किन्तु हम लोग यह सुन कर सन्न रह गए कि वे हमें छोड़ कर जा रहे हैं। मैंने कभी नहीं सोचा था कि कृष्णभावनामृत का प्रसार लोअर ईस्ट साइड के बाहर होगा, न्यू यार्क सिटी का तो कहना ही क्या। मैने सोचा कि कृष्णभावानामृत यहाँ आया है और शाश्वत रूप में यहीं रहेगा। ---ब्रह्मानंद हरे कृष्ण लोक-प्रिय हो चला था, पार्कों में इसके नियमित कीर्तन होते और समाचार-पत्रों में समाचार छपते । हयग्रीव इसे “हरे कृष्ण विस्फोट" कहा करता । लोअर ईस्ट साइड के हिप्पी हरे कृष्ण कीर्तन को "सबसे गहरे प्रभाव वाली घटना" समझते थे। उनके विचार में एल. एस. डी. न लेने से स्वामीजी के भक्तों की लोक-प्रियता पर कोई विपरीत प्रभाव नहीं हो रहा था। लोग उन्हें देवदूतों के रूप में स्वीकार करते जो अन्यों तक शान्तिपूर्ण कीर्तन पहुँचाते थे, निःशुल्क भोजन तथा रहने का स्थान उपलब्ध कराते थे। उनके स्थान पर (समय पर पहुँचने पर) अत्यन्त रुचिकर शाकाहारी भोजन निःशुल्क मिल सकता था। उनके स्टोरफ्रंट में दरवाजे की बगल की अलमारी में भारत से प्राप्त पुस्तकें रखी रहती थीं। क्लबों में स्थानीय गवैये उन धुनों को सुनाया करते थे जिन्हें वे पार्क में अथवा मंदिर में स्वामीजी के कीर्तन करते समय उनसे ग्रहण कर लेते थे। लोअर ईस्ट साइड कलाकारों और गवैयों का पड़ोस था और अब हरे कृष्ण का भी पड़ोस हो गया था। बर्टन ग्रीन: गवैये कृष्ण कीर्तन, गोविन्द जय जय और अन्य कीर्तनों से प्रभावित थे। मैने जब रेकार्ड बनाए थे, तब इन में से कुछ कीर्तनों का उपयोग किया था। बहुत से गवैये कीर्तन का उपयोग भिन्न भिन्न ढंग से करते थे। हम अन्य गाने आरंभ करते और थोड़ी ही देर में वे समाप्त हो जाते, लेकिन कीर्तन को हम आधार रूप में चलाते रहते। अन्य तरह के भारी गानों के मध्य भी बहुतों को आध्यात्मिक स्पन्दन सुनाई देने लगा था। लोग भक्त- गवैये होते जा रहे थे। सन्ध्याकालीन कीर्तन सदैव लम्बे होते । ब्रह्मानंद प्रत्येक रात्रि में स्टोरफ्रंट के पिछले दरवाजे पर खड़ा हो जाता और देखता कि छोटा-सा स्टोरफ्रंट इतना भर जाता कि बैठने के लिए स्थान न रह जाता। सामूहिक कीर्तन और वादन में लोगों की बड़ी रुचि दिखाई देती, किन्तु कीर्तन के बाद जब व्याख्यान आरंभ होने को होता तब लोग खिसकने लगते। प्रवचन के आरंभ होने के पूर्व ही आधे लोगों का चले जाना असामान्य बात नहीं थी और कभी कभी तो व्याख्यान के बीच से भी लोग उठ जाते । एक शाम एलेन गिन्सबर्ग अपने साथ सभा में फग्स से सम्बद्ध एड सैंडर्स तथा टुली कुफरबर्ग को ले आया। फग्स एक स्थानीय गवैयों का दल था जिसने अश्लील गीतों में विशेषता के लिए नाम कमा रखा था । एड सैंडर्स के लोक-प्रिय गीतों में से 'स्लम गाडेस आफ लोअर ईस्ट साइड,' 'ग्रुप ग्रोप' तथा 'आई कैननाट गेट हाई' सम्मिलित थे । एड सैंडर्स के बाल गहरे लाल थे और दाढ़ी बिजली जैसी लाल थी । वह कीर्तन के समय गिटार बजाता था । भक्तजन इन प्रतिष्ठित अभ्यागतों को देखकर प्रसन्न थे। फग्स की इस रात्रि में स्वामीजी ने काम - सुख की भ्रान्ति पर बोलने का निश्चय किया। उन्होंने कहा, “यौन- -सुख हमें जन्म-जन्मान्तर तक इस भौतिक जगत से बांधे रखता है। इस प्रसंग में उन्होंने यमुनाचार्य का एक श्लोक जिसे वे प्रायः सुनाया करते थे, उद्धृत किया, " जब से मुझमें कृष्ण - चेतना जगी है तब से जब भी मैं किसी स्त्री के साथ यौन-सम्बन्ध की बात सोचता हूँ तो मेरा मुख उधर से मुड़ जाता है और मैं ऐसे विचार पर थूक देता हूँ।” इसके बाद फग्स कभी नहीं आए। लोअर ईस्ट साइड के हिप्पियों के मध्य, अनुयायी बनाने की इच्छा रखने वाले के लिए, निश्चय ही यौन सुख के विरुद्ध बोलना कोई अच्छी चाल नहीं थी । किन्तु भक्तिवेदान्त स्वामी ने कभी अपने संदेश को बदलने का विचार नहीं किया। वास्तव में जब उमापति ने बताया कि अमरीकी लोग यह सुनना पसंद नहीं करते कि यौनाचार मात्र संतानोत्पत्ति के लिए है तो प्रभुपाद ने उत्तर दिया, “मैं अमरीकियों को खुश करने के लिए अपनी विचारधारा नहीं बदल सकता । " एक संध्या को मन्दिर की भीड़ में पीछे बैठे इस्कान के अटार्नी, स्टीव गोल्डस्मिथ, ने पूछा, “ यौनाचार के सम्बन्ध में आप का क्या मत है ?" प्रभुपाद बोले, “यौनाचार केवल अपनी पत्नी के साथ होना चाहिए और वह भी संयम के साथ । यौनाचार, कृष्ण-भक्त संतान बढ़ाने के लिए हो । मेरे गुरु महाराज कहा करते थे कि कृष्ण-भक्त संतान उत्पन्न करने के लिए वे सैंकड़ों बार यौनाचार करने को तैयार थे। लेकिन इस युग में यह बहुत कठिन है। इसलिए वे ब्रह्मचारी बने रहे । मिस्टर गोल्डस्मिथ ने प्रतिवाद किया, "लेकिन यौनाचार की वासना तो बड़ी प्रबल होती है। स्त्री के लिए मनुष्य के मन में जो भावना है, उससे इनकार नहीं किया जा सकता। प्रभुपाद ने उत्तर दिया, “इसलिए हर समाज में विवाह का प्रावधान है। आप एक स्त्री के साथ विवाह करके शान्तिपूर्वक रह सकते हैं । किन्तु इन्द्रिय-तृप्ति के लिए पत्नी का उपभोग मशीन की तरह नहीं होना चाहिए। संभोग मास में केवल एक बार किया जाय और वह भी केवल सन्तानोत्पत्ति के लिए।' स्वामीजी के ठीक बाएं, झूलती भारी झांझ के पास बैठा, हयग्रीव बोल उठा, “क्या मास में केवल एक बार ?” और विनोदपूर्ण परिहास के साथ उसने ऊंची आवाज़ में आगे कहा, "इससे अच्छा यह होगा कि इसे एकदम भुला दिया जाय ।' “हाँ, यही तो; बहुत अच्छे लड़के हो !” कह कर स्वामीजी हँसने लगे और उनके साथ सभी हँस पड़े, “सबसे अच्छा यह है कि इसके विषय में सोचा ही न जाय । सर्वोत्तम यह है कि हरे कृष्ण का जप किया जाय।" और उन्होंने अपने हाथ ऊपर उठाए, मानो वे माला पर जप कर रहे हों। " इस तरह हम कितनी ही झंझटों से बच जायँगे । विषय-कामना तो खुजलाहट जैसी है, बस इतना ही । और जब हम खुजलाते हैं तो खुजलाहट बढ़ती जाती है, इसलिए हमें खुजलाहट को सहन कर लेना चाहिए और कृष्ण से सहायता की प्रार्थना करनी चाहिए। यह सरल नहीं है। भौतिक जगत में संभोग सब से बड़ा सुख है, और सब से बड़ा बंधन भी । " किन्तु स्टीव गोल्डस्मिथ अपना सिर हिलाता रहा। प्रभुपाद ने उसकी ओर देखा, मुसकराकर वे बोले, "क्या अब भी कोई समस्या है ? " “हाँ, समस्या तो वही है, यह सिद्ध हो चुका है कि संभोग के वेग को दमन करना खतरनाक है। एक सिद्धान्त है कि युद्ध इसलिए होते हैं क्योंकि...' प्रभुपाद बीच में ही बोल पड़े- "लोग मांस खा रहे हैं। जब तक लोग मांस खाते रहेंगे, युद्ध होते रहेंगे। और जब कोई मनुष्य मांस खाता है तो वह अवैध यौनाचार भी करेगा।" स्टीव गोल्डस्मिथ इस्कान का प्रभावशाली मित्र और समर्थक था । किन्तु प्रभुपाद "अमरीकियों को प्रसन्न करने" मात्र के लिए अपने जीवन-दर्शन में कोई परिवर्तन नहीं ला सकते थे। *** वेस्ट फिफ्टी सेवेंथ स्ट्रीट में स्थित जूडसन हाल का एक रात का किराया दो सौ डालर था। रायराम का विचार था कि अब समय आ गया है कि स्वामीजी न्यूयार्क के कुछ अधिक सुविज्ञ लोगों तक पहुँचने का प्रयत्न करें और चूँकि जूडसन हाल कार्नेगीहाल के निकट था और वहाँ कभी कभी रोचक गायन-वादन- गोष्ठियाँ और व्याख्यान होते थे, इसलिए प्रारंभ करने के लिए वह अच्छा स्थान होगा। स्वामीजी इस विचार से सहमत हो गए, और रायराम ने एक घोषणा छपवाई जिसे उसने नगर के मध्य भाग में पुस्तक भंडारों मं बंटवा दिया। कार्यक्रम की रात को भक्तों ने नगर के मध्यभाग के आमोद-प्रमोद के क्षेत्रों