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श्रील प्रभुपाद लीलमृत  »  अध्याय 13: बटलर, पेन्सिलवानिया: प्रथम परीक्षण की भूमि  » 
 
 
 
 
 
भगवान् कृष्ण की कृपा से अमेरिका के लोग हर तरह से समृद्धिशाली हैं। भारतीयों की तरह वे गरीबी से पीड़ित नहीं हैं। जहाँ तक उनकी भौतिक आवश्यकताओं का सम्बन्ध है, सामान्यतः लोग संतुष्ट हैं, और उनमें आध्यात्मिक रुझान है। जब मैं पेन्सिलवानिया के बटलर नगर में था, जो न्यू यार्क से लगभग पाँच सौ मील दूर है, तब मैंने वहाँ बहुत-से गिरजाघर देखे थे और लोग नियमित रूप से उनमें जाते थे। इससे मालूम होता है कि उनमें आध्यात्मिक रुझान है। कुछ गिरजाघरों और गिरजाघरों द्वारा नियंत्रित विद्यालयों और महाविद्यालयों की ओर से मुझे आमंत्रित भी किया गया। मैने वहाँ भाषण दिया। उन लोगों ने मेरे भाषण की सराहना की और उपहार के प्रतीक के रूप में कुछ वस्तुएँ भी दीं। जब मैं विद्यार्थियों को सम्बोधित कर रहा था तो वे श्रीमद्भागवत के सिद्धान्तों के विषय में सुनने को बहुत उत्सुक थे । किन्तु पादरी लोग विद्यार्थियों को इतने धैर्य के साथ मेरा भाषण सुनने देने के बारे में बहुत सतर्क थे। उन्हें भय था कि उनके विद्यार्थी हिन्दू विचारधारा से प्रभावित हो जायँगे — किसी भी धार्मिक समुदाय के लिए ऐसा सोचना स्वाभाविक है। किन्तु वे नहीं जानते कि भगवान् श्रीकृष्ण की भक्ति प्रत्येक व्यक्ति का — यहाँ तक कि आदिवासियों और नर - भक्षियों का भी सहज स्वाभाविक धर्म है।

- सुमति मुरारजी को लिखित एक पत्र से

बस स्टेशन से झूमती हुई बाहर निकलकर, मध्यवर्ती मैनहट्टन के दिन के प्रकाश में आई और आकाशचुम्बी प्रासादों की छाया में जन-समूहों, ट्रकों और मोटर कारों से संकुल डामर की सड़कों से गुजरती हुई लिंकन टनेल की ओर बढ़ चली। बस सुरंग में प्रविष्ट हुई और हडसन नदी की दूसरी ओर जरसी पर जा निकली। न्यू जरसी टर्नपाइक क्षेत्र की तेल की विशाल टंकियों और तेल शोधक कारखानों से होती हुई वह आगे बढ़ती रही । मैनहट्टन का क्षितिज बाईं ओर था, हर दिशा में तीन लेन वाली सड़कों पर साठ मील प्रति घंटे की गति से यातायात चालू था । दाहिनी ओर नेवार्क का हवाई अड्डा आया, जहाँ जेट विमान जमीन पर खड़े दिखाई दे रहे थे। फौलादी खंभों के बिजली के तार आकाश की ओर फैले थे ।

प्रभुपाद ने ऐसा विराट दृश्य इसके पहले कभी नहीं देखा था । अब वे प्रत्यक्ष देख रहे थे कि अमेरिका की संस्कृति इन्द्रियों की अधिकाधिक परितुष्टि की उद्दाम कामना पर आधारित थी— और वह परिदृश्य पागलपन का था । किस महत्त्वपूर्ण कार्य के लिए ये लोग इधर-उधर बेतहाशा भाग-दौड़ कर रहे थे। वे विज्ञापन पट्टों पर विज्ञापित उनके उद्देश्यों को देख रहे थे ।

सामान्यतया वे कई बार दिल्ली से वृंदावन की यात्रा पर सड़क से गए थे । किन्तु सड़क के किनारे इतने अधिक विज्ञापन कभी नहीं थे। कोई यात्री अधिकतर भू-दृश्य, सड़क के किनारे के नदी-नाले, मन्दिर, घर और खेतों में काम करते हुए किसान देखेगा। अधिकतर लोग पैदल चलते थे, अथवा बैलगाड़ी या साइकिल से यात्रा करते थे। और वृंदावन में साधारण राहगीर भी एक-दूसरे को “जय राधे,' “ हरे कृष्ण ” जैसे भगवान् के नामों द्वारा सम्बोधित करते थे। अब दिल्ली के बाहर भी बहुत-से कारखाने खुल गए थे, किन्तु यहाँ जैसा वहाँ कुछ नहीं था। उन सबका सामूहिक प्रभाव इन पेट्रोल की टंकियों के क्षेत्रों, दानवाकार कारखानों और जन-संकुल राजमार्गों के दोनों ओर के विज्ञापन पट्टों के भौतिक प्रभाव के निकट भी नहीं पहुँचता था। मांस भक्षण, अवैध यौन सम्बन्ध, मादक द्रव्य सेवन, द्यूत-क्रीड़ा जैसे पापकर्मों का, जिनके विरुद्ध प्रचार करने के लिए श्रील प्रभुपाद आए थे, विस्तृत विज्ञापन - पट्टों पर मील-दर-मील, गर्व के साथ मोहक ढंग से प्रदर्शन किया गया था। सारे विज्ञापन पट्ट मदिरा और सिगरेटों की बिक्री बढ़ाने के लिए लगाए गए थे; सड़क के किनारे के खान-पान - गृहों में टिकिया और कीमा के रूप में गायों का मांस मिलता था । वस्तु चाहे जो हो उसका विज्ञापन सामान्यतः कामोत्तेजक नारी - चित्रों के माध्यम से हुआ था । परन्तु प्रभुपाद इसके ठीक विपरीत शिक्षा देने आए थे कि सुख इन्द्रिय- परितुष्टि के लिए भोग से नहीं मिलता। कृष्णभावनामृत के शाश्वत सुख का अधिकारी कोई तभी बन सकता है जब वह उस तमोगुण से अपने को विरक्त कर लेता है जो पापपूर्ण कार्यों में प्रवृत्त करने वाला है।

