न सपना बन कर रह गए।

***

जुलाई १९६२ ई. में भक्तिवेदान्त स्वामी वंशीगोपालजी मंदिर के अपने आवास को बदल कर राधा - दामोदर मंदिर में चले गए। तीन वर्ष से वे राधादामोदर कमरों के लिए पाँच रुपए प्रतिमास की दर से किराया और उनकी लम्बी मरम्मत के लिए खर्च दे रहे थे। अब मुख्य कमरे में बिजली और पंखा लग गया था और दीवारों पर चिकना प्लास्टर और पेंटिंग हो गई थी। कमरा पन्द्रह फुट लम्बा सात फुट चौड़ा था। दीवारों पर प्लास्टर हो गया था। फर्श विभिन्न आकार की चौकोर बलुई पटियों से बना था, ठीक वैसी ही पटियों से जैसी रूप गोस्वामी की समाधि के सामने जड़ी थीं। कमरे के सामान में एक छोटी-सी डेस्क थी, एक कुश की बनी चटाई थी और सोने के लिए लकड़ी के पाए - पाटियों वाली रस्सियों से बुनी एक चारपाई थी। कमरे से वैसा दृश्य नहीं दिखाई देता था जैसा कि केशी - घाट से मिलता था । पास-पड़ोस उतना सुन-सान नहीं था, लेकिन अब अपने कमरे से हिले बिना भी वे मंदिर में झाँक सकते थे और सिंहासन का कुछ भाग और उस पर विराजमान काले संगमरमर के बने चार फुट ऊँचे, वृन्दावनचन्द्र नाम से विख्यात श्रीकृष्ण के उस श्रीविग्रह का दर्शन कर सकते थे जिसकी आराधना सैंकड़ों साल पूर्व कृष्णदास कविराज ने की थी । मुख्य कमरा दस फुट लम्बे एक बरामदे द्वारा, भोजनालय से जुड़ा था। बरामदे के सामने आँगन था । अपने भोजनालय से वे रूप गोस्वामी की समाधि देख सकते थे। इसलिए यह स्थान वंशीगोपालजी मंदिर के आवास से अच्छा था, क्योंकि अब वे जीव गोस्वामी के मंदिर में रह रहे थे जहाँ रूप गोस्वामी, सनातन गोस्वामी, रघुनाथ गोस्वामी और जीव गोस्वामी जैसे महान् गोस्वामी एकत्र होते थे, प्रसाद ग्रहण करते थे, भजन करते थे, और कृष्ण और भगवान् चैतन्य के विषय में चर्चा करते थे। श्रीमद्भागवत पर कार्य करने के लिए यह सर्वोत्तम स्थान था ।

***

रात्रि में एक बजे जब कोई भी न जागता होता और चारों ओर शान्ति रहती, तब भक्तिवेदान्त स्वामी जग जाते और लिखने लग जाते। चूँकि वृंदावन में बिजली अकसर चली जाती थी, इसलिए वे लालटेन के प्रकाश में कार्य करते। प्रकाश की कुछ किरणें बाहर बरामदे में भी पहुँच ही जातीं जब कि वे उस के प्रकाश में कमरे के अन्दर काम करते रहते। शान्त वातावरण में जब वे लिखने के कार्य में लगे रहते, तो कभी कभी, पत्थर के फर्श की तरह शुष्क, कोई मेढ़क उस पार के फर्श के दर्रे से निकलकर सामने की दीवार में बनी सीमेंट की जाली में से कूद कर इस पार पहुँच जाता । कभी कोई छोटा चूहा खिड़की के पीछे से दौड़ता हुआ आता और भागकर दूसरी जगह छिप जाता । अन्यथा, कमरे में पूर्ण और पवित्र शान्ति थी और वहाँ छह गोस्वामियों की उपस्थिति में रहने की प्रेरणा बड़ी बलवती थी । खुले आँगन के ऊपर आकाश साफ दिखने वाले तारों से भरा होता था । जब वे कार्य में लीन होते उस समय नगर में यदि कहीं से कोई आवाज सुनाई देती तो वह दूरी पर भौंकते हुए केवल किसी कुत्ते की आवाज होती थी ।