का चक्कर लगाया और ढोलक बजाते हुए घोषणा-पत्रों का वितरण किया । तब वे जूडसन हाल में कार्यक्रम के लिए वापस गए। कार्यक्रम में केवल सात लोग उपस्थित थे। भक्त भय से आक्रान्त थे—उन्होंने स्वामीजी को गुमराह किया था और एक महीने के किराए के बराबर धन व्यय कर डाला था। रायराम ने कहा, "यदि आप चाहें तो हम कार्यक्रम रद्द कर सकते हैं।” प्रभुपाद ने उत्तर दिया, "नहीं, हम लोग कीर्तन करेंगे, और व्याख्यान देंगे।" इसलिए भक्तों ने मंच पर स्थान ग्रहण किया और स्वामीजी के साथ कीर्तन में सहभागी बने तथा नृत्य करते रहे, और जब स्वामीजी व्याख्यान देने लगे और उनकी वाणी रिक्त हाल में गूँजने लगी तो भक्तजन उनकी बगल में बैठे रहे। उसके बाद स्वामीजी ने प्रश्न आमंत्रित किए और एक युवक ने जो लगभग पन्द्रह रिक्त पंक्तियों के पीछे बैठा था, पूछा कि क्या मेरा यह समझना ठीक है कि आप का उद्देश्य मूलतः अकिंचन युवा वर्ग के सुधार के लिए है। प्रभुपाद ने उत्तर दिया, “नहीं, इस भौतिक संसार में प्रत्येक व्यक्ति गुमराह और अकिंचन है—इसमें तथाकथित सफल व्यक्ति भी शामिल हैं—क्योंकि हर एक ने कृष्ण को विस्मृत कर दिया है।" कार्यक्रम के पश्चात् स्वामीजी बाहर जाने के दरवाजे के पास एक कुर्सी पर बैठ गए जहाँ से वहाँ इकट्ठे थोड़े-से लोग बाहर जा रहे थे । प्रतिष्ठित दिखने वाले एक दम्पति ने अपना परिचय दिया। दोनों हाथ जोड़े और मुसकराते हुए स्वामीजी सीधे बैठ गए। ब्रह्मानंद की माँ वहाँ उपस्थित थी और स्वामीजी उसके प्रति अत्यन्त सौहार्दपूर्ण थे। किन्तु कुल मिलाकर, भक्तगण इतनी क्षीण उपस्थिति पर बहुत उदास थे। रायराम ने क्षमा-याचना की, “स्वामीजी, मैं बहुत दुखी हूँ, हम लोगों ने आपको यहाँ आमंत्रित किया और उपस्थिति न के बराबर रही।" प्रभुपाद ने अपनी भृकुटियाँ ऊपर उठाईं और कहा, "न के बराबर ? क्या तुम ने नारद को नहीं देखा ? क्या तुमने भगवान् ब्रह्मा को नहीं देखा ? जब हरे कृष्ण कीर्तन होता है तो उसमें भाग लेने के लिए देवता भी आते हैं ?" मंदिर वापस पहुँच कर प्रभुपाद ने रायराम को डाँट बताई, “मैंने तुमसे कहा था कि हम लोगों को शुल्क लेना चाहिए था। जब कोई चीज निःशुल्क होती है तो लोग समझते हैं कि वह बेकार होगी। किन्तु यदि तीन डालर या पाँच डालर का प्रवेश शुल्क लगा दो तो लोग समझते हैं, "ओह! कोई बहुत मूल्यवान चीज मिलने वाली है।" बंगाल में एक कहानी प्रचलित है कि एक व्यक्ति घर-घर निःशुल्क आम बांटता घूमता रहा, लेकिन कोई उसके आम लेने को तैयार नहीं हुआ, क्योंकि हर एक यही सोचता कि, 'ओह । यह आदमी ये आम क्यों बांट रहा है ? जरूर इनमें कोई दोष होगा।' तब उसने प्रति आम तीन रुपए लेने शुरू किए और लोगों ने सोचा, "ये आम तो बहुत अच्छे मालूम होते हैं। इनका मूल्य भी केवल तीन रुपए है— बहुत ठीक।” अतः यदि लोग देखते हैं कि कोई वस्तु निःशुल्क है तो वे उसे व्यर्थ समझते हैं। कुछ शुल्क लगा दो और वे सोचने लगेंगे कि यह चीज बहुत बढ़िया होगी।' *** बर्टन ग्रीन संगीतज्ञ था और स्वामीजी का प्रेमी था। मन्दिर में कीर्तन के समय उसे पिआनो बजाने का बड़ा शौक था । बर्टन ग्रीन : हमें एक बड़ी ही विस्फोटक परिस्थिति से बाहर निकलना था— जिसमें यह पूँजीवादी और भौतिकतावादी संसार हमारे सिर पर बोझ सरीखा रखा था। जिस संगीत से हमें बाहर होना था वह अत्यंत भयानक था; उसमें तल्लीन रहने से स्नायविक विघटन का डर था। अतः स्वामीजी के सेकेंड एवन्यू के छोटे-से स्टोरफ्रंट में जाकर कीर्तन करना बड़ी बात थी। सड़कों में माया और विकृतियों का राज्य था— स्वामीजी का स्थान ही ऐसा था जहाँ वास्तव में प्रफुल्लता मिल सकती थी। अपने जीवन में संतुलन पाने के लिए वहाँ जाकर कीर्तन करना वास्तव में मेरे लिए महान् कार्य था। विशेषकर जब मेरी जेब में कुछ अधिक पैसे नहीं थे, वैसी दशा में वहाँ जाना, स्वामीजी के साथ बैठना, प्रसाद ग्रहण करना, भारतीय पाक-शास्त्र, चपातियों तथा अन्य बातों के बारे में जानकारी प्राप्त करना बड़ा महत्त्वपूर्ण था। वहाँ जाना हमेशा ही बहुत बढ़िया बात थी । जब बर्टन ने टाउन हाल थिएटर में अपने पिआनो-वादन के अवसर पर प्रभुपाद से आने का अनुरोध किया तो वे सहमत हो गए । ब्रह्मानंद : हम में से सात या आठ स्नीकर जूते और जीन्स पहन कर स्वामीजी के साथ सबवे ट्रेन से टाउन हाल गए। हम भीतर जाकर बैठ गए और वादन शुरू हुआ। बर्टन ग्रीन बाहर आया, पिआनो का शीर्ष भाग खोला, एक हथौड़ा लिया और पिआनो के अंदर की तंत्रियों पर जोर-जोर से आघात करने लगा। वह डेढ़ घंटे तक ऐसे ही करता रहा। हम सब वहाँ स्वामीजी के साथ बैठे रहे और हम अपनी मालाओं पर जप करने लगे। पूरे थिएटर में करीब दो दर्जन लोग उपस्थित थे। तब मध्यावकाश आया, और स्वामीजी ने प्रसाधन कक्ष में जाना चाहा। मैं सहायता के लिए उनके साथ गया और सिंक का पानी खोल दिया तथा उन्हें एक कागज का रुमाल दिया। स्वामीजी की ये छोटी-मोटी सेवाएँ करना मेरे लिए जीवन की पूर्णता थी। उनमें कुछ ऐसी महानता थी कि ये छोटे-मोटे कार्य करना मेरे लिए पूर्णता थे। मुझे लगता था कि मैं उनका संरक्षण कर रहा हूँ; मैं उनका व्यक्तिगत संरक्षक हूँ। सबवे से आते समय मैने उन्हें बताया था कि वह कैसे चलती है और उनके अन्य प्रश्नों के उत्तर दिए थे। यह सब कुछ बहुत आत्मीय लगता था। अस्तु, हम लोग फिर ऊपर जाकर अपने स्थानों पर बैठ गए। बर्टन ग्रीन सीधे स्वामीजी के पास आया और पूछा, “स्वामीजी, क्या आप प्रसन्न हैं ? आराम में हैं? क्या यह आप को पसन्द आ रहा है ?” और स्वामीजी ने बड़े शिष्ट भाव से कहा—हाँ । तब बर्टन बोला- “अब दूसरा भाग आरंभ होगा।' मैने हस्तक्षेप किया और कहना चाहा कि स्वामीजी बहुत थके हैं और वे दस बजे शयन करते हैं। अब दस बजे से अधिक हो चुके हैं। इसलिए मैंने कहा कि हमें वापस जाना है। किन्तु बर्टन ने स्वामीजी से दूसरे भाग के लिए रुकने का आग्रह किया। अतः हमें रुकना पड़ा । तत्पश्चात् कविगण आए और उन्होंने अपनी कविताएँ सुनाई। हम लोग वहाँ साढ़े ग्यारह तक रहे; उसके बाद सबवे ट्रेन से वापस लौटे। कुछ सप्ताह बाद मुझे मालूम हुआ कि प्रभुपाद के टाउन हाल जाने के पीछे एक दूसरा कारण था—वे उसे मंदिर के लिए किराए पर लेने का विचार कर रहे थे और इसलिए उसे देखना चाहते थे । *** गेट थिएटर एक छोटा-सा प्रेक्षागृह था जो सेकेंड एवन्यू में स्टोरफ्रंट से उत्तर दिशा में करीब दस ब्लाकों की दूरी पर था । सत्स्वरूप : हमने गेट थिएटर एक रात के लिए किराए पर लिया। यह एक अंधेरा स्थान था— पूरे का पूरा काला पुता हुआ । थिएटर करीब-करीब खाली था। हमने पंचतत्त्व के चित्र से युक्त एक चित्रफलक मंच पर रखवाया। स्वामीजी का व्याख्यान हुआ और वह काफी पारिभाषिक हो गया। पंचतत्त्व के चित्र की ओर संकेत करते हुए और उसका संदर्भ देते हुए, उन्होंने उसके प्रत्येक सदस्य के बारे में बताया। सब से पहले उन्होंने समझाया कि महाप्रभु चैतन्य स्वयं परमात्मा हैं जिन्होंने विशुद्ध भक्त के रूप में अवतार लिया था। महाप्रभु चैतन्य के दाएं महाप्रभु नित्यानंद हैं जो उनके प्रथम प्रसार हैं; महाप्रभु नित्यानंद के दाएं अद्वैत हैं जो परमेश्वर श्रीकृष्ण के अवतार हैं। महाप्रभु चैतन्य के बाएं अंतरंगा शक्ति, गदाधर, हैं, और श्रीवास परिपूर्ण भक्त हैं। स्वामीजी के व्याख्यान के बीच, मैं सोच रहा था कि हो सकता है कि श्रोता - मण्डली