प्रभुपाद को दया आ गई। कृष्णभावनाभावित संत की दया की व्याख्या प्रह्लाद महाराज ने बहुत प्राचीनकाल में की थी : “मैं देखता हूँ कि संत-महात्मा बहुत-से हैं, किन्तु उनकी रुचि केवल अपनी मुक्ति में है। विशाल महानगरों या कस्बों की चिन्ता न कर वे मौन साधना के लिए हिमालय या वनों में चले जाते हैं। दूसरों की मुक्ति में उनकी रुचि नहीं होती। जहाँ तक मेरा सम्बन्ध है, मैं, इन सब अकिंचन मूढ़ों और दुष्कर्मियों को छोड़ कर, अकेले ही मुक्त नहीं होना चाहता। मैं जानता हूँ कि कृष्णभावनामृत के बिना, आपके चरणकमलों में शरण लिए बिना, कोई सुखी नहीं हो सकता। इसलिए मैं उन्हें आपके चरणकमलों की शरण में वापस लाना चाहता हूँ ।"

प्राकृतिक दृश्य क्रमशः बदल कर पेन्सिलवानिया के देहात का हो गया और बस पहाड़ों की लम्बी सुरंगों में से होकर तेजी से आगे बढ़ने लगी। रात हो गई। और जब बस एलेगनी नदी के तट पर स्थित घने औद्योगिक नगर पिट्सबर्ग के क्षेत्र में प्रविष्ट हुई तब बहुत देर हो चुकी थी, ग्यारह बजे के बाद का समय हो चुका था । श्रील प्रभुपाद इस्पात मिलों को साफ-साफ नहीं देख सके, किन्तु उनसे निकलते प्रकाश-पुंजों को, कारखानों से निकलती आग की ज्वालाओं को और धुँआ निकालती चिमनियों को वे देख सकते थे। नगर में व्याप्त मलिनता के बीच लाखों विद्युत् - दीपक जगमगा रहे थे।

बस, अंत में, जब अपने गन्तव्य पर पहुँची, तो आधी रात के बाद का समय हो रहा था । गोपाल अग्रवाल अपनी पारिवारिक वोल्क्सवैगन बस गाड़ी के साथ, प्रभुपाद को एक घंटे की यात्रा की दूरी पर उत्तर की ओर स्थित बटलर ले जाने के लिए प्रतीक्षा कर रहे थे। उन्होंने दोनों हाथ जोड़ कर और बार-बार झुक कर 'स्वागत है स्वामी जी' कहते हुए प्रभुपाद को अभिवादन किया ।

यह गोपाल कोई अपनी ओर से नहीं कर रहे थे। उनके पिता, जो मथुरा के एक व्यवसायी थे, साधुओं और धार्मिक कार्यों में रुचि रखते थे। उन्होंने अपने पुत्र से स्वामीजी का आतिथ्य करने के लिए अनुरोध किया था। यह कोई पहली बार नहीं था जब गोपाल के पिता ने किसी परिचित साधु के लिए अमेरिका जाने की व्यवस्था की थी। उन्होंने अनेक बार गोपाल के पास जमानती कागज हस्ताक्षर के लिए भेजे थे और गोपाल ने हर बार उनकी आज्ञा का पालन किया था । किन्तु कभी भी उनका कोई परिणाम नहीं निकला था । इसलिए जब ए. सी. भक्तिवेदान्त स्वामी की जमानत का पत्र आया, तो गोपाल ने उस पर तुरन्त हस्ताक्षर करके लौटा दिया, यह सोचते हुए कि उसके बारे में फिर कोई सूचना नहीं आएगी। किन्तु ठीक एक सप्ताह पूर्व एक पत्र आया था। सैली अग्रवाल ने उसे खोला था और सतर्कपूर्वक अपने पति को बुलाकर कहा था, “प्रिय, बैठ जाओ और सुनो : स्वामीजी आ रहे हैं।” प्रभुपाद ने अपना फोटो भी संलग्न कर दिया था जिससे उन्हें पहचानने में उनसे भूल न हो । अग्रवाल - दम्पति ने उस फोटो को जिज्ञासापूर्वक देखा था । गोपाल ने कहा " वहाँ उन्हें पहचानने में कोई भूल नहीं होगी।'

सैली अग्रवाल के कथनानुसार अग्रवाल - दम्पति “ सीधे-सादे अमरिकी लोग थे ।" सैली की भेंट अपने भारतीय पति से तब हुई थी जब वे पेन्सिलवानिया में एक इंजिनियर के रूप में कार्य कर रहे थे। एक भारतीय स्वामी का वे अपने घर में क्या करेंगे ? प्रभुपाद का आगमन उनके लिए एक झटके के समान था । किन्तु उनको न स्वीकार करने का प्रश्न ही नहीं था । वे गोपाल के पिता के अनुरोध से बँधे थे। गोपाल ने, कर्तव्य - भावना से, प्रभुपाद के लिए न्यू यार्क से पिट्सबर्ग का टिकट खरीदा था और यह व्यवस्था की थी कि पर्यटक-सहायता संस्था का प्रतिनिधि न्यू यार्क में उनसे मिले। और उसी कर्त्तव्य - भावना से प्रेरित होकर वे उनसे मिलने उस रात कार द्वारा आए थे। इसलिए गोपाल अग्रवाल के लिए वह क्षण संकोच, अविश्वास और विस्मय की मिश्रित भावना का था, जब अपने अतिथि को अपनी वाल्क्सवैगन गाड़ी में बैठाकर वे अपने घर के लिए वापस बटलर की ओर चले ।

