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श्रील प्रभुपाद लीलमृत  »  अध्याय 20: अनन्तकाल तक उच्च पदस्थ बने रहो  » 
 
 
 
 
 
किन्तु जब यह सब चल रहा था, एक वृद्ध व्यक्ति, जिसने अपने निर्धारित सत्तर वर्ष पूरे कर इकहत्तरवें में प्रवेश किया था, भटकता - घूमता न्यू यार्क के ईस्ट विलेज में पहुँचा और उसने संसार को यह सिद्ध करने का बीड़ा लिया कि वह जानता है कि भगवान् कहाँ पाये सकते हैं। केवल तीन महीने में स्वामी ए.सी. भक्तिवेदान्त नामक वह व्यक्ति संसार के सब से अड़ियल जन-समूह — कंजरों, शराबियों, गंजेड़ियों और हिप्पियों— को विश्वास दिलाने में सफल हो गया कि वह भगवान् तक पहुँचने का मार्ग जानता है: त्याग दो अपनी पुरानी आदतों को, भगवान् का कीर्तन करो और उसकी शरण में आ जाओ। डा. लियरी के प्रति पूरा सम्मान रखते हुए कहना पड़ता है कि नए किस्म का यह संत पुरुष ऐसे नए प्रकार का “ चेतना विस्तार” लेकर प्रकट हुआ है जो कटु मदिरा से मधुर है, गांजा - चरस से सस्ता है और हंगामे से अनुत्तेजित है। यह सब कैसे संभव है ? 'कृष्ण के माध्यम से, ' स्वामी का कहना है।

- द ईस्ट विलेज अदर अक्टूबर १९६६ से

स ग्रीष्म और शिशिर में प्रभुपाद का स्वास्थ्य अच्छा था, या ऐसा लग

रहा था। वे लम्बे समय तक कड़ी मेहनत करते और रात में चार घंटों

के विश्राम के अतिरिक्त सदैव सक्रिय रहते। वे पूरी गंभीरता से घंटों बोलते रहते और कभी थकते नहीं, उनकी आवाज जोरदार बनी रहती। उनकी मुसकान शक्ति और सम्मोहन से भरी थी; उनका संगीत - स्वर ऊँचा और मधुर था । कीर्तन

के बीच कभी-कभी घण्टा भर वे अपनी बोंगो ढोलक पर बंगाली मृदंग की लय निकालते रहते। वे घी के साथ चावल, दाल, सब्जी और चपातियाँ जी - भर कर खाते । उनका चेहरा भरा-पूरा और उनका पेट आगे को कुछ निकला हुआ था। कभी-कभी विनोद में, वे अपनी दो उंगलियों से पेट पर ढोलक जैसी थाप देते और कहते कि उससे निकलने वाली आवाज से उनके अच्छे स्वास्थ्य का प्रमाण मिलता है। उनके सुनहरे वर्ण में युवावस्था और अच्छे स्वास्थ्य की दमक थी जो उनके सत्तर वर्ष की स्वस्थ और अहानिकारक आदतों द्वारा सुरक्षित रहती आई थी। जब वे मुसकराते तो उनसे पौरुष और ओज इतनी दृढ़ता के साथ प्रकट होते कि मुरझाए हुए और व्यसनी न्यूयार्कवासी को उलझन में डाल देते थे। अनेक अर्थों में, वे एक वृद्ध पुरुष बिल्कुल नहीं थे। और उनके नए अनुयायियों ने स्वामीजी की सक्रियता भरी तरुणाई को उनके करिश्मे के एक अंग के रूप में पूरी तरह स्वीकार कर लिया था, ठीक वैसे ही जैसे वे कीर्तन और कृष्ण के करिश्मे को स्वीकार करते थे । स्वामीजी कोई सामान्य व्यक्ति नहीं थे। वे आध्यात्मिक पुरुष थे। वे कुछ भी कर सकते थे। उनके अनुयायियों में किसी में साहस नहीं था कि उन्हें धीरे चलने का परामर्श दे और उनको कभी इसका विचार भी न आता कि स्वामीजी को किसी संरक्षण की आवश्यकता है— वे केवल उनके साथ चलने के प्रयत्न में व्यस्त थे ।

२६ सेकंड एवन्यू के दो मास के अधिवास में स्वामीजी ने वह प्राप्त कर लिया था जो पहले स्वप्न लगता था। अब उनके पास एक मंदिर था, एक विधिवत् पंजीकृत संघ था, प्रचार करने की पूरी स्वतंत्रता थी और दीक्षित शिष्यों की एक टोली थी। जब एक गुरुभाई ने प्रभुपाद को लिख कर पूछा था कि वे न्यू यार्क में एक मंदिर की व्यवस्था किस प्रकार कर सकेंगे तो प्रभुपाद ने कहा था कि उन्हें भारत से लोगों की आवश्यकता होगी, किन्तु एक-दो अमेरिकन भी ऐसे मिल सकते हैं जो सहायक हो सकें। यह पिछले जाड़े की बात थी। अब कृष्ण ने उन्हें एक भिन्न स्थिति में पहुँचा दिया था; उन्हें अपने गुरुभाइयों से कोई सहायता नहीं मिली थी; बड़े - बड़े भारतीय व्यापारियों से कोई बड़ा अनुदान नहीं मिला था; भारत की सरकार से कोई सहायता नहीं मिली थी, किन्तु उन्हें एक अन्य तरह से ही सहायता मिल रही थी। उन्होंने कहा, "ये बड़े सौभाग्यशाली दिन हैं।" एक वर्ष तक उन्होंने अकेले ही संघर्ष किया था, किन्तु तब " कृष्ण ने मुझे मनुष्यों और धन" की सहायता भेजी ।

हाँ, प्रभुपाद के लिए ये बड़े सौभाग्यशाली दिन थे, लेकिन ये किसी वृद्ध

के "सूर्यास्त वर्षों" के सौभाग्यशाली दिन की तरह नहीं थे, जबकि वृद्ध अवकाश-प्राप्ति के आशाविहीन सौख्य में खो जाता है । प्रभुपाद के लिए ये दिन युवावस्था के सौभाग्यशाली दिनों की तरह थे, जो नई शक्तियों के मुकुलित होने के दिन होते हैं, जब भविष्य की असीम आशाओं का विकास होता है। वे इकहत्तर वर्ष के थे, किन्तु उनकी महत्त्वाकांक्षाएँ एक साहसी युवक की थीं। वे युवा दानव की तरह थे जिसका विकास अभी आरंभ ही हुआ था । वे प्रसन्न थे, क्योंकि उनके प्रचार का प्रभाव हो रहा था, ठीक वैसे ही जैसे महाप्रभु चैतन्य प्रसन्न थे जब उन्होंने हरे कृष्ण कीर्तन का प्रचार करते हुए अकेले ही दक्षिण भारत की यात्रा की थी । प्रभुपाद की प्रसन्नता कृष्ण के एक निःस्वार्थ सेवक की प्रसन्नता थी जिसके पास कृष्ण, भक्तिमय जीवन के लिए, अभ्यर्थी भेज रहे थे। प्रभुपाद को इन अभ्यर्थियों के हृदयों में भक्ति का बीज बोने में प्रसन्नता थी। वे उन्हें हरे कृष्ण संकीर्तन में, कृष्ण के विषय में सुनने में, और कृष्णभावनामृत के प्रचार के लिए कार्य करने में प्रशिक्षण देकर प्रसन्न थे ।

प्रभुपाद निरन्तर अग्रसर होते रहे। प्रथम दीक्षा - समारोह और प्रथम विवाहोत्सव के बाद वे अगले कदम के लिए उत्सुक थे। जो कुछ उन्होंने किया था उससे उन्हें प्रसन्नता थी, किन्तु वे और अधिक करना चाहते थे। यह एक वैष्णव का लोभ था — इन्द्रियों की तृप्ति का लोभ नहीं, अपितु कृष्ण के लिए अधिकाधिक अधिग्रहण करने का लोभ । वे “ सुई की तरह प्रवेश करके हल के फलाग्र की तरह निकलना चाहते थे ।” तात्पर्य यह है कि अपने आन्दोलन को प्रत्यक्षतः नगण्य रूप में आरंभ करके वे उसे विराट विस्तार देना चाहते थे। कम-से-कम उनकी इच्छा यही थी । २६ सेकंड एवन्यू में उन्हें जो सफलता और संरक्षण अभी अभी मिला था उससे वे संतुष्ट नहीं थे, अपितु उनकी उत्कट इच्छा इस्कान को अधिक से अधिक विस्तार देने की थी । यही हमेशा से उनका दृष्टिकोण रहा था और इस्कान के चार्टर में उन्होंने इसे उल्लिखित कर दिया था : "विश्व में वास्तविक एकता और शान्ति प्राप्त करना..... सदस्यों के मध्य और विस्तृत मानव-जाति के मध्य । '

स्वामीजी ने अपनी टोली एकत्रित की। वे जानते थे कि यदि एक बार प्रयास किया गया तो लोग इसे पसन्द करेंगे। लेकिन यह तभी हो सकता था

जब वे स्वयं उनके साथ जाएँ। वाशिंगटन स्क्वायर पार्क केवल आधा मील

दूर था, हो सकता

है

कुछ अधिक हो ।

" हम

रवीन्द्र स्वरूप : स्वामीजी जो कुछ करते थे उसके बारे में कोई रहस्य नहीं रखते थे। वे कहा करते थे, "मैं चाहता हूँ कि हर एक जाने कि हम क्या कर रहे हैं।" तब वह दिन, निर्णय का दिन आ गया। उन्होंने कहा, लोग वाशिंगटन स्क्वायर पार्क में कीर्तन करने जा रहे हैं।" हम में से हर एक डर गया । प्रायः ऐसा नहीं होता कि आप किसी सार्वजनिक पार्क में जायँ और सीधे कीर्तन करने लगे। यह करना बड़ी अनोखी बात होगी। लेकिन उन्होंने हमें विश्वस्त किया और बोले, “जब तुम कीर्तन करने लगोगे तो डर जाता रहेगा। कृष्ण तुम्हारी सहायता करेंगे।” अतः हम लोग वाशिंगटन स्क्वायर पार्क का रास्ता नापते धीरे-धीरे पहुँच गए, लेकिन हम बहुत घबराए हुए थे। उस समय तक हम कभी खुल कर सामने नहीं आए थे। मैं बहुत घबराया था और मैं जानता हूँ कि कई अन्य भी खुल कर सार्वजनिक रूप में सामने आने से घबरा रहे थे ।

प्रभुपाद के नेतृत्व में उस रविवार के प्रातः काल की निर्मल बेला में भक्तों की टोली वाशिंगटन स्क्वायर के लिए चली। सेकंड एवन्यू से एक ब्लाक के बाद दूसरा ब्लाक पार करते हुए वह ग्रीनविच विलेज के मध्य स्थित पार्क की ओर बढ़ती गई। और प्रभुपाद जिस ढंग से चल रहे थे उसे देखने मात्र से सनसनी फैल गई। किसी लड़के का न सिर घुटा था, न किसी ने केसरिया वस्त्र पहना था । किन्तु स्वामीजी की केसरिया वेशभूषा, सफेद नुकीले जूते, घुटे हुए और ऊपर तने हुए सिर के कारण, लोग स्तंभित रह गए। जब कभी वे अकेले निकलते थे, तब जैसा आज नहीं था । उन्हें इस तरह अकेले देख कर बहुत हुआ तो लोग कभी कभी दूसरी बार दृष्टि डाल देते थे। किन्तु आज तो हलचल पैदा हो गई जब लोगों ने देखा कि नवयुवकों की एक टोली को, जो उनके कदम से कदम मिला कर चल रही थी, साथ लिए वे नगर की सड़कों को पार करते हुए प्रत्यक्षत: कुछ करने को बढ़े चले जा रहे हैं। छिछोरों और बच्चों ने अपशब्द कहे, अन्य लोग हँसने लगे और चिल्लाने लगे। एक वर्ष पूर्व, बटलर में, अग्रवालों को विश्वास था कि प्रभुपाद अमेरिका में अनुयायियों की खोज में नहीं आए हैं। सैली ने सोचा था कि “ वे कोई आन्दोलन की लहर नहीं पैदा करना चाहते ।” किन्तु अब वे लहर पैदा कर रहे थे—यू यार्क नगर की सड़कों पर अपने शिष्यों की पहली टोली के साथ चलते

हुए,

वे

अमेरिका में पहली बार कीर्तन करने जा रहे थे ।

पार्क में सैंकड़ों लोगों की भीड़ थी, कुछ फैशनबाज थे, कुछ पतनशील ग्रीनविच विलेज के नागरिक थे, कुछ अन्य नगरों से आए थे, कुछ अन्य राज्यों से आए पर्यटक थे, कुछ विदेशी थे। वहाँ सभी तरह के चेहरों, राष्ट्रीयताओं, अवस्थाओं और रुचियों का सम्मिश्रण था। जैसा कि सामान्यतः वहाँ चलता रहता था, कोई फौव्वारे के पास बैठा गिटार बजा रहा था; लड़के-लड़कियाँ साथ बैठे एक-दूसरे का चुम्बन ले रहे थे; कुछ लोग खेलने की तशतरियाँ फेंक रहे थे; कुछ ढोल या बाँसुरी या अन्य वाद्य यंत्र बजा रहे थे; कुछ अपने कुत्ते टहला रहे थे; कुछ बातें करते, इधर-उधर देखते घूम रहे थे। ग्रीनविच विलेज का यह दिन विशेष प्रकार का दिन था ।

के

प्रभुपाद लान के एक हिस्से में गए जहाँ “घास से दूर रहें" साइन बोर्ड

बावजूद बहुत-से लोग बैठे थे । वे बैठ गए और एक-एक करके उनके सभी अनुयायी उनकी बगल में जा बैठे। प्रभुपाद ने अपने पीतल के मंजीरे निकाले और वे महामंत्र गाने लगे और उनके शिष्यों ने उनका अनुकरण किया— पहले बेसुरे ढंग से, फिर तेज आवाज में । यह इतना खराब नहीं था जितना उन्होंने सोचा था कि होगा ।

जगन्नाथ : यह एक अद्भुत वस्तु थी, एक अद्भुत अनुभव था जो स्वामीजी ने मुझे कराया, क्योंकि उसने मुझे उन्मुक्त कर दिया और मुझ में जो झिझक थी उस पर मैने काबू पा लिया — पहली बार लोगों के बीच खुल कर मैं कीर्तन

कर सका ।

कौतुक से भरी भीड़ यह दृश्य देखने को इकट्ठी हो गई, यद्यपि कोई उसमें सम्मिलित नहीं हुआ। कुछ ही मिनटों में पुलिस के दो सिपाही भीड़ में से निकलते हुए वहाँ प्रकट हुए। एक अधिकारी ने कठोर शब्दों में पूछा, “इसका प्रभारी कौन है ?” लड़कों ने प्रभुपाद की ओर देखा । " क्या साइन बोर्ड नहीं देख रहे हो ?” एक अधिकारी ने पूछा। स्वामीजी ने भौंहों पर बल डाल कर साइन बोर्ड की ओर दृष्टि डाली। वे उठे और असुविधाजनक गरम फुटपाथ पर जा बैठे। उनके अनुयायी भी जाकर उनकी बगल में बैठ गए। प्रभुपाद आधे घंटे तक कीर्तन करते रहे और भीड़ वहाँ खड़ी कीर्तन सुनती रही। अमेरिका में इसके पहले कभी भी किसी गुरु ने सड़क में जाकर इस तरह भगवान् का कीर्तन नहीं किया था ।

कीर्तन के बाद उन्होंने श्रीमद्भागवतम् की एक प्रति तलब की और हयग्रीव

से उसकी प्रस्तावना जोर-जोर से पढ़ने को कहा। स्पष्ट उच्चारण के साथ हयग्रीव पढ़ने लगा : " मानव समाज में असमानता का कारण ईश्वर - विहीन सभ्यता का मूलभूत सिद्धान्त है। ईश्वर है और सर्वशक्तिमान है और उसी से प्रत्येक वस्तु का उद्भव होता है; उसी से प्रत्येक वस्तु का पोषण होता है उसी में लय होकर प्रत्येक वस्तु विश्राम पाती है...." भीड़ शान्त थी। बाद में स्वामीजी और उनके अनुयायी स्टोरफ्रंट को लौट गए। वे उल्लसित और विजयी अनुभव कर रहे थे। उन्होंने अमेरिका का मौन भंग कर दिया था ।

एलेन गिन्सबर्ग पास ही ईस्ट टेंथ स्ट्रीट में रहता था। एक दिन डाक से उसे एक विचित्र आमंत्रण मिला :

दिव्य शब्द - ध्वनि का अभ्यास करो,

हरे कृष्ण,

हरे कृष्ण, कृष्ण कृष्ण, हरे हरे

हरे राम, हरे राम, राम राम, हरे हरे ।

इस कीर्तन से तुम्हारे मन मुकुर की मैल छूट जायगी ।

अन्तर्राष्ट्रीय कृष्णभावनामृत संघ की सभाएँ

नित्य ७ बजे प्रातःकाल

प्रत्येक सोम, बुध तथा शुक्रवार को ७ बजे सायंकाल आप को बंधु-बांधवों सहित पधारने के लिए

सादर आमंत्रित किया जाता है।

स्वामीजी ने इस पर्चे को पास-पड़ोस में बाँटने के लिए लड़कों से कहा था ।

निमंत्रण पत्र प्राप्त होने के बाद शीघ्र ही एक शाम को एलेन गिन्सबर्ग अपने कक्ष साथी पीटर आर्लोव्स्की के साथ एक वोक्सवेगन मिनी बस द्वारा स्टोरफ्रंट में आया। एलेन कई वर्ष पहले से हरे कृष्ण मंत्र पर मुग्ध था, जब से उसने भारत में इलाहाबाद के कुंभ मेला में इसे सुना था तब से वह प्रायः उसका जप करता रहा था। जब भक्तों ने देखा कि हाउल का विश्व-विख्यात लेखक और बीट पीढ़ी का अग्रणी व्यक्ति उनके विनीत स्टोरफ्रंट में प्रवेश कर रहा है तो वे अत्यन्त प्रभावित हुए। सभी अमरीकी नवयुवकों के मन, विशेषकर उनके, जो लोअर ईस्ट साइड के निवासी थे, एलेन के मुक्त यौनाचार, मारिजुआना

तथा एल. एस. डी. के प्रति समर्थन से, प्रतिदिन के जीवन में नशीली वस्तुओं से प्रेरित आध्यात्मिक दृष्टि के उसके दावे से, उसके राजनीतिक विचारों, उसके द्वारा पागलपन की खोज, विद्रोह, नग्नता तथा समान विचारधारा वाले व्यक्तियों के बीच सामंजस्य उत्पन्न करने के उसके प्रयासों से अत्यधिक प्रभावित थे। मध्यम वर्ग के मानदण्डों के अनुसार यद्यपि वह बदनाम और बहुत मैला -कुचैला था किन्तु अपने में वह विश्व - ख्याति प्राप्त व्यक्ति था; उससे अधिक विख्यात व्यक्ति स्टोरफ्रंट में अभी तक नहीं आया था ।

एलेन गिन्सबर्ग : ऐसा लगता था कि भक्तिवेदान्त का अमेरिका में कोई मित्र नहीं था; वे अकेले थे, बिल्कुल अकेले। और कुछ-कुछ एक एकाकी हिप्पी की तरह उन्होंने जितना नजदीक संभव था, आश्रम-स्थल पा लिया था जहाँ किराया काफी कम था ।

कुछ लोग फर्श पर पालथी मार कर बैठे थे। मैं समझता हूँ, उनमें से अधिकतर लोअर ईस्ट साइड के हिप्पी थे जो सड़क से भटक कर वहाँ घुस आए थे। सब बढ़ी हुई दाढ़ी वाले थे। सब में आध्यात्मिक बातों के लिए कौतूहल, जिज्ञासा और आदर का भाव लक्षित होता था। कुछ की आँखों पर चश्मा लगा था, किन्तु अधिकतर भद्र लगते थे— दाढ़ी वाले, हिप्पीनुमा और जिज्ञासु । वे लोअर ईस्ट साइड के मध्य वर्ग से आए शरणार्थी थे— भारत की सड़कों पर घूमते ठीक साधुओं की तरह। दोनों में काफी समानता थी; अमेरिका के भूमिगत इतिहास में भी इस समय ऐसा ही दौर चल रहा था । और मुझे यह विचार तुरंत पसंद आ गया कि स्वामी भक्तिवेदान्त ने अपने कार्य के लिए न्यू यार्क का लोअर ईस्ट साइड चुना था । वे निम्न स्तर में डूबे व्यक्तियों तक पहुँचे थे। किसी और स्थान की अपेक्षा, उन्होंने वह स्थान चुना था जो कलकत्ता की सड़कों के किनारे की गलियों जैसा था ।

एलेन और पीटर कीर्तन के लिए आए थे, किन्तु अभी समय नहीं हुआ था - प्रभुपाद नीचे नहीं उतरे थे। उन्होंने भक्तों को एक नया हारमोनियम भेंट किया। एलेन ने कहा, "यह कीर्तन के लिए है— एक छोटी-सी भेंट" एलेन स्टोरफ्रंट के प्रवेश-द्वार पर खड़े खड़े हयग्रीव से बात कर रहा था और उसे बता रहा था कि किस प्रकार वह संसार भर में कीर्तन करता रहा था - शान्ति - जुलूसों में, कवि-सम्मेलनों में, प्राग के एक जुलूस में मास्को के लेखक संघ के अवसर पर। " कीर्तन धर्मनिरपेक्ष तो है ही,” एलेन बोला,