के लिए यह व्याख्यान बहुत अधिक ऊँचे स्तर का हो। किन्तु मैं स्वामीजी के बिल्कुल निकट बैठा था और अन्य भक्तों की भाँति उनके साथ होने का वास्तविक आनंद ले रहा था । गेट के समारोह के बाद, स्वामीजी और उनके शिष्य इस बात पर सहमत हुए कि थिएटरों को किराए पर लेने का प्रयास करना समय की बरबादी है। इससे तो टाम्पकिंस स्क्वायर पार्क में जाना बेहतर होगा। लोगों को आकृष्ट करने के लिए वह सर्वोत्तम स्थान था और इसमें कुछ खर्च भी नहीं लगता था । *** रात के ११ बजे थे और स्वामीजी के अपार्टमेंट के छोटे-से रसोई-घर में एक ही बत्ती जल रही थी । स्वामीजी ऊपर के कमरे में कीर्तनानंद तथा ब्रह्मानंद को भोजन बनाना सिखा रहे थे, क्योंकि अगले दिन (रविवार को) वे एक सार्वजनिक भोज देने वाले थे। कीर्तनानंद ने सुझाया था कि इसे "प्रीतिभोज" के नाम से विज्ञापित किया जाय और स्वामीजी ने इसे स्वीकार कर लिया था, यद्यपि कुछ लोगों का विचार था कि स्वामीजी द्वारा 'प्रीति भोज' कहा जाना सुनने में विचित्र लगता था। भक्तों ने पड़ोस - भर में विज्ञापन - पत्र लगा दिए थे और स्टोरफ्रंट की खिड़की की ओर संकेत बना दिया था। स्वामीजी ने कहा था कि इतना भोजन बनाना है जो कम-से-कम पचास लोगों के लिए पर्याप्त हो । उन्होंने कहा था कि ऐसे प्रीतिभोज इस्कान के महत्त्वपूर्ण अंग बन जाने चाहिए। जैसा कि वे बार बार पहले भी बता चुके थे कि कृष्ण को अर्पित भोजन दिव्य या आध्यात्मिक बन जाता है और जो कोई भी उस प्रसाद को ग्रहण करता है उसे महान् आध्यात्मिक लाभ होता है। प्रसाद का अर्थ है " कृपा । " उनके दोनों सहायक उनकी बगल में आदरपूर्वक खड़े थे। स्वामीजी इधर-उधर आते-जाते थे तो वे उनके रास्ते से हट जाते थे। कभी वे उनके कंधो के ऊपर से देखने लगते कि वे मसाले किस तरह मिला रहे हैं या आंच पर कड़ाही कैसे रखते हैं, या कब किसी चीज को मांग लेते हैं। स्वामीजी लकड़ी की एक बड़ी कड़छी से बड़े पात्र में खीर हिला रहे थे और उसमें थोड़ा-थोड़ा मिला रहे थे। खीर को लगातार हिलाते रहना जरूरी था । यदि खीर जल गई तो वह बरबाद हो जायगी, कहते हुए उन्होंने कड़छी कीर्तनानंद को दी । आगे, उन्होंने दोनों शिष्यों को बताया कि मक्खन गरम करके उससे घी कैसे बनाया जाता है; कैसे चिकनाई को मट्ठे से अलग किया जाता है। साथ ही साथ उन्होंने शिष्यों को यह भी बताया कि सेब की चटनी कैसे बनाई जाती है। भोजन बनाते समय प्रभुपाद मौन थे। किन्तु जब ब्रह्मानंद ने उनसे पूछा कि वे भोजन बनाने के बारे में इतना अधिक कैसे जानते हैं तो उन्होंने बताया कि, अपनी माताजी को भोजन बनाते हुए देखते रहने से, उन्होंने यह सब सीखा है । वे हँसे और बोले कि यह पश्चिम की तरह नहीं होता है कि मांस का टुकड़ा फ्रिज से निकाला, उसे कड़ाही में डाल कर उबाला, उस पर नमक छिड़का और जानवर की तरह उसे खा गए। और उन्होंने कहा कि कोरिया में लोग कुत्ते खा जाते हैं। मनुष्य को तो अन्न, फल, सब्जियाँ और दुग्धाहार ग्रहण करना चाहिए। विशेष रूप से गाय का वध तो नहीं ही करना चाहिए । जब ब्रह्मानंद चटनी के लिए सेब के टुकड़े काट कर उन्हें एक बर्तन में डाल कर पकाने के लिए भाप पर रख रहा था और कीर्तनानंद खीर हिला रहा था, उस बीच प्रभुपाद भाप पर पकते सेब के टुकड़ों में मिलाने के लिए मसाला तैयार कर रहे थे। जब मसाला छोटे से पात्र में गर्म घी में पटपटाने और धुआँ देने लगा, तो लाल मिर्च और जीरे की परिचित गंध तीखेपन के साथ शिष्यों की नासिका रंध्रो में प्रवेश करने लगी। तीन भिन्न भिन्न क्रियाएँ एक साथ चल रही थीं— खीर पक रही थी, सेब के टुकड़े भाप पर पक रहे थे और चटनी का मसाला भुना जा रहा था। इस बीच प्रभुपाद कीर्तनानंद को बराबर चेतावनी देते रहते थे कि वह खीर को निरन्तर हिलाता रहे और पात्र का पेंदा भी खुरचता रहे। उन्होंने कीर्तनानंद से एक मिनट के लिए कड़छी ले ली और उसे करके दिखाया कि खीर को लगातार कैसे हिलाते रहना चाहिए । उन्होंने समझा कर बताया कि भोज के लिए खीर, चटनी और कुछ और व्यंजन पहले ही तैयार किए जा सकते हैं किन्तु बहुत सी चीज़े अगले दिन सुबह बनानी होंगी। रात में देर तक जगे रहने पर भी दूसरे दिन प्रभुपाद बड़े तड़के उठ गए। सवेरे की कक्षा लेने के बाद वे रसोई-घर में पहुँच गए। अब, उनके सामने के कमरे में बैठे करीब आधे दर्जन शिष्य पूड़ियों और समोसों के लिए आटे की लोई बनाने में तत्पर थे। वे उन्हें दिखा चुके थे कि आटा किस तरह गूँथा जाता है। उमापति थोड़ी देर तक मुलायम लोई को अपनी मुट्ठियों से थपथपा कर उसे मांड चुका था। लेकिन ब्रह्मानंद इसे और अच्छी तरह कर सकता था— अपने पहलवानी वाले शरीर का पूरा भार आटे के बड़े ढेले पर डाल कर । जब स्वामीजी पूड़ियों की परख के लिए कमरे में प्रविष्ट हुए तो उनके शिष्य आदरपूर्वक उन्हें देखने लगे । जब प्रभुपाद उपस्थित होते तो उनके शिष्य सदा गंभीर बने रहते। उन्होंने एक पूड़ी उठाई और उसको परखा। वे बोले, "यह अभीष्ट स्तर की नहीं है, लेकिन इससे काम चल जायगा ।" तब वे तोड़ी -मरोड़ी, बेकार और टेढ़ी-मेढ़ी बेली गई पूड़ियों के मध्य, अपने सहायकों की बगल में बैठ गए जो भरसक प्रयत्न के बावजूद गड़बड़ किए जा रहे थे। उन्होंने लोई से एक छोटा-सा गोल टुकड़ा लिया और अंगुलियों से दबा कर उसे चौड़ा कर दिया और कुशलतापूर्वक उसे तब तक बेलते गए जब तक वह लकड़ी के बेलन के चारों ओर लिपट कर और पूड़ी की पूरी गोल शक्ल प्राप्त कर अलग नहीं जा गिरा। उन्होंने उसे उठा लिया और इस तरह लोई का एक अर्धपारदर्शी पतला (किन्तु अधिक पतला भी नहीं) गोल टुकड़ा दिखाते हुए कहा, "इस तरह बनाओ। लेकिन जल्दी करो।" यह जान कर कि लोई कुछ सख्त है स्वामीजी ने उसमें कुछ घी और थोड़ा दूध डाल कर गूंथ दिया जिससे वह मुलायम हो गई। उन्होंने कहा, “हर चीज बिल्कुल ठीक होनी चाहिए। " और उनके शिष्यों ने सभी छोटे-बड़े कामों को पूरी निष्ठा से सम्पन्न किया । उनमें से, पूड़ी और समोसा जैसी चीजों के बारे में पहले किसने सुना था ? यह सब कुछ नया था, और चुनौती महत्त्वपूर्ण थी; यह भक्तियोग का अंग था। भोजन बनाने का अधिकतर कार्य स्वामीजी ने स्वयं किया; साथ ही वे अपने सहायकों के कामों की निगरानी भी करते रहे। वे सदैव सब के पास ठरहे रहे, नंगे पैर कभी वे रसोई-घर में जाते, कभी सामने के कमरे में, और कभी पीछे के अपने निजी कमरे में, और जब वे अपने पीछे के कमरे में जाते तब उनके शिष्य दीवार की खिड़की से उन्हें देख सकते थे । स्वामीजी ने करीब एक दर्जन व्यंजनों को उन्हें अंत तक अपनी देख-रेख में रखते हुए, तैयार कराया और उनके शिष्यों ने एक एक करके पात्रों में रख कर उन्हें सामने के कमरे में ले जाकर भगवान् चैतन्य के चित्र के समक्ष रखा। व्यंजनों में, हलवा, दाल, दो सब्जियाँ, अच्छा चावल, पूड़ियाँ, समोसे, खीर, सेब की चटनी और गुलाबजामुन — इस्कान की गोलियाँ — शामिल थीं। प्रभुपाद ने इन गुलाबजामुनों को मंद आंच पर जब तक वे सुनहरे भूरे नहीं हो गए, तलते रहने में काफी समय लगाया था । फिर उन्होंने इन्हें छलनी से एक-एक करके निकाल कर शीरे में भिगोया था। वे मानते थे कि ये सुनहरे, घी में तले शीरे में भीगे हुए दूध के गोले, उनके शिष्यों के प्रिय प्रसाद थे। वे इन्हें इस्कान की गोलियाँ कहते थे, क्योंकि वे माया से युद्ध करने में प्रमुख हथियार थे। उन्होंने यहाँ तक अनुमति