***

२० सितम्बर

नगर के पार्क में एक स्फटिक पत्थर की चट्टान पर एक पट्टिका लगी थी, 'बटलर, पेन्सिल्वेनिया, जीप का घर।" बटलर, जहाँ अमरिकी सेना के लिए १९४० ई. में जीप का आविष्कार हुआ था, बीस हजार की आबादी वाले एक औद्योगिक नगर के रूप में प्रसिद्ध था। वह तेल, कोयला, गैस और चूने के पत्थर वाले क्षेत्र के मध्य पहाड़ियों में बसा था। प्लेट - शीशे, रेल लाइन पर चलने वाली गाड़ियाँ, रेफ्रीजेरेटर, तेल के उपकरण और रबर के सामान बनाने वाले कारखाने वहाँ के मुख्य धंधे थे। उनके स्थानिक श्रमिकों में से नब्बे प्रतिशत अमेरिकन थे । परम्परा से वे ईसाई धर्मानुयायी थे। अधिकतर प्रोटेस्टेंट थे । और कुछ कैथलिक। बाद के वर्षों में कुछ यहूदी पूजा - घर भी बन गए किन्तु उस समय वहाँ हिन्दू धर्मानुयायी बिल्कुल नहीं थे। गोपाल अग्रवाल पहले भारतीय थे जो बटलर में आकर बसे थे ।

जब वाल्क्सवैगन कस्बे में पहुँची, उस समय भोर- पूर्व की हवा उष्ण और नम थी। बटलर ईगल समाचार पत्र का प्रभातकालीन संस्करण इन शीर्षकों के साथ शीघ्र ही बिक्री के स्टालों पर प्रकट होने वाला था - "लाल चीन का भारत पर आक्रमण " ; " प्रधानमंत्री शास्त्री की घोषणा कि साम्यवादी चीन, संसार पर आधिपत्य जमाने को सन्नद्ध" ; "संयुक्त राष्ट्र की माँग कि भारत और पाकिस्तान ४८ घंटे में युद्ध-विराम करें। '

श्रील प्रभुपाद अग्रवाल के घर — स्टर्लिंग अपार्टमेंट – ४ बजे सवेरे पहुँच गए और गोपाल ने उनसे सोफे पर सोने का अनुरोध किया। कस्बे में स्थित अग्रवाल के घर में एक छोटा-सा रहने का कमरा था, एक भोजन कक्ष था, एक रसोईघर था, एक स्नान कक्ष था और सीढ़ी के ऊपर दो शयन कक्ष थे । इस मकान में वे अपने दो छोटे बच्चों के साथ रहते थे । अग्रवाल - दम्पति को बटलर में रहते हुए कुछ वर्ष हो चुके थे और वे वहाँ के उच्च सामाजिक मंडल में अपने को सुप्रतिष्ठित अनुभव करने लगे थे। चूँकि उनके घर में स्थान का संकोच था, इसलिए उन्होंने निश्चय किया कि अच्छा होगा कि स्वामीजी के लिए वाई. एम. सी. ए. में एक कमरा ले लिया जाय जहाँ से वे दिन के समय उनसे मिलने आया करें । वास्तव में कठिनाई स्थान के कारण नहीं, प्रत्युत स्वयं स्वामीजी के कारण थी । बटलर के परिवेश में स्वामीजी का मेल कैसे बैठेगा? वे अग्रवाल- दम्पति के अतिथि थे, इसलिए अपने मित्रों और पड़ोसियों से उनके बारे में उन्हें पूरी तरह बताना होगा ।

श्रील प्रभुपाद अपने दर्शकों के लिए तत्काल एक उत्सुकता का विषय बन गए । उद्विग्न होकर श्रीमती अग्रवाल ने निश्चय किया कि बजाय इसके कि लोग उनके घर में निवास कर रहे गेरुआ - धारी विचित्र अतिथि के विषय में तरह-तरह की अटकलबाजी करें, इससे अच्छा होगा समाचार पत्रों के माध्यम से उनके विषय में बता दिया जाय । श्रीमती अग्रवाल ने अपनी योजना के बारे में प्रभुपाद को बताया तो वे हँसने लगे। वे समझ गए कि वे वहाँ के परिवेश से मेल नहीं खाते।

प्रभुपाद को साथ लेकर सैली शीघ्रतापूर्वक पिट्सबर्ग के एक समाचार-पत्र के कार्यालय में गई । किन्तु प्रभुपाद से साक्षात्कार करने वाले व्यक्ति की समझ में यह बात नहीं आई कि यह व्यक्ति एक रोचक कथा का विषय किस प्रकार हो सकता है। तब सैली उन्हें स्थानीय बटलर ईगल के कार्यालय में ले गई जहाँ उनकी उपस्थिति को सचमुच समाचार के योग्य माना गया ।

२२ सितम्बर

बटलर ईगल में एक विशेष लेख प्रकाशित हुआ, “हिन्दू धर्म के एक भक्त द्वारा प्रवाहपूर्ण अंग्रेजी में, पश्चिम में आने के अपने उद्देश्य का वर्णन ।” अग्रवाल - दम्पति के घर पर एक फोटोग्राफर आया था जिसने श्रील प्रभुपाद का, रहने के कमरे में खड़े हुए और श्रीमद्भागवत् की खुली पुस्तक हाथ में लिए, एक चित्र खींचा था। चित्र का शीर्षक था, “भक्तियोग का राजदूत । "

लेख इस प्रकार आरंभ हुआ था :

हल्के भूरे रंग का एक व्यक्ति जो धूमिल केसरिया रंग का वस्त्र और सफेद नहाने के जूते पहने था कल एक छोटी गाड़ी में से बटलर वाई. एम. सी. ए. में एक सभा में सम्मिलित होने के लिए उतरा । वह है ए. सी. भक्तिवेदान्त स्वामीजी, पश्चिम के लोगों के लिए भारत का एक संदेशवाहक ।

लेख में श्रीमदभागवत को बाइबल की कोटि का साहित्य कहा गया और श्रील प्रभुपाद को "विद्वान उपदेशक ।" लेख में आगे कहा गया :