४ बजे सवेरे मंदिर का पुजारी, जो गर्भ गृह के द्वार के निकट सोता था, उठ जाता था। वह बिजली जलाता था और एक लम्बी लाठी से चमगादड़ों को शहतीरों से खदेड़ देता था । पाँच बजे वह श्रीविग्रहों को जगाता था, फिर वेदी के सामने के किवाड़ खोल देता था और मंगल - आरती आरंभ करता था। वह आरती करता था, जबकि मंदिर के कुछ निवासी भक्त इकठ्ठे होकर भजन गाते थे और वाद्य यंत्र बजाते थे। प्रायः कोई घंटा बजाने लगता था, कोई घड़ियाल बजाने में लग जाता था ।

आँगन में कोई आवाज होती, तो वह भक्तिवेदान्त स्वामी के आवास में तुरन्त पहुँच जाती थी। घंटा घड़ियाल की आवाज उनके छोटे कमरे की दीवारों से टकराकर अचानक प्रतिध्वनि उत्पन्न करती थी। अपने बैठने के स्थान से वे वेदी की बाईं ओर आसीन केवल वृंदावनचन्द्र को देख सकते थे। कभी कभी वे अपना काम रोक देते थे और श्रीविग्रहों के दर्शन और उनकी आरती देखने के लिए आँगन में आ जाते थे। वेदी पर राधा और कृष्ण के श्रीविग्रह आसीन थे जिनकी आराधना सैकड़ों साल पहले जीव गोस्वामी और अन्य वैष्णव आचार्य कर चुके थे। दस मिनट के बाद आरती करने और जल से पूर्ण शंख बजाने के बाद, पुजारी भक्तों के सिर पर शंख का पवित्र जल छिड़कता था और इस तरह समारोह का अंत होता था।

श्रीमद्भागवत पर कुछ घंटे कार्य करने के बाद भक्तिवेदान्त स्वामी कमरे में शान्त बैठ जाते और जप करने लगते थे। प्रातः कालीन आकाश में हल्के नीले प्रकाश के फैलने और तारों के अस्त होने के साथ वृंदावन के निवासी श्रीविग्रहों और गोस्वामियों की समाधियों के दर्शन के लिए आने लगते । वृद्ध महिलाएँ लड़खड़ाती आवाज में 'जय राधे' कहती मंदिर में प्रवेश करतीं ।

जब भक्तिवेदान्त स्वामी कमरे के किवाड़ खोलते तो उनका कमरा प्रकाश से भर जाता था। कमरे की खिड़कियाँ आँगन में खुलती थीं, लेकिन खिड़कियों की अपेक्षा दीवार में बनी सीमेंट की जालियाँ अधिक लगती थीं। आने-जाने वाले उनमें से कमरे में आसानी से नहीं देख सकते थे, लेकिन उनसे प्रकाश आता था । सवेरे के प्रकाश में कमरे का रूप साफ दिखाई देता था; मेहराबदार छत, ताजी पेंट की हुई दीवारें, मेहराबदार ताक, पत्थर से जड़ा हुआ फर्श । भक्तिवेदान्त स्वामी का पतला संन्यास - दण्ड, गहरे केसरिया रंग के खादी में आच्छादित, कमरे के एक कोने में दीवार के सहारे टिका था । एक खाने में उन्होंने भक्तिसिद्धान्त सरस्वती का एक चित्र रखा था और दूसरे में पुस्तकों और पाण्डुलिपियों का ढेर था। कमरे के किवाड़ बंद होने पर भी मटमैले लगते थे और पूरा कमरा बाईं ओर कुछ झुका हुआ लगता था । वह साज-सज्जा - हीन था, लेकिन शान्त था।