दे रखी थी कि सामने के कमरे में शीरे से भरा, तैरती इस्कान गोलियों का मर्तबान रखा रहे जहाँ उनके शिष्य बिना उनसे पूछे और बिना नियमित समय का पालन किए, जितनी गोलियाँ चाहें खा सकें। कीर्तनानन्द समोसों में भरने के लिए पीठी ले आया जो उसने पालक और हरी मटर को लेई जैसी पका कर तैयार की थी और जिसमें स्वामीजी ने खूब मसाला मिला दिया था । समोसों में पीठी भरना एक कला है और स्वामीजी ने शिष्यों को दिखा कर बताया कि यह कैसे किया जाता है। उन्होंने लोई को अर्धवृत्ताकर बना कर फिर उसमें कोना निकाला, तब उसे एक चमच मसालेदार पिठी से भरा और सिरों को मोड़ा और बंद करके गर्म घी में पकने के लिए छोड़ दिया। अच्युतानंद बेडौल शक्ल की पूड़ियाँ रसोई-घर में ले आया, जहाँ उसने और कीर्तनानन्द ने दो-दो करके उन्हें खूब तला । यदि घी का तापमान, गूंधे आटे की मुलायमियत, पूड़ियों का आकार, शक्ल और मोटाई सब ठीक हैं तो पूड़ियाँ कुछ ही सेकंडों में पक जाती हैं और घी की ऊपरी सतह तक उठ जाती हैं जहाँ वे फूल कर छोटे गुब्बारों की तरह हो जाती हैं। तब रसोइये उन्हें गत्ते से बने डिब्बे में किनारे पर खड़ा कर देते हैं जिससे उनसे अतिरिक्त घी निचुड़ जाय । जब भोज की आखिरी तैयारियाँ पूरी हो गईं तो स्वामीजी के भक्तों ने हाथों में लगे सख्त आटे को धो डाला और वे नीचे स्टोरफ्रंट में गए जहाँ चटाइयाँ बिछा कर वे अतिथियों की और भोज की प्रतीक्षा करने लगे। ऊपर, स्वामीजी और उनके एक-दो रसोइयों ने सभी व्यंजनों को महाप्रभु चैतन्य को परम्परागत स्तुति गान के साथ अर्पित किया । आरम्भ के कुछ प्रीतिभोजों में आने वालों की संख्या अधिक नहीं थी । किन्तु भक्तों में भोज के प्रसाद के लिए इतना उत्साह था कि अतिथियों की कमी से उन्हें निराशा नहीं हुई । वे सारे के सारे खा जाने को उद्यत थे । सत्स्वरूप : भोज में एक व्यंजन " ब्राह्मण स्पाघेती” नाम का था जो चावल के चूर्ण से बनी गोलियों को घी में पका कर, फिर इन्हें शीरे में रख कर, तैयार किया जाता है। और हलवा, तले हुए पनीर से युक्त पुष्पान्न चावल, समोसे, मूंग की दाल, नमक और मसाले से युक्त पकौड़ियां, पूड़ियाँ, गुलाबजामुन - ये सारे व्यंजन थे । प्रत्येक वस्तु रसीली थी । हयग्रीव की विनोदपूर्ण शब्दावली में “प्रत्येक वस्तु रसीली थी । " भोज में सम्मिलित होना गहन अनुभव के समान था। आशा की जाती थी कि हम पूरे सप्ताह भर कठोर नियमों का पालन करते हुए, अपनी जिव्हा को नियंत्रित रखते हुए, अपनी इन्द्रियों को संयमित करें। यह भोज एक प्रकार का पुरस्कार था। स्वामीजी और कृष्ण हम लोगों को पूर्ण आध्यात्मिक आनंद का स्वाद चखाते थे, यद्यपि हम अभी नौसिखिए थे और अभी भी भौतिक जगत में थे। अपनी थाली लेने के पूर्व मैं प्रार्थना करता, “कृपा करके मुझे कृष्ण - चेतना में अवस्थित रहने दीजिए, क्योंकि यह कितना उत्तम है और मैं कितना पतित । मैं स्वामीजी की सेवा करता रहूँ और अब दिव्य आनन्द के साथ इस भोजन को ग्रहण करूँ ।" और तब मैं खाना शुरू करता, एक स्वाद के बाद दूसरे स्वाद का आनंद लेता — अच्छे चावल का, प्रिय तरकारियों का और रोटी का। गुलाबजामुनों को मैं अंत के लिए लिए छोड़े रखता, यह सोच कर कि इन्हें दुबारा या तिबारा भी ले सकूँगा । हमारी आँखें बड़े-बड़े पात्रों पर लगी रहतीं और हम आश्वस्त रहते कि इच्छानुसार खाने के लिए पर्याप्त है। यह समय पुनर्समर्पण का होता । हम सभी मुक्त स्वाद और इन्द्रिय-तृप्ति का लाभ उठाते। भोजन बहुत महत्त्वपूर्ण था । धीरे-धीरे अतिथियों की उपस्थिति बढ़ती गई। भोज निःशुल्क थे और उनका स्वादिष्ट होना प्रसिद्ध हो चला था। अधिकतर स्थानीय हिप्पी आते, किन्तु यदा-कदा प्रयोग के लिए न्यू यार्क के उच्चतर वर्ग के लोग या फिर भक्तों में से किसी के माता-पिता आ जाते थे। जब छोटा-सा मंदिर भर जाता तो अतिथिगण आंगन में जा बैठते । वे प्रसाद से भरी कागज की तश्तरी और लकड़ी का चम्मच लेकर पीछे के बाग में चले जाते और अग्नि-बचाव सीढ़ी की बगल में या पिकनिक की मेज पर या अन्यत्र बैठ जाते । खाने के बाद वे और लेने के लिए स्टोरफ्रंट में पुनः आते। भक्त प्रसाद पात्रों के पीछे खड़े रहते और अतिथि दूसरी बार लेने के लिए उनके पास जाते । अन्य किराएदारों को आंगन का इस प्रकार उल्लासमय अतिथियों से भर जाना अच्छा न लगता, अतः भक्तजन उन्हें शान्त करने के लिए प्रसाद से भरी प्लेटे लाकर उनको देते । यद्यपि स्वामीजी नीचे मंदिर में नहीं जाते थे, किन्तु एक प्लेट लेकर वे अपने कमरे में चले जाते थे और वहीं से अपने नवीन कार्यक्रम की सफलता के बारे में प्रसन्नतापूर्वक सुनते रहते थे । एक बार भक्तजन ऐसे भुखमरों की तरह खा रहे थे कि मालूम होता था कि अतिथियों को खिलाए बिना ही सब कुछ अपने आप ही खा जायँगे । अतः कीर्तनानंद को उनके इस स्वार्थपूर्ण रवैये के लिए उन्हें डाँटना पड़ा था । धीरे-धीरे उनकी समझ में आने लगा कि रविवारीय भोज केवल उनके विनोद और आनंद के लिए न होकर लोगों को कृष्ण - चेतना की ओर लाने के लिए होते थे । *** प्रभुपाद ने भारत में ही बैक टू गाडहेड पत्रिका प्रारंभ की थी । यद्यपि वे १९३० ई. के दशक से लेख लिखते रहे थे, किन्तु १९४४ ई. में कलकत्ता में उन्होंने अकेले ही इस पत्रिका का शुभारंभ किया, अपने गुरु महाराज के इस अनुरोध के पालन के लिए कि कृष्णभावनामृत का प्रचार वे अंग्रेजी के माध्यम से करें। उसके प्रकाशन के लिए वे बड़ी कठिनाई से, अपने दवाइयों के व्यापार से, प्रति मास चार सौ रुपए की व्यवस्था कर पाते थे। अकेले ही वे पत्रिका के प्रत्येक अंक के लिए लेख लिखते, उसे सम्पादित करते, प्रकाशित करते, उसके लिए धन जुटाते और उसकी एक एक कापी का वितरण करते। प्रारंभ के उन वर्षों में बैक टु गाडहेड ही प्रभुपाद का प्रमुख साहित्यिक कार्य और प्रचार का मिशन था। उनके मन में इस पत्रिका के व्यापक वितरण का स्वप्न था और उन्होंने भगवान् चैतन्य के संदेश को संसार - भर में फैलाने की योजनाएँ बना रखी थीं। उन्होंने प्रमुख देशों की सूची बना रखी थी कि कहाँ इस पत्रिका की कितनी प्रतियां भेजी जा सकती हैं। उन्होंने इस योजना में वित्तीय सहायता के लिए अनुदान की याचना की, किन्तु सहायता बहुत नगण्य थी । तब १९५९ ई. में उन्होंने अपनी सारी शक्ति श्रीमद्भागवत के लिखने और प्रकाशित करने की दिशा में लगाई। किन्तु अब वे बैक टु गाडहेड को पुनर्जीवित करना चाह रहे थे और इस बार यह काम अकेले नहीं करने वाले थे। इस बार वे इसका भार अपने शिष्यों को सौंपने वाले थे। ग्रेग स्कार्फ को, जो हाल की दीक्षा के बाद गर्गमुनि हो गया था, एक छापाखाना का पता चला। क्वीन्स की एक ग्रामीण क्लब अपना छोटा-सा छापाखाना बेचने की कोशिश में थी । प्रभुपाद को उसमें दिलचस्पी थी और वे गर्गमुनि और कीर्तनानंद को साथ लेकर किसी की गाड़ी में मशीन देखने के लिए क्वीन्स गए। वह पुरानी थी लेकिन अच्छी हालत में थी। ग्रामीण क्लब का प्रबन्धक उसके लिए दो सौ पचास डालर चाहता था। प्रभुपाद ने मशीन का निरीक्षण सावधानीपूर्वक करने के बाद प्रबन्धक से बात की और उसे अपने आध्यात्मिक मिशन के बारे में बताया । प्रबन्धक ने एक दूसरे प्रेस का उल्लेख किया जो उसके पास था और कहा कि इन दोनों में से एक भी उनके काम की नहीं हैं । प्रभुपाद ने कहा कि वे दोनों छापाखानों का दो सौ पचास डालर देंगे । ग्रामीण क्लब