" मेरा उद्देश्य लोगों की भागवत चेतना को पुनर्जीवित करना है।” स्वामीजी का कथन है । " ईश्वर सहस्रों रूपों में दिखाई देने वाले जीवों का परम पिता है" उनका कहना है । “विकास की प्रक्रिया में मनुष्य जीवन एक पूर्णता की स्थिति है। यदि हम उस संदेश की उपेक्षा करते हैं तो हमें विकास की प्रक्रिया से फिर से गुजरना होगा ।" उनका विश्वास है .... भक्तिवेदान्त एक साधु की तरह रहते हैं और किसी स्त्री को अपना भोजन नहीं छूने देते। छह सप्ताह की समुद्री - यात्रा में उन्होंने अपना भोजन स्वयं बनाया और बटलर में अग्रवाल के घर में भी एक पीतल के बर्तन के अलग-अलग खानों में वे एक साथ चावल, सब्जियाँ और “रोटी" स्वयं पकाते हैं। वे शुद्ध शाकाहारी हैं और केवल दूध पीते हैं, जिसे वे “बच्चों और वृद्धों का चमत्कारी भोजन” कहते हैं। वे कहते हैं कि यदि अमेरिका के लोग अपने आध्यात्मिक जीवन पर अधिक ध्यान दें तो वे बहुत अधिक सुखी हो सकते हैं।

अग्रवाल- दम्पति का इस सम्बन्ध में अपना अलग मत था कि प्रभुपाद अमेरिका में “अपनी पुस्तकों के लिए धन संग्रह" करने आए हैं, और इससे अधिक उन्हें कुछ नहीं करना था। उन्हें विश्वास था कि प्रभुपाद को किसी ऐसे व्यक्ति को पाने की आशा थी जो उनके श्रीमद्भागवत के प्रकाशन में सहायक हो सके और उन्हें अनुयायियों की कामना नहीं थी । अग्रवाल - दम्पति को आशा थी कि प्रभुपाद अपनी ओर लोगों का ध्यान आकृष्ट करने वाला कोई कार्य नहीं करेंगे; उनकी समझ में प्रभुपाद की भी आंतरिक इच्छा यही थी । “ उन्होंने कोई हलचल नहीं पैदा की,” सैली अग्रवाल कहती हैं, “वे किसी प्रकार की भीड़ इकट्ठा करना नहीं चाहते । वे केवल अपनी पुस्तकों के प्रकाशन के लिए धन चाहते हैं।" प्रभुपाद संभवतः अग्रवाल - दम्पति की बेचैनी समझ रहे थे, इसलिए उनका मन रखने के लिए उन्होंने अपने को ज्यादा उजागर नहीं होने दिया।

किन्तु प्रभुपाद के अनुरोध पर मिस्टर अग्रवाल ने लोगों के लिए अपना घर हर रात को छह बजे से नौ बजे तक खुला रखना स्वीकार कर लिया ।

सैली: हमारे घर जो लोग आने लगे वे नितान्त बुद्धिजीवी वर्ग के लोग थे, और वे प्रभुपाद पर मुग्ध थे। उन्हें ज्ञान नहीं था कि वे उनसे क्या पूछें। वे अल्पज्ञ थे। ऐसा लगता था कि मानो पुस्तक से एक स्वप्न साकार हो गया हो। कौन आशा कर सकता था कि पेन्सिल्वानिया के बटलर में किसी के रहने के कमरे में उसकी भेंट एक स्वामी से होगी ? सचमुच यह एक विस्मयकारी घटना थी, मध्यवर्गीय अमेरिका के मध्य में। मेरे माता-पिता बहुत दूर से उनसे मिलने आए। पिट्सबर्ग में हमारी जान-पहचान बहुतों से थी, और वे सभी उनसे मिलने आए। प्रभुपाद को इस तरह अपने मध्य पाना बहुत ही असामान्य बात थी। किन्तु उनके प्रति जो अभिरुचि प्रदर्शित की जा रही थी, वह केवल जिज्ञासा- वश थी।

उनके पास एक टाइप - राइटर था जो उनकी अत्यल्प सम्पत्ति का एक भाग था। इसके अतिरिक्त उनके पास एक छाता था । यह एक ऐसी वस्तु थी जिससे लोगों में सनसनी पैदा हो गई कि वे अपने पास हमेशा एक छाता रखते हैं। मौसम कुछ ठंडा था और उनके सिर के बाल झड़ रहे थे, इसलिए वे हमेशा सिर पर टोपी लगाते थे जो तैरने वाली टोपी से मिलती-जुलती थी और जिसे किसी ने उनके लिए तैयार किया था। उससे भी लोगों में सनसनी थी । और प्रभुपाद इतने कुशाग्र बुद्धि थे कि यदि वे किसी को दो बार भी देख लेते थे तो उन्हें स्मरण हो जाता था कि वह कौन है। वे बहुत प्रतिभाशाली व्यक्ति थे। यदि वे किसी को एक बार हमारे कमरे में देख लेते और फिर उसे किसी मोटर गाड़ी में देखते, तो उसका नाम उन्हें तुरंत याद आ जाता और वे उसका नाम लेकर उसे अभिवादन करते। वे बहुत प्रतिभाशाली थे। सभी लोग उन्हें चाहने लगे थे । वे विस्मय - विमुग्ध थे कि प्रभुपाद कितने तीक्ष्ण बुद्धि थे। जिस बात से लोग वशीभूत थे वह यह थी कि प्रभुपाद को सबके नाम याद हो जाते थे। और उनका ढंग बहुत परिहासमय था । वे हमेशा बहुत गंभीर दिखाई देते थे, किन्तु सचमुच वे बहुत परिहास - प्रिय व्यक्ति थे। उनकी मुद्रा भयोत्पादक थी, किन्तु वे बड़े मनमोहक थे ।