एलेन बोला, “किन्तु हरे कृष्ण कीर्तन का तो कहना ही क्या !” उसी समय प्रभुपाद का प्रवेश हुआ । एलेन और

पीटर जन-समूह के साथ बैठ गए और कीर्तन में शामिल हुए। एलेन ने हारमोनियम

बजाया ।

एलेन : मुझे यह देख कर आश्चर्य हुआ कि प्रभुपाद कीर्तन लेकर आए हैं, क्योंकि यह भारत से आया बलवर्धन जैसा लगा। मैं चारों ओर घूम कर हरे कृष्ण कीर्तन करता रहा था किन्तु मेरी समझ में ठीक तरह से नहीं आया था कि मैं ऐसा क्यों कर रहा हूँ और इसका अर्थ क्या है। किन्तु मैं यह देख कर चकित था कि उनके कीर्तन का स्वर माधुर्य बिल्कुल भिन्न है। मैं समझता था कि मेरा राग ही सर्वोत्तम राग है, सार्वभौम राग है। मैं अपने इस राग से इतना अभ्यस्त हो गया था कि उनके साथ मेरा सबसे बड़ा अंतर इस राग को लेकर हुआ । मेरा राग मेरे मन में सालों से इस तरह जम कर बैठ

गया था कि उससे भिन्न कोई राग सुनना मेरे मन पर सचमुच गहरा प्रहार था ।

व्याख्यान के बाद एलेन, प्रभुपाद से मिलने के लिए, आगे बढ़ा जो अभी भी अपने मंच पर बैठे थे। एलेन ने हाथ जोड़ कर प्रणाम किया और प्रभुपाद के चरणों का स्पर्श किया, और प्रभुपाद ने सिर हिलाकर तथा हाथ जोड़ कर प्रत्युत्तर दिया। वे थोड़ी देर बात करते रहे और तब प्रभुपाद अपने कमरे में लौट गए। एलेन ने हयग्रीव से कहा कि वह फिर आएगा और प्रभुपाद से अधिक वार्ता करेगा। अतः हयग्रीव ने उसे अगले दिन आने के लिए आमंत्रित किया और कहा कि वह दोपहर का प्रसाद उनके साथ ग्रहण करे ।

“क्या तुम ऐसा नहीं सोचते कि स्वामीजी न्यू यार्क के लिए कुछ अधिक गूढ़ हैं ?" एलेन ने पूछा । हयग्रीव सोचता रहा। फिर उसने उत्तर दिया, “हो सकता है।'

तब हयग्रीव ने एलेन से स्वामीजी की सहायता करने को कहा, क्योंकि उनका वीजा ( प्रवेश-पत्र ) जल्दी ही समाप्त होने वाला था। वे इस देश में दो माह रुकने का वीजा लेकर आए थे और वे बार-बार दो-दो महीने की अवधि के लिए उसे बढ़वाते रहे थे। एक साल से ऐसा ही चल रहा था। पिछली बार उन्होंने अवधि बढ़ाने के लिए आवेदन पत्र दिया तो मनाही हो गई। हयग्रीव ने कहा, "हमें एक आव्रजन वकील की आवश्यकता है।" एलेन ने उसे विश्वास दिलाया, "मैं ऐसे वकील का व्यय वहन करूँगा । "

दूसरे दिन प्रातः काल एलेन गिन्सबर्ग एक चेक और एक अन्य हारमोनियम लेकर आया। उसने प्रभुपाद के ऊपरी कक्ष में हरे कृष्ण कीर्तन की अपनी धुन सुनाई और तब दोनों वार्तालाप करने लगे ।

एलेन : मैं उनसे थोड़ा शरमा रहा था, क्योंकि मैं नहीं जानता था कि वे कहाँ से आए हैं। मेरे पास वह हारमोनियम था जो मैं उन्हें भेंट करना चाहता था, और कुछ धन भी था। मैंने सोचा कि यह बहुत अच्छा है कि वे हरे कृष्ण

मंत्र की व्याख्या करने आए है क्योंकि इससे मेरे गायन का औचित्य सिद्ध होगा। मुझे मालूम था कि मैं क्या कर रहा हूँ किन्तु मेरे पास धर्मशास्त्रीय पृष्ठ - भूमि नहीं थी जिससे मैं अधिक जिज्ञासाओं को संतुष्ट कर सकता और अब एक व्यक्ति ऐसा आ गया है जो यह कर सकता था । इसलिए मैने सोचा कि यह तो बहुत अच्छा रहा। अब मैं घूम कर हरे कृष्ण का कीर्तन कर सकता हूँ और यदि कोई जानना चाहेगा कि इसका अर्थ क्या है तो मैं उसे स्वामीजी के पास समझने के लिए भेज दूँगा । यदि कोई प्राविधिक बारीकियों और पूरे इतिहास को जानना चाहेगा तो उसे भी मैं स्वामीजी के पास भेज दूँगा ।

स्वामीजी ने मुझे अपने गुरु महाराज और चैतन्य महाप्रभु के विषय में बताया और आरंभ से गुरु परम्परा का उल्लेख किया। उनके मन में अनेक बातें थीं और वे बातें भी थीं जो वे कर रहे थे। वे पहले से ही अनुवाद करते आ रहे थे। वे दिन और रातें वहीं बैठे-बैठे बिता रहे थे। और मैं समझता हूँ एक या दो लोग उनकी सहायता कर रहे थे ।

प्रभुपाद एलेन के प्रति अत्यन्त सहृदय थे। उन्होंने भगवद्गीता से वह प्रसंग उद्धृत किया जिसमें कृष्ण अर्जुन से कहते हैं कि महान पुरुष जो कुछ करते हैं अन्य लोग उसी का अनुसरण करेंगे। फिर उन्होंने एलेन से अनुरोध किया कि वह प्रत्येक अवसर पर हरे कृष्ण कीर्तन करता रहे जिससे अन्य लोग उसके उदाहरण का अनुगमन कर सकें। उन्होंने बताया कि किस प्रकार महाप्रभु चैतन्य ने, एक मुसलमान शासक के विरुद्ध, भारत में प्रथम नागरिक अवज्ञा आंदोलन का संगठन करके, संकीर्तन जुलूस निकाला था । सुनकर एलेन मुग्ध हो गया । स्वामीजी से बात करने में उसे अतीव आनंद आया ।

किन्तु उनके अपने मतभेद भी थे। जब एलेन ने एक विख्यात बंगाली धार्मिक पुरुष के प्रति अपनी प्रशंसा अभिव्यक्त की तो प्रभुपाद बोले- वह पाखंडी है। एलेन को धक्का लगा। उसने पहले कभी किसी स्वामी को दूसरे धार्मिक पुरुष की आलोचना करते नहीं सुना था। प्रभुपाद ने वैदिक साक्ष्य के आधार पर अपनी आलोचना के कारणों की व्याख्या की, और एलेन ने स्वीकार किया कि उसने अपने भोलेपन में मान लिया था कि सभी धार्मिक पुरुष शत-प्रतिशत

धार्मिक होते हैं । किन्तु उसने अब निर्णय कर लिया है कि वह किसी साधु को, जिसमें प्रभुपाद भी सम्मिलित थे, कोरे अंधविश्वास के आधार पर स्वीकार नहीं करेगा । उसने प्रभुपाद को अधिक कठोर और आलोचनात्मक भाव से देखने का निर्णय किया ।

एलेन : किसी को सम्मान देने में मैं बहुत कुछ अंधविश्वास से प्रेरित होता था, यह मेरी मूर्खता का परिणाम था । इसलिए स्वामीजी के उपदेश बहुत अच्छे रहे; उनसे मैंने लोगों को कसौटी पर परखना सीखा। मैने स्वामीजी को भी कसौटी पर परखा और केवल उनके नाम के कारण उनकी हर बात स्वीकार नहीं की ।

एलेन ने एक दिव्य झलक का वर्णन किया जिसमें विलियम ब्लेक उसके समक्ष ध्वनि के रूप में प्रकट हुए और जिसमें उसे सभी वस्तुओं के ऐक्य का आभास हुआ। वृंदावन के एक साधु ने एलेन से कहा था कि इसका मतलब यह है कि विलियम ब्लेक उसके गुरु थे। लेकिन प्रभुपाद को इसमें कोई तथ्य नहीं दिखाई दिया ।

एलेन : हम में चाहे जितने मतभेद रहे हों, किन्तु हम सब से परे, उनमें मिठास की गंध थी, ऐसी मिठास जो सम्पूर्ण भक्ति - जन्य निःस्वार्थता से उत्पन्न होती है। और मैं उसी से सदैव परास्त होता रहता था— मेरे मन में बौद्धिक प्रश्न चाहे जो रहे हों, संशय चाहे जो रहे हों और, यहाँ तक कि मेरे अहं से जन्मा पागलपन भी चाहे जैसा रहा हो । उनकी उपस्थिति में एक व्यक्तिगत सम्मोहन होता जो आत्म-समर्पण से उत्पन्न होता और जिससे हमारे मत-मतान्तर परास्त हो जाते । यद्यपि मैं हर बात में उनसे सहमत न होता, किन्तु मैं सदैव उनके साथ रहना पसन्द करता था ।

प्रभुपाद के अनुरोध पर एलेन सहमत हो गया कि वह अधिक कीर्तन करेगा और धूम्रपान छोड़ देगा ।

एलेन ने पूछा, “क्या आप सचमुच इन अमरीकी लड़कों को वैष्णव बनाना चाहते हैं ? "

“हाँ,” प्रभुपाद ने प्रसन्न होकर उत्तर दिया, " और मैं इन सब को ब्राह्मण बना दूँगा ।"

एलेन ने प्रभुपाद का वीजा बढ़वाने में होने वाले कानूनी खर्च के लिए दो सौ डालर का चेक दिया और उनके लिए सौभाग्य की कामना की । " ब्राह्मण ! " एलेन नहीं समझ पा रहा था कि इस तरह का कायाकल्प कैसे संभव हो सकता

था।

सितम्बर २३

यह भगवान् कृष्ण की शाश्वत पत्नी श्रीमती राधारानी के आविर्भाव का दिन राधाष्टमी था। प्रभुपाद ने दूसरे दीक्षा - समारोह का आयोजन किया । कीथ कीर्तनानन्द हो गया, स्टीव सत्स्वरूप हुआ, ब्रूस ब्रह्मानन्द बन गया और चक अच्युतानन्द हो गया । यह एक दूसरा महोत्सव दिवस था जिसके उपलक्ष्य में प्रभुपाद के सामने के कक्ष में एक अग्नि-यज्ञ हुआ और एक बड़े भोज का आयोजन किया गया ।

प्रभुपाद " नशा संस्कृति" के मध्य रह रहे थे, जहाँ पड़ोस के नवयुवक मादक दवाओं से या जो भी साधन प्राप्त था, उसके प्रयोग द्वारा अपनी चेतना को बदलने का दुस्साहसपूर्ण प्रयत्न कर रहे थे। प्रभुपाद ने उन्हें आश्वस्त किया कि हरे कृष्ण का जप करने से उन्हें वांछनीय उच्चतर चेतना सहज ही प्राप्त हो सकेगी। कृष्ण - चेतना की व्याख्या करते समय यह अनिवार्य था कि मादक द्रव्यों के सेवन के अनुभव का प्रसंग आए, भले ही यह दिखाने के लिए रहा हो कि दोनों परस्पर विरोधी मार्ग हैं। प्रभुपाद को पहले से ही विदित था कि भारतीय साधु अपने ध्यान में सहायता प्राप्त करने के लिए गांजा तथा चरस का सेवन करते हैं। और उनके भारत छोड़ने के पहले ही, दिल्ली की सड़कों में हिप्पी पर्यटकों की भीड़ दिखाई देना, आम बात हो गई थी ।

अपनी सांस्कृतिक अलौकिकता तथा मादक द्रव्यों की सुलभता के कारण, भारत हिप्पियों को रास आ रहा था। वे अपने भारतीय प्रतिरूपों से मिलते, जो उन्हें आश्वस्त करते कि चरस का सेवन आध्यात्मिक है और फिर अमेरिका लौट कर वे भारतीय आध्यात्मिक संस्कृति के बारे में भ्रांतियाँ फैलाते ।

अमेरिका में जीवन-शैली ऐसी ही थी । स्थानीय बड़ी-बड़ी दुकानों में सभी सामग्री मिल जाती – मारिजुआना, एल. एस. डी. पियोट, और कोकेन । और हेरोइन एवं बार्बी चुएट जैसे उग्र नशीले पदार्थ भी हर सड़क तथा पार्क में आसानी से खरीदे जा सकते थे । भूमिगत समाचार-पत्रों में नशीली दवाओं के महत्त्वपूर्ण

समाचार छपते, कैप्टन हाई शीर्षक से व्यंग्य - चित्र छपते और ऐसी क्रासवर्ड पहेलियाँ प्रकाशित होतीं जिन्हें अनुभवी "दिमाग" ही हल कर सकते थे ।

से

प्रभुपाद यही शिक्षा देते कि कृष्ण चेतना हिप्पियों की सम्मानित एल. एस. डी. की सैर की पहुँच के बाहर है। एक बार उन्होंने अपने स्टोरफ्रंट के श्रोताओं पूछा, "क्या तुम सोचते हो कि एल. एस. डी. के सेवन से भाव - समाधि और उच्चतर चेतना प्राप्त हो सकती है ? तब एल. एस. डी. से परिपूर्ण एक कमरे की कल्पना करो। कृष्ण-चेतना कुछ ऐसी ही है । ” लोक नियमित रूप से आते और स्वामीजी के शिष्यों से पूछते, “क्या तुम इसके द्वारा ऊँचे जाते हो ?" और भक्त उत्तर देते, "ओह, हाँ ! कीर्तन से ही तुम ऊँचे उठ सकते हो। क्यों नहीं करके देखते ?”

ब्रह्मानंद के भाई, ग्रेग स्कार्फ, ने एल. एस. डी. का प्रयोग नहीं किया था । किन्तु वह उच्चतर चेतना प्राप्त करना चाहता था, इसलिए उसने कीर्तन को परखने का निर्णय किया ।

ग्रेग: मैं अट्ठारह वर्ष का था। स्टोरफ्रंट के प्रत्येक व्यक्ति ने एल. एस. डी. का प्रयोग किया था, और मैने सोचा कि संभवतः मुझे भी करना होगा, क्योंकि मैं भी समूह का अंग बनना चाहता था । इसलिए मैने उमापति से पूछा, “सुनो उमापति, क्या तुम समझते हो कि मुझे एल. एस. डी. को आजमाना चाहिए, क्योंकि मैं नहीं जानता कि तुम लोग किस चीज के बारे में बात करते रहते हो । उसने कहा— नहीं, स्वामीजी ने कहा कि तुम्हें एल. एस. डी. की आवश्यकता नहीं है। मैंने इसका प्रयोग कभी भी नहीं किया । इसलिए मुझे लगता है कि यह ठीक रहा ।

हयग्रीव : क्या आप ने एल. एस. डी. के बारे में कभी सुना है ? यह मानस-तरंग पैदा करने वाली एक नशीली दवा है और गोली के रूप में आती है और यदि आप इसे लें तो आध्यात्मिक भाव-समाधि प्राप्त कर सकते हैं। क्या आप सोचते हैं कि इससे मेरे आध्यात्मिक जीवन में सहायता मिल सकती है ?

प्रभुपाद : तुम्हें अपने आध्यात्मिक जीवन के लिए कुछ लेने की आवश्यकता नहीं है। तुम्हारा आध्यात्मिक जीवन तुम्हें पहले से मिला है।

यदि किसी अन्य ने ऐसी बात कही होती तो हयग्रीव सहमत नहीं होता । लेकिन स्वामीजी इतने निश्चयात्मक थे कि “असहमत होने का कोई प्रश्न ही नहीं था । "

सत्स्वरूप :

मैं जानता था कि स्वामीजी उत्कृष्ट चेतना की अवस्था में थे और मैं आशा करता था कि किसी तरह वे मुझे यह विधि सिखा दें। उनके कमरे में एकान्त में मैने पूछा, “क्या कोई ऐसा आध्यात्मिक उत्कर्ष है जिसे प्राप्त करके उससे पतन की संभावना नहीं रहती ? उनके 'हाँ' उत्तर से मुझे विश्वास हो गया कि एल. एस. डी. द्वारा आध्यात्मिक बन कर फिर पतन के गर्त में गिरने का स्थान, स्वामीजी द्वारा प्राप्त आध्यात्मिक जीवन ले सकता है। मैने देखा कि स्वामीजी विश्वस्त थे, इसलिए मुझे भी विश्वास हो गया ।

ग्रेग : उस समय एल. एस. डी. ही आध्यात्मिक मादक द्रव्य था और स्वामीजी ही एक ऐसे व्यक्ति थे जो उसके विरुद्ध बोलने का साहस कर सकते थे और कहते कि यह मूर्खतापूर्ण बात है । मैं समझता हूँ कि लोअर ईस्ट साइड में अपने आन्दोलन को आगे बढ़ाने के लिए यह उनका पहला युद्ध था जिसे उन्हें जीतना था। जो लोग नियमित रूप से स्टोरफ्रंट आते थे, वे भी सोचते थे कि एल. एस. डी. अच्छा है।

संभवतः उन दिनों एल. एस. डी. के सम्बन्ध में सबसे महत्त्वपूर्ण प्रयोग टिमोथी लियरी और रिचर्ड एलपर्ट नामक हार्वर्ड के दो मनोविज्ञान के शिक्षकों ने किए थे और प्राप्त परिणामों को व्यवसायी पत्रिकाओं में प्रकाशित करते हुए प्रतिपादन किया था कि आत्म-साक्षात्कार तथा आत्मोपलब्धि के लिए एल. एस. डी. का सेवन किया जा सकता है। हार्वर्ड से नौकरी से निकाले जाने पर, टिमोथी लियरी एल. एस. डी. का राष्ट्रीय पादरी बन गया था । और न्यू यार्क के मिलब्रुक में कुछ काल तक एल. एस. डी. संगठन चलाता रहा था ।

जब मिलबुक संगठन के सदस्यों ने लोअर ईस्ट साइड के इन स्वामीजी के विषय में सुना जो अपने अनुयायियों को कीर्तन के द्वारा ऊँचे ले जाते थे, तो वे स्टोरफ्रंट में आने लगे। एक रात मिलब्रुक के दस हिप्पियों का एक दल स्वामीजी के कीर्तन में आया। वे सभी कीर्तन करते रहे। कृष्ण की पूजा के लिए उतना नहीं जितना यह देखने के लिए कि कीर्तन कितना ऊँचा ले जाता है। और कीर्तन के बाद मिलब्रुक के एक नेता ने नशीले पदार्थों के बारे में पूछा। प्रभुपाद ने उत्तर दिया कि आध्यात्मिक जीवन के लिए नशीले पदार्थ आवश्यक नहीं; उनसे आध्यात्मिक चेतना उत्पन्न नहीं हो सकती और नशीले पदार्थों से प्रेरित जितनी भी आध्यात्मिक झलकियाँ हैं वे केवल व्यामोह हैं। ईश्वर का साक्षात्कार इतना सरल नहीं है कि केवल एक गोली खाने या

धूम्रपान करने से प्राप्त किया जा सके। उन्होंने बताया कि हरे कृष्ण का जप शुद्ध चेतना के उद्घाटन की विशुद्धिकरण विधि है । मादक द्रव्यों के सेवन में आवरण बढ़ेगा और आत्म-साक्षात्कार में बाधा पहुँचेगी।

किसी ने प्रश्न किया, " किन्तु क्या आपने कभी एल. एस. डी. का सेवन किया

है ?" यह प्रश्न चुनौती बन गया ।

प्रभुपाद ने उत्तर दिया, "नहीं, मैंने इनमें से किसी भी द्रव्य का कभी भी सेवन नहीं किया, सिगरेट या चाय तक का भी नहीं ।"

"यदि आपने सेवन नहीं किया तो आप कैसे कह सकते हैं कि ये चीजें कैसी हैं ?" यह कह कर मिलब्रुक का दल हँसने लगा और बंगले झाँकने लगा । दो-तीन तो ठहाका मार कर हँस पड़े और यह सोच कर कि स्वामीजी मात खा गए, अपनी अंगुलियाँ चटकाने लगे ।

स्वामीजी ने अपने मंच से अत्यंत राजसी ढंग से उत्तर दिया, "मैंने सेवन नहीं किया, किन्तु मेरे शिष्यों ने मारिजुआना, एल. एस. डी. आदि मादक द्रव्यों का बार - बार सेवन किया है और अब उन्होंने उनका परित्याग कर दिया है। आप लोग उनसे मालूम कर सकते हैं। हयग्रीव तुम बताओ ।" और हयग्रीव कुछ तन कर बैठ गया और अपनी ऊँची आवाज में जितना अच्छा बोल सकता था, बोला ।

" आप एल. एस. डी. से कितने ही ऊँचे क्यों न चले जायँ, उसकी एक सीमा है । उसके बाद आप को नीचे उतरना ही है — जिस तरह राकेट द्वारा अंतरिक्ष में यात्रा करते समय होता है । ( उसने स्वामीजी का यह सुपरिचित उदाहरण दिया ) आपका यान दिन-प्रतिदिन यात्रा करता हुआ पृथ्वी से हजारों-हजारों मील दूरी पर जा सकता है, किन्तु वह निरन्तर यात्रा नहीं कर सकता । अन्ततः उसे पृथ्वी पर उतरना होता है। एल. एस. डी. सेवन से हमें ऊपर जाने का अनुभव होता है, किन्तु हमें फिर नीचे आना ही होता है। यह कोई आध्यात्मिक चेतना नहीं है। वास्तविक रूप में आध्यात्मिक या कृष्ण - चेतना प्राप्त हो जाने पर आप ऊँचाई पर ही रहते हैं। आप कृष्ण के पास पहुँच जाते हैं, इसलिए आप को नीचे नहीं आना पड़ता। आप सदा के लिए ऊपर रह सकते हैं। "