को सचमुच उन मशीनों की जरूरत नहीं थी । इसके अतिरिक्त प्रबन्धक को लगा कि उसे स्वामीजी की सहायता करनी चाहिए क्योंकि वे समस्त मानवता के कल्याण के लिए महत्त्वपूर्ण आध्यात्मिक संदेश का मुद्रण करने वाले थे। वह सहमत हो गया । प्रभुपाद ने गर्गमुनि और कीर्तनानंद से मशीनें गाड़ी में लदवा लीं और इस तरह इस्कान के पास अपना मुद्रण प्रेस हो गया । श्रील प्रभुपाद ने बैक टु गाडहेड पत्रिका के सम्पादन का भार हयग्रीव और रायराम को सौंप दिया। स्वामीजी ने अनेक वर्षों तक बैक टु गाडहेड पत्रिका को अपने आध्यात्मिक गुरु के प्रति अपनी व्यक्तिगत सेवा के रूप में निकाला था। अब वे वही पत्रिका विद्यालय के अंग्रेजी अध्यापक हयग्रीव और व्यावसायिक लेखक रायराम को, उनके अपने गुरु की सेवा के लिए दे रहे थे । हयग्रीव तथा रायराम ने अल्पकाल में ही प्रथम अंक के लिए सामग्री संकलित कर के उसे छापने की तैयारी कर ली । वह अवकाश की रात्रि थी—न सार्वजनिक कीर्तन था, न व्याख्यान — और प्रभुपाद अपने ऊपर के कमरे में श्रीमद्भागवतम् के अनुवाद में व्यस्त थे । नीचे प्रथम अंक की छपाई घंटों से चल रही थी। रायराम ने स्टेंसिल टाइप कर लिए थे और मुद्रण के समय वह मशीन के पास घबड़ाया खड़ा था। वह प्रत्येक पृष्ठ की छपाई देख रहा था, और दाढ़ी पर हाथ फेरता हुआ हूं-हूं कर रहा था। अब समय हो गया था कि सभी पृष्ठों को एकत्र करके हर प्रति को स्टेपल कर दिया जाय। स्टेंसिल से पत्रिका की सौ प्रतियाँ छप गई थीं । दो आवरण पृष्ठों के अतिरिक्त अठ्ठाईस पृष्ठों वाली पत्रिका की सौ प्रतियाँ दो बिना वार्निश की गई बेंचो पर लगा दी गईं, जिन्हें रैफेल ने गर्मियों में तैयार किया था। कुछ भक्त पत्रिका के पृष्ठों को एकत्र कर उन्हें क्रम से स्टेपल करते जाते थे—वे पृष्ठों के ढेर के सामने से गुजरते, एक पृष्ठ उठाते, उसे पहले के नीचे रखते और इस तरह जब बेंच के अंतिम सिरे पर पहुँच जाते तो सारे पृष्ठों का समूह गर्गमुनि को दे देते, जो अपने बड़े-बड़े बालों को झाड कर आंखों से ऊपर करता खड़ा था। वह प्रत्येक प्रति को उन स्टेपलों से जोड़ता जाता था जिन्हें ब्रह्मानंद बोर्ड आफ एजुकेशन के कार्यालय से लाया था । यहाँ तक कि हयग्रीव भी वहाँ उपस्थित था जो ऐसे छोटे-मोटे कार्यों में सामान्यतया हाथ नहीं लगाता था । वह भी लाइन में चल कर पृष्ठों को एकत्र करने में लगा था । सहसा बगल का दरवाजा खुला और उन्होंने आश्चर्य से देखा कि स्वामीजी उनकी ओर निहार रहे थे। फिर दरवाजे को पूरी तरह खोलते हुए वे कमरे में दाखिल हुए। वे कभी भी इस तरह छुट्टी की रात्रि में नीचे नहीं आए थे। अतः उन सब में अप्रत्याशित भावना और प्रेम का उदय हुआ और घुटनों के बल झुक कर उन्होंने स्वामी जी को प्रणाम किया। नहीं, नहीं कहते हुए उन्हें ऐसा करने से मना करने के लिए, उन्होंने अपना हाथ उठाया। इसके बाद कुछ भक्त उठने लगे और कुछ अब भी झुके हुए थे। स्वामीजी बोले, "तुम लोग जो कुछ कर रहे हो उसे जारी रखो।" जब भक्तजन उठ कर खड़े हो गए और अपनी बगल में स्वामीजी को खड़े देखा तो उनकी समझ में नहीं आ रहा था कि क्या करें। किन्तु इतना स्पष्ट था कि स्वामीजी उन्हें बैक टु गाडहेड पत्रिका छापते हुए देखने के लिए नीचे आए थे। अतः वे शान्त भाव से दक्षतापूर्वक कार्य करते रहे। प्रभुपाद पृष्ठों की पंक्ति से होकर आगे बढ़ते गए। वे अपनी शाल से हाथ और कलाई बाहर निकाले हुए थे। पत्रिका के पृष्ठों की गड्डी को, फिर पत्रिका के एक तैयार अंक को, हाथ से छूते हुए वे बोले, "इस्कान प्रेस । " जगन्नाथ ने आवरण पृष्ठ का रूपांकन किया था जिसमें उसने मंदिर में अपने द्वारा बनाए गए चित्र की भाँति, राधा तथा कृष्ण का चित्र स्याही से अंकित किया था। यह सरल चित्र था जिसे समकेन्द्रिक वृत्तों के अंदर बनाया गया था। प्रथम पृष्ठ पर वहीं आदर्श वाक्य था जिसे प्रभुपाद ने वर्षों तक बैक टु गाडहेड में मुद्रित किया था, “ ईश्वर प्रकाश है, अविद्या अंधकार है। जहाँ ईश्वर है, वहाँ अविद्या नहीं रहती ।" उसी पृष्ठ पर स्वामीजी द्वारा अनुमोदित विलियम ब्लेक के एक उद्धरण को देने का लोभ हयग्रीव रोक नहीं सका था जिससे कृष्णभावनामृत की विचार धारा की पुष्टि होती थी : ईश्वर अवतार लेता है, और ईश्वर प्रकाश है उन अकिंचन आत्माओं के लिए जो रात में रहते हैं । किन्तु वह अपना साकार रूप प्रदर्शित करता है उन लोगों को जो दिन के राज्य में रहते हैं । यद्यपि सम्पादकीय में ब्लेक, ह्विटमैन और ईसा मसीह की चर्चा थी, किन्तु जिस बात पर बल था, वह था : ... प्रभुपाद भगवान् की भक्ति का विज्ञान सिखाने अमेरिका आए हैं। उनका संदेश बहुत सरल है: भगवान् के पवित्र नाम, हरे कृष्ण, हरे कृष्ण,... का कीर्तन । अपने आध्यात्मिक गुरु महाराज कृष्णकृपामूर्ति श्री श्रीमद् भक्तिसिद्धान्त सरस्वती गोस्वामी प्रभुपाद के आदेश का पालन करते हुए श्री स्वामी भक्तिवेदान्त ने १९४४ ई. में बैक टू गाडहेड पत्रिका का पहले पहल प्रकाशन आरंभ किया । १९४४ ई. से १९५६ ई. तक वृन्दावन से प्रकाशित इस पाक्षिक पत्रिका ने .... स्वामी भक्तिवेदान्त को भारत के प्रमुख साकारवादी भक्त के रूप में प्रतिष्ठित किया । यह अंक पश्चिम में बैक टु गाडहेड के प्रथम प्रकाशन को लक्षित करता है । मुख्य लेख, जो प्रभुपाद के एक व्याख्यान का सारांश था, उमापति द्वारा तैयार किए गए नोटों पर आधारित था । यह कहा गया है कि जिस समय हम सोने जा रहे हों और जिस समय हम सोकर उठते हों, उस समय हमें अपने मन को हजार बार जूते से पीटना चाहिए । जब हुमारा मन यह कहे कि हम हरे कृष्ण का गान क्यों करें, हम एल. एस. डी. क्यों न लें, तब हमें उसी जूते से उसे पीटना चाहिए। किन्तु यदि हम कृष्ण के सम्बन्ध में सदैव सोचते रहेंगे तो यह पीटना आवश्यक नहीं होगा। हमारा मन हमारा मित्र बन जायगा । एक अन्य लेख हवग्रीव का था " ऊर्ध्वगमन करो और वहीं ठहरे रहो ।' हयग्रीव ने इस लेख में हार्ट क्रेन और वाल्ट विह्विटमैन से कई उद्धरण दिए थे। कोई आश्चर्य की बात नहीं कि कालेजों के बहुत से युवक ऊँचे प्रकार के मादक द्रव्यों के सेवन से स्थायी रूप से ऊर्ध्वगमन का प्रयत्न करते हैं। कदाचित् उनका कथन है- "हम उस नरक में नहीं रहना चाहते जिसका निर्माण आप लोगों ने अपने लिए किया है।” इसलिए वे psychedelics जैसे मादक द्रव्यों का सेवन करते हैं जो उन्हें भिन्न प्रकार के मनोराज्यों में पहुंचाने के लिए स्प्रिंग बोर्ड का काम करते हैं।... किन्तु मादक द्रव्यों से प्राप्त यह उर्ध्वलोक अस्थायी होता है। वह अस्थायी होता है, क्योंकि वह कृत्रिम है। ... आश्चर्य होता है यह देख कर कि ये ' यात्राएँ' वास्तव में युवकों को कहाँ ले जा रही हैं। हयग्रीव ने अंत में लिखा था कि कृष्ण कीर्तन ऊर्ध्वगमन का सब से तेज उपाय है जिससे कभी नीचे पतन होता ही नहीं । आपके संगी-साथी आपको पागल समझेंगे। प्रगति का यह पहला लक्षण है। दूसरों को माया के पीछे, जिसका पुराना नाम कामिनी और कंचन है और जो क्षण-भंगुर है, पागल होने दीजिए। उसके स्थान पर आप सत् के पीछे पागल बनिए । पत्रिका के पृष्ठावरण पर स्वामी के दो निबन्धों 'कृष्ण, द रिजरवायर आफ प्लेजर' (आनंद के आगार कृष्ण ) तथा 'हू इज़ क्रेज़ी ? (पागल कौन ? ) के विज्ञापन थे, और फिर एक सूचना थी : शीघ्र प्रकाश्य : गीतोपनिषद् या भगवद्गीता - यथारूप अनुवादक और टीकाकार - स्वामी भक्तिवेदान्त । प्रभुपाद ने सम्पादकों को जो पहला निर्देश दिया था, वह यह था कि पत्रिका नियमित रूप से प्रति मास निकले। भले ही वे उसकी प्रतियों को नहीं बेच पाएं या वे केवल दो ही पृष्ठ निकाल पाएं, ती भी उन्हें इस स्तर को बनाए रखना चाहिए । स्वामीजी ने हयग्रीव को अपने कमरे में बुलाया और उसे अपनी पुस्तक श्रीमद्भागवत के तीन खण्डों का एक सेट भेंट किया। प्रत्येक खण्ड के आवरण पृष्ठ पर उन्होंने लिखा था, " हयग्रीव दास ब्रह्मचारी को अपने आर्शीवाद सहित — ए.