मेरे जीवन में वे मुझे सबसे सरल अतिथि मिले थे, क्योंकि जब मैं उन्हें समय नहीं दे पाती थी, तो वे कीर्तन में लग जाते थे और मैं जानती थी कि उसमें वे पूर्णतया प्रसन्न थे। जब मैं उनसे बातों में न लग पाती थी तब वे कीर्तन में तल्लीन हो जाते थे । वे कितने सरल थे, मुझे मालूम था कि वे कभी ऊबते नहीं थे। उनके कारण मुझे किसी तरह का दबाव या तनाव नहीं था। वे इतने सरल थे कि जब मैं अपने बच्चों की देखभाल में लगती तब वे कीर्तन में लग जाते थे। यह उनकी कितनी महानता थी । जब मुझे घर के कामकाज में लगना पड़ता तब वे प्रसन्नतापूर्वक कीर्तन में लग जाते। वे बहुत अच्छे अतिथि थे। जब लोग उनसे मिलने आते तो वे हमेशा सिगरेट पीते रहते; किन्तु प्रभुपाद कहते, “ इस पर ध्यान न दो, इसके बारे में कुछ न सोचो।” वे हमेशा यही कहते, “इसके बारे में कुछ न सोचो।” क्योंकि वे जानते थे कि हम उनसे भिन्न हैं। मैं उनके सामने कभी सिगरेट न पीती । मुझे मालूम था कि मुझसे आशा नहीं की जाती कि मैं गोपाल के पिता की उपस्थिति में सिगरेट पीऊँगी। मैं प्रभुपाद को भी उन्हीं के समान समझती थी। वे किसी के लिए कभी कोई समस्या नहीं उत्पन्न करते थे ।

एक दिन संध्या - समय एक आगंतुक ने प्रभुपाद से पूछा, “ ईसा मसीह के बारे में आपके क्या विचार हैं?" और प्रभुपाद ने उत्तर दिया, " वे ईश्वर के पुत्र हैं।" और तब उन्होंने आगे जोड़ा कि वे स्वयं भी ईश्वर के पुत्र हैं। हर एक को यह सुन कर संतोष हुआ कि प्रभुपाद ईसा मसीह को ईश्वर का पुत्र मानते हैं।

गोपाल : उनका उद्देश्य यह नहीं था कि आप अपनी जीवन शैली को बदल दें। उन्होंने किसी से यह नहीं कहा कि तुम शाकाहारी बन जाओ। वे केवल इतना ही चाहते थे कि आप अपने मत का अनुसरण करें, किन्तु अच्छे इंसान बनें। उन्होंने इस बात पर बल नहीं दिया कि हमें बहुत-सी चीजें छोड़ देनी चाहिए ।

श्रील प्रभुपाद नियमित दैनिक समय सारणी का पालन करते थे। प्रतिदिन प्रातःकाल वे वाइ. एम. सी. ए. से छह-सात ब्लाकों को पार करते हुए स्टर्लिंग अपार्टमेंट तक टहलते जाते थे और वहाँ लगभग सात बजे पहुँचते थे। जब वे यार्क में उतरे थे, तो उनके सामान में एक पोटली थी जिसमें जई की न्यू चपातियों जैसा सूखा खाद्यान्न बँधा था । यह खाद्यान्न कई सप्ताहों के लिए पर्याप्त था और हर दिन प्रातः काल वे दूध के साथ उसमें से थोड़ा-सा नाश्ते के रूप में ले लेते थे। पौने आठ बजे गोपाल अपने काम पर चले जाते थे और साढ़े नौ बजे के आसपास प्रभुपाद रसोईघर में अपना दोपहर का भोजन बनाने में लग जाते थे। वे बिना बेलन के ही अपनी चपातियाँ हाथ से बना लेते थे। वे अकेले दो घंटे भोजन बनाने में लगाते थे। तब श्रीमती अग्रवाल अपने घर के काम-काज और बच्चों की देखभाल में लगी होती थीं। साढ़े ग्यारह बजे वे प्रसाद ग्रहण करते थे ।

सैली : जब प्रभुपाद भोजन बनाते तो वे केवल एक बर्नर प्रयोग में लाते थे। सबसे नीचे के बर्तन से भाप बनती थी। उसमें वे दाल रखते थे। और इससे जो भाप बनती उससे बहुत-सी अन्य सब्जियाँ पक जाती थीं। इस तरह एक सप्ताह तक वे अपना दोपहर का पूरा भोजन बनाते रहे जो साढ़े ग्यारह बजे तक तैयार हो जाता था, और गोपाल हमेशा लगभग बारह बजे लंच के लिए घर आते थे। मैं गोपाल को खाने के लिए सैंडविच देती और वे काम पर वापस लौट जाते। किन्तु मुझे यह अनुभव करने में देर नहीं लग्नी कि जो भोजन स्वामीजी बनाते थे वह हम लोगों को भी रुचिकर होगा, इसलिए वे हम सभी के लिए दोपहर का भोजन तैयार करने लगे। ओह ! और हमें उसमें कितना आनंद आने लगा।

हम जो कुछ अमेरिका के विषय में जानते थे उसे स्वामीजी को दिखाने में हमें बड़ा आनंद मिलता। और उन्होंने वैसी चीजें पहले कभी नहीं देखी थीं। उन्हें सुपर-बाजार ले जाने में हमें कितना मजा आता। उन्हें ओक्रा या हिमीभूत सेमों की पोटली खोलने में आनंद आता, और उन्हें सेमों को न तो साफ करना पड़ता न काटना पड़ता। वे नित्य फ्रिज खोलते और उसमें से अपनी पसंद की वस्तुएँ निकाल लेते। उन्हें ऐसे काम करते देखने में हमें मजा आता । जब मैं वैकुअम क्लीनर से घर की सफाई करती, तो वे सोफे पर बैठे रहते । उन्हें उसमें बड़ी रुचि थी। हम देर तक वैकुअम क्लीनर के बारे में बातें करते रहते । स्वामीजी कितने मजेदार थे।

इस तरह स्वामीजी नित्य दोपहर का पूरा भोजन बनाते और हर चीज बनाने में उन्हें मजा आता। हम लोगों को भोजन बहुत रुचिकर लगता। मैं चीजों को काटने में उनकी मदद करती । वे उन्हें मसालेदार बनाते और हम हँस देते। वे बहुत मजेदार आदमी थे, बहुत ही मजेदार । थोड़े ही समय में मैं अपने को उनकी पुत्री जैसी अनुभव करने लगी। वे जैसे मेरे ससुर हों। वे मेरे ससुर के मित्र थे, किन्तु मैं उनसे उनसे बहुत निकटता अनुभव करने लगी। उन्हें हर चीज में आनंद आता। वे मुझे बहुत पसंद थे। मुझे लगा कि उनका प्रभाव महान् था ।