हुए

प्रभुपाद हयग्रीव और उमापति के साथ अपने अंदर वाले कमरे में बैठे थे। संध्याकालीन बैठक अभी-अभी समाप्त हुई थी और मिलब्रुक से आए लोग चले जा चुके थे । उमापति बोला, “स्वामीजी, कृष्ण - चेतना कितनी बढ़िया है

कि हम ऊपर से और ऊपर उठते जाते हैं और नीचे नहीं आना होता । "

प्रभुपाद मुसकराए, “हाँ, ऐसा ही है । "

उमापति हँसते हुए बोला, “फिर नीचे नहीं आना है।” तो अन्य लोग भी हँसने लगे। कुछ ने तालियाँ बजाईं और दुहराया, "फिर नीचे नहीं आना है। "

इस वार्ता से प्रोत्साहित होकर हयग्रीव तथा उमापति ने एक विज्ञापन बनाया :

सदा सदा के लिए ऊपर रहें

फिर नीचे आना नहीं

कृष्ण - चेतना का अभ्यास करें

दिव्य शब्द ध्वनि के अभ्यास से

अपनी चेतना का विस्तार करें

हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे । ।

हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे ।।

यह विज्ञापन कृष्ण - चेतना को और भी ऊँचे ले चला। इसमें ऐसे वाक्यांश " नीचे आना बंद" तथा " आगे ही आगे”। इसमें आत्म-साक्षात्कार तथा प्रसारित चेतना की कृत्रिम विधियों को प्रयोग में लाने का विरोध किया गया था। किसी ने विरोध किया कि विज्ञापन में हिप्पी मानसिकता को “बहुत अधिक उधेड़ा गया था, " किन्तु स्वामीजी ने कहा- नहीं, यह ठीक है।

ग्रेग : जब लोअर ईस्ट साइड के ये मादक द्रव्य सेवन करने वाले लोग आते और स्वामीजी से बात करते, तो प्रभुपाद बड़े धैर्य से उनकी बात सुनते । वे ऐसे जीवन-दर्शन के व्याख्याता थे जिनके बारे में उन लोगों ने पहले कभी सुना ही नहीं था। जब कोई एल. एस. डी. का सेवन करता है तो वह अपने में खो जाता है और जब कोई उससे बात करता है तो वह ठीक तरह से सुनता ही नहीं । अस्तु, स्वामीजी कोई विशेष बात कहते और वे उसे समझ न पाते। इसलिए उन्हें वही बात फिर-फिर कहनी पड़ती। उनका इन लोगों के साथ व्यवहार बहुत धैर्यपूर्ण होता, किन्तु वे उनके इस दावे को कभी न स्वीकार करते कि एल. एस. डी. आत्मोपलब्धि में वास्तव में सहायक हो सकती है।

अक्तूबर १९६६

टाम्पकिन्स स्क्वायर पार्क लोअर ईस्ट साइड का पार्क था । इसके दक्षिण में सेवेंथ स्ट्रीट थी जिसमें भूरे रंग के पत्थरों से बनी चार-पाँच मंजिली इमारतें खड़ी थीं। उत्तर में टेंथ स्ट्रीट थी जिसमें अधिक अच्छी हालत वाली भूरे पत्थर से बनी हवेलियाँ थीं। इसी में अत्यन्त पुरानी वह छोटी-सी इमारत भी थी जिसमें न्यू यार्क सार्वजनिक पुस्तकालय की टाम्पकिन्स स्क्वायर शाखा थी । पार्क के पूर्वी छोर पर, एवेन्यु बी पर, १८४८ ई. में निर्मित सेंट ब्रिगिड का गिरजाघर था, जबकि सारा पड़ोस आयरिश मूल का था। इस ब्लाक का अधिकांश भाग अब भी गिरजाघर, स्कूल तथा रेक्टर निवास से घिरा था। पार्क के पच्छिमी छोर पर एवन्यू ए था जिसमें छोटे-छोटे पुराने केण्डी स्टोर थे जिनमें समाचार पत्र, पत्रिकाएँ, सिगरेट तथा अंडा - क्रीम, और सोडा की बिक्री चलती थी। साथ ही कुछ मदिरालय, अनेक पंसारी की दुकानें तथा कई स्लविक रेस्टोरेंट थे जिनमें सस्ते शाकारी सूप मिलते थे जिनसे आकृष्ट होकर यूक्रेनवासी तथा हिप्पी पौष्टिक भोजन पाने के लिए वहाँ एकत्र होते थे ।

दस एकड़ में फैले इस पार्क में अनेक ऊँचे-ऊँचे वृक्ष थे, लेकिन इसका कम-से-कम आधा हिस्सा खड़ंजा से ढका हुआ था । पगडंडियों के किनारे-किनारे घास की सुरक्षा के लिए पाँच फुट ऊँची भारी पिटवें लोहे की बाड़ थी । बाड़ों, अनेक पगडंडियों तथा प्रवेश द्वारों के कारण, यह पार्क भूल-भुलैया जैसा लगता था ।

मौसम अभी गरम था और रविवार का दिन था । अतः पार्क लोगों से भरा था । पगडंडियों के किनारे रखी बेंचों का लगभग सारा स्थान लोगों से घिरा था। वहाँ बैठे वृद्धजनों में अधिकांश यूक्रेनवासी थे जो इस गर्म मौसम में भी पुराने फैशन के सूट तथा स्वेटर पहने थे और अपने अपने जातीय दलों में बैठे हुए बातें कर रहे थे। पार्क में अनेक बच्चे भी थे, जिनमें अधिकतर पोर्टोरिकोवासी और काले थे, किन्तु साथ-साथ भूरे बालों और सख्त चेहरे वाले, झुग्गी-झोपड़ियों में रहने वालों के बच्चे भी थे जो साइकिलों पर दौड़ लगा रहे थे या गेंद और फ्रिसबी से खेल रहे थे। बास्केटबाल और हैंडबाल के कोर्टों पर किशोरों ने कब्जा कर रखा था । और जैसा कि हमेशा होता है, बहुत सारे बंधन मुक्त खुले कुत्ते भी दौड़-भाग रहे थे।

चार खम्भों पर निर्मित संगमरमर का एक छत्त वाला प्याऊ प्राचीन दिनों की— लेख के अनुसार १८९१ ई. – की याद दिला रहा था। इसकी चारों ओर की दीवारों पर लिखा था आशा, विश्वास, दान तथा संयम । लेकिन किसी ने पूरी संरचना पर काली स्याही पोत कर भद्दी तस्वीरें बना दी थीं, अस्पष्ट नाम लिख कर संक्षिप्त हस्ताक्षर कर रखे थे। आज एक बेंच को कई कोंगा और बोंगो ढोल वादकों ने घेर लिया था और समूचा पार्क उनकी ध्यानाकर्षक संगीत - लहरियों से आंदोलित हो रहा था।

और वहाँ पर, सबसे सर्वथा अलग, थे हिप्पी लोग । दाढ़ी रखे बंजारे

पुरुष

और लम्बे केशों वाली उनकी तरुण प्रेमिकाएँ अपनी पुरानी नीली जीन्स पहने असामान्य दृश्य उपस्थित कर रही थीं। लोअर ईस्ट साइड जैसी बहुजातीय जमात में भी उनकी उपस्थिति तनाव पैदा करती थी । वे मध्यवर्गीय परिवारों के थे, अतः यह नहीं कहा जा सकता था कि आर्थिक अभाव के कारण वे गंदी बस्ती में आए थे। इससे अधिकार- विहीन प्रवासियों के साथ उनके व्यवहार से संघर्ष उत्पन्न होते थे। और हिप्पियों का आध्यात्मिक दवाओं के प्रति सुविदित झुकाव, अपने परिवारों और धनाढ्यता के प्रति उनका विद्रोह और अग्रव्यूह में उनका विलयन, उनके पड़ोसियों के बीच उन्हें अल्पसंख्यक वर्ग के रूप में उपहास का पात्र बनाती थी । किन्तु हिप्पी लोग अपने मन की करना चाहते थे और "प्रेम और शान्ति” के लिए अपनी क्रान्ति को जन्म देना चाहते थे। इसलिए, यद्यपि लोग उन्हें पसंद नहीं करते थे, किन्तु वे उन्हें सह लेते थे ।

टाम्पकिन्स स्क्वायर पार्क में नवयुवकों तथा हिप्पियों के कई दल थे । ऐसे-ऐसे मित्र थे जो एकसाथ एक ही स्कूल में गए थे, एकसाथ एक ही मादक द्रव्य का सेवन करते थे, या कला, साहित्य, राजनीति या तत्त्वमीमांसा के किसी एक दर्शन के बारे में एकमत थे। वहाँ प्रेमीजन भी थे। ऐसे दल भी थे जिनके एकसाथ वहाँ चक्कर लगाते रहने का कारण जानना मुश्किल था, सिवाय इस एक कारण के कि मनमानी करने के उनके उद्देश्य में समानता थी । अन्य लोग भी वहाँ थे जो साधुओं की तरह रहते थे। कोई पार्क की किसी बेंच पर एकाकी बैठा रहता, वह कोकेन के प्रभावों का विश्लेषण करता हुआ, पेड़ों की हरी पत्तियों को अजीब तरह से निहारता रहता । उसकी दृष्टि इमारतों के ऊपर नीले आकाश पर जाती और तब पैरों के नीचे फैले कूड़े-कचरे पर। इस बीच उसका मन कभी प्रकाश के भय

से त्रस्त होता, कभी व्यामोह के प्रति घृणा से से वहाँ भटकता रहता जब तक कि अंत में

भरता और इस तरह यहाँ उसका नशा न उतर जाता और वह फिर एक सामान्य अनजान व्यक्ति न बन जाता । कभी कभी कुछ लोग सारी रात पार्क में फैल कर बैठे रहते, जब तक कि सवेरे का प्रकाश न फूटने लगता और वे बेंचों पर फैल कर सो जाते ।

हिप्पी लोग विशेषकर रविवार के दिन पार्क में जरूर आते। कम-से-कम वे पार्क में से होकर जरूर गुजरते — चाहे वे सेंट मार्कस् प्लेस, ग्रीनविच विलेज या एस्टर प्लेस स्थित लेक्सिंटन एवन्यू भूमितल ट्रेन के लिए जा रहे होते, या ह्यूस्टन और सेकंड एवन्यू स्थित आई. एन. डी. भूमितल ट्रेन के मार्ग में होते, या फर्स्ट एवन्यू से कोई अपटाउन बस पकड़ने जा रहे होते, अथवा सेकंड एवन्यू से डाउनटाउन बस के वास्ते जा रहे होते, या नाइंथ एवन्यू से नगर पार जाने वाली कोई बस पकड़ने जाते होते । या केवल अपने कमरों को कुछ समय के लिए छोड़ देने और खुली हवा में साथ बैठने के लिए वे पार्क में आते - जिससे वे फिर “ऊँचे” उठें, आपस में बातें करें या पार्क की भूल-भुलैया में चहलकदमी करें।

किन्तु इन हिप्पियों की चाहे जो भी रुचियाँ और प्रेरणाएँ रही हों, लोअर ईस्ट साइड उनकी रहस्यवादिता का अनिवार्य अंग था। यह मात्र गंदी बस्ती न था, वरन् चेतना में प्रयोग के लिए यह संसार का सर्वोत्तम स्थान था । अपनी सारी गंदगी, तथा हिंसा की आशंका एवं भूरे पत्थरों की इमारतों में बंद जीवन के बावजूद, लोअर ईस्ट साइड मानसिक प्रसार में क्रान्ति के लिए अब भी सबसे आगे था। जब तक कोई वहाँ रहता न हो और आध्यात्मिक यात्राएँ कराने वाली किसी नशीली दवा अथवा मारिजुआना का सेवन न करता हो या कम-से-कम मुक्त निजी धर्म की खोज का बौद्धिक अनुसरण न करता हो, तब तक वह प्रबुद्ध नहीं माना जाता था और मानव चेतना के सबसे प्रगतिशील विकास में सहयोगी नहीं समझा जाता था । और यही खोज की प्रवृत्ति —– जो सामान्य भौतिकतावादी 'ठेठ' अमेरिकन के नीरस जीवन के परे की वस्तु थी— लोअर ईस्ट साइड के हिप्पियों के अन्यथा संकलनवादी जमघट में एकता उत्पन्न करती थी ।

ऐसे ही अस्तव्यस्त जमघट के बीच स्वामीजी अपने अनुयायियों के साथ प्रकट हुए और कीर्तन करने बैठ गए। उनके तीन-चार भक्त, पहले ही पहुँच गए थे। उन्होंने पार्क के एक खुले भाग को चुना और वहाँ राबर्ट नेल्सन

द्वारा दान दिए हुए प्राच्य गलीचे को बिछा दिया। उस पर बैठ कर वे करतालें बजाने और हरे कृष्ण कीर्तन करने लगे । तुरन्त कुछ लड़के अपनी-अपनी साइकिलों से पहुँच गए। वे गलीचे के बिल्कुल पास रुके, अपनी साइकिलों से सटे वे खड़े हुए और उत्सुकता तथा निरादर की भावना से घूरते रहे; अन्य राही भी सुनने के लिए जुटने लगे ।

तभी स्वामीजी अपने आधा दर्जन शिष्यों के साथ स्टोरफ्रंट से चल कर आठ ब्लाक तक पैदल जा रहे थे । ब्रह्मानन्द हारमोनियम और स्वामीजी की ढोलक लिए था । कीर्तनानन्द, जिसने स्वामीजी के अनुरोध पर अपना सिर मुंड़ा दिया था और ढीले-ढाले गहरे पीले रंग के कपड़े पहने थे, अतिरिक्त सनसनी पैदा कर रहा था। ड्राइवरों ने उसे देखने के लिए, अपनी कारें आगे कर लीं, कारों में सवार लोग आगे झुक गए और इस अमर्यादित वेश तथा मुंड़े सिर को देख कर भौंचक्के रह गए। जब स्वामीजी का यह दल किसी स्टोर के सामने से निकलता तो अंदर के लोग एक-दूसरे को ढकेलना और इस दृश्य की ओर संकेत करते। लोग अपने घरों की खिड़कियों के पास आ जाते और स्वामीजी तथा उनके दल को इस तरह देखते मानो कोई शोभा यात्रा निकल रही हो । विशेष कर पोर्टोरिको के छोकरे तो अतिरंजित प्रतिक्रिया से अपने को रोक नहीं पा रहे थे। वे व्यंग्य करते, "देखो, इस बौद्ध को । अरे, तुम अपना पाजामा बदलना भूल गए।" वे कर्णभेदी चीत्कार करने लगते, मानो वे किसी भारतीय युद्ध की धमाचौकड़ी का अनुकरण कर रहे हों, जिसे उन्होंने हालीवुड के चलचित्र में देखा था ।

एक विघ्नकर्ता, जिसने समझा कि वे लोग कोई प्राच्य नृत्य कर रहे हैं, उसकी नकल करते हुए जोर से चिल्लाया, “अरे अरबवासियो !” सड़क पर चलने वालों में से किसी को भी न तो कृष्ण-चेतना के और न ही हिन्दू - संस्कृति और रीति-रिवाजों के बारे में कोई जानकारी थी। उनके लिए स्वामीजी का यह दल मात्र सिरफिरे हिप्पियों का एक दल था जो आत्म-प्रदर्शन कर रहा था । किन्तु उन्हें मालूम नहीं था कि स्वामीजी क्या हैं। वे हिप्पियों से सर्वथा अलग थे। कुछ भी हो, उन्हें संदेह जरूर था । जैसे, इरविन हालपर्न को, जो लोअर ईस्ट साइड का पुराना निवासी था, इस अजनबी के प्रति सहानुभूति हुई, जो “प्रत्यक्षतः शान्तिपूर्ण मिशन पर आया एक प्रतिष्ठित व्यक्ति" प्रतीत हो रहा था ।

इरविन हालपर्न : बहुत सारे लोगों ने स्वामी के सम्बन्ध में अजीब-अजीब

धारणाएँ बना रखी थीं। मानो वे अभी अभी लोगों को कीलों की छोटी चटाइयों पर लेटे हुए देखने जा रहे हों । — इस तरह की और अनेक भ्रांत मूर्खतापूर्ण धारणाएँ लोगों के मनों में थीं। लेकिन यहाँ तो विरोधी लोगों के मध्य एक ऐसा पुरुष प्रकट हुआ था जो बहुत सौम्य, शान्त, शिष्ट और पूर्णतः सदाशयता से भरा था।

"हिप्पी हैं !"

" वे कौन हैं ? क्या कम्यूनिस्ट हैं ? "

जबकि युवक चिढ़ा रहे थे, अधेड़ तथा बूढ़े उत्साहहीन लोग, न समझते हुए कि यह सब क्या है, या तो सिर हिला रहे थे या घूर रहे थे। पार्क तक का रास्ता निन्दात्मक कटूक्तियों, गंदे मजाकों और तनावों से पूर्ण था । किन्तु कोई हिंसा नहीं हुई। वाशिंगटन स्क्वायर पार्क में सफल कीर्तन के बाद स्वामीजी अपने तीन या चार शिष्यों की शोभा यात्रा नियमित रूप से भेजते रहे थे। वे कीर्तन करते, मंजीरे बजाते लोअर ईस्ट साइड की सड़कों और फुटपाथों पर घूमा करते थे। एक अवसर पर उन पर पानी के गुब्बारों और अंडों की गोलाबारी की गई थी। कभी-कभी मल्लयुद्ध के लिए तत्पर गुंडों से भी सामना हो जाता था। लेकिन उन पर कभी आक्रमण नहीं हुआ — लोग केवल उन्हें घूरते, उन पर हँसते या उनके पीछे शोर मचाते ।

आज, विभिन्न जातीय पड़ोसियों ने यह मान लिया था कि प्रभुपाद और उनके अनुयायी इस तरह गँवारों जैसी वेशभूषा में केवल मजाक के लिए सड़कों पर निकल आए हैं, जिससे सब कुछ अस्तव्यस्त हो जाय और लोग उन्हें देख कर घूरें और शोर मचाएँ। उन्हें लगा कि उनके प्रति लोगों की जो प्रतिक्रियायें थीं वे झुग्गी-झोपड़ी में रहने वाले किसी भी सामान्य और सम्मानित अमेरिकन के लिए स्वाभाविक थीं ।

अतः स्वामीजी के दल के पार्क तक पहुँचने के पूर्व ही उसके लिए यह एक बड़े साहस का कार्य बन गया था । किन्तु स्वामीजी अप्रभावित बने रहे। उन्होंने एक या दो बार पूछा कि, " वे क्या कह रहे हैं ?” ब्रह्मानंद ने उन्हें सब बात बताई। प्रभुपाद अपने ढंग से सिर ऊँचा उठाए और ठोढ़ी ऊपर किए आगे बढ़ते जा रहे थे। इससे वे अभिजात और दृढ़ निश्चय लग रहे थे। उनकी दृष्टि आध्यात्मिक थी – वे प्रत्येक व्यक्ति को आध्यात्मिक जीवात्मा और कृष्ण को हर वस्तु का नियामक मान रहे थे। इसके अतिरिक्त, सांसारिक दृष्टि से भी नगर के शोरगुल से वे भयभीत नहीं थे। आखिरकार,

वे एक अनुभवी 'कलकत्तिया' थे।

कीर्तन लगभग दस मिनट से चल रहा था, जब स्वामीजी पार्क में पहुँचे । उन्होंने अपनी रबर की सफेद चप्पलें उतार दीं मानो वे घर में स्थित मंदिर में आए हों। अपने अनुयायियों के साथ वे गलीचे पर बैठ गए। इस बीच उनके शिष्य कीर्तन बंद कर उन्हें देखने में लग गए थे। प्रभुपाद गुलाबी स्वेटर पहने थे और उन्होंने गले में खादी की चादर लपेट रखी थी। वे मुसकराए। अपने दल पर दृष्टि डालते हुए उन्होंने ताल दी – एक - दो-तीन । तब एक-दो-तीन की गिनती जारी रखते हुए वे जोर से तालियाँ बजाने लगे। फिर करतालें बजने लगीं। पहले संगत ठीक नहीं हो रही थी किन्तु उन्होंने अपनी तालियों से लय बनाए रखी। तब शिष्यों ने तालियों तथा मंजीरों की ताल से मंद, स्थिर गति प्राप्त कर ली ।

वे ऐसी प्रार्थना गाने लगे जिसे अन्य कोई नहीं जानता था । वंदेऽहं श्रीगुरोः श्रीयुतपदकमलं श्रीगुरून् वैष्णावांश्च । उनकी वाणी हारमोनियम के समान मधुर थी और बंगला ताल के सूक्ष्म अंतर से समृद्ध । एक विशाल ओक वृक्ष के नीचे गलीचे पर बैठ कर उन्होंने रहस्यमयी संस्कृत प्रार्थना गायी । उनके अनुयायियों को हरे कृष्ण मंत्र के अतिरिक्त और कोई मंत्र ज्ञात नहीं था, किन्तु वे स्वामीजी को जानते थे । वे ध्यानपूवर्क उन्हें सुन कर लय बनाए हुए थे जबकि सड़कों पर ट्रक गड़गड़ा रहे थे और दूर पर कोंगा ढोल बज रहे थे।