दोनों कमरों के बीच के बरामदे में बैठे हुए भक्तिवेदान्त स्वामी प्राय: आँगन, वेदी और श्रीविग्रहों की ओर देखा करते थे। राधा दामोदर, वृन्दावनचन्द्र और राधा-कृष्ण के अन्य कई श्रीविग्रह, दर्शकों की प्रतीक्षा में रहते । सवेरे की बेला में श्रीविग्रहों के किवाड़ खुले रहते थे, क्योंकि लगातार दर्शकों की पंक्ति से मंदिर जनसंकुल तीर्थस्थान बन जाता था। वहाँ कोई अधिक देर नहीं रहता था। कुछ दर्शकों को कई मंदिरों में जाना होता था, इसलिए वे जल्दी में होते । गरीब लोग, स्थानीय व्यवसायी लोग और रंगीन साड़ियाँ पहने हुए उनकी स्त्रियाँ — सभी भक्त 'जय हो' 'जय राधे' कहते श्रीविग्रहों की ओर जाते । श्रीविग्रहों का दर्शन करने के बाद वे दरवाजे से बाहर के आँगन में पहुँच जाते — समाधियों का दर्शन करने के लिए ।

यद्यपि वृन्दावन में प्राचीन वैष्णव आचार्यों की स्मृति में सैंकड़ो मंदिरनुमा छोटी समाधियां बनी थीं, भक्तिवेदान्त स्वामी उनमें से केवल श्रील जीव गोस्वामी, श्रील भक्तिसिद्धान्त सरस्वती, और श्रील कृष्णदास कविराज गोस्वामी जैसी मुख्य समाधियों का दर्शन करने जाते थे। मंदिर के आँगन के एक अलग क्षेत्र में भजन- कुटीर और रूप गोस्वामी की समाधि थी। भक्तिवेदान्त स्वामी प्राय: रूप गोस्वामी की समाधि के सामने जप के लिए बैठा करते थे। मंदिर से निकलकर दर्शनार्थी रूप गोस्वामी की समाधि को दण्डवत् करने इस बाहरी क्षेत्र में आते रहते थे। अधिकतर तीर्थ-यात्री इसे राधादामोदर मंदिर के दर्शन का सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण अंग मानते थे और चाहे वे किसी अन्य जगह पूजा के लिए न भी रुकते हों पर रूप गोस्वामी की समाधि के सामने वे जरूर रुकते थे। वे दोनों हाथ जोड़कर खड़े होते थे और 'जय राधे' कहते हुए प्रणाम करते थे, या माला की थैली में हाथ डाले, समाधि की परिक्रमा करते हुए वे हरे कृष्ण का जप करते थे ।

भक्तिवेदान्त स्वामी दर्शको की सवेरे की भीड़ खत्म हो जाने पर भी बैठे रहते और जप करते रहते, या कभी-कभी वे पास के राधा - श्यामसुंदर या राधा - मदनमोहन मंदिर में चले जाते । ग्यारह बजे तक अपना भोजन बनाने के लिए वे हमेशा लौट आते थे। जब वे अपना भोजन बनाते रहते और बाद में जब वे प्रसाद ग्रहण करने के लिए बैठते, तब भी जाली से रूप गोस्वामी की समाधि को निहारा करते । रूप गोस्वामी की उपस्थिति की अनुभूति से उन्हें अपने आध्यात्मिक गुरु के निमित्त अपने मिशन का स्मरण सदैव बना रहता ।

भगवान् चैतन्य के भक्त रूप गोस्वामी के अनुगामी या रूपानुग कहलाते थे। रूप गोस्वामी की शिक्षाओं और दृष्टान्त का अनुगमन किए बिना कोई राधा और कृष्ण की सच्ची भक्ति के मार्ग पर नहीं चल सकता। श्रील भक्तिसिद्धान्त सरस्वती विशेष रूप से एक पक्के रूपानुग के रूप में प्रसिद्ध थे। उनके सम्मान में लिखित संस्कृत की प्रार्थनाओं में कहा गया है, “श्री चैतन्य के अनुग्रह की साकार शक्ति श्रील भक्तिसिद्धान्त सरस्वती के प्रति मैं अपनी विनम्र प्रार्थना निवेदित करता हूँ जो श्रील रूप गोस्वामी की परम्परा में उद्घाटित राधा-कृष्ण के प्रेम से सम्पन्न भक्ति का प्रचार करते हैं। मैं आपके प्रति सादर प्रणाम करता हूँ जो भगवान् चैतन्य की शिक्षाओं की साकार मूर्ति हैं। आप पतित आत्माओं के उद्धारकर्ता हैं। आप किसी ऐसे कथन को सहन नहीं कर सकते जो श्रील रूप गोस्वामी द्वारा प्रतिपादित भक्ति की शिक्षाओं के विरुद्ध हो ।”