सी. भक्तिवेदान्त स्वामी" । हयग्रीव ने कृतज्ञता व्यक्त करते हुए बताया कि अभी तक वह उन्हें धनाभाव के कारण खरीद नहीं पाया था। प्रभुपाद ने कहा, “ सब ठीक है ।" अब तुम बैक टु गाडहेड का संकलन करो । निष्ठा से काम करो और इसे 'टाइम' पत्रिका जैसी विशाल बना दो ।' प्रभुपाद चाहते थे कि उनके सभी शिष्य इसमें भाग लें। उन्होंने कहा, 'आलसी मत बनो। कुछ न कुछ लिखो ।” वे अपने शिष्यों को वह पत्रिका उनके अपने धर्मोपदेश के लिए प्रदान करना चाहते थे। ब्रह्मानंद और गर्गमुनि ने उसी रात प्रथम अंक को अपनी-अपनी साइकिलों पर लादा और लोअर ईस्ट साइड से लेकर फोर्टीन्थ स्ट्रीट तक की प्रमुख प्रमुख दुकानों से होते हुए वे वेस्ट विलेज तक गए और वहाँ पहुँचने तक उन्होंने सभी एक सौ प्रतियाँ वितरित कर दीं। धर्मोपदेश में इस प्रकार बढ़ोत्तरी हुई। अब उनके सभी विद्यार्थी टंकण, सम्पादन, लेखन, संकलन और विक्रय में भाग लेने लग गए। निस्सन्देह, धर्मोपदेश प्रभुपाद का था, किन्तु वे इसमें अब अकेले नहीं रह गए थे। *** बैक टु गाडहेड के दूसरे अंक के सम्पादकीय में कहा गया था, "चार मास की अल्पावधि में संघ का इतना पर्याप्त विस्तार हो गया है कि सेकंड एवन्यू स्टोरफ्रंट के मंदिर से उसे अधिक विस्तृत स्थान की आवश्यकता है।' प्रमुपाद ने न्यू यार्क नगर में एक विशाल भवन प्राप्त करने के अपने विचार का त्याग नहीं किया था । ग्रीनविच विलेज में जायदाद खरीदना बहुत व्ययसाध्य था; नगर के मध्य भाग का प्रश्न ही नहीं था, किन्तु प्रभुपाद तब भी कहते कि वे एक भवन खरीदना चाहते हैं। उनके अनुयायियों के लिए यह सोचना ही कठिन था कि कृष्णभावनामृत में लोअर ईस्ट साइड के लोगों के अतिरिक्त और किसे रुचि हो सकती थी ? और फिर किसके पास धन था कि मैनहट्टन में इमारत खरीदने की बात सोचे ? किन्तु एक दिन, रवीन्द्र स्वरूप की भेंट एक धनाढ्य यहूदी से हो गई थी जिसके मन में युवा - आन्दोलनों के प्रति सहानुभूति थी और जो प्रभुपाद को पाँच हजार डालर ऋण देने को राजी हो गया था । रवीन्द्र स्वरूप के माध्यम से इस ऋण की व्यवस्था हुई थी और स्वामीजी ने इसे भवन - कोष का नाम दिया था । इस कोष में उन्होंने पांच हजार डालर धीरे-धीरे और जोड़ लिए थे जो उन्होंने आकस्मिक अनुदानों के द्वारा इकट्ठे किए थे। लेकिन उपयुक्त भवनों का मूल्य एक लाख डालर से आरम्भ होने के कारण प्रभुपाद की धन राशि बहुत तुच्छ प्रतीत होती थी । ब्रह्मानंद को साथ लेकर प्रभुपाद सिक्स्थ स्ट्रीट में एक इमारत देखने गए जो पहले ज्यूइश प्राविडेंसियल बैंक थी। इसमें एक विस्तृत गोष्ठी - कक्ष था, तहखाना था, संगमरमर के फर्श थे और मंदिर के अनुकूल वातावरण था । ब्रह्मानंद ने सुझाव दिया कि वाल्ट स्थान का पुनर्निमाण करके उसे शयनागार में बदला जा सकता है और प्रभुपाद ने तहखाने को अपने निजी कक्ष के रूप में प्रयोग में लाने का विचार किया। उन्होंने कहा कि विशाल गोष्ठी कक्ष को कीर्तनों और व्याख्यानों के लिए उपयोग में लाया जा सकता था । इमारत से लौटते समय प्रभुपाद को ध्यान आया कि वह एक बस स्टाप के पास कोने पर स्थित थी । उसकी स्थिति अच्छी नहीं थी । उन्होंने कहा कि कलकत्ता में भाग बाजार में गौड़ीय मठ भी एक बस स्टाप के निकट स्थित है और जब बसों के इंजिन चालू होते हैं तो उनसे बड़ा शोर-गुल होता है। प्रभुपाद ने इसके बाद लोअर ईस्ट साइड की सिक्स्थ स्ट्रीट में ही टेम्पल एमानुएल का भी अवलोकन किया। यह बैंक की इमारत से भी विशाल था। और जब स्वामीजी के कुछ शिष्यों ने उसके गुफा सरीखे रिक्त कमरों में घूम कर देखा तो वे यह सोच कर घबरा गए कि, यदि यह इमारत मिल भी जाए, तो वे किस प्रकार इसकी देखभाल कर सकेंगे या इसका इस्तेमाल कर सकेंगे । स्वामीजी ने अन्य इमारतों का भी निरीक्षण किया: एक तो इतनी उपेक्षित थी और उसकी हालत इतनी खराब थी कि लगता था कि उसका विध्वंस किया गया है और एक दूसरी की दशा भी पहली इमारत जैसी ही थी; उसमें छत तक काठ-कबाड़ भरा था। उन्होंने रूपानुग से, जो उनके साथ गया था, पूछा कि उसका क्या विचार था और रूपानुग ने उत्तर दिया, " इसे ठीक करने में बहुत अधिक समय और धन लगेगा।” अतः वे वापस हो गए। स्वामीजी अपने कमरे में जाते ही प्रसाधन कक्ष में घुस गए जहाँ टब में उन्होंने अपने पैर धोए। उन्होंने बताया कि यह भारतीय परम्परा है कि बाहर घूम कर लौटने पर पैर धोते हैं। तत्पश्चात् भक्तजन मिस्टर प्राइस से मिले जो भव्य वेश-भूषा में रहते थे और अचल जायदादों के एजेंट थे। उन्होंने ब्रह्मानंद से कहा, “आपके पक्ष में कई अनुकूल बातें हैं आपका पंजीकरण कर मुक्त धार्मिक संस्था के रूप में है। आपको मालूम नहीं कि इससे आप को कितना धन बच जायगा । बहुत सारे लोगों को यह देश इसलिए छोड़ देना पड़ता है कि वे अपना टैक्स नहीं अदा कर पाते । किन्तु आप लोगों का संरक्षण 'कोई ऊपर से ' कर रहा है और मेरे पास आप लोगों तथा आपके स्वामी के लिए उपयुक्त स्थान है।' मिस्टर प्राइस ने ब्रह्मानन्द को सेंट मार्क्स प्लेस के निकट एक भव्य, तिमंजला इमारत दिखाई। नगर के निचले हिस्से में वह अच्छी अवस्थिति की इमारत थी; वह युवकों के निकट थी; निकट थी; फिर भी ऐसे क्षेत्र में थी कि नगर के ऊपरी हिस्से के लोग वहाँ आने में सुरक्षा का अनुभव कर सकते थे । उसके फर्श पालिश किए हुए सख्त लकड़ी के थे; सभी किवाड़ों पर हाथ से भव्य अलंकरण किए गए थे। उसमें एक बड़ा हाल था जो मंदिर के उपयुक्त था। मारक्विस डी लाफायेट जब सन १८२४ ई. में आए थे तो इसी इमारत में ठहरे थे। यह एक ऐसा तथ्य था जिससे इमारत के आकर्षण और प्रतिष्ठा में वृद्धि हो गई थी । एक शाम को मि. प्राइस ने ऊपर प्रभुपाद के कमरे में उनसे भेंट की । प्रभुपाद फर्श पर अपने डेस्क के पीछे और मिस्टर प्राइस धातु की एक फोल्डिंग कुर्सी पर बैठे । मिस्टर प्राइस एक भव्य सूट पहने थे, उनकी कमीज सफेद रंग की थी जिसमें कफ लिंक्स लगे हुए थे और उन कफों पर कलफ किया हुआ था। उनके बहुमूल्य परिधान, सावधानीपूर्वक संवारे गए चेहरे तथा सुनहरे बालों (जिसे कुछ भक्त नकली बाल समझ बैठे) की स्वामीजी की सादगी से एक अद्भुत तुलना प्रस्तुत होती थी । मिस्टर प्राइस स्वामीजी को "योअर एक्सीलेंसी” कह कर संबोधित करते रहे और उन्होंने स्वामीजी के कार्य की बड़ी सराहना की। बड़े आशापूर्ण शब्दों में, उन्होंने बताया कि अपने सम्बन्धों से वे किस प्रकार स्वामीजी का बहुत सारा धन बचा देंगे, उन्हें कष्ट से उबार देंगे और उन्हें वही स्थान उपलब्ध करा देंगे जो प्रभुपाद चाहते थे। कुछ शिष्यों को संग लेकर प्रभुपाद मिस्टर प्राइस के साथ इमारत देखने गए। जब मिस्टर प्राइस, प्रभुपाद के शिष्य और इमारत का संरक्षक एक साथ खड़े बातें कर रहे थे, उसी बीच प्रभुपाद बिना किसी का ध्यान आकृष्ट किए कमरे के एक कोने में जा