ज्योंही उन्होंने — श्रीरूपं साग्रजातम् — सुनाया कि कुत्ते पास आ गए; बच्चे घूरने लगे; कुछ नकलची उंगलियाँ उठाने लगे : “अरे, वह कौन पुजारी है ?” किन्तु उनकी वाणी संघर्षशील द्वैतता से परे थी । उनके शिष्य मंजीरे बजाते रहे और वे अकेले गाते रहे—– श्रीराधा-कृष्ण-पादान् ।

प्रभुपाद ने गोपियों की प्रिय श्रीमती राधारानी के कृष्ण के प्रति विशुद्ध दाम्पत्य-प्रेम का अभिनन्दन करते हुए, स्तुति गान किया। प्रत्येक शब्द, जो कृष्ण के अंतरंग पार्षदों द्वारा हजारों वर्षों से संक्रमित होता आया था, गंभीर दिव्य अर्थ से सराबोर था जिसे केवल वही समझते थे । — सहगणललिता-श्रीविशाखांवितांश्च । प्रभुपाद के शिष्य प्रतीक्षा में थे कि वे हरे कृष्ण आरंभ करें यद्यपि उन्हें स्तुतिगान करते हुए सुनना बहुत रोमहर्षक

था।

और लोग आने लगे — प्रभुपाद यही तो चाहते थे। वे चाहते थे कि

लोग उनके साथ कीर्तन करें और नाचें और अब उनके अनुयायी भी यही चाहने लगे थे। वे प्रभुपाद के साथ बने रहना चाहते थे । उन लोगों ने संयुक्त राष्ट्र मुख्यालय, आनंद आश्रम और वाशिंगटन स्क्वायर में उनके साथ कीर्तन किया था। ऐसा लगता था कि स्वामीजी के साथ वे हमेशा यही चीज करेंगे — उनके साथ कहीं जायँगे, बैठेंगे और कीर्तन करेंगे। स्वामीजी भी अपने शिष्यों के साथ कीर्तन करते हुए सदैव बने रहेंगे ।

तब उन्होंने मंत्र आरंभ किया— हरे कृष्ण, हरे कृष्ण, कृष्ण कृष्ण, हरे हरे / हरे राम, हरे राम, राम राम, हरे हरे। प्रारंभ में शिष्यों ने मंद और अस्पष्ट भाव से उनका अनुगमन किया। किन्तु स्वामीजी ने फिर दुहराया — शुद्ध और विजयोल्लसित ढंग से शिष्यों ने पुनः उनका अनुगमन किया— साहस से भर कर मंजीरे और तालियां बजाते हुए — एक-दो-तीन, एक - दो-तीन । तब स्वामीजी ने मंत्र को एक बार फिर अकेले ही गाया। उनके शिष्य रुके रहे, उनके प्रत्येक शब्द पर एकाग्रचित्त होकर वे तालियाँ और करताल बजाते रहे। वे देखते रहे कि किस प्रकार स्वामीजी वृद्धावस्था की प्रज्ञा और भक्ति से जन्य अपने आभ्यंतरिक ध्यान से अपने शिष्यों की ओर देख रहे हैं। और स्वामीजी के प्रति प्रेम से वशीभूत होकर, वे अपने परिवेश से नाता तोड़ कर, कीर्तन मण्डली के रूप में उनके साथ हो लिए। स्वामीजी बाएँ हाथ से मृदंग का पट्टा पकड़े, उसे अपने शरीर से सटाए, दाएँ हाथ से उसे बजाते हुए, गूढ़ ताल निकाल रहे थे ।

हरे कृष्ण, हरे कृष्ण, कृष्ण कृष्ण, हरे हरे / हरे राम, हरे राम, राम राम, हरे हरे । — गाते हुए आधा घंटा बीत गया, फिर भी स्वामीजी प्रखरतापूर्वक गाते रहे। वे मंत्र को बार-बार दुहरा रहे थे, कीर्तन मण्डली उनका साथ दे रही थी, और अभिरुचि रखने वाले दर्शकों की भीड़ में निरन्तर वृद्धि होती जा रही थी । कुछ हिप्पी गलीचे के सिरे पर, पालथी मार कर बैठने का अनुकरण करते हुए, ध्यान से सुनते हुए, तालियाँ बजाते हुए, कीर्तन करने का प्रयत्न करते हुए, बैठ गए और अधिकाधिक लोगों के सम्मिलित होने के साथ, प्रभुपाद की अंतरंग मण्डली और उनके अनुयायियों में वृद्धि होती गयी।

सदैव की भाँति उनके कीर्तन ने संगीतज्ञों को भी आकृष्ट किया ।

इरविन हालपर्न: मैं बाँसुरी बनाता हूँ और वाद्य यंत्र बजाता हूँ। मैं तरह-तरह के वाद्य यंत्र बनाता हूँ। जब स्वामीजी आए तो मैं उनके पास गया और

वाद्य यंत्र बजाने लगा। स्वामीजी ने मेरा स्वागत किया। जब भी कोई नया संगीतज्ञ आता और अपना पहला गाना सुनाता तो स्वामीजी अपनी बाहें फैला देते। ऐसा प्रतीत होता मानो वे मंच पर चढ़ गए हैं और न्यू यार्क फिलहारमोनिक का नेतृत्व करने जा रहे हैं। मेरे कहने का तात्पर्य यह है कि हर संगीतज्ञ को स्वामीजी की इस भावभंगिमा का पता था। आप को जरूर मालूम हो जाता है, जब कोई चाहता है कि आप उसके साथ गाएँ - बजाएँ और आपके उसके साथ गाने-बजाने में उसे प्रसन्नता हो रही हो। और संगीतज्ञों की इस आधारभूत संप्रेषण की विशेषता प्रभुपाद में थी और मैंने तुरन्त अपने को उससे सम्बद्ध पाया । और इसमें मुझे प्रसन्नता थी ।

पार्क के विभिन्न भागों में इक्के-दुक्के गवैये घूमा करते थे और जब उन्होंने सुना कि वे प्रभुपाद के कीर्तन के साथ गा-बजा सकते थे और प्रभुपाद उनका स्वागत करते थे, तो एक-एक करके वे आने लगे। एक सैक्सोफोन बजाने वाला केवल इसलिए आया कि वहाँ एक शक्तिशाली ताल और लय निकालने वाला वर्ग था । इरविन हालपर्न की तरह के अन्य लोग इसे अच्छी ध्वनि वाली कोई आध्यात्मिक चीज मानते थे । गवैयों के सम्मिलित हो जाने से कीतर्न में इधर-उधर से राहगीर भी आने लगे। प्रभुपाद टेक और वृंद गान दोनों गाते आ रहे थे, और अब जो लोग सम्मिलित हुए उनमें से बहुत-से टेक गाने लगे थे; इससे मंत्र का निरन्तर वृंद गान चलने लगा। तीसरे पहर जन-समूह बढ़ कर सौ तक पहुँच गया। उसमें एक दर्जन लोग ऐसे थे जो अपने कोंगा के साथ, बोंगो ढोलों, बाँस की वंशियों, धातु की बाँसुरियों, मुँह के बाजों, काठ तथा धातु के खटखटों, तंबुरों या गिटारों को बजाते हुए प्रभुपाद का साथ देने की कोशिश करने लगे ।

इरविन हालपर्न: पार्क प्रतिध्वनित हो रहा था। गवैये मंत्रों को बहुत सावधानीपूर्वक सुनते थे। जब स्वामीजी हरे कृष्ण, हरे कृष्ण, कृष्ण कृष्ण, हरे हरे / हरे राम, हरे राम, राम राम, हरे हरे— गाते थे तो कभी कभी दो अक्षरों वाला कृष्ण तीन अक्षरों वाले कृ ष ण जैसा सुनाई पड़ जाता था । प्रायः यह पहले पद में होता था और गवैये उसी को पकड़ लेते थे। स्वामीजी एक विशिष्ट ढंग से उसका उच्चारण करते थे और गवैये बहुत ही सावधानीपूर्वक स्वामीजी के उस ढंग को सुनते थे। और हम ऐसा अनुभव करने लगे कि उसी एक संक्षिप्त वाक्य को स्वामीजी विभिन्न लयों में गा रहे थे। किन्तु हम उसी नियमित लय का ख्याल करने लगे, जैसे कोई

समूहवादन के संचालक या प्रेम-गीत के मुख्य गायक को ध्यान में रखता है । यह सचमुच बहुत आनंदप्रद था और लोग एक-दूसरे को कुहनियां मार कर कहते — “आह, देखो ।” हम लोग किसी संस्कृत वाक्यांश के विशिष्ट सूक्ष्म उच्चारण को पकड़ लेते और दुहराते थे, जिसे जन-समूह संभवत: नाचने और गाने के उत्साह में ग्रहण करने में चूक जाता था। या कभी-कभी स्वामीजी एक अतिरिक्त ताल जोड़ देते थे, ठीक उसी तरह जैसे मुख्य ढोलकिया जो इस समय स्वामीजी स्वयं थे, ढोल पर एक अतिरिक्त थाप दे देता है। लेकिन हर बार इसका कुछ अर्थ होता था ।

मैंने कुछ संगीत - विशारदों से इस विषय में बात की है और हम इस बात पर सहमत हैं कि इस स्वामीजी के मस्तिष्क में सैंकड़ों राग होंगे जो वे संसार के दूसरे सिरे से सच्ची साधना द्वारा सीख कर लाए हैं। इतने सारे लोग वहाँ केवल धर्म के अभिप्रेषण को अपनी संगीत - प्रतिभा का माध्यम देने को आते थे। वे कहते, “ओहो, इस पवित्र साधु को सुनो तो ” लोगों को वास्तव में विश्वास हो गया था कि कोई असामान्य कौशल प्रदर्शन, हवा में संचारन जैसी किसी अनोखी घटना की झलक दिखाई पड़ने जा रही है। किन्तु स्वामीजी जो कुछ कह रहे थे जब उसकी सरलता लोगों की समझ में आ गई, तो वास्तव में, वे सही रास्ते पर आ गए― चाहे वे जीवन पर्यन्त उनका अनुगमन करने की प्रतिबद्धता स्वीकार करने को प्रेरित हुए हों, या केवल उनकी सराहना करने और किंचित् मात्रा में उन्हें सम्मान देने की प्रेरणा अनुभव करते हों ।

और यह भी मनोरंजक था कि लोग किस तरह कीर्तन को अपने-अपने ढंग से ले रहे थे। कुछ लोग सोचते थे कि यह केवल प्रस्तावना थी; कुछ लोगों का विचार था कि यही मुख्य वस्तु थी। कुछ लोगों को संगीत पसंद था तो कुछ लोग उसकी काव्यात्मक ध्वनि पसंद करते थे ।

तब एलेन गिन्सबर्ग और पीटर ओर्लोव्स्की अपने कुछ मित्रों के साथ वहाँ आए । एलेन ने दृश्य का सर्वेक्षण किया और कीर्तनियों के मध्य एक सीट पा ली। काली दाढ़ी रखे हुए, ऐनक लगाए हुए, बाल के काले गुच्छों से घिरे गंजे सिर वाले कवि - शेखर एलेन्स के कीर्तन में सम्मिलित होने से कीर्तन की स्थानीय प्रतिष्ठा में बहुत वृद्धि हो गई। प्रभुपाद ने अपना परमानंदपूर्ण कीर्तन जारी रखते और ढोल बजाते हुए एलेन्स के आगमन को स्वीकार किया और मुसकरा दिया।

न्यू यार्क टाइम्स का एक संवाददाता वहाँ आ धमका और उसने एलेन्स से भेंट - वार्ता के लिए अनुरोध किया । किन्तु एलेन ने अस्वीकार कर दिया । - " जब कोई पूजा कर रहा हो तो उसमें विघ्न नहीं डालना चाहिए ।" टाइम्स को प्रतीक्षा करनी होगी ।

एलेन : उन दिनों टाम्पकिंस स्क्वायर पार्क आध्यात्मिक संघर्षों का अड्डा बन गया था, इसलिए वाशिंगटन स्क्वायर पार्क का यह दृश्य सचमुच महान् था। तमाम तरह की बातों, मादक द्रव्यों और सिद्धान्तों के मध्य, अकस्मात् ऐसा अवसर प्रकट हुआ था कि कुछ लोग अपने शरीर और संगीत के द्वारा बौद्धिक जड़ता को तोड़ कर पूर्ण भक्ति व्यक्त कर सकते थे। यह

।- सचमुच आश्चर्यजनक था ।

काले लोग और पोर्टोरिको निवासी भी अपने ढोलों के साथ वहाँ पहुँच गए थे और कोंगा नृत्य कर रहे थे। किन्तु यहाँ एक भिन्न ही प्रकार का जन-समूह था जिसमें कुछ के सिर घुटे हुए थे, जो बड़ा ही मनोरंजक था । यहाँ का कीर्तन आवृत्तिमय था, लेकिन वह महान् था । उसमें सम्मिलित होना आसान भी था । यहाँ का दृश्य बिल्कुल उन्मुक्त था । कीर्तन में किसी के लिए अलग विशेष स्थान नहीं था । इसलिए केवल निरर्थक ढोल पीटने के स्थान पर यहाँ सामान्य रूप से मुसकानों, अनुमोदन और प्रोत्साहन का वातावरण बन गया था जिसे पार्क में एक प्रकार के वास्तविक सांप्रदायिक मिलन का आरंभ कहा जा सकता था, जो आपसी विचार-विनिमय की दृढ़ आधारशिला बन सकता था ।

प्रभुपाद प्रभावोत्पाद लग रहे थे। उच्च स्वर से गाने के प्रयत्न में उनकी भौहों पर बल पड़ गया था और उनकी मुद्रा से शक्ति टपक रही थी । उनकी कनपटी की शिराएँ उमड़ आई थीं और सबों को हरे कृष्ण हरे कृष्ण सुनाने हेतु गाते रहने से उनका जबड़ा आगे निकल रहा था। यद्यपि उनकी मुद्रा मनोहारी थी, किन्तु उनका गायन बड़ा ही गंभीर और कभी-कभी तेज लगता था, और वह जैसे एकाग्रता में डूबे हों ।

यह किसी अन्य का योगाश्रम, अथवा मौन-शान्ति जागरण नहीं था, वरन् यह प्रभुपाद की अपनी कृति, विशुद्ध कीर्तन, की तन्मयता थी । यह नई लहर थी। एक ऐसी वस्तु जिसमें हर कोई सम्मिलित हो सकता था । समाज इसे स्वीकार करता प्रतीत होता था। यह इतना लोकप्रिय हो गया कि आइसक्रीम बेचने वाला वहाँ अपनी बिक्री के लिए पहुँच गया। प्रभुपाद के अतिरिक्त,

सुनहरे बालों वाले पाँच-छः वर्ष के बच्चों का एक समूह उनके निकट बैठा था। एक तरुण पोलैंडवासी बालक खड़ा घूर रहा था। किसी ने अपनी धातु की धूपदानी में दहकते कोयले पर धूपबत्ती जलाना आरंभ कर दिया और उसकी मधुर सुगंध का धुआँ वंशीवादकों, ढोलकियों तथा कीर्तनियों के बीच लहराने लगा ।

स्वामीजी ने अपने शिष्यों को संकेत दिया और वे उठ कर खड़े हो गए और नाचने लगे। लम्बा दुबला स्त्र्यधीश, जिसके पीछे की जेबें स्टे हाई फारएवर के विज्ञापनों से ठसाठस भरी थीं अपने हाथ ऊपर किए नृत्य करने लगा। उसकी बगल में, बन्द गले के काले स्वेटर में, गर्दन के चारों ओर बड़े मनकों की जप माला लपेटे, लम्बे कुंचित बिखरे हुए घुंघराले बालों वाला अच्युतानंद नाचने लगा । तब ब्रह्मानंद खड़ा हुआ। वह और अच्युतानंद आमने-सामने खड़े हो गए ― कीर्तन में चैतन्य महाप्रभु की तरह बाहें फैलाए हुए। भीड़ में से फोटोग्राफर आगे बढ़े। लड़के, अपना भार बाएँ पैर से दाएँ पैर पर बदलते हुए, अनेक देवदूतों की मुद्रा बनाते हुए और गले में लाल मनकों की जप - माला पहने, नृत्य करने लगे। वे स्वामीजी की नृत्य-गति का अनुकरण कर रहे थे।

ब्रह्मानंद : मैं खड़ा हुआ तो मैने सोचा कि मुझे तब तक खड़े रहना पड़ेगा जब तक स्वामीजी ढोल बजाते रहेंगे। मुझे लगा कि उनके ढोल बजाते रहने के बीच मैं बैठ गया तो यह अपराध होगा। अतः मैं एक घंटे तक नृत्य करता रहा ।

प्रभुपाद ने अपने विशेष भारतीय ढंग से सिर हिलाकर स्वीकृति का संकेत दिया और, तब उन्होंने अपनी बाहें उठाते हुए, और लोगों को नृत्य के लिए आमंत्रित किया। उनके शिष्यों में से अन्य भी नाचने लगे और कुछ हिप्पी भी खड़े होकर प्रयत्न करने लगे। प्रभुपाद संकीर्तन में हर एक को नाचते और गाते देखना चाहते थे। नृत्य और कुछ नहीं शरीर को मंद गति से झुलाना और गलीचे पर नंगे पैरों को आगे-पीछे करना था। नृत्यकर्ता की बाहें ऊपर उठी होती थीं और उसकी अंगुलियाँ शरदकालीन वृक्षों की शाखाओं के ऊपर आकाश की ओर फैली रहती थीं । एकत्रित जन-समूह में मंत्र - गायन करने वाले यत्र-तत्र अपनी ही भावानुभूति में डूबे थे : एक लड़की के, जिस समय वह मंत्र का कीर्तन कर रही थी, नेत्र बंद थे, अंगुलियाँ मंजीरे बजा रही थीं और वह जैसे स्वप्निल दशा में सिर हिला

रही थी । एक झुर्रियों भरे चेहरे वाली पोलैंड की महिला सिर पर बड़ा रुमाल बाँधे हुए इस लड़की की ओर अविश्वासपूर्ण नेत्रों से घूर रही थी । हाथ में रुमाल लिए कुछ वृद्ध महिलाएँ छोटे-छोटे समूहों में यहाँ-वहाँ खड़ी थीं। उनमें कुछ धूप के चश्मे पहने थीं। वे उत्साहपूर्वक बातें कर रही थीं और कीर्तन के रोचक दृश्यों की ओर इशारा कर रहीं थीं । केवल कीर्तनानंद धोती पहने था और प्रभुपाद का युवा संस्करण लग रहा था । शरदकालीन तीसरे पहर की स्निग्ध धूप इस टोली पर पड़ रही थी जिससे लम्बी शीतल छायाओं के बीच टोली सुनहरे रंग में उभर रही थी ।

हारमोनियम से निरन्तर एक-सी ध्वनि निकल रही थी और सैनिक - जैकेट पहने एक लड़का काठ के रेकर्डर पर स्वर निकाल रहा था। फिर भी यंत्रों की सारी ध्वनियाँ मिल कर एक हो रही थीं और स्वामीजी की वाणी इन से ऊपर बाहर जा रही थी। ऐसा घंटों चलता रहा। प्रभुपाद अपने सिर और कंधों को सीधा किए रहे यद्यपि मंत्र की प्रत्येक पंक्ति के अंत में वे कभी-कभी अपने कंधे उचका देते और तब अगली पंक्ति आरंभ करते। उनके शिष्य उसी गलीचे पर बैठे हुए उनका साथ देते रहे। उनके नेत्रों में धार्मिक उल्लास झलक रहा था। अंत में स्वामीजी रुक गए।

वे तुरन्त

खड़े हो गए और उनकी शिष्य मण्डली समझ गई कि वे बोलने जा रहे हैं। चार बजे थे और पार्क में अभी भी शरदकालीन सूर्य चमक रहा था। वातावरण शान्त था और श्रोता - मण्डली मंत्र पर एकाग्र चित्त होने के कारण सावधान और प्रसन्न थी । स्वामीजी ने कीर्तन में सम्मिलित होने के लिए सबको धन्यवाद देते हुए बोलना आरंभ किया। उन्होंने बताया कि हरे कृष्ण कीर्तन का शुभारंभ पांच सौ वर्ष पूर्व पश्चिम बंगाल में महाप्रभु चैतन्य ने किया था । हरे का अर्थ है "हे भगवान् की शक्ति ! " ; कृष्ण भगवान् हैं और राम भी भगवान् का एक नाम है जिसका अर्थ है "परमानन्द ।' उनके शिष्य उनके चरणों पर बैठे सुन रहे थे। रायराम अपने हाथों से सूर्य की आड़ लिए हुए कनखियों से स्वामीजी को देख रहा था । कीर्तनानंद का सिर एक ओर झुका था मानो कोई पक्षी पृथ्वी की ओर ध्यान लगाए सुन रहा हो ।

स्वामी बलिष्ठ ओक वृक्ष से लग कर सीधे खड़े हो गए; वे वक्ता की उपयुक्त मुद्रा में अपने हाथ ढीले तौर पर जोड़े थे और उनका केसरिया परिधान उन्हें भव्यतापूर्वक आच्छादित किए था। उनके पीछे का वृक्ष भलीभाँति