दोपहर के भोजन के पश्चात् एक बजे के आसपास प्रभुपाद वाई. एम. सी. ए. लौट जाते जहाँ जैसा कि अग्रवाल- दम्पति ने लक्ष्य किया था, वे पाँच बजे तक अपना लिखने का काम करते रहते। वे लगभग छह बजे शाम को फिर उनके पास आते; तब तक वे लोग शाम का खाना खा चुके होते थे। वे लोग मांस खाते थे, इसलिए श्रीमती अग्रवाल इस विषय में सावधान थीं कि प्रभुपाद के आने के पहले पूरी सफाई कर दी जाए। एक दिन जब वे रात में कुछ जल्दी आ गए तो श्रीमती अग्रवाल बोलीं, “ओह, स्वामीजी हमने अभी मांस पकाया है। इसकी गंध आपको बहुत अप्रिय लगेगी।” स्वामीजी ने उत्तर दिया, “ ओह ! इसके बारे में बिल्कुल न सोचो, बिल्कुल न सोचो।

संध्या समय स्वामीजी आगंतुकों से वार्ता करते । आगंतुक सामान्यतया कॉफी पीते और अन्य चीजें खाते, पर स्वामीजी नौ बजे के लगभग केवल एक गिलास गर्म दूध लेते। वे साढ़े नौ या दस बजे तक बातें करते रहते और तब मिस्टर अग्रवाल उन्हें अपनी गाड़ी से वाई. एम. सी. ए. पहुँचा देते ।

प्रभुपाद प्रतिदिन अपने कपड़े भी धोते थे । वे अग्रवाल - दम्पति के स्नानागार में अपने कपड़े धोते और सूखने के लिए उन्हें बाहर टांग देते। कभी कभी वे अग्रवाल - दम्पति के साथ धुलाई - घर यह देखने के लिए जाते कि अमेरिका के लोग कपड़े किस तरह धोते और सुखाते हैं। सैली को ऐसा लगता कि प्रभुपाद " अमरीका के लोगों और उनके तौर-तरीकों में बड़ी रुचि रखते थे । "

सैली: हमारा लड़का बृज छह या सात महीने का था, जब स्वामीजी हमारे यहाँ आए । —और भारतीय लोग लड़कों को प्यार तो करते ही हैं। स्वामीजी को बृज बहुत प्रिय था। जब बृज पहली बार खड़ा हुआ, तो उस समय स्वामीजी वहाँ उपस्थित थे। जब बृज ने पहली बार खड़ा होने का प्रयत्न किया और वह सफल हुआ, तो स्वामीजी उठ कर खड़े हो गए। वे तालियाँ बजाने लगे। वह एक उत्सव बन गया। एक दूसरी बार जब मेरे बच्चे ने स्वामीजी के जूतों में दाँत गड़ा दिए तो मैने सोचा – “ओह, ये वे जूते हैं जो सारे भारत में घूमे हैं और मेरा बच्चा उन्हें चबा रहा है।” आप जानते हैं कि किसी माँ को यह कैसा लगता होगा ।

स्वामीजी लगभग हर दिन रात में हमारे एक निकट के पड़ोसी के घर के पीछे के आँगन में बैठा करते थे। हम कभी कभी उनके साथ बैठते, या फिर अपने कमरे में रहते। एक बार हमारी छोटी लड़की पामेला को, जो उस समय केवल तीन वर्ष की थी, विचित्र बात सूझी। मैं उसे संडे स्कुल ले जाया करती थी और वहाँ उसे ईसा मसीह के बारे में कुछ जानकारी हो गई। तब से जब वह स्वामीजी को उनके गेरुए वस्त्रों में देखती तो वह उन्हें स्वामी ईसा मसीह कहती। एक बार हम लोगों को इसका पता चला कि वह क्या कह रही है तो उसने उन्हें स्वामी जीसस कह कर पुकारा। स्वामीजी मुस्कराए और बोले, "यह छोटी बच्ची इन सब का मार्ग-दर्शन करेगी।" यह कितना मजेदार था।

प्रभुपाद स्थानीय समाज के विभिन्न समुदायों के सामने भाषण देते। अक्तूबर के आरंभ में उन्होंने लायंस क्लब में भाषण दिया और वहाँ से एक अधिकृत प्रमाण-पत्र प्राप्त किया :

ज्ञापित किया जाता है कि ए.सी. भक्तिवेदांत स्वामी, बटलर, पेन्सिलवानिया की लायंस क्लब के अतिथि थे। उनकी सेवाओं की सराहना की अभिव्यक्ति स्वरूप, क्लब की ओर से यह आभार - पत्र अर्पित किया जाता है।

स्वामीजी ने पेन्सिलवानिया के हर्मन में, वाई, और सेंट फाइडेलिस सेमिनरी कालेज में भी भाषण दिया। अग्रवाल - दम्पति के निवास पर आगंतुकों के समक्ष तो वे नियमित रूप से भाषण देते रहते थे।

***

जब स्लिपरी एक स्टेट कालेज में दर्शन विभाग के अध्यक्ष प्रोफेसर लार्सेन ने बटलर ईगल में एक भारतीय स्वामी एवं वैदिक विद्वान् के आगमन के सम्बन्ध पढ़ा, तो अग्रवाल- दम्पति के घर पर फोन किया कि प्रभुपाद उनके कालेज में आएँ और भाषण दें।