पहुँचे जहाँ एक पुरानी सिलाई की मशीन रखी थी। वे मशीन चला कर उसे देखने लगे। प्रभुपाद जब सब लोगों के पास वापस लौटे तो मिस्टर प्राइस ने कहा, “यदि आप अभी पाँच हजार डालर दे सकें तो मैं मालिकों से अनुबन्ध लिखवा सकता हूँ। पाँच हजार डालर अभी देने होंगे, शेष पाँच हजार डालर दो महीने के अंदर —यह इतना कठिन तो नहीं होना चाहिए ।" प्रभुपाद को इमारत पसंद थी और उन्होंने ब्रह्मानंद से उसे खरीद लेने को कहा। ब्रह्मानंद तुरन्त धन देने को उन्मुख था, किन्तु प्रभुपाद ने कहा कि पहले एक उपयुक्त संविदा - पत्र तैयार कर लेना आवश्यक है। मि. प्राइस ने भक्तों से अलग बात की; उन्होंने स्वामीजी के और उनके आध्यात्मिक आन्दोलन के हित की बात की और वे संविदा से कुछ अधिक का वचन देते हुए प्रतीत हुए । कदाचित् वे उन्हें इमारत ही दे देंगे। पर इमारत दे देने की बात करना तो अर्थविहीन थी, फिर भी उन्होंने इस तरह की कुछ बात कही। वे चाहते थे कि भक्त उन्हें अपना मित्र समझें और एक शाम को उन्होंने भक्तों को अपने घर पर आमंत्रित किया । जब भक्तगण उनके घर पर एकत्र हुए तो वे मिस्टर प्राइस के रहने के कमरे में कुर्सियों पर तन कर बैठ गए। कमरे में किताबों की अलमारियाँ पंक्तियों में रखी थीं। लेकिन उनमें किताबें नहीं थी, वरन् किताबों की पंक्तियाँ सूचित करने वाले दो आयामीय डिजाइन थे। मिस्टर प्राइस भक्तों की चाटुकारी करते रहे। उन्होंने हयग्रीव के लेखन की प्रशंसा की । हयग्रीव को उलझन और चापलूसी का अनुभव हुआ । मिस्टर प्राइस ने भक्तों की हर चीज की प्रशंसा की। उन्होंने अपने कुत्ते का भी उल्लेख किया जो हाल में ही मर गया था, वे बोले, “उस छोटे-से जीव बिना घर खाली मालूम देता है ।" मिस्टर प्राइस विचित्र प्राणी थे, वे स्त्रियों जैसे थे, प्रशंसा और चाटुकारिता से भरे थे । उनसे पहली मुलाकात के बाद प्रभुपाद उदासीन बने रहे, यद्यपि, यदि ठीक अनुबंध हो जाय, तो इमारत खरीद लेने में उनकी रुचि थी । ब्रह्मानंद मि. प्राइस से बात चलाता रहा। मि. प्राइस ने बताया कि इमारत के मालिक शीघ्र ही भक्तों द्वारा यह प्रमाण देने की आशा रखेंगे कि वे धनराशि अदा करने में सक्षम हैं । प्रभुपाद के आदेश पर भक्तों ने एक वकील तय किया कि वह संविदा - पत्र को देख ले। प्रभुपाद ने कहा,6 यह मि. प्राइस हमें बहुत दुख दे रहे हैं।” वकील ने पूछा, “ कठिनाई क्या है ? आप सीधे मालिक से क्यों नहीं खरीद लेते। इन दलालों की क्या आवश्यकता है?" वकील को मि. प्राईस की बिल्कुल कोई आवश्यकता नहीं प्रतीत हुई । ब्रह्मानंद बोला- “यहाँ का तरीका यही है । " *** एलन कालमैन एक रेकार्ड निमार्ता था । उसने ईस्ट विलेज अदर में भारत से आए स्वामी और उनके द्वारा लाए गए मंत्र के विषय में पढ़ा थ। जब उसने मुख पृष्ठ पर हरे कृष्ण मंत्र को पढ़ा तो उसे बड़ा आकर्षण हुआ । लेख में यह विचार प्रकट किया गया था कि मंत्र का जप करने से कोई भी बहुत ऊँचे उठ सकता है या भावनामृत प्राप्त कर सकता है। लेख में स्वामी का सेकंड एवन्यू का पता दिया हुआ था, अतः नवम्बर में एक रात को एलेन अपनी पत्नी के साथ स्टोरफ्रंट गया । एलन : कमरे के पिछले भाग में करीब तीस जोड़े जूते थे, लोग आगे के हिस्से में बैठे थे; जूते पीछे रखे थे। हमने अपने जूते उतारे और हम बैठ गए। हर एक व्यक्ति बैठा था और बहुत शान्त था । सामने मध्य में एक कुर्सी रखी थी और हर एक इस कुर्सी पर दृष्टि गड़ाए था । तब भी कमरे में किसी शक्ति का अनुभव हमें हो रहा था। कोई कुछ बोल नहीं रहा था और हर एक कुर्सी को निहार रहा था। दूसरी वस्तु जो हमने देखी, वह थी स्वामीजी का प्रथम दर्शन । वे अंदर आए और कुर्सी पर बैठ गए और ऊर्जा की प्रचण्ड बाढ़ सी आ गई। स्वामीजी ने कीर्तन आरंभ किया और उनकी वाणी बड़ी मधुर थी । स्वामीजी के सामने छोटी ढोलक थी जिसे वे बजा रहे थे— उससे बड़ी मर्मभेदी और उन्मेषकारी ध्वनि निकल रही थी । एक भक्त कागज पर लिखा मंत्र हाथ में लिए था जिससे हर कोई उसका अनुसरण कर सके। उसके बाद भक्त खड़े हो गए और गोलाकार में नाचने लगे; यह पदगतियों के साथ एक विशेष नृत्य था । स्वामीजी कमरे के चारों तरफ देख रहे थे और जब उनकी नजर किसी पर जाती तो वे मुसकराते प्रतीत होते, मानो उसे नाचने के लिए प्रोत्साहन दे रहे हों । अगले दिन एलेन ने प्रभुपाद को फोन करके प्रस्ताव किया कि वह उनके कीर्तन का रेकार्ड बनाना चाहता है। किन्तु फोन लेने वाला ब्रह्मानंद था और उसने एलेन को उसी शाम को प्रभुपाद से मिलने के लिए बुलाया । अतः एलेन और उसकी पत्नी ईस्ट विलेज पुनः गए, जो उन के लिए पड़ोस जैसा था जहाँ ये सारी घटनाएँ हो रही थीं। यदि किसी को कोई उत्तेजना चाहिए थी तो वह ईस्ट विलेज जाता था । जब वे स्वामीजी के कमरे में प्रविष्ट हुए तो वे टाइपराइटर पर बैठे टंकण कर रहे थे। एलेन ने रेकार्ड बनाने के अपने विचार का ज्योंही उल्लेख किया, प्रभुपाद ने दिलचस्पी दिखाई। वे बोले-“हाँ, हमें रेकार्ड जरूर बनाना चाहिए। यदि इससे हरे कृष्ण कीर्तन के वितरण में सहायता मिले तो यह हमारा कर्तव्य है।” उन्होंने दो सप्ताह बाद दिसम्बर में टाइम्स स्क्वायर के निकट एडेल्फी रेकार्डिंग स्टूडियो में रेकार्ड बनाने का निश्चय किया। एलेन की पत्नी इस बात से बहुत प्रभावित हुई कि प्रभुपाद कितने उत्साहपूर्वक रेकार्ड बनाने की बात को समझ कर राजी हो गए : " अपनी योजनाओं के बारे में उनमें कितनी अधिक ऊर्जा और महत्त्वाकांक्षा है ।" रेकार्डिंग की तिथि की पिछली रात थी । एक लड़का दो सिरों वाला एक बड़ा भारतीय ढोल लिए हुए शाम के कीर्तन के लिए स्टोरफ्रंट में प्रविष्ट हुआ। यह कोई असामान्य बात नहीं थी, क्योंकि अतिथि अपने साथ प्रायः ढोल, बांसुरी और अन्य वाद्य यंत्र लाते ही थे, तब भी इस बार स्वामीजी विशेष रूप से उधर आकृष्ट हुए। लड़का बैठ गया और बजाने की तैयारी में लगा था कि प्रभुपाद ने संकेत किया कि वह ढोलक उनके पास ले आए। लड़का हिला नहीं - वह ढोल स्वयं बजाना चाहता था- किन्तु ब्रह्मानंद उसके पास गया और बोला- “स्वामीजी ढोल बजाना चाहते हैं ।"" लड़का मान गया। ब्रह्मानंद : स्वामीजी ढोल बजाने लगे और उनके हाथ ढोल पर जैसे नृत्य कर रहे हों। हर एक विस्मय - विमुग्ध था कि स्वामीजी यह सब जानते हैं। मैने अभी तक केवल बोंगो ड्रम देखा था, इसलिए मैं समझता था कि वही उपयुक्त भारतीय ड्रम है। लेकिन जब यह दो सिरों वाला ड्रम जाने कहाँ से प्रकट हुआ और स्वामीजी उसे कुशल संगीतज्ञ की तरह बजाने लगे तो उससे बोंगो ड्रम की अपेक्षा सौ गुना अधिक भावनामृत की सृष्टि हो गई। कीर्तन के बाद प्रभुपाद ने लड़के से पूछा कि क्या अगली रात में होने वाले रेकार्डिंग के लिए वह ढोल उधार ले सकते हैं। लड़का पहले अनिच्छुक प्रतीत हुआ, लेकिन भक्तों ने वादा किया कि वे अगले दिन ढोल उसे वापस पहुँचा देंगे तो वह राजी हो गया और बोला कि ढोल लेकर वह अगले दिन शाम को आएगा। जब लड़का बगल में ढोल दबाए उस रात स्टोरफ्रंट से चला गया तो भक्तों ने सोचा कि वे उस लड़के या उसके ढोल को अब कभी नहीं देखेंगे। किन्तु दूसरे दिन स्टूडियो के लिए स्वामीजी . के प्रस्थान के कुछ घंटे पूर्व ही, वह लड़का ढोल लिए हुए आ गया। । दिसम्बर की ठंडी रात थी। स्वामीजी, अपनी रोज की केसरिया धोती, ट्वीड का ओवर कोट और भूरे रंग के जूतों का जोड़ा (जिसने काफी पहले उनके सफेद, नोकदार