अवस्थित था और उसके मोटे तने पर सूर्य के प्रकाश से पत्तियों की रंग-बिरंगी छायाएँ पड़ रही थीं। उनके पीछे वृक्षों के कुंज के बीच से सेंट ब्रिगिड गिरजे की मीनार दिख रही थी। उनके दाएं हाथ, एक नाटी, मोटी अधेड़ अवस्था की स्त्री थी जिसकी वेशभूषा और केश- शैली ऐसी थी जिसका चलन संयुक्त राज्य अमेरिका से पिछले पच्चीस वर्ष पूर्व उठ गया था। उनके बाएँ, एक दिलेर दिखाई देने वाली हिप्पी लड़की चुस्त डेनिम पहने खड़ी थी और उसके बगल में काला स्वेटर पहने एक काला युवक था जिसके हाथ अपनी छाती पर जुड़े थे। उसके बाद अपने शिशु को पकड़े हुए कोई पिता था और उसके बाद दाढ़ी रखे, बालों के बीच से माँग निकाले, एक तरुण बाज़ारी साधु था । उसकी बगल में छोटे बालों वाले दो मध्यवर्गीय साधारण पुरुष थे जिनके साथ उनकी तरुण संगिनियाँ थीं। भीड़ में बहुत-से लोग यद्यपि निकट ही खड़े थे किन्तु वे चंचल - चित्त हो रहे थे और इधर-उधर देख रहे थे।

प्रभुपाद ने समझाया कि भूमिकाएँ तीन तरह की हैं— ऐन्द्रिय, मानसिक और बौद्धिक और इनके ऊपर होती है आध्यात्मिक भूमिका । हरे कृष्ण का जप आध्यात्मिक भूमिका में सम्पन्न होता है और हमारी नित्य, आनन्दमयी चेतना को जाग्रत करने के लिए यह सर्वश्रेष्ठ विधि है । उन्होंने हर व्यक्ति को २६ सेकंड एवन्यू में होने वाली सभाओं में सम्मिलित होने के लिए आमंत्रित किया और यह कहते हुए अपना संक्षिप्त भाषण समाप्त किया, को बहुत-बहुत धन्यवाद । कृपया मेरे साथ कीर्तन कीजिए।" फिर वे बैठ गए, अपना मृदंग लिया और पुनः कीर्तन करने लगे ।

"आप

यदि ७१ वर्षीय वृद्ध पुरुष के लिए मृदंग पर निरन्तर थाप देना और उच्च स्वर से बोलना आपदाजनक था तो प्रभुपाद कृष्ण के लिए यह आपदा उठाने को तैयार थे। हरे कृष्ण इतना मांगलिक था कि वे रुक नहीं सकते थे । वे वृन्दावन से बहुत दूर आए थे, कृष्ण-विहीन योग - समाज में जीवित रह सके थे और सारी शीतऋतु गुमनामी में झेली थी। अमेरिका सैंकड़ों वर्षों से कृष्ण का कीर्तन किए बिना रहता आया था। यद्यपि थोरो और इमर्सन ने गीता और पुराणों के अंग्रेजी अनुवादों का अनुशीलन किया था, किन्तु उनकी सराहनाओं के माध्यम से 'हरे कृष्ण' का आगमन नहीं हुआ । न ही १८९३ ई. में शिकागो में सम्पन्न विश्व - धर्म - सम्मेलन में हिन्दुत्व पर दिए गए स्वामी विवेकानन्द के सुप्रसिद्ध भाषण से कोई कीर्तन निकल पाया

था । अतः प्रभुपाद ने अब जो कृष्ण भक्ति का प्रवर्तन किया है, उसका प्रवाह समुद्र की ओर प्रवाहित होने वाली गंगा की धारा की तरह रुक नहीं सकता। उन्होंने अपने अन्तःकरण में पतितों के उद्धार की भगवान् चैतन्य की असीम इच्छा का अनुभव किया ।

उन्हें पता था कि यह भगवान् चैतन्य महाप्रभु और उनके अपने गुरु महाराज की इच्छा थी, यद्यपि वे यह भी जानते थे कि भारत वर्ष के जातिवादी ब्राह्मण इन मादक द्रव्य सेवी, मांसाहारी अस्पृश्य अमेरिकावासियों और उनकी बालिका मित्रों से साहचर्य का अनुमोदन नहीं करेंगे। किन्तु स्वामीजी कहते कि वे शास्त्रों के सर्वथा अनुकूल कार्य कर रहे हैं। भागवत में स्पष्ट उल्लेख है कि कृष्ण - भक्ति समस्त जातियों को प्रदान की जाय। प्रत्येक व्यक्ति चेतन आत्मा है और उसका जन्म चाहे जहाँ हो, उसे पवित्र नाम के जप द्वारा सर्वोच्च आध्यात्मिक भूमिका में लाया जा सकता है। वे चाहे जितने भी पापकर्म करते रहे हों वे कृष्ण-चेतना के सर्वथा योग्य पात्र हैं। टाम्पकिंस स्क्वायर पार्क कृष्ण की योजना थी; यह पृथ्वी का एक अंग था और वे लोग मानव जाति के सदस्य थे। और हरे कृष्ण का जप इस युग के लिए ही धर्म था ।

संध्या समय जब स्वामीजी दुकानों और जन-संकुल आवासों को गुज़रते हुए घर लौट रहे थे तो उनके कार्य में रुचि रखने वाले एक दर्जन से अधिक नए लोग पार्क से ही उनके साथ हो लिए थे। मार्ग में स्वामीजी को कहीं-कहीं व्यंग्योक्तियों और शोरगुल का सामना फिर करना पड़ा। किन्तु जो लोग पार्क से उनका अनुगमन कर रहे थे, वे अब भी हर्षातिरेक की ऐसी दशा में थे कि वे सहज ही सड़क के इन थोड़े-से तानों और व्यंग्योक्तियों को सहन कर गए। विशेष कर प्रभुपाद अक्षुब्ध बने रहे। अपना सिर ऊँचा किए हुए, बिना कुछ बोले अपने विचारों में गहरे डूबे वे चल रहे थे। फिर भी उनकी दृष्टि चारों ओर के लोगों और स्थानों पर थी और मार्ग में दिखने वालों के साथ उनका दृष्टि-विनिमय चलता रहा। इस तरह सेवेंथ स्ट्रीट, चर्चों, शव-गृहों, फर्स्ट एवन्यू, शोरगुल से भरे भारी यातायात वाले सेकंड एवन्यू

मदिरा के भंडारों, सिक्का - लांड्रियों, मिष्ठान्न गृहों, इग्लेशिया एलीएंज़ा

क्रिस्टिआना मिशनेरा, कोहेनूर इंटरकांटीनेण्टल रेस्टोरेंट पैलेस, चर्च आफ द नेटिविटी को क्रमशः पार करते हुए प्रभुपाद अन्त में २६ सेकंड एवन्यू पहुँचे ।

उन्होंने देखा कि स्टोरफ्रंट के बाहर फुटपाथ पर पार्क से आए बहुत-से लोग खड़े थे—ये वे युवक थे जो उनके आगमन की प्रतीक्षा कर रहे थे कि वे आएँ और मैचलेस गिफ्ट्स का द्वार खोलें। वे नृत्य और कीर्तन तथा वयोवृद्ध स्वामीजी और उनके शिष्यों के विषय में, जिन्होंने पार्क में ऐसे सुंदर दृश्य की सृष्टि की थी, और अधिक जानना चाहते थे। स्टोरफ्रंट उनसे भर गया था। बाहर फुटपाथ पर भीरु और अप्रतिबद्ध लोग खिड़की और दरवाजे के इधर उधर मंडरा रहे थे । धूम्रपान करते हुए वे प्रतीक्षा में खड़े थे या दीवार पर टंगी तस्वीरों को देखने के लिए अंदर की ओर झांक रहे थे। स्वामीजी अपने कमरे में प्रविष्ट हुए और सीधे अपने मंच पर जाकर बैठ गए। उस समय उनके समक्ष मंदिर में अब तक आई सब से बड़ी भीड़ इकट्ठी थी । उन्होंने कृष्णभावनामृत के विषय में उन्हें आगे बताया । शब्द उनके मुख से इतने सहज ढंग से निकल रहे थे जैसे वे सांस ले रहे थे। पार्क में लोग जो कुछ अनुभव कर रहे थे उसके समर्थन में वे संस्कृत के प्रमाण उद्धृत करने जा रहे थे। उन्होंने कहा कि जिस प्रकार लोगों ने आज कीर्तन किया है, उसी प्रकार उन्हें नित्य करना चाहिए ।

" जब

लम्बे बालों वाली एक लड़की ने, जो स्वामीजी के मंच के पास ही बैठी थी, अपना हाथ उठाया और भाव-विभोर की-सी दशा में पूछा, मैं मंत्र का जप करती हूँ तो मैं अपने माथे पर शक्ति के केन्द्रीकरण का अनुभव करती हूँ और तब भनभनाहट सुनाई देती है और रक्ताभ प्रकाश दिखाई देता है । "

स्वामीजी बोले, “ जप करती रहो, यह सब साफ हो जायगा । "

" अच्छा, जप से क्या उत्पन्न होता है ?" अब वह अपनी भाव-विभोरता की दशा से बाहर आती प्रतीत हो रही थी ।

प्रभुपाद ने उत्तर दिया, “ जप से जप उत्पन्न होता है। ठीक ऐसे जैसे जब तुम अपने प्रेमी का नाम लेकर पुकारती हो और यदि कोई ऐसा है जिसे तुम बहुत अधिक प्यार करती हो तो तुम उसका नाम बार-बार दुहराना चाहती हो। यह प्रेम के कारण होता है । '

एक व्यक्ति अपना हाथ उठाए बिना बोल उठा, “ किन्तु क्या यह ध्वनि द्वारा उत्पन्न किया गया एक प्रकार का सम्मोहन नहीं है ? मान लीजिए कोई

व्यक्ति कोका कोला कह कर बार-बार उसका जप करता है, तो क्या यह वैसी ही बात नहीं होगी ?"

"नहीं, " प्रभुपाद बोले, “आप कोई शब्द लीजिए, दस बार उसकी पुनरावृत्ति कीजिए और आप को उससे ऊब हो जाएगी। लेकिन आप चौबीस घंटे जप करते रहें और आप को थकान नहीं होगी। ओह ! आप नई शक्ति का अनुभव करेंगे।" ये प्रश्न आज अधिक प्रासंगिक लग रहे थे। अभ्यागतों में से सभी पार्क में कीर्तन करते रहे थे और अब वे अपने अनुभवों का दार्शनिक दृष्टि से परीक्षण कर रहे थे। स्वामीजी के अनुयायियों ने इसे अपनी विजय माना। और अतिथियों के प्रति आतिथेय और दर्शक रूप में उन्हें अपनी जिम्मेदारी का कुछ बोध हुआ । स्वामीजी ने कीर्तनानंद से अतिथियों के लिए कुछ प्रसाद तैयार करने को कहा था, और शीघ्र ही कीर्तनानंद हर अतिथि के लिए कागज की छोटी-छोटी प्यालियों में परोस कर मीठा चावल ले आया ।

“ कीर्तन की प्रक्रिया मन को शुद्ध करने के लिए है।” प्रभुपाद ने कहा, " हमारे मन में अपने विषय में, संसार के विषय में, ईश्वर के विषय में और इन सब में परस्पर सम्बन्ध के विषय में, बहुत-सी भ्रांतियाँ हैं । हम लोगों में अनेक प्रकार की दुराशाएँ हैं। कीर्तन मन को शुद्ध करने में सहायता करेगा । तब आप की समझ में आ जाएगा कि यह कीर्तन कृष्ण से भिन्न नहीं है । "

एक लड़का जो लम्बे बालों वाली लड़की के साथ था असंलग्न रूप में बोलने लगा, “हाँ, नहीं, मैं मैं मैं । "

प्रभुपाद: हाँ, हाँ, हाँ, प्रारंभ में हमें कीर्तन करना होगा। हम चाहे जैसी भी स्थिति में हों। इससे अंतर नहीं पड़ता। यदि आप कीर्तन आरंभ करते हैं तो पहला लाभ होगा— चेतो दर्पणमार्जनं : मन समस्त गंदी चीजों से शुद्ध हो जायगा और दूसरी अवस्था यह आएगी कि भौतिक जगत के सारे दुख और क्लेश मिट जाएँगे ।

... /

लड़का : मैं ठीक-ठाक नहीं समझ पाता कि भौतिक जगत क्या है, क्योंकि

प्रभुपाद : भौतिक जगत् दुखों और क्लेशों से भरा है। क्या आप यह नहीं समझते? क्या आप सुखी हैं ?"

लड़का : कभी मैं सुखी होता हूँ, कभी नहीं होता ।

प्रभुपाद : नहीं, आप सुखी नहीं हैं। वह 'कभी' आप की कल्पना है। जैसे कोई रोगीमनुष्य कहता है, “ओह, हाँ, मैं ठीक हूँ।" यह "ठीक" क्या है ? वह मरने जा रहा है और कहता है कि ठीक हूँ

लड़का : मैं कोई चरम सुख का दावा नहीं करता ।

प्रभुपाद : नहीं, आप नहीं जानते कि सुख क्या है । लड़का : किन्तु, यह कभी अधिक होता है, कभी कम । प्रभुपाद: हाँ, आप नहीं जानते कि सुख क्या है ।

मंदिर के पीछे एक वृद्ध व्यक्ति हाथ जोड़े खड़ा था। वह बोला — बात यह है कि बड़ा दुख या क्लेश बीच में आने वाले छोटे दुख को तनिक स्वादिष्ट बनाने का काम करता है। इस कारण छोटा दुख सुख प्रतीत होता है।

प्रभुपाद: नहीं, बात यह है कि क्लेश कई प्रकार के हैं। यह हम सभी समझते हैं। केवल अपने अज्ञान के कारण हम उनकी चिन्ता नहीं करते — ठीक उस व्यक्ति की तरह जो लम्बे समय से रोगी है। वह भूल गया है कि वास्तविक सुख क्या है। इसी तरह, क्लेश तो वहाँ है ही । उदाहरण के लिए (और स्वामीजी ने बालिका मित्र वाले युवक की ओर इशारा किया) मान लीजिए आप एक युवक हैं। तो क्या आप वृद्ध व्यक्ति बनना पसंद करेंगे ?

लड़का : किन्तु मैं वृद्ध हो जाऊँगा कालक्रम में.....

प्रभुपाद : “आप हो जायँगे" का अर्थ है कि वृद्ध बनने के लिए आप

विवश होंगे। किन्तु आप वृद्ध होना नहीं चाहते ।

लड़का : वृद्ध बनने के लिए कोई मुझे विवश नहीं करेगा ।

प्रभुपाद: हाँ, हाँ, विवश, आप विवश होंगे।

लड़का : किन्तु मैं नहीं समझता कि क्यों ।

प्रभुपाद : यदि आप वृद्ध व्यक्ति बनना नहीं चाहेंगे तो आप वृद्ध बनने

के लिए विवश होंगे ।

लड़का : यह एक अवस्था है....

प्रभुपाद: हाँ, यह अवस्था बहुत क्लेशकारी है ।

लड़का : मैं उसे क्लेशकारी नहीं मानता ।

प्रभुपाद : क्योंकि आप युवक हैं। किन्तु किसी वृद्ध से पूछिए कि वह कितने क्लेश भोग रहा है। आप समझे? एक रोगी मनुष्य — क्या आप रोग ग्रस्त

होना चाहते हैं ?

लड़का : मैं रोग खोजने नहीं जाऊँगा ।

प्रभुपाद : हुँ ?

लड़का : मैं रोग की खोज नहीं करूँगा ।

प्रभुपाद : नहीं, नहीं, उत्तर दीजिए। क्या आप रोगी होना चाहते हैं ?

लड़का : रोग क्या है ?

प्रभुपाद : आप बताएँ ।

लड़का : रोग क्या है ?

प्रभुपाद : ओह ! आप को कभी कोई रोग नहीं हुआ ? आपको कभी कोई रोग नहीं हुआ ? ( प्रभुपाद नाटकीय भाव से अविश्वासपूर्वक देखते हैं)

लड़का : मुझे हुआ है.... मुझे गलसुआ रोग हुआ था, खसरा हुआ था और काली खांसी हुई थी, यह तो हर एक को होता रहा है और लोग इससे अच्छे हो जाते हैं । ( जन-समूह में से कुछ लोग हँसते हैं। )

प्रभुपाद : कष्ट हर व्यक्ति को होता है, पर इसका यह मतलब नहीं कि कष्ट जैसी कोई चीज है ही नहीं । हमें स्वीकार करना होगा कि हम हमेशा कष्ट में हैं।

लड़का : यदि मैंने कभी सुख नहीं जाना है तो मुझे विश्वास है कि मैंने कभी दुख भी नहीं जाना है।

प्रभुपाद : यह आप के अज्ञान के कारण है। हम सब कष्ट में हैं। हम मरना नहीं चाहते, किन्तु मृत्यु को आना ही है। हम रोगी होना नहीं चाहते, किन्तु रोग है। हम वृद्ध होना नहीं चाहते, किन्तु वृद्धावस्था है। हम बहुत-सी चीजें नहीं चाहते, लेकिन हमें बलात् उन्हें सहना पड़ता है। — और कोई भी समझदार व्यक्ति स्वीकार करेगा कि वे दुखमय हैं। किन्तु यदि आप इन चीजों के सहने के अभ्यस्त हो जाते हैं तो आप कहते हैं कि सब ठीक है। पर कोई समझदार व्यक्ति रोगी होना नहीं चाहेगा । वह वृद्ध होना नहीं चाहेगा। वह मरना नहीं चाहेगा। आप यह शान्ति आंदोलन क्यों चला रहे हैं? क्योंकि यदि युद्ध हुआ तो मृत्यु होगी ही। इसलिए लोग युद्ध से डरते हैं। वे आन्दोलन कर रहे हैं: “"युद्ध नहीं होना चाहिए ।" क्या आप समझते हैं कि मृत्यु कोई सुखद वस्तु है ?

लड़का : मैने कभी अनुभव नहीं किया—

प्रभुपाद : आप अनुभव कर चुके हैं— और भूल गए हैं। आप कई बार

मर चुके हैं। आप कई बार अनुभव कर चुके हैं— किन्तु भूल गए हैं। भूल जाना कोई बहाना नहीं है। मान लीजिए एक बच्चा अपने दुख को

भूल गया। इसका यह अर्थ नहीं कि उसे दुख नहीं हुआ था ।

लड़का : नहीं, मैं सहमत हूँ, मैं सहमत हूँ ।

प्रभुपाद: हाँ, तो दुख है। आप को आत्म-साक्षात्कार कर चुके पुरुषों से, अधिकारियों से, दिशा-निर्देश लेना होगा। ठीक जैसा कि भगवद्गीता में कहा गया है— दुःखालयं अशाश्वतम् — संसार दुखों से भरा है। इसलिए हमें यह अनुभव करना चाहिए। जब तक हम यह न जानें कि यह संसार दुखमय है तब तक इससे छुटकारा पाने का प्रश्न ही नहीं है। जो व्यक्ति इतनी समझ विकसित नहीं करता वह पूर्णरूप से विकसित नहीं है। पशुओं की भाँति उसे समझ ही नहीं है कि दुख क्या है—वह संतुष्ट है ।

जब स्वामीजी अंत में अपने कक्ष में लौटे तो काफी देर हो चुकी थी । एक लड़का उनके लिए एक प्याला गर्म दूध लाया। किसी ने कहा कि अब उन्हें हर सप्ताह पार्क में कीर्तन करना चाहिए । “प्रत्येक दिन" स्वामीजी

बोले । कमरे में आधा दर्जन लोग अब भी मौजूद थे, लेकिन प्रभुपाद पतली चटाई पर लेट गए । वे कुछ मिनट बात करते रहे और तब धीरे-धीरे उनकी आवाज बंद हो गई— वे रह-रह कर उपदेश देते रहे। वे ऊँघते प्रतीत होने लगे । अब दस बज रहे थे। लड़के दरवाजा बंद करके पंजों के बल धीरे से बाहर चले गए ।

अक्तूबर १०

प्रातः काल का समय था । स्वामीजी कक्षा लेने के लिए अभी नीचे नहीं उतरे थे। अभी सूर्योदय नहीं हुआ था । सत्स्वरूप और कीर्तनानंद स्टोरफ्रंट के फर्श पर बैठे टाइम्स समाचार पत्र की एक कतरन पढ़ रहे थे ।

सत्स्वरूप: क्या स्वामीजी ने इसे देखा है ?

कीर्तनानन्द : हाँ, अभी कुछ मिनट पहले ही उन्होंने कहा कि यह बहुत महत्त्वपूर्ण है। यह ऐतिहासिक है। उन्हें यह बात विशेष पसंद आई कि यह न्यू यार्क टाइम्स है ।

सत्स्वरूप ( उच्च स्वर से पढ़ते हुए ) : स्वामी का समुदाय परमानंद प्राप्त करने के लिए पार्क में कीर्तन करता है । "

ईस्ट साइड समारोह में पचास अनुयायी तालियाँ बजाते हैं और सम्मोहक संगीत सुन कर झूमने लगते हैं। लोअर ईस्ट साइड पार्क में एक वृक्ष के नीचे बैठे और यदाकदा नाचते हुए एक हिन्दू स्वामी के पचास अनुयायी, सोलह शब्दों वाले एक मंत्र का कल दो घंटे तक गायन करते रहे।

यह दो घंटे से ज्यादा चला था ।

..... कल तीसरे पहर दो घंटे तक साथ में मंजीरे, तम्बूरे, खड़खड़े, ढोल, घंटियाँ और बाँसुरियाँ बजती रही। स्वामी ए.सी. भक्तिवेदान्त का कहना है कि मंत्र का जप इस विनाश के युग में आत्मोपलब्धि का सब से उत्तम उपाय है। टाम्पकिंस स्क्वायर पार्क के मध्य में गंदगी के ढेर, होविंग हिल, पर बच्चे खेल रहे थे..... होविंग हिल ?

कीर्तनानंद : मैं समझता हूँ यह पार्क के कमिश्नर होविंग पर एक व्यंग्य

सत्स्वरूप : ओह !