एलन लार्सेन : मैंने लेख में दिए गए नम्बर पर फोन किया, किन्तु ज्ञात हुआ कि स्वामीजी वास्तव में वाई. एम.सी.ए. के एक कमरे में ठहरे हैं। जब मैं, पहुँचा तब वे सड़क के कोने पर प्रतीक्षा कर रहे थे, और मैने उन्हें साथ ले लिया। वे अत्यन्त एकाकी लग रहे थे। जब हम कार में स्लिपरी राक की ओर जा रहे थे, तो मैने उनसे अपना नाम बोलने के लिए अनुरोध किया जिससे मैं अपनी कक्षा को उनका परिचय देते हुए उसका ठीक उच्चारण कर सकूँ। वे बोले, “स्वामीजी भक्तिवेदान्त" फिर आगे उन्होंने बताया कि उसका अर्थ क्या था। क्योंकि मुझे भारतीय नामों का अभ्यास नहीं था, इसलिए उन्हें अपने नाम का उच्चारण कई बार करना पड़ा जिससे मैं उसे सही-सही जान सकूँ। मेरे धीमेपन के प्रति उन्होंने कोई अधीरता नहीं प्रकट की। अपने साहचर्य के इस प्रारंभिक संगम पर ही मुझे यह विश्वास हो गया कि इस व्यक्ति में आंतरिक स्थिरता और शक्ति है जिसे हिला पाना बहुत कठिन होगा और यह प्रारम्भिक धारणा उस व्यस्त दिन में अधिकाधिक बलवती होती गई ।

जिस समय प्रभुपाद अपने सहज पूर्वाभ्यासहीन ढंग में गलियारे से चलकर काठ की तीन सीढ़ियाँ चढ़े और सादे लकड़ी के मंच पर पहुँचे, उस समय उनका भाषण सुनने के लिए विभिन्न कक्षाओं के लगभग एक सौ छात्र इकट्ठे हो गए थे । वे पालथी मार कर सीधे बैठ गए और आँखें मूँद कर कोमल स्वर में हरे कृष्ण गाने लगे। तब वे खड़े हुए और (बिना किसी डेस्क या माईक के) उन्होंने भाषण दिया और श्रोताओं के प्रश्नों के उत्तर दिए। यह कार्यक्रम केवल पचास मिनट चला और अगले घंटे की पढ़ाई की सूचना देने वाली घंटी के बजने के साथ एकाएक समाप्त हो गया ।

एलन लार्सेन : पहली कक्षा के पश्चात् मैने बाहर परिसर के लान में एक बेंच पर बैठ कर स्वामीजी से संक्षिप्त बातचीत की। अधिकांशतः जब वे स्वयं न बोलते होते तब वे एक छोटी-सी प्रार्थना दुहराते रहते और उंगलियों से जप माला फेरते रहते। वे पालथी मार कर बैठे थे और हम लोग आगे पीछे की बातें कर रहे थे। उन्होंने कहा कि हमारे चारों तरफ के वृक्ष बहुत सुंदर थे और पूछा, “ये किस प्रकार के वृक्ष हैं ?" मैंने उत्तर दिया, “ये वृक्ष छाया के लिए हैं।” तब वे बोले, "यह बहुत खराब बात है कि वे फलदार या गिरीदार वृक्ष नहीं हैं जिससे लोगों को भोजन और लाभ प्राप्त हो सके । ”

एक बजे प्रभुपाद का भाषण फिर हुआ । उसके बाद वे कालेज के अध्यापक, और भाषण के समय उपस्थित डा. मोहन शर्मा और उनकी सोलह वर्षीया पुत्री, मिनी, के साथ परिसर में स्थित उनके आवास पर गए। वहाँ उन्होंने गर्म दूध और सूखे फल ग्रहण किए और डा. शर्मा की प्रार्थना पर उनके परिवार को आशीर्वाद दिया और मंगलकामना - स्वरूप उनकी लड़की के मस्तक का स्पर्श किया। तीन बजे के लगभग प्रो. लार्सेन कार द्वारा उन्हें बटलर पहुँचा आए ।

एलन लार्सेन: स्वामीजी अपने को एक भारतीय विद्वान् के रूप में रूप में प्रस्तुत करते प्रतीत होते थे जो अपना अनुवाद - कार्य करने के लिए मानो थोड़े समय के लिए आए हों। मैने धर्म प्रचारक के रूप में उनके बारे में कभी नहीं सोचा। लेकिन उस दिन के दौरान इस व्यक्ति के प्रति मेरे अंदर हार्दिक स्नेह उत्पन्न हुआ, क्योंकि निश्चित ही वे एक साधु-पुरुष थे जिसने स्थिरता और शान्ति जैसे दुर्लभ गुण प्राप्त कर लिए थे।

पेन्सिलवानिया के भाषणों से प्रभुपाद को आभास हो गया कि उनके संदेश का अमेरिका में किस तरह स्वागत होगा । बोस्टन के कामनवेल्थ घाट पर उन्होंने अपनी कविता में कहा था, "मुझे विश्वास है कि जब यह दिव्य संदेश उनके हृदयों में प्रवेश करेगा तब वे निश्चय ही प्रसन्नता का अनुभव करेंगे और जीवन की दुखद अवस्थाओं से मुक्ति पा जाएँगे ।" अब इस सिद्धान्त का उस क्षेत्र में वास्तविक परीक्षण हो रहा था। क्या वे समझ सकेंगे ? क्या उनमें रुचि थी ? क्या वे समर्पण करेंगे ?

***

१५ अक्टूबर

श्रील प्रभुपाद को बम्बई से सुमति मोरारजी का एक पत्र मिला :

पूज्य स्वामी,

गत मास की २४ वीं तारीख को लिखा आपका पत्र प्राप्त हुआ और मुझे यह जानकर प्रसन्नता है कि आप समुद्री बीमारी झेलने के पश्चात् सुरक्षित अमेरिका पहुँच गए हैं। आपके अभिवादनों और आशीर्वचनों के लिए धन्यवाद । मैं समझती हूँ कि आप समुद्री बीमारी से पूर्णतया अच्छे हो गए हैं और अब आपका स्वास्थ्य ठीक चल रहा है। यह जानकर प्रसन्नता हुई कि आपने संयुक्त राज्य में अपना क्रिया-कलाप आरंभ कर दिया है और अब तक आप कुछ भाषण दे चुके हैं । भगवान् बालकृष्ण से प्रार्थना है कि वे आपको अभीष्ट शक्ति दें जिससे आप श्रीमद्भागवत का संदेश लोगों तक पहुँचा सकें। मुझे लगता है कि आपको वहाँ बीमारी से पूर्णतया स्वस्थ फाक होने तक रुकना चाहिए और अपना लक्ष्य प्राप्त करने के बाद ही वहाँ से वापस आना चाहिए।