भक्तिवेदान्त स्वामी के आध्यात्मिक गुरु और गुरु- परम्परा में उनके पूर्व के आध्यात्मिक गुरु, कृष्णभावनामृत-आंदोलन का प्रसार सारे संसार में देखना चाहते थे और रूप गोस्वामी की समाधि के सामने प्रेरणा के लिए बैठते हुए भक्तिवेदान्त स्वामी प्रतिदिन अपने आध्यात्मिक पूर्वगामियों से मार्गदर्शन के लिए प्रार्थना करते थे। जो प्रेमपूर्ण आदेश उनसे प्राप्त होते थे, उन्हें वे निश्चित आदेश मानते थे और उससे उन्हें सरकार, प्रकाशक या अन्य कोई विचलित नहीं कर सकता था। रूप गोस्वामी चाहते थे कि वे पश्चिमी जगत में जायँ; श्रील भक्तिसिद्धान्त सरस्वती चाहते थे कि वे पश्चिमी जगत में जायँ; कृष्ण ने ऐसा संयोग घटित किया था कि वे राधा - दामोदर मंदिर में आएँ और उनके आशीर्वाद प्राप्त करें। राधा - दामोदर मंदिर में उन्हें ऐसा लगा कि उनका प्रवेश ऐसे शाश्वत निवास में हुआ है जिसे भगवान् के केवल सच्चे भक्त ही जानते हैं । तो भी, यद्यपि वे उन्हें अपनी लीलाभूमि में अपने साथ सम्बद्ध होने का अवसर दे रहे थे, लेकिन उनका आदेश था कि वे राधा - दामोदर और वृंदावन को छोड़ कर पश्चिम को जायँ और विस्मरणशील संसार को आचार्यों का संदेश सुनाएँ ।

***

जून में असहनीय गरमी पड़ने लगी और दोपहर के बाद काम करना असंभव हो गया। घोर गरमी के समय भक्तिवेदान्त स्वामी दरवाजे और खिड़कियाँ बंद कर देते और छत पर लगा पंखा चला देते । संध्या के समय गरमी कम हो जाती, मंदिर में दर्शनार्थियों की भीड़ लग जाती, और आंगन में सायंकालीन कीर्तन आरंभ हो जाता। अपने बरामदे में बैठे भक्तिवेदान्त स्वामी कभी दर्शनार्थियों से बात करते, कभी दर्शनार्थी उनके दरवाजे के पास आ जाते और टाइपराइटर पर काम करते हुए उन्हें देखने लगते । वृंदावन में उनकी प्रसिद्धि एक विद्वान और श्रेष्ठ भक्त के रूप में थी । लेकिन वे यथा संभव सबसे अलग बने रहे, विशेषकर १९६२ ई. की गरमी में, और श्रीमद्भागवत पर कार्य करते रहे।

उनके वृंदावन आने का यही वास्तविक उद्देश्य था कि वे पश्चिम में वितरित करने के लिए पुस्तकें तैयार कर सकें । यद्यपि उनके पास इतने साधन नहीं थे कि वे जापान तक भी यात्रा कर सकें और पुस्तकें छाप सकें, किन्तु जिन उद्देश्यों को सामने रखकर वे कार्य कर रहे थे, वे यही थे । वे वृंदावन इसलिए नहीं आए थे कि मृत्यु को प्राप्त करके ईश्वर तक पहुँचे । प्रत्युत वे इसलिए आए थे कि वृंदावन उनके जीवन के मुख्य कार्य को सम्पादित करने हेतु, आध्यात्मिक बल प्राप्त करने के लिए आदर्श स्थान था। अपने भविष्य के मिशन के ठीक रूप के बारे में भक्तिवेदान्त स्वामी को पता नहीं था, लेकिन वे यह जरूर जानते थे कि उन्हें पाश्चात्य जगत की अँग्रेजी भाषी जनता में श्रीमद्भागवत का प्रचार करने के लिए अपने को तैयार करना है। उन्हें अपने गुरुओं के लिए सब प्रकार से पूर्ण उपकरण बनना था; और यदि उनकी इच्छा हुई तो वे उन्हें वहाँ भेजेंगे ।

 
 
 
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