.....टाम्पकिंस स्क्वायर पार्क के मध्य गंदगी के ढेर होविंग हिल पर..... या धूप वाले रास्तों पर साइकिलें चला रहे थे, उधर लगभग एक सौ लोगों का समूह कीर्तन करने वालों की चारों ओर खड़े रह कर उनके सम्मोहक गायन पर झूम रहा था या लय में लय मिलाकर तालियाँ बजा रहा था। समारोह में भाग लेने वालों में कवि एलेन गिन्सबर्ग भी था। उसने कहा कि “ इससे भाव - समाधि की दशा प्राप्त होती है। यह बात भी है कि मंत्र के अक्षरों से यौगिक प्राणायाम होने लगता है। यह एक शारीरिक व्याख्या भी है।

सत्स्वरूप और कीर्तनानन्द : (हँसते हुए) यह बकवास है ।

“भाव-समाधि का गायन या मंत्र हरे कृष्ण, हरे कृष्ण, कृष्ण कृष्ण, हरे हरे, हरे राम, हरे राम, राम राम, हरे हरे....

कीर्तनानंद : स्वामीजी ने कहा कि समाचार का यह सबसे अच्छा अंश है। क्योंकि उन्होंने मंत्र मुद्रित कर दिया है। यह परिपूर्ण है। जो कोई इसे पढ़ेगा, विशुद्ध हो जायगा, मानो उसने कीर्तन किया हो।

सत्स्वरूप ( पढ़ना जारी रखता है) :

मिस्टर गिन्सबर्ग ने कहा कि इसने स्वामीजी के बहुत से अनुयायियों में एल. एस. डी.

और अन्य मादक द्रव्यों का स्थान ले लिया है।" उसने समझाकर बताया कि हरे कृष्ण का उच्चारण हहरे जैसा होता है; यह हिन्दुओं के एक देवता विष्णु का नाम है; इसका अर्थ है " प्रकाश का संपादक।” राम का उच्चारण रामः जैसा होता है। यह विष्णु के अवतार उत्पादक हैं- " मर्यादापुरुषोत्तम" ।

क्या ? उसने यह अर्थ कहाँ से पाया ? यह तो किसी विश्वकोश से लिया गया जैसा लगता है ।

मिस्टर गिन्सबर्ग ने कहा, “अतः कीर्तन ईश्वर के भिन्न-भिन्न आयामों का नामकरण करता है।'

गिन्सबर्ग की बात क्यों कहे जा रहा है ? स्वामीजी की बात क्यों नहीं कहता ?

(हँसी)

समारोह में भाग लेने वाले एक दूसरे व्यक्ति, २६ वर्षीय होवर्ड एम. ह्वीलर ने, जिसने अपने को ओहिओ स्टेट विश्वविद्यालय में अंग्रेजी का पूर्व शिक्षक बताया, और जो अपना पूरा समय स्वामी को दे रहा है, कहा कि " मैने स्वयं दो वर्ष में एल. एस. डी. की पचास और पीओट की दर्जन गोलियाँ खाई थीं, किन्तु अब एक भी नहीं लेता । "

स्वामी का अपने अनुयायियों को आदेश है कि वे "कोई भी मादक द्रव्य जिनमें काफी, चाय और सिगरेट शामिल हैं" न लें। यह बात उन्होंने समारोह के बाद एक भेंट-वार्ता में बताई। उन्होंने कहा, “ इस तरह हम आप की सरकार की भी सहायता कर रहे हैं।" किन्तु उनका संकेत था कि, सरकार उनकी इस सहायता को भलीभाँति समझ नहीं सकी है, क्योंकि अभी कुछ समय पूर्व आप्रवासी विभाग ने स्वामी भक्तिवेदान्त को सूचित किया है कि उनका एक वर्ष का पर्यटक वीजा समाप्त हो गया है और उनको यहाँ से प्रस्थान कर देना चाहिए। इस मामले में अपील की जा रही है।

स्वामी छोटे कटे हुए श्वेत केशों वाले साँवले रंग के व्यक्ति हैं। वे नारंगी रंग के परिधान धारण कर, नीचे गुलाबी रंग का स्वेटर पहने थे। उन्होंने बताया कि जब वे अपने शिक्षक या गुरु से १९२२ ई. में पहली बार मिले थे तो ने पश्चिम के देशों में अंग्रेजी भाषा के माध्यम से कृष्ण-भक्ति का प्रचार करने का आदेश उन्हें दिया था " अतः ७१ वर्ष की इस वृद्धावस्था में मैंने इतना बड़ा खतरा मोल लिया है।"

उनके गुरु

यह कहता है कि हम वहाँ प्रत्येक रविवार को जाकर कीर्तन करेंगे। “स्वामी

के अनुयायियों में कुछ सामाजिक कार्यकर्ता भी हैं ।" मेरा

अनुमान है कि

इसमें मेरा उल्लेख है।

कीर्तनानन्द : मैं समझता हूँ कि इस लेख से अब और बहुत-से नए लोग आने लगेंगे।

स्वामीजी कक्षा लेने के लिए नीचे आए। उस दिन सवेरे बहुत ठंडक थी और वे आड़ू के रंग की बंद गले की जरसी पहने थे जो उनके शिष्यों ने उनके लिए आर्चड स्ट्रीट की एक दुकान से खरीदी थी । शिष्यगण भी उसी तरह की जरसी पहनने लगे थे— एक तरह से वह सब की वर्दी हो रही थी । स्वामीजी ने टाइम्स में छपे लेख का उल्लेख नहीं किया । वे संस्कृत की स्तुतियाँ गाने लगे — वन्देऽहं श्रीगुरो:- " मैं अपने गुरु के प्रति अपनी श्रद्धा अर्पित करता हूँ।” तब उन्होंने हरे कृष्ण का गायन आरंभ किया और लड़के सम्मिलित हो गए। प्रभुपाद ने उन्हें सावधान किया "कोमल स्वर में गाओ।"

उन्होंने इतना कहा ही था कि छत की दरारों से पानी गिरना आरंभ हो गया। ऊपर की मंजिल में रहने वाला व्यक्ति प्रभातकालीन कीर्तनों को पसंद नहीं करता था और यह दिखाने के लिए कि यह जल-वर्षा आकस्मिक नहीं थी वह जोर-जोर से पैर पटकने लगा ।

प्रभुपाद ने ऊपर देखा, और बोले, "यह क्या है ?" वे क्षुब्ध थे, लेकिन उनकी वाणी में विनोद का भी स्पर्श था। लड़कों ने चारों ओर देखा । जल कई स्थानों पर गिर रहा था। स्वामीजी बोले, “कुछ बर्तन लाओ ।" एक लड़का प्रभुपाद के रसोई-घर से कुछ बर्तन लेने सीढ़ियों से ऊपर की ओर दौड़ा। शीघ्र ही तीन स्थानों पर टपकता जल तीन पात्रों में इकट्ठा होने लगा ।

उमापति ने पूछा, "वह ऐसा कैसे कर रहा है ? क्या वह फर्श पर जल उंड़ेल रहा है ?” प्रभुपाद ने ब्रह्मानंद से कहा कि वह ऊपर जाकर उस व्यक्ति से बात करे और उसे बताए कि कीर्तन शान्तिपूर्ण होगा । तब उन्होंने लोगों से पानी इकट्ठा होने वाले पात्रों के अंतरालों में बैठ जाने और कीर्तन चालू रखने को कहा। वे बोले, “कोमल स्वर में कीर्तन करो, कोमल स्वर

में ।”

"यह

उस सायंकाल मंदिर अभ्यागतों से भर गया था। प्रभुपाद ने कहा, परमेश्वर की महती कृपा है कि वे आप सब के साथ साहचर्य चाहते हैं।

अतः आपको उनका स्वागत करना चाहिए । सदैव हरे कृष्ण कीर्तन करते रहिए । हाँ, यह भाषा संस्कृत है और आप में से कुछ लोग अर्थ नहीं जानते। फिर भी यह इतनी आकर्षक है कि जब हम पार्क में हरे कृष्ण कीर्तन कर रहे थे तो ओह ! वृद्ध महिलाएँ, भद्र पुरुष, लड़के, लड़कियाँ — सब उसमें सम्मिलित हो गए ।.... लेकिन कुछ शिकायतें भी हैं। जैसे हमें प्रतिदिन सूचना मिल रही है कि हमारे संकीर्तन आन्दोलन से यहाँ के कुछ निवासियों को बाधा हो रही है । "

रवीन्द्र स्वरूप सेकंड एवन्यू होता हुआ स्वामीजी की सवेरे की कक्षा के लिए जा रहा था। तभी जेम्स स्पा कैंडी एंड न्यूज स्टोर से उसका एक परिचित बाहर निकला और बोला, “अरे! तुम्हारे स्वामी समाचार पत्रों में आ गए हैं। क्या तुमने देखा ?” रवीन्द्र स्वरूप ने उत्तर दिया, "हाँ, न्यू यार्क टाइम्स में । "

उसका मित्र बोला, "नहीं, आज।" और उसने ईस्ट विलेज अदर का सबसे ताजा संस्करण दिखाया। उसका पहला पृष्ठ स्वामीजी के दुरंगे चित्र से भरा था। उनके जुड़े हाथ गरिमापूर्वक उनकी कमर पर रखे थे। वे टाम्पकिंस स्क्वायर पार्क में विशाल वृक्ष के सामने पीले परिधान में खड़े थे। वे अपने चारों ओर इकट्ठी एक छोटी श्रोता - मण्डली को सम्बोधित कर रहे थे; उनके शिष्य उनके चरणों के पास बैठे थे। सेंट ब्रिगिड की विशाल मिनार उनके पीछे छायाचित्र का निर्माण कर रही थी ।

'अब धरती की रक्षा

चित्र के ऊपर एक पंक्ति में शीर्षक अंकित था, करो। " शीर्षक के नीचे था मंत्र : हरे कृष्ण, हरे कृष्ण, कृष्ण कृष्ण, हरे हरे / हरे राम, हरे राम, राम राम हरे हरे। मंत्र के नीचे ये शब्द थे, " बीच का पन्ना देखिए ।" पूरे मुखपृष्ठ पर इतना ही था ।

रवीन्द्र स्वरूप ने समाचार पत्र ले लिया और बीच का पन्ना खोला । वहाँ उसने एक लम्बा लेख स्वामीजी के बड़े चित्र के साथ देखा । स्वामीजी का बायां हाथ उनके सिर पर था और वे असाधारण आकस्मिक क्षण में प्रसन्नता - विभोर की मुद्रा में मुसकरा रहे थे । रवीन्द्र स्वरूप के मित्र ने समाचार - पत्र उसे दे दिया और रवीन्द्र स्वरूप उसे लेकर शीघ्रता से स्वामीजी के पास

पहुँचा। जब वह स्टोरफ्रंट पहुँचा तो उसके साथ कई अन्य लड़के मिल कर स्वामीजी को समाचार पत्र दिखाने गए ।

समाचार पत्र देते हुए रवीन्द्र स्वरूप बोला, “यह देखिए । यह यहाँ का सबसे बड़ा समाचार पत्र है। यहाँ इसे हर एक पढ़ता है।” प्रभुपाद के नेत्र विस्फारित हो उठे। उन्होंने उच्च स्वर में पढ़ा, “अब धरती की रक्षा करो।' और उन्होंने लड़कों के चेहरों को देखा। उमापति और हयग्रीव आश्चर्यचकित थे कि " 'अब धरती की रक्षा करो" का अर्थ क्या था ? क्या यह एक पारिस्थितिक श्लेष था ? क्या इसमें आणविक विनाश से रक्षा करने का संदर्भ था ? क्या यह स्वामीजी के धर्म प्रचार का उपहास था ? "

उमापति बोला, “आखिर यह ईस्ट विलेज अदर है। इसका अर्थ कुछ भी हो सकता है । "

कीर्तनानन्द ने कहा, “स्वामीजी धरती को बचा रहे हैं । "

प्रभुपाद बोले, "हम प्रयत्न कर रहे हैं, कृष्ण की कृपा से" बड़े करीने से उन्होंने अपना चश्मा लगाया, जिसे सामान्यतः वे भागवतम् पढ़ने के लिए सुरक्षित रखते थे, और बड़े ध्यान से ऊपर से नीचे तक पृष्ठ का मूल्यांकन किया । समाचार-पत्र उनके हाथ में बेतुका प्रतीत होता था । तब वे पृष्ठों को उलटने लगे। वे मध्य पृष्ठ पर रुक गए, अपना चित्र देखा और हँस पड़े, फिर वे लेख को पढ़ते हुए कुछ रुके और बोले, “लो, इसे पढ़ो।' उन्होंने समाचार - पत्र हयग्रीव को दे दिया ।

हयग्रीव ने उच्च स्वर में पढ़ना आरंभ किया, "एक बार .... वह धर्म-शास्त्रज्ञों की एक काल्पनिक कहानी थी, जिन्होंने एक बूढ़े व्यक्ति की एक चर्च में हत्या कर दी थी और तब समाचार पत्रों में यह खबर छपी कि ईश्वर अब मर गया है। कहानी चलती रही, कुछ लोगों ने उस पर विश्वास नहीं किया। उन्होंने कब्र खोद कर शव को बाहर निकाला, किन्तु " वह शव ईश्वर का नहीं, वरन् ईश्वर के सार्वजनिक-सम्बन्ध अधिकारी का था— अर्थात् संगठित धर्म का । तुरन्त यह शुभ समाचार विश्व भर में फैल गया कि ईश्वर जीवित है।.... किन्तु ईश्वर कहाँ था ?" हयग्रीव ने नाटकीय ढंग से सम्मोहित श्रोता - मण्डली को पढ़ कर सुनाया-

न्यू यार्क टाइम्स में पूरे पृष्ठ का एक विज्ञापन मार्टिन लूथर किंग और रोनाल्ड रीगन के हस्ताक्षर से छपा था जिसमें ईश्वर का अता-पता खोज निकालने और उसकी सूचना देने वाले को पुरस्कार की घोषणा थी। किन्तु उसका कोई उत्तर

नहीं आया। लोगों को चिन्ता होने लगी और आश्चर्य भी । कुछ लोगों ने कहा, “ ईश्वर शक्कर के घनाकार मिष्ठान्नों में रहता है, कुछ धीरे से बोले – उसके निवास का यह पवित्र रहस्य सिगरेट में है । "

किन्तु जब यह सब चल रहा था तभी एक मनुष्य जिसने अपने निर्धारित सत्तर वर्ष से एक वर्ष अधिक जी लिया था, न्यू यार्क के ईस्ट विलेज में आया और कहने लगा कि वह संसार के सामने सिद्ध कर सकता है कि उसे पता है कि ईश्वर कहाँ पाया जा सकता है। केवल तीन महीने में ए.सी. भक्तिवेदान्त नाम का वह व्यक्ति संसार के सब से उद्दंड समूह — बंजारों, शराब, चरस पीने वालों और हिप्पियों को आश्वस्त करने में सफल हो गया कि वह ईश्वर तक पहुँचने का मार्ग जानता है: गंदी लतों को छोड़ दो, कीर्तन करो और शरण में आ जाओ । यह नए ढंग का संत — डा. लियरी के प्रति पूरे सम्मान के बावजूद कहना पड़ता है— 'चेतना विस्तार' का एक नया ब्रांड लेकर सामने आया है जो शराब से मधुर है, चरस से सस्ता है और जिसे अपराध नहीं माना जाता है। यह सब कैसे संभव है ? यह स्वामी कहता है, “कृष्ण के माध्यम से । "

लड़के जय-जयकार और हर्ष - ध्वनि करने लगे। अच्युतानंद ने समाचार - पत्र की भाषा के लिए स्वामीजी से क्षमा-याचना की : " यह हिप्पियों का समाचार - पत्र है । "

प्रभुपाद ने कहा – “ठीक है। उसने अपनी निजी शैली में लिखा है। किन्तु उसने कहा है कि हम ईश्वर को दे रहे हैं। वे कहते हैं कि ईश्वर मर गया है लेकिन यह मिथ्या है। हम प्रत्यक्ष प्रस्तुत कर रहे हैं, “यह है ईश्वर ।” कौन अस्वीकार कर सकता है। बहुत सारे धर्म-गुरु और लोग कह सकते हैं कि ईश्वर नहीं है, किन्तु वैष्णव तुम्हें ईश्वर को निःशुल्क देता है, किसी वस्तु की तरह यह है ईश्वर । अतः लेख के लेखक ने इसे रेखांकित किया है। यह बहुत अच्छा है। इस पत्र को सुरक्षित रखो । यह बहुत महत्त्वपूर्ण है।”

लेख लम्बा था। इसमें कहा गया था कि “छिद्रान्वेषी न्यू यार्क के निवासी के लिए जीवन्त, दृश्यमान, साकार प्रमाण २६ सेकंड एवन्यू में प्रति सोम, बुध और शुक्रवार को सात और नौ बजे के बीच मिल सकता है।” लेख में, प्रभुपाद के व्याख्यान से उद्धृत करते हुए, संध्या के कीर्तनों का वर्णन किया गया था। लयबद्ध, सम्मोहक १६ शब्दों का यह कीर्तन — हरे कृष्ण, हरे कृष्ण, कृष्ण कृष्ण, हरे हरे हरे राम, हरे राम, राम राम, हरे हरे—करताल ध्वनि, मंजीरों और घंटियों के बाजे के साथ घंटो गाया जाता है।

लेख में स्वामीजी के शिष्यों का साक्ष्य भी सम्मिलित किया गया था :

जब मैं सड़क पर जा रहा था तो, जैसा कि स्वामीजी ने कहा था, मैने मंत्र का जप आरंभ कर दिया— हरे कृष्ण, हरे कृष्ण, कृष्ण कृष्ण, हरे हरे हरे राम, हरे राम, राम राम हरे हरे — मैने इस मंत्र का जप बार-बार किया और अकस्मात् हर वस्तु बहुत सुंदर दिखाई देने लगी, बच्चे, वृद्ध पुरुष और महिलाएँ यहाँ तक कि लताएँ भी सुंदर दिखाई देने लगीं..... वृक्षों और फूलों का तो कहना ही क्या । ऐसा लगने लगा मानों मैने एल. एस. डी. की दर्जनों गोलियाँ खा ली हों । किन्तु मैं जानता था कि दोनों में बड़ा अंतर था । इससे कभी नीचे जाना नहीं होता । मैं इसे हमेशा कर सकता हूँ, कभी भी, कहीं भी, यह सदैव हमारे साथ है।

लेख में, बिना किसी व्यंग्य के स्वामीजी के काफी, चाय, मांस, अण्डे और सिगरेट का सेवन मना करने वाले आदेश की चर्चा की गई थी, "मारिजुआना, एल. एस. डी., शराब, अवैध यौनाचार का तो कुछ कहना ही नहीं ।" लेखक ने स्पष्ट रूप से स्वामीजी की प्रशंसा की थी: "स्फूर्तिपूर्ण वृद्ध पुरुष साकार - भक्तिदर्शन के एक प्रमुख व्याख्याता जो मानता है कि ईश्वर व्यक्ति है किन्तु उनका विग्रह आध्यात्मिक है।” लेख का अंत इस संकेत के साथ हुआ था कि टाम्पकिंस स्क्वायर पार्क में इस तरह की आध्यात्मिक घटनाएँ प्रति सप्ताहांत में होंगी : “वहाँ होविंग हिल की छाया में, ईश्वर, भाव- समाधि जैसे नृत्य और कीर्तन में निवास करता है।"

अक्तूबर १२

एक

"लव पैजेंट रैली” होने वाली थी जिसका उद्देश्य कैलीफोर्निया के एल. एस. डी. रखने पर प्रतिबन्ध लगाने वाले नए कानून के उपलक्ष्य में उत्सव मनाना था। रैली के उन्नाय कों ने अनुरोध किया था कि प्रत्येक व्यक्ति टाम्पकिंस स्क्वायर पार्क में होने वाली इस रैली में खूब सज-धजकर आए । यद्यपि स्वामीजी के भक्तों का एल. एस. डी. कानूनों से कुछ लेना-देना नहीं था, किन्तु उन्होंने हरे कृष्ण कीर्तन के प्रचार के लिए रैली को एक अच्छा अवसर समझा। अतः स्वामीजी के आशीर्वाद के साथ वे करताल और घर का बना तम्बूरा लेकर गए।

भक्तजन अपनी गहरे रंग की पतलूनों और हल्की ज़िप युक्त जैकटों में बहुत सामान्य लग रहे थे। उनके आस-पास के लोगों की वेशभूषा बहुत शान-शौकत वाली थी— टाइ-रंजित कमीजें, टाई-रंजित पतलूनें, महंगे परिधान,

रंगे हुए चेहरे । वहाँ सरकस का एक विदूषक भी था। फग्स राक बैंड का तुली कूफरबर्ग, अमेरिका का राष्ट्रीय ध्वज लिए था जिस पर तारों को लव की वर्तनी के रूप में व्यवस्थित किया गया था । किन्तु अभी तक रैली केवल एक व्यर्थ का आयोजन लग रही थी— नशे में धुत कुछ अजीब युवकों का समुदाय उस बड़े वृक्ष के निकट चक्कर काट रहा था जहाँ अभी कुछ ही दिन पहले स्वामीजी ने कीर्तन किया था और व्याख्यान दिया