यहाँ सब कुछ सामान्य है । सादर

आपकी

सुमति मोरारजी

प्रभुपाद को पत्र की अंतिम पंक्ति विशेष महत्त्वपूर्ण लगी : उनकी शुभेच्छु उनसे आग्रह कर रही थीं कि वे अमेरिका में अपनी उद्देश्य पूर्ति तक रुकें। यार्क के आप्रवासी - अधिकारियों को उन्होंने बताया था कि वे अमेरिका में दो महीने रुकेंगे। " बटलर में एक महीने के लिए मेरे जामिनदार हैं" उन्होंने सोचा, “उसके बाद कोई अवलम्ब नहीं है। अतएव मैं संभवतः एक महीना और ठहर सकता हूँ।" इस तरह उन्होंने दो महीने कहा था । किन्तु सुमति मोरारजी उनके ठहरे रहने पर जोर दे रही थीं। उन्होंने देख लिया था कि अमेरिका के निवासियों को धर्मोपदेश देने की संभावनाएँ अच्छी थीं, किन्तु उन्हें लगा कि उन्हें भारत से सहायता की आवश्यकता होगी।

जो भी हो, उन्होंने बटलर में काफी समय व्यतीत कर लिया था और अमेरिका में रुकने के लिए उनके पास केवल एक महीना शेष था । इसलिए उन्होंने निश्चय किया कि इसके पहले कि उनका समय पूरा हो जाय, वे न्यू यार्क नगर जायँगे और वहाँ धर्म प्रचार करने का प्रयास करेंगे। किन्तु इसके पहले वे फिलाडेल्फिया जाना चाहते थे जहाँ उन्होंने पेन्सिलवानिया विश्वविद्यालय के एक संस्कृत - प्राचार्य, डा. नार्मन ब्राउन, से मिलने की व्यवस्था की थी ।

श्रीमती अग्रवाल उन्हें विदा करते समय बहुत दुखी थीं ।

सैली : एक महीने बाद मैं स्वामीजी को सचमुच चाहने लगी। मैं अपने को एक तरह से सुरक्षित अनुभव करने लगी और वे फिलाडेल्फिया जाने की इच्छा प्रकट करने लगे। किन्तु मैं सोच भी नहीं सकती थी— और यह बात मैने उन्हें बताई― कि वे दो दिन के लिए फिलाडेल्फिया जाएगें । वे वहाँ भाषण देने जा रहे थे और वहाँ से फिर न्यू यार्क। किन्तु न्यू यार्क में वे किसी को नहीं जानते थे । यदि फिलाडेल्फिया में कुछ नहीं हुआ तो वे न्यू यार्क जायँगे। किन्तु वहाँ भी तो उनका कोई नहीं है। मैं कुछ सोच नहीं पा रही थी। इस कल्पना से मैं व्यथित हो उठी।

मुझे वह रात याद है जब वे दो बजे प्रातः विदा हो रहे थे। मुझे याद है कि मैं वहाँ तब तक बैठी रही जब तक स्वामीजी प्रतीक्षा करते रहे कि गोपाल उन्हें बस पर चढ़ाने के लिए पिट्सबर्ग ले जाय । गोपाल ने कुछ रेजगारी की व्यवस्था की, और मुझे स्वामीजी को उनका यह समझाना याद है कि किस तरह छिद्र में सिक्के डाल कर वे बस स्टेशन पर स्नान कर सकते थे— कारण, स्वामीजी दिन में कई बार स्नान करते थे । गोपाल ने उन्हें बताया कि यह कैसे किया जाता है और न्यू यार्क में स्वचालित यंत्रों के विषय में भी उसने उन्हें बताया। उसने उन्हें समझाया कि न्यू यार्क क्या खा सकते थे और क्या नहीं। गोपाल ने एक थैली में रख कर ये सिक्के दिए । इतने के साथ वे हमसे विदा हुए।

संन्यासी के रूप में प्रभुपाद को एक स्थान पर रहने और फिर उसे छोड़ कर दूसरे स्थान को जाने का अभ्यास हो गया था। एक भिक्षु धर्म प्रचारक के रूप में उन्हें बटलर वाई. एम. सी. ए. का शान्त जीवन परित्याग करने में किसी प्रकार की मनोव्यथा की अनुभूति नहीं हो रही थी । और उन्हें उस । घरेलू आवास से कोई आसक्ति नहीं थी जहाँ वे भोजन बनाया करते थे और सैली अग्रवाल से वैकुअम क्लीनर, फ्रोज़न ( बर्फ में रखे हुए) खाद्यान्नों और अमरीकी जीवन - विधियों के बारे में बातें करते थे।

किन्तु वे बटलर क्यों गए थे? और वे न्यू यार्क क्यों जा रहे थे ? और वे न्यू यॉर्क क्यों जा रहे थे ?इसे कृष्ण का अनुग्रह मानते थे। कृष्ण का सच्चा भक्त होने के नाते वे अपने को कृष्णभावनामृत के वितरण का एक साधन बनाना चाहते थे ।

बटलर में उनका रुकना सहायक सिद्ध हुआ । उन्हें अमरिकी जीवन का प्रथम कोटि का व्यावहारिक अनुभव प्राप्त हो गया था और उन्हें इसका विश्वास हो गया था कि उनका स्वास्थ्य ठीक है और उनका संदेश लोगों तक पहुँच सकता है। उन्हें प्रसन्नता थी कि अमेरिका में भारतीय शाकाहारी भोजन की आवश्यक वस्तुएँ मिल सकती थीं और लोग उनकी अंग्रेजी समझ सकते थे। उन्हें इसका भी पता चल गया था कि इधर-उधर दिए गए एक-दो भाषणों का महत्त्व सीमित था, और यद्यपि वहाँ के जड़-बद्ध धर्मों की ओर से उनका विरोध होगा, किन्तु व्यक्तिगत रूप से वहाँ के लोग उनका भाषण सुनने में रुचि रखते थे ।

१८ अक्तूबर को वे बटलर से फिलाडेल्फिया होते हुए न्यू यार्क के लिए रवाना हुए।

 
 
 
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