था ।

स्वामीजी के लड़के भीड़ में से अपना रास्ता बनाते हुए एक केन्द्रीय स्थान पर पहुँचे और हरे कृष्ण कीर्तन करने लगे। एक भीड़ धक्कमधक्का करती हुई उनके चारों ओर जमा हो गई; हर एक मित्रता के भाव से भरा था — केवल व्यवस्था नहीं थी और किसी का कोई उद्देश्य नहीं लग रहा था। रैली के पीछे धारणा यह थी कि प्रेम का प्रदर्शन हो और एल. एस. डी. के दिखावे का जुलूस निकाला जाय, किन्तु ऐसा कुछ हो नहीं रहा था । कोई सुलगती हुई धूप की बाल्टी लिए चारों ओर घूम रहा था । कुछ हिप्पी पार्क की बेंचों पर बैठ गए थे और रंगीन चश्मों से प्रत्येक वस्तु को देख रहे थे । किन्तु कीर्तन आकर्षक था और कीर्तन करने वाले लड़कों के इर्द-गिर्द शीघ्र ही एक भीड़ जमा हो गई।

कीर्तनानंद, जिसका मुंड़ा हुआ सिर बुनी हुई टोपी से ढका था, लम्बे, काले फ्रेम का चश्मा पहने और घुंघराले बालों वाले जगन्नाथ की बगल में खड़ा था। मंजीरे बजाता हुआ जगन्नाथ सींगों वाले उल्लू की तरह लग रहा था। उमापति भी मंजीरे बजा रहा था। वह गंभीर लग रहा था। ब्रह्मानंद इन सब के सामने फर्श पर बैठा था। उसके नेत्र बंद थे। विस्फारित मुँह से वह हरे कृष्ण कीर्तन कर रहा था। उसकी बगल में रैफल बैठा था और अन्यमनस्क दिखाई दे रहा था। उसकी बगल में वीतराग जैसा कृश मुख- मण्डल वाला रवीन्द्र स्वरूप था । पास ही में, पुलिस का एक सिपाही खड़ा - खड़ा यह सब देख रहा था ।

हिप्पियों ने कीर्तन को आगे बढ़ाना आरंभ कर दिया। वे एकत्रित थे, किन्तु वहाँ न कोई केन्द्र था, न कोई व्याख्यान और न कोई ध्वनि विस्तारक संगीत । लेकिन तालियाँ बजाकर वे झूमने लगे और कीर्तन में तल्लीन होने लगे, मानो यही उनका एकमात्र लक्ष्य था । कीर्तन जोर पकड़ता गया और एक घंटे बाद समूह स्वयं - स्फूर्त नृत्य में प्रवृत्त हो गया। हाथ से हाथ मिलाकर

और उच्च स्वर में हरे कृष्ण, हरे कृष्ण, कृष्ण कृष्ण, हरे हरे । हरे राम, हरे राम, राम राम,

राम राम हरे हरे गायन करते हुए, वे वृक्ष और स्वामीजी के शिष्यों के चारों ओर उछल-कूद और नृत्य करने लगे। हिप्पियों के लिए, वास्तव में, यह लव - पैजेंट रैली थी और जिस प्रेम और शान्ति की वे खोज में थे, वह उन्हें मिल गई थी - वह इसी मंत्र में थी । हरे कृष्ण उनका स्तुति गान बन गया था। यही उनके एकत्र होने का कारण था और यही लव- पैजेंट रैली का प्राण था । वे ठीक-ठाक नहीं जानते थे कि मंत्र का अर्थ क्या है, किन्तु उसे उन्होंने आत्मा की किसी गंभीर वास्तविकता के रूप में स्वीकार कर लिया था। उनके लिए वह एक आध्यात्मिक स्पन्दन बन गया था — जिससे वे समरस हो रहे थे । यहाँ तक कि विदूषक भी गाने और नाचने लगे थे। केवल पुलिस का आदमी गंभीर बना अलग खड़ा रहा, यद्यपि उसकी समझ में भी आ चला था कि यह प्रदर्शन कोई शान्तिपूर्ण मामला है। नृत्य चलता रहा और आसन्न गोधूलि बेला ही उसके समापन का कारण बनी ।

शिष्यगण जो कुछ घटित हुआ था, उसे बताने के लिए शीघ्रतापूर्वक स्वामीजी के पास लौटे। वे अपने डेस्क के सामने बैठे श्रीमद्भागवतम् का अनुवाद कर रहे थे । यद्यपि वे स्वयं कीर्तन में उपस्थित नहीं थे, उनके शिष्य उनके आदेशानुसार कार्य करते रहे थे । इस तरह अपने कक्ष को छोड़े बिना भी, स्वामीजी हरे कृष्ण कीर्तन का प्रचार कर रहे थे। अब वे समाचार पाने की प्रतीक्षा में बैठे थे ।

शिष्यगण स्वामीजी के कमरे में एकदम तेज़ी से आए। वे चमकते हुए नेत्रों, गर्वदीप्त मुखों और भग्न स्वरों में शुभ समाचार सुनाने लगे । न केवल उन्होंने कर्तव्यनिष्ठा के साथ कीर्तन किया था, वरन् सैंकड़ों अन्य लोगों ने उनका साथ दिया था और आपस में मिल-जुलकर एक बड़े वृत्ताकार के रूप में गाया-नाचा था। थकी हुई आवाज में ब्रह्मानंद बोला – “स्वामीजी आप को यह देखना चाहिए था, यह विलक्षण था ! विलक्षण !" स्वामीजी ने एक के बाद एक करके सभी शिष्यों के चेहरों को देखा और वे स्वयं भी उन्हीं की तरह उल्लसित और आशान्वित हो उठे कि कीर्तन इसी तरह चलता रहेगा। उनके शिष्यों ने सिद्ध कर दिया था कि हरे कृष्ण कीर्तन प्रेम और शान्ति के आन्दोलन का नेतृत्व कर सकता है। यह आगे बढ़ेगा और सैंकड़ों लोग इसमें सहभागी बनेंगे। स्वामीजी ने शिष्यों से कहा, "यह

तुम पर निर्भर करता है कि कीर्तन का प्रसार करो। मैं एक बूढ़ा व्यक्ति हूँ, किन्तु तुम लोग युवा हो और तुम यह कार्य कर सकते हो। "

अक्तूबर १३

द विलेज वायस ने लव- पैजेंट रैली के चार बृहन् चित्र प्रकाशित किए। उसने लिखा :

समारोह का मेरुदण्ड संस्कृत भगवद्गीता के पवित्र श्लोकों और मंत्रों का कीर्तन था और तीन घंटों तक लययुक्त गायन के सागर में यह कीर्तन नौका की भाँति लहराता था। सेकंड एवन्यू के एक स्टोरफ्रंट में कार्य करने वाले भक्तिवेदान्त स्वामी के पन्द्रह शिष्यों द्वारा संचालित ढोलों, बाँसुरियों और तम्बूरों की लय से युक्त, इन मंत्रों का आरोहण-अवरोहण चलता रहा ।

अक्तूबर १८

आज रविवार था । और वे टाम्पकिंस स्क्वायर पार्क में फिर गए। उस शरदकालीन अपराह्न में स्वामीजी एक कालीन पर बैठ गए। वे पहले की भान्ति अपना बोंगो बजाने लगे । सदैव की भाँति वे कुशलतापूर्वक ढोलक पर थाप देने लगे और उनकी तेज अंगुलियाँ मृदंग के बोल निकालने लगीं । अपने प्रामाणिक संगीतमय स्वर में उन्होंने अपने पूर्व गुरुओं गौरकिशोर, भक्तिविनोद, भक्तिसिद्धान्त—का स्तुति गान किया । शताब्दियों पुरानी उस शिष्य - परम्परा के, अब १९६० में, संसार के इस सुदूर भाग में, वे जीवित प्रतिनिधि थे । उन्होंने सेवक की भाँति कर्तव्यनिष्ठा, समादर और प्रेम के साथ उनके नामों का गुणगान किया। बाड़ों की भूल-भुलैया से घिरे पार्क के मध्य विशाल ओक वृक्ष की छाया में वे अपने अमेरिकन शिष्यों से घिरे बैठे थे।

और वही जादू फिर घटित हुआ। इस बार हिप्पियों का दल अधिक सहजता और आत्मीयता के साथ आया । एलेन गिन्सबर्ग आया और सैंकड़ों अन्य लोग इकट्ठे हो गए, जबकि प्रभुपाद उच्च स्वर में गा रहे थे — हरे कृष्ण, हरे कृष्ण, कृष्ण कृष्ण, हरे हरे / हरे राम, हरे राम, राम राम, हरे हरे । जो सैंकड़ों लोग इकट्ठे हुए थे उनमें से कुछ थोड़ी देर ठहरे और चले गए। कुछ ने सुनने और कुछ मिनट या पूरे समय तक कीर्तन करते रहने का निर्णय किया। थोड़े-से — बहुत थोड़े-से-ऐसे थे जिन्होंने स्वामीजी के साथ अपने इस मिलन को अविस्मरणीय परिवर्तन के रूप में ग्रहण किया ।

बाब कोरेन्स स्वामीजी को खोज रहा था। वह करीने से सजी अपनी

पत्नी और दो साल के बच्चे, एरिक, के साथ टहल रहा था। बाब कोरेन्स छब्बीस साल का था और न्यू यार्क सिटी जन-कल्याण विभाग में निरीक्षक के रूप में कार्यरत था । वह वाशिंगटन डी.सी. में पल कर बड़ा हुआ था और वहीं उसकी पत्नी से उसकी भेंट हुई थी । उसका चेहरा भरा, माथा चौड़ा, आवाज साफ और नेत्र स्थिर थे । .

बाब : जार्ज वाशिंगटन विश्वविद्यालय से स्नातक की उपाधि लेने के बाद मैने न्यू यार्क सिटी जाने का निश्चय किया जिसे मैं भौतिक जगत का केन्द्र मानता था और जहाँ मैं, जो सर्वोच्च सत्य था, उसे खोजना चाहता था। वहाँ मैं ईस्ट विलेज के सिरे की पहली बड़ी दुकान के पास एक कोने में रहने लगा ।

बाब यह नहीं सोचता था कि उसके काम से सचमुच किसी को कोई लाभ पहुँच रहा था — उसके ग्राहक सालों पुराने अपने उसी दृष्टिकोण और आदतों के साथ चल रहे थे। वह और उसकी पत्नी वेस्ट विलेज के काफी घरों में जाया करते थे, विस्तारित चेतना पर लियरी और एलपर्ट के व्याख्यान सुनते थे और हाल के एक शान्ति अभियान में सम्मिलित हुए थे। बाब को लगने लगा था कि स्नातकोत्तर डिग्री और एक और अच्छा अपार्टमेंट प्राप्त करने की उसकी महत्त्वाकांक्षा अधूरी रही जा रही थी और उसके मन में किसी और चीज की चाह जाग रही थी ।

बाब : मैने आईचिंग के बारे में सुना जो एक ऐसी पुस्तक थी कि माना जाता था कि वह किसी व्यक्ति को जीवन का मार्ग बता सकती थी । अतः मैने किसी को पकड़ कर वह पुस्तक पढ़वाई। उसमें निर्देश था - "अंधकार के बीच से आगे बढ़ो।" इसे मैने एक अच्छा लक्षण माना, एक आध्यात्मिक संकेत । तब मैने द ईस्ट विलेज अदर खरीदा और उसमें “अब धरती की रक्षा करो" शीर्षक लेख पढ़ा। उसमें स्वामीजी का एक चित्र था। मैने एक सिख शिक्षक की एक पुस्तक पढ़ी थी जिसमें लिखा था कि आध्यात्मिक गुरु के बिना उच्च ज्ञान नहीं मिल सकता ।

प्रतिदिन सवेरे काम पर जाते समय बाब स्वामीजी के स्टोरफ्रंट के सामने से गुजरता था । उत्सुकतावश एक बार उसने खिड़की से अंदर झांका। उसे कमरा खाली मिला; उसमें कुछ फूस की चटाइयाँ बिछी थीं और स्वामीजी का एक शिष्य बैठा था । उसने सोचा, “ ओह ! ये लोग बौद्ध हैं।” दरवाजा खुला था, लड़का बाब के पास आया और उसे अंदर आने को कहा ।

कुछ सोचते हुए बाब बोला, "नहीं, धन्यवाद। मुझे बुद्ध धर्म से नहीं ।" और वह अपने काम पर चला गया।

कुछ

लेना-देना

एक बड़ी दुकान में उसने एक दिन प्रभुपाद का भागवतम् उठा लिया और उसके अन्दर देखा । उसको लगा कि वह बहुत ऊँची चीज है और उसे ज्यों का त्यों रख दिया; द ईस्ट विलेज अदर का लेख पढ़ने के बाद उसकी दिलचस्पी बढ़ी। उसने सोचा कि हो सकता है कि शीत ऋतु के आने के पहले आज पार्क में कीर्तन का अंतिम रविवार हो । अतः स्वामीजी और उनके शिष्यों को पाने की आशा लेकर वह पार्क में गया । उसकी पत्नी, एरिक को एक बच्चा - गाड़ी में खींचती हुई, उसकी बगल में चल रही थी। तभी बाब को पार्क के दक्षिणी छोर से मंजीरों की चिंग-चिंग और लययुक्त कीर्तन का सहगान सुनाई दिया। यह सोच कर कि यह स्वामीजी ही हो सकते हैं बाब ने सहगान का अनुसरण किया, जबकि उसकी पत्नी एरिक को झूले पर खेलने के लिए ले गई। बाब अब अकेले ही आगे बढ़ता गया और भीड़ में रास्ता बनाता हुआ वहाँ पहुँचा जहाँ कीर्तन- दल और स्वामीजी वृक्ष के नीचे बैठे थे। सैंकड़ों की भीड़ में बाब एक अनजान व्यक्ति की तरह खड़ा हो गया।

'सब कुछ मेरे कारण हो

उन्नीस वर्षीय जूडी कोस्लोफस्की सोचती थी, रहा है। मैं जो कुछ देखती हूँ, मेरी ही सृष्टि है। मैं ही परमेश्वर हूँ। हर वस्तु मेरी है।” परमेश्वर होने के विचार से जैसे-जैसे वह अभिभूत होती गई, जूडी अपने पिता को, और हर वस्तु को भूलती गई। वह भ्रमित थी : “यदि मैं परमात्मा हूँ तो मैं प्रत्येक वस्तु को नियंत्रित क्यों नहीं कर सकती और एल. एस. डी. से मुझे इतना भय क्यों है ?"

जूडी न्यू यार्क के सिटी कालेज की छात्रा थी और कला तथा इतिहास का विशेष अध्ययन कर रही थी । वह गिटार की शिक्षा रेवरेंड गैरी डेविस से ले रही थी जो विषाद भाव के गायक और ईसाई धर्म के उपदेष्टा थे और जो उसे विषण्ण आत्मा का संगीत सिखा रहे थे। किन्तु आज एल. एस. डी. के प्रभाव से उसके मन में गहरी धारणा बन गई थी कि वह ईश्वर है । अपने पिता से उसका झगड़ा हो गया था। उसके पिता का मन उससे हट गया था। बाप-बेटी के बीच दूरी बढ़ गई थी। जूडी अपने पिता की समझ से बाहर हो गई थी। उसने ब्रांक्स में माँ-बाप का घर छोड़ दिया था और डाउनटाऊन में आ गई थी। वह अपने एक सहेली से मिलने

जा रही थी और टाम्पकिंस स्क्वायर पार्क उसके रास्ते में पड़ता था । जब वह पार्क में पहुँची तो कीर्तन चल रहा था, किन्तु भीड़ के कारण वह कुछ अधिक नहीं देख सकी। जब भीड़ में से रास्ता निकालती हुई वह कुछ पास पहुँची तो उसने कुछ व्यक्तियों को देखा — उनमें एक मुंडित मस्तक था, कई दाढ़ी रखे थे और सब बाहें ऊपर उठाए नाच रहे थे। बीच में उसने स्वामीजी को देखा जो गलीचे पर बैठे ढोल बजा रहे थे।

डान क्लार्क पच्चीस वर्ष का था - दुबला-पतला, गंभीर, सींग की कमानी का चश्मा लगाने वाला । वह प्रगतिशील चलचित्र निर्माता था और उसके पहले चलचित्र का नाम रिबर्थ ( पुनर्जन्म ) था । उसने वियतनाम युद्ध का विरोध अन्तःकरण की प्रेरणा के आधार पर किया था और सरकारी सेवा के विकल्प के रूप में वह एक बालसदन में काम कर रहा था। वह एस. डी. एस. और युद्ध - प्रतिरोधक - लीग का एक सदस्य था । एक विरोध-प्रदर्शन में वह बंदी बनाया जा चुका था और शान्ति - बटन लगाने तथा हाथ कर काली पट्टी बाँधने के अभियोग में एक सप्ताह के लिए नौकरी से निलम्बित कर दिया गया था । वह बौद्ध धर्म मानता था, लेकिन कुछ दिनों से मनोविकास सम्बन्धी दवाओं का भी इस्तेमाल कर रहा था । उसका नारा था – “प्रत्येक वस्तु कुछ नहीं है और कुछ नहीं प्रत्येक वस्तु है ।” इस नारे को मंत्र की तरह दुहराता हुआ वह घूमता रहता था । किन्तु वह अनुभव कर रहा था कि कम-से-कम मनोवैज्ञानिक दृष्टि से उसे भक्तिपरक पौष्टिक की आवश्यकता है। उसका शून्यवादी ध्यान बासी पड़ता जा रहा था ।

डान ने द ईस्ट विलेज अदर में स्वामीजी और उनके कीर्तन के सम्बन्ध में पढ़ा था और आज वह पार्क में उन्हीं की खोज में आया था। कुछ महीने पहले एक दिन शाम को उसने स्वामीजी को देखा था। वह स्वामीजी के स्टोरफ्रंट के सामने सड़क की दूसरी ओर बस की प्रतीक्षा में खड़ा था — वह मिश्रित संचार माध्यमों के एक कार्यक्रम मे अभ्यास के लिए जा रहा था; उसका मित्र साम के लंचनेट में एक क्षण के लिए गया था । उसी समय उसने देखा था कि स्टोरफ्रंट में केसरिया धारण किए हुए घुटे सिर का एक भारतीय व्यक्ति युवाओं के एक छोटे-से समूह को सम्बोधित कर रहा था ।

डान : जब मैने उन्हें देखा तो मुझे लगा कि मैं सड़क पार करके स्टोरफ्रंट में घुस जाऊँ, वहाँ बैठूं और सारे सांसारिक नाते तोड़ दूँ। किन्तु मैंने सोचा

कि "यह केवल मेरे मन की क्षणिक कल्पना है। आखिर, मैं विवाहित हूँ। अपने कार्यक्रम का अभ्यास करने जा रहा हूँ और जो भी हो, मैं स्वामीजी के बारे में कुछ नहीं जानता।” इसलिए मेरा मित्र और मैं बस में सवार हो गए।

किन्तु डान स्टोरफ्रंट से कुछ मकानों की दूरी पर ही रहता था और कभी कभी वह उसके सामने से निकला करता था। एक बार वह फुटपाथ पर खड़े होकर कई मिनट तक खिड़की पर चिपकाए गए श्रीमद्भागवतम्

मुखपृष्ठ को देखता रहा था ।

के

डान : इस पर ग्रहों से घिरा हुआ एक अण्डाकार कमल दिखलाया गया था और उसी क्षण मेरा परिचय आध्यात्मिक ऐन्द्रियकता की धारणा से हुआ । और जब मैंने महाप्रभु चैतन्य और उनके पार्षदों का चित्र खिड़की पर देखा तो वस्तुतः मैं विजित हो गया। मैने सोचा, “हाँ, सचमुच मुझे इसी की जरूरत है—रस की ।"

डान अपनी पत्नी के साथ पार्क में फुटपाथ पर टहल रहा था। वह स्वामीजी की खोज में था, लेकिन वास्तव में वह नहीं जानता था कि उनसे पहचान कैसे करे । उसे गेरुए वस्त्रों को देखने और बौद्ध - शैली में कीर्तन सुनने की आशा थी, लेकिन वह कुछ पा नहीं सका। वह अपनी खोज छोड़ चुका था और केवल यह देखने के लिए चक्कर लगा रहा था कि वहाँ किस तरह के संगीतज्ञ थे. तभी उसने देखा कि एक बड़ी भीड़ जैसे कुछ संगीतज्ञों के इर्द-गिर्द जमा हो रही थी । उसे संगीत - लय ने आकृष्ट किया था । वह एक-दो-तीन, एक-दो-तीन की सरल लय थी जिसमें एक विशेष प्रकार का अलंकरण था...... - चुम्बकीय प्रकार का । उसने भीड़ के ऊपर बीच-बीच में उठती एक बाँह देखी और उसने सोचा कि वहाँ कोई भावमय नृत्य भीड़ के बीच में हो रहा है। तब उसे ढोलक की थाप के साथ, हवा की लहरों के साथ बहता संगीत सुनाई दिया— जो भावमय किस्म का नहीं था। उससे वह और अधिक आकृष्ट हुआ। भीड़ में से होता हुआ वह उत्तरोत्तर निकट होता गया । तब उसने कुछ लोगों को कीर्तन करते हुए देखा। अन्य लोग नाच रहे थे और बाहें इस तरह घुमा रहे थे कि उसने समझा कि अमेरिका के इन्डियनों और एशिया के लोगों के नृत्य की किसी मिश्रित शैली का प्रदर्शन हो रहा है। यह किसी विस्मृत अतीत की चीज मालूम हो रही थी । डान ने निश्चय किया कि जरूर

यह हरे कृष्ण समुदाय होगा । किन्तु वहाँ कोई विशेष परिधान नहीं दिखाई दे रहा था— लोग केवल लोअर ईस्ट साइड की सामान्य वेशभूषा में थे। और स्वामीजी कहाँ थे? तब उसने उन्हें छोटा ढोल बजाते हुए अति सामान्य रूप मैं बैठे देखा। उनके नेत्र बंद थे और एकाग्रता में उनकी भौहें सिकुड़ी हुई थीं।

डान : स्वामीजी की ओर किसी का ध्यान नहीं था और पहले पहल एक कोने में बैठे उस वृद्ध भारतीय को मैने कोई महत्त्व नहीं दिया । कीर्तन में उनकी कोई विशेष भूमिका नहीं लग रही थी । किन्तु धीरे-धीरे मुझे ज्ञान हुआ

कि वे कौन हैं। वे वही स्वामी थे जिनके विषय में मैने समाचार - पत्र में पढ़ा था और जिन्हें स्टोरफ्रंट में देखा था ।

कुछ देर के बाद वे बोले,

बोले, किन्तु मैं उन्हें सुन नहीं सका। मैं इस बात से बड़ा प्रभावित हुआ कि वे इतने अधिक विनम्र पुरुष थे कि किसी मंच पर चढ़ कर बोलने में उनकी रुचि नहीं थी। वे ऐंठ कर चलने वाले नहीं थे, प्रत्युत आंतरिक शान्ति, शक्ति और ज्ञान के साथ अविचल थे ।

बाब : उनके सभी शिष्य उनके चरणों के इर्द-गिर्द बैठे थे। वे कीर्तन कर रहे थे और मैने भी उनके साथ कीर्तन करने और मंत्र सीखने का प्रयत्न किया। मैने हरे कृष्ण कीर्तन को एक शान्ति अभियान में एक बार पहले सुना था और मैने इसे बहुत सुंदर पाया था। उसके बाद स्वामीजी भी बोले थे। मेरी धारणा थी कि यह कोई सांसारिक मनुष्य नहीं है और मैने सोचा- “ यही वह व्यक्ति है जिसकी मुझे तलाश रही है।" वे अन्य हर किसी से भिन्न प्रतीत होते थे, मानो वे किसी अन्य स्थान या विश्व से आए हों। मैं उनकी ओर आकृष्ट हो गया ।

दूसरे कीर्तन के बाद स्वामीजी और उनके शिष्यों ने गलीचा लपेटा, अपने वाद्य यंत्रों को उठाया और वे जाने की तैयारी में लग गए।

बाब पार्क की दूसरी ओर झूले के पास अपनी पत्नी और बच्चे को लेने गया, किन्तु स्वामीजी की छबि उसके मन में बनी रही - " वे अन्य हर किसी से भिन्न प्रतीत होते थे ।” उनका उच्चारण मोटा था, तो भी बाब ने निश्चय किया कि कुछ दिनों में वह स्टोरफ्रंट उनका प्रवचन सुनने जायगा । बाब ने सोचा, "यह मिला एक नेता !"

डान और उसकी पत्नी संगीतज्ञों की विभिन्न मंडलियों का जायजा लेने

के लिए पार्क में चहलकदमी करते रहे। डान की पत्नी को आश्चर्य था कि उसका पति जो इतने शर्मीले स्वभाव का है, कीर्तन में नाचता रहा । डान बोला कि वह किसी दिन स्टोरफ्रंट जाकर स्वामीजी का व्याख्यान सुनेगा ।

जूडी वहाँ खड़ी हुई मतिभ्रम का शिकार हो रही थी। उसके हाथ में स्टे हाई फारएवर ( सदैव ऊँचे बने रहो ) पर्चा था जिसे वह बार-बार पढ़ रही थी । जिस समय वह सोच रही थी कि यहाँ की सारी घटना किसी अन्य ग्रह से प्रकट हुई है, एक व्यक्ति उसके पास आया और बोला, "क्या तुम वहाँ जाना पसंद करोगी जहाँ स्वामीजी हैं?" जूडी ने स्वीकृति में सिर हिला दिया ।

स्टोरफ्रंट पर एक भक्त ने जूडी को प्रसादम् के रूप में एक चपाती दी और उसे स्वामीजी के कक्ष में ऊपर चलने को कहा। ऊपर पहुँच कर वह उस बड़े कमरे में प्रविष्ट हुई जो सुगंधित धूप से भरा था । वहाँ ऊँचे फूलदान रखे थे और फर्श पर तिल के दाने बिखरे थे। उसने देखा कि स्वामीजी ने महाप्रभु चैतन्य और उनके पार्षदों के छोटे-से चित्र के सामने सिर झुकाया, फिर वे खड़े हो गए और कमरे से बाहर आते हुए उसका दरवाजा बंद कर दिया। जूडी ने समझा कि वे फर्श को ही नमस्कार कर रहे थे। उसकी चारों ओर लोग मंद स्वर में माला पर जप कर रहे थे और यद्यपि वह शब्दों को नहीं समझ पा रही थी, लेकिन उसे सब कुछ शान्तिपूर्ण प्रतीत हुआ। स्वामीजी के एक शिष्य ने उसे पीछे के कमरे में चलने के लिए कहा और जिज्ञासा से भरी जूडी उसका अनुगमन करने लगी । वहाँ स्वामीजी अपनी चटाई पर बैठे ज्योतिर्मय प्रतीत हो रहे थे। कमरे में करीब दस लोग और थे ।

प्रभुपाद ने पूछा कि क्या पार्क का कीर्तन उसे पसन्द आया था तो उसने कहा, “मैंने उसे बहुत पसंद किया । "

" क्या तुम पास ही रहती हो ?” उन्होंने पूछा ।

जूडी के मन में विचार कौंध गया कि वह तो सर्व व्यापक सत्य है और उसने ऐसा उत्तर दिया जिसके बारे में उसने सोचा कि वह बहुत ही रहस्यमय प्रतीत हुआ होगा ।

"ओह, मैं ब....हु.... त....ही निकट रहती हूँ।”

स्वामीजी बोले – “अच्छा, तो तुम हमारे प्रातः कालीन कीर्तन और कक्षा

में आ सकती हो ।"

तब उसकी समझ में आया कि वह इतना निकट नहीं रहती और आश्रम पहुँचने के लिए ब्रांक्स से उसे डेढ़ घंटे का सफर करना होगा। किन्तु उसने निश्चय किया कि स्वामीजी ने उसे आने के लिए कहा है तो वह आएगी । तब उसने सोचा कि, "यह तो मैं ऊपरी मन से कह रही हूँ।” किन्तु प्रभुपाद ने उसे आश्वस्त किया, मानो वे उसके विचारों को जान रहे हों कि, "वह ऊपरी मन से कह रही हैं" और कहा कि कीर्तन प्राचीन है, बहुत सरल हैं और उदात्त है।" वे पीछे की ओर झुक गए, “हम शाश्वत हैं,” उन्होंने कहा, “और हमारी चारों ओर की प्रत्येक वस्तु अस्थायी है । " अब जूडी का एल. एस. डी. का नशा उतर रहा था। जिस समय वह स्वामीजी से विदा हुई, बहुत देर हो चुकी थी । वह रात भर आश्रम में ठहरना चाहती थी, किन्तु लड़कों ने उसे अनुमति नहीं दी। लेकिन कीर्तन में सम्मिलित होने का उसने पक्का निश्चय कर लिया था ।

बाब ने जो कुछ पार्क में देखा था उसका अनुसरण करना उसे स्वाभाविक लगा । वह शाम की कक्षा में जाने लगा और उसने भागवतम् का अध्ययन और घर पर जप करना आरंभ कर दिया । भागवतम् के आवरण - पृष्ठ को, जिस पर आध्यात्मिक व्योम चित्रित था, निकाल कर उसने मढ़वा लिया और उसे घर में बनी छोटी-सी वेदी पर स्थापित कर दिया। चित्र पर वह पुष्प अर्पित करता और उसके सामने बैठ कर हरे कृष्ण कीर्तन करता ।

बाब स्वामीजी के दार्शनिक विचारों, उनकी पुस्तकों और उनकी कक्षाओं पर मुग्ध था और प्रारंभ से विस्मय - अभिभूत था कि स्वामीजी की शिक्षाओं में सभी प्रश्नों के उत्तर थे। वह ध्यान से सुनता और स्वीकार करता । " ऐसा लगता था कि एक बार मैंने जब निश्चय कर लिया कि वे सत्य कह रहे हैं, तो जो कुछ वे कहते मैं उसे स्वीकार कर लेता। ऐसा नहीं था कि उसके एक हिस्से को सत्य समझ कर मैं स्वीकार कर लेता और शेष के बारे में मैं सोचता कि बाद में विचार करूँगा ।'

अक्तूबर १९

पार्क में रविवार के कीर्तन के बाद सोमवार का दिन था और डान कीर्तन के लिए स्टोरफ्रंट पहुँचा । कीर्तन पूरे वेग से चल रहा था और जब डान प्रविष्ट हुआ तो पहली चीज जो उसने देखी वह यह थी कि . कुछ

लोग दरवाजे के पास दीवार से सट कर सीधे रखे गए एक पिआनो की आंतों को बजा रहे थे। एक लड़के ने उसे कुछ काठ की लकड़ियाँ दीं और वह बैठ कर कीर्तन में सम्मिलित हो गया। उसके बाद स्वामीजी का व्याख्यान हुआ जो डान की समझ में काफी लम्बा और गंभीर था । व्याख्यान में बताया गया कि कामेच्छा किस तरह बंधन और यातना का कारण बनती है। मंदिर में बहुत भीड़ हो गई थी और वह उमस से भरा था । व्याख्यान सुन कर डान सन्न हो गया था. लेकिन वह रुका रहा क्योंकि वह जानता था कि व्याख्यान के बाद फिर कीर्तन होगा । उसे बेचैनी हुई कि स्वामीजी के सब अनुयायी ब्रह्मचारी हैं, किन्तु चूँकि उसे कीर्तन पसंद था, इसलिए उसने आते रहने का निश्चय किया ।

डान की जैसी आशा थी, स्वामीजी ठीक वैसे नहीं थे। उसने उनको कुछ चिन्तामुक्त, हँसते, परिहास करते, चमकते नेत्रों वाले, विरोधाभासपूर्ण उक्तियों का विधान करने वाले 'ज़ेन रोशी' जैसा कल्पित किया था। लेकिन उसने स्वामीजी को इससे बिल्कुल उलट पाया - बहुत स्पष्टवादी और अपने भाषण में प्रहार करने वाले भी। उनका मुख कोनों पर नीचे की ओर मुड़ा हुआ था जिस कारण वे शोकार्त से लगते थे। डान कीर्तन में प्रसन्नतापूर्वक इस विचार से प्रवृत्त हुआ था कि उसे निर्गुण के ध्यान में सहायता मिलेगी लेकिन स्वामीजी के भाषणों में बराबर इस बात

पर बल था कि ईश्वर

साकार है। डान ने इसका प्रतिरोध किया। उसने मन ही मन प्रभुपाद से तर्क-वितर्क किया। वह डा. राधाकृष्णन की गीता की व्याख्या का पक्षपाती था और स्वामीजी प्रायः ऐसे निर्विशेषवादी विचारों पर क्रूर प्रहार किया करते थे। डान ने देखा कि धीरे-धीरे उसका निर्विशेषवादी अवरोध चूर-चूर हो गया और उसने स्वीकार किया कि स्वामीजी हर पहलू से ठीक हैं।

जूडी सुबह और शाम की दोनों कक्षाओं में आने लगी थी। उसे समय पर स्टोरफ्रंट पहुँचने के लिए सवेरे पाँच बजे उठ जाना पड़ता था । उसके माँ - बाप ने इसका विरोध किया। किन्तु जूडी ने परवाह नहीं की । स्वामीजी की सभाओं में उपस्थित होने के लिए वह सवेरा होने के पहले ही डेढ़ घंटे की रेलयात्रा पूरी कर लेती थी। उनकी सभाओं में उपस्थित होने वाली वह एकमात्र लड़की होती ।

जब स्वामीजी को ज्ञात हुआ कि जूडी कला की छात्रा है तो उन्होंने उससे कृष्ण के लिए चित्र बनाने को कहा। जूडी ने आश्रम के सामने

के कमरे में एक केन्वेस - फलक जमाया और स्वामीजी के निर्देशन में चित्र बनाना आरंभ किया। स्वामीजी ने उसे जो पहला कार्यभार दिया वह था उनके गुरु महाराज श्रील भक्तिसिद्धान्त सरस्वती का चित्र बनाना। उन्होंने उसे एक फोटो दिया और आदेश दिया : गुरु महाराज के गले में चारों ओर एक पुष्प माला होनी चाहिए, टीका पीला होना चाहिए, श्वेत नहीं, और उनके सिर की चारों ओर प्रभा मण्डल नहीं होना चाहिए।

बाब : मैने घर पर कीर्तन और श्रीमद्भागवतम् का अध्ययन करना, तथा स्टोरफ्रंट कक्षाओं में जाना आरंभ कर दिया। शाम के अन्तिम कीर्तन के बाद स्वामीजी एक नकली काठ की प्लेट और एक छोटा-सा चाकू लेते और पाठ - मंच से दो सेब उठाते। सेबों के वे छोटे-छोटे टुकड़े प्लेट में काटते। फिर प्लेट किसी एक शिष्य को दे देते। शिष्य उन्हें एक टुकड़ा सबसे पहले देता और स्वामीजी उस टुकड़े को मुँह में डाल लेते; शेष टुकड़े वहाँ जमी भीड़ में वितरित कर दिए जाते। मुझे याद है कि वे एक बार सेब का टुकड़ा चबा रहे थे तो उसके बीज उन्होंने दीवार से लगे फर्श पर थूक दिए। फर्श से वे बीज उछल कर उनके मंच के निकट फर्श पर जा पड़े। मैं सोच रहा था, “कितना आश्चर्यजनक है। कोई अन्य ऐसा नहीं कर सकता था। अन्य किसी में ऐसा करने का साहस नहीं हो सकता था । '

चलचित्र निर्माता की अपनी सौन्दर्य-दृष्टि से डान ने स्वामीजी के व्यवहार की सराहना की ।

डान: जहाँ प्रभुपाद बैठते थे उसकी बगल में एक कुंड या हौज था । वह इतना निकट था कि प्रभुपाद झुक कर उसका स्पर्श कर सकते थे। कोई सेब काटने के बाद उसका छिल्का वे सीधे कुंड में फेंक देते थे। यह काम वे आकस्मिक करते थे। मैं इससे बहुत प्रभावित था ।

एक बार ब्रह्मानंद उनके पास आया और किसी काम के लिए उस ने पचास सेंट माँगे । प्रभुपाद झुके और अपना छोटा काला पर्स उठाया। वह ऐसा पर्स था जो ऊपर से एक धातु के बकसुए से बंद होता था। उन्होंने उसे झटके से खोला, बहुत सूक्ष्म दृष्टि से उसके भीतर देखा और तब उनका हाथ, अपने शिकार के ऊपर उड़ते हुए बाग- पक्षी के समान, ऊपर उठा । किन्तु हाथ झटके की बजाय बड़ी ही कोमलता से अंदर गया, पचास

सेंट का सिक्का उठा कर फिर इस तरह बाहर निकला मानो किसी बैलून पर तैरता आया हो। यह बड़ा ही शोभायुक्त था। यह नृत्य या बैले था। उन्होंने पचास सेंट का सिक्का निकाला और ब्रह्मानंद के हाथ में रख दिया । मैं इस पर विश्वास नहीं कर सका। यदि कोई आप से पचास सेंट का सिक्का माँगे तो आप अपनी जेब उलट-पलट डालते हैं और सिक्के को उस पर फेंक देते हैं। किन्तु स्वामीजी प्रत्येक वस्तु को कृष्ण की सम्पत्ति मानते प्रतीत होते थे और इस पचास सेंट के सिक्के के मामले में भी उन्होंने कितनी सावधानी बरती ।

कई सप्ताह बीत गए । कुछ शिष्यों ने बाब से दीक्षा के बारे में बात

की

थी, किन्तु वह कुछ निश्चय नहीं कर सका था। वह ठीक-ठीक नहीं जानता था कि दीक्षा क्या होती है। लेकिन उसे ऐसा लगा कि अन्य भक्त उसे दीक्षित देखना चाहते थे क्योंकि वह कार्य - रत था और उसके परिवार था। बाब समझता था कि भक्तगण उसे प्रौढ़ता का प्रतिनिधि और एक मध्यवर्गीय अमेरिकन समझते थे और वे उत्सुक थे कि वह दीक्षा ले ले । बाब की पत्नी को इसमें कोई रुचि नहीं थी और उसके मित्र तो इसके नितान्त विरुद्ध थे। बाब प्रभुपाद या भक्तों के साथ अधिक समय नहीं बिता पाता था, क्योंकि या तो उसे कार्यालय में रहना पड़ता था या घर पर अपने परिवार के साथ ।

बाब : अतएव उन्होंने पूछा कि क्या मैं दीक्षा लेने में रुचि रखता था । मैने कहा कि मैं इसके बारे में सोचूँगा। मैने धूम्रपान बंद नहीं किया था । मैने अंतिम निर्णय नहीं लिया था ।

स्वामीजी से मेरा पहला व्यक्तिगत विचार-विमर्श तब हुआ जब मैंने दीक्षा के लिए कहा। शेष समय मैं उनके प्रति इतने संभ्रम में था कि उनसे बात करने का कभी विचार ही नहीं आया। मैं सदैव उन से बात करना चाहता था, लेकिन जब भी मैं उनसे बात करने की सोचता तो मेरे हाथ-पैर फूल जाते । मैं हमेशा सोचता, “मुझे स्वामीजी से बात करनी चाहिए, हो सकता है मैं कुछ कर सकूँ।” लेकिन मैं हमेशा इसके लिए अपने को अनिच्छुक पाता। मुझे नहीं लगता था कि मेरे लिए वह उपयुक्त स्थान है। कभी लगता कि हो सकता है मैं डर रहा हूँ। लेकिन मैं नित्य सवेरे उठता और बत्तीस बार माला जपता – इनमें से अधिकतर रेलगाड़ी में । मैं भौतिक

संसार से भयभीत था क्योंकि भक्तों से मेरा अधिक संसर्ग नहीं था और

अधिक जप करके मैं अपने को सुरक्षित रखना चाहता था ।

कि

जूडी भी दीक्षा के बारे में सोच रही थी और मैंने उससे पूछा वह क्या करने जा रही है और उसने कहा, “मैं विचार कर रही हूँ ।" और तब उसने मुझसे कहा कि उसने दीक्षा लेने और अपनी तमाम खराब आदतों को छोड़ देने का निर्णय कर लिया है। मैं सोचने लगा कि हो सकता है कि मैं भी इन चीजों को छोड़ दूँ। इसलिए मैंने पूछा कि मुझे क्या करना चाहिए, स्वामीजी के पास कैसे पहुँचना चाहिए ? और कीर्तनानंद ने कहा, “तुम सीधे उनके कमरे में जाओ ।” मुझे आश्चर्य हुआ कि यह कितना आसान था।

मैंने अपने मन में एक व्याख्यान तैयार कर रखा था, "मेरे प्रिय स्वामीजी, क्या आप मुझे अपना शिष्य स्वीकार करेंगे और मुझे कृष्णभावनामृत सिखाएँगे ?” मैं बिना किसी पूर्व सूचना के उनके कमरे पर गया और दरवाजा खटखटाया। मैने उन्हें कहते सुना, "अंदर आ जाइए।" मैं कमरे में दाखिल हुआ और वे अपनी डेस्क के पीछे बैठे हुए थे। वे अकेले थे। मैने नमन किया और उन्होंने मुझे देखा और कहा, “हाँ।” तो मैं बोला, “स्वामीजी क्या आप मुझे अपना शिष्य बनाएँगे ?” और मैं यहीं तक पहुँच पाया था। मैं कहने जा रहा था कि, "और कृष्णभावनामृत की विचारधारा में शिक्षित करेंगे ?” किन्तु उन्होंने मेरी बात मुझे पूरी नहीं करने दी। वे बोले, “हाँ, हाँ" । यह कितना सरल था। मैने सोचा, “अब तो और कुछ करने को नहीं है। उन्होंने मुझे स्वीकार कर लिया है।” अतः मैने उन्हें धन्यवाद दिया, नमन किया और वहाँ से चला आया।

जूडी घबरा गई। वह ऊपर रसोई-घर में कुछ मैले बर्तन रखने गई थी। उसने उत्तर दिया, “हाँ ठीक है, मैं इसी विषय में स्वामीजी से बात करना चाहती हूँ।” और वह प्रभुपाद के कमरे में घुस गई जहाँ वे कुछ अन्य लोगों से बात कर रहे थे।

उसने पूछा, “स्वामीजी, क्या दीक्षा देने की कृपा करेंगे ?”

और स्वामीजी बोले, “क्या तुम चारों नियम जानती हो ?"

“हाँ।”

“क्या तुम उनका पालन कर सकती हो ?"

“हाँ।”

" तो तुम दो सप्ताह में दीक्षित हो सकती हो । '

डान भी दीक्षा के बारे में सोच रहा था। लेकिन अभी वह प्रतीक्षा करना चाहता था। वह सोलह बार माला का जप कर रहा था और सभी कक्षाओं में जाता था, यद्यपि उसकी पत्नी अनिच्छुक थी। अधिकारियों के साथ उसे हमेशा कठिनाई रही थी। किन्तु उसे लगने लगा था कि स्वामीजी उस पर विजय पा रहे हैं और उसकी निर्विशेषवादी बाधा धीरे-धीरे मिटाते जा रहे हैं।

दो सप्ताह बाद प्रभुपाद ने दूसरा दीक्षा - समारोह आयोजित किया। बाब रूपानुग बन गया, जूडी जदुरानी हो गई और डान को अभी कुछ और अधिक समय की जरूरत थी ।

 
 
 
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