रबर के जोड़े का स्थान ले लिया था ) धारण किए हुए अपने करीब पन्द्रह शिष्यों और उनके वाद्ययंत्रों के साथ रूपानुग की गाड़ी में बैठ कर रेकार्डिंग स्टूडियो के लिए चल पड़े। ब्रह्मानंद: हमारा रेकार्डिंग तुरन्त शुरू नहीं हुआ, क्योंकि हमसे पहले का दल वहाँ था । अतः हम लोग टहलने के लिए टाइम्स स्क्वायर में चले गए। हम स्वामीजी के साथ वहाँ खड़े होकर चमकते हुए प्रकाश और ऐन्द्रयिक तृप्ति की तमाम वस्तुओं को देख रहे थे; तभी एक स्त्री स्वामीजी के पास आईं और कहने लगी, "ओ, आप कहाँ से आए हैं ?" उसकी आवाज बहुत तेज और अधिकारयुक्त थी । स्वामीजी बोले, “मैं भारत से आया एक संन्यासी हूँ।” उसने कहा, “ ओह ! कितना अच्छा है। आपसे मिल कर प्रसन्नता हुई ।” उसके बाद उसने स्वामीजी से हाथ मिलाया और चली गई । स्टूडियो में भक्तों को नियमित संगीतज्ञों की टोली के रूप में लिया गया । एक राग संगीतज्ञ ने उनसे पूछा कि उनकी टोली का नाम क्या था । हयग्रीव हँस कर बोला- “ हरे कृष्ण चैन्टर्स” (हरे कृष्ण संकीर्तनकारी) बेशक, अधिक भक्त संगीतज्ञ नहीं थे, तब भी तम्बूरा, बड़ा हारमोनियम ( गिन्सबर्ग द्वारा उधार दिया हुआ ) और ताल देने वाले अन्य यंत्र आदि जो वे लाए थे ऐसे थे, जिन्हें वे कीर्तन में महीनों से बजाते आ रहे थे। अतः जब वे स्टूडियो में प्रविष्ट हुए तो उन्हें विश्वास था कि वे अपना निज का संगीत उत्पन्न कर सकते हैं। वे अपने स्वामीजी का केवल अनुसरण करते थे । स्वामीजी जानते थे कि कोई वाद्य यंत्र कैसे बजाया जाता है और शिष्य जानते थे कि उनका अनुसरण कैसे किया जाता है। वे अन्य संगीतज्ञों की टोली की तरह नहीं थे । उनका संगीत केवल संगीत नहीं था, वह कीर्तन, ध्यान और पूजा भी था । स्टूडियो के बीच में प्रभुपाद एक चटाई पर बैठ गए; इस बीच इंजीनियरों ने माइक्रोफोन की व्यवस्था की और प्रत्येक भक्त को उसके वाद्य यंत्र के अनुसार विशेष स्थान पर बैठाया। उन्होंने केवल दो जोड़े करताल माँगे और लय यष्टिकाओं के जोड़ों का अनुमोदन किया । किन्तु वे चाहते थे कि कई भक्त तालियाँ बजाएँ। रूपानुग का अपना वाद्य था पीतल की भारतीय घंटियों का एक जोड़ा जिनके लोलक निकाल दिए गए थे। इंजीनियर ने जब उन्हें देखा तो वह रूपानुग के पास बढ़ आया और कहा, “मुझे सुनाएँ,” रूपानुग ने उनको बजाया और वे अनुमोदित कर दी गईं । रवीन्द्र स्वरूप को हारमोनियम पर गुंजन का निरन्तर सुर निकालना था, इसलिए वह अपने माइक्रोफोन के साथ अलग बैठा और कीर्तनानंद के तम्बूरे के लिए भी एक अलग माइक्रोफोन था । जब इंजीनियर सब तरह से संतुष्ट हो गए तो उन्होंने भक्तों को आरंभ करने का संकेत दिया। स्वामीजी ने अपना ढोल बजाते हुए कीर्तन आरंभ किया। मंजीरों, यष्टिकाओं और तालियों की ध्वनियाँ भी योग देने लगीं । इस तरह कीर्तन करीब दस मिनट तक चलता रहा, जब तक कि एक इंजीनियर ने शीशे के स्टूडियो से निकल कर उसे रोकने को नहीं कहा : ब्रह्मानंद तालियाँ अधिक जोर से बजा रहा था जिससे असंतुलन पैदा हो रहा था। इंजीनियर अपने स्टूडियो में वापस गया, अपना हेडफोन पहना, देखा कि संतुलन ठीक है, तब उसने दूसरी बार कीर्तन आरंभ करने का संकेत दिया। इस बार वह पहले से अच्छा था । पहले, तम्बूरे की ध्वनि, उसकी अनुगूँज के साथ, सुनाई दी। एक क्षण बाद स्वामीजी अपना ढोल बजाते हुए कीर्तन करने लगे — वन्देऽहं श्री गुरोः ... । तत्पश्चात् सभी वाद्य यंत्र एक साथ बज उठे - तम्बूरा, हारमोनियम, वाद्य यष्टियाँ, मंजीरे, रूपानुग की घंटियाँ। स्वामीजी अकेले गा रहे थे और सभी वाद्य यंत्र उनकी संगत कर रहे थे। इस तरह वहाँ 'ललिता श्री विशाखांवितांश्च' कीर्तन का सागर लहराने लगा । स्टूडियो में स्वामीजी की आवाज बहुत मधुर थी। उनके लड़कों में प्रेमोद्रेक हो रहा था, वे केवल रेकार्ड नहीं बना रहे थे। वहाँ सफलता और ऐक्य की अनुभूति का राज था। उनके महीनों के परिश्रम की वह सफल संध्या थी । ... श्री कृष्ण - चैतन्य, प्रभु नित्यानंद ... । कुछ समय तक स्तुतियाँ अकेले ही गा लेने के बाद प्रभुपाद थोड़ी देर के लिए रुक गए। इस बीच वाद्य यंत्र बजते रहे। तब हरे कृष्ण मंत्र आरंभ हुआ । विशुद्ध भक्तिवेदान्त स्वामी की विशेषज्ञता सर्वत्र छाई रही, ठीक वैसे ही जैसे रसोई में या उनके व्याख्यानों में। इंजीनियरों ने जो कुछ सुना उसे, उन्होंने पसंद किया— यदि कोई गलती नहीं हुई तो यह बहुत अच्छा रेकार्ड होगा । वाद्य यंत्र ठीक थे, ढोल ठीक था, गाना ठीक था । सब का सामंजस्य अपरिष्कृत था । किन्तु यह एक विशेष रेकार्ड था— कुछ हो रहा था । हरे कृष्ण के कीर्तनकारी अपना कार्य कर रहे थे और वे उसे बहुत ठीक कर रहे थे। एलेन कालमैन भावनाओं से भरा था। वह एक प्रामाणिक ध्वनि का रेकार्ड बना रहा था । संभव है उसकी अच्छी बिक्री हो । मंत्र की कुछ आवृत्तियों के बाद भक्तों को राहत मालूम होने लगी, मानो वे मंदिर में वापस आ गए हों और रेकार्ड में गलतियाँ करने की बात उन्हें भूल गई । वे कीर्तन करते रहे और उसकी ताल में स्थिरता आने के साथ गति में कुछ तेजी आ गई। हरे शब्द का उच्चारण कभी कभी उच्च स्वर में हो जाता, किन्तु समूह गान में किसी प्रकार की भावावेशपूर्ण नाटकीयता नहीं थी, केवल स्वामीजी के मधुर संगीत की सीधी-सादी अनुक्रिया थी । दस मिनट बीत गए । कीर्तन तीव्रतर उच्चतर और तीव्रतर होता गया । स्वामीजी अपने ढोल पर अपना अनोखा कृतित्व दिखाते रहे। तब एकाएक सब कुछ रुक गया— केवल हारमोनियम का गुंजन बना रहा । एलेन स्टूडियो से बाहर आया और बोला, “स्वामीजी, बहुत अच्छा रहा, बहुत अच्छा। क्या आप कार्यक्रम जारी रखेंगे और अपना भाषण अभी आरंभ कर देंगे, या आप बहुत थक गए हैं?" विनम्र चिन्ता के साथ, निस्तेज और चकत्तेदार चेहरे वाले एलेन कालमैन ने अपने मोटे चश्मे से स्वामीजी को देखा, स्वामीजी थके लग रहे थे, लेकिन उन्होंने उत्तर दिया, "नहीं, मैं थका नहीं हूँ ।" तब भक्तगण स्वामी का पहले से तैयार भाषण सुनने के लिए स्टूडियो में बैठ गए। संवेदना से पूर्ण भक्तों ने सोचा कि बलाघात के बावजूद स्वामीजी का उच्चारण बहुत स्पष्ट था और वे अपने आलेख से 'कुशल वक्ता की तरह ' पढ़ रहे थे। " जैसा कि रेकर्ड - अलबम के आवरण पर बताया गया है हरे कृष्ण, हरे कृष्ण, कृष्ण कृष्ण, हरे हरे / हरे राम, हरे राम, राम राम, हरे हरे कीर्तन द्वारा उत्पन्न दिव्य स्पन्दन हमारी कृष्ण चेतना को पुनरुज्जीवित करने की उदात्त पद्धति है।" भाषा दार्शनिक थी और उस तरह के लोग जो कीर्तन समाप्त होते ही और स्वामीजी के एक भी शब्द बोलने के पूर्व ही मंदिर से बाहर चले जाते थे, रेकार्ड के अलबम पर अंकित यह भाषण पसंद करने वाले नहीं थे। स्वामीजी पढ़ते गए, “ जीवित चिन्मय प्राणियों के रूप में हम मूलतः कृष्ण चेतन जीव हैं। किन्तु अनादि काल से पदार्थ के साथ हमारे संसर्ग के कारण हमारी चेतना भौतिक परिवेश से सम्प्रति दूषित है।" भक्तगण विनम्रतापूर्वक अपने सद्गुरु के वचनों को सुनते रहे और इस बीच यह अनुमान लगाने का प्रयत्न करते रहे कि इस भाषण का श्रोता - मण्डली पर क्या प्रभाव होगा । निश्चय ही कुछ लोग चिन्मय प्रकृति शब्द सुनते ही रेकार्ड बंद कर देंगे । स्वामीजी ने वाचन जारी रखा। वे समझा रहे थे कि कीर्तन मनुष्य को ऐन्द्रिय, मानसिक और बौद्धिक क्षेत्रों से मुक्त करके आध्यात्मिक भूमिका में पहुँचा देता है। प्रभुपाद आगे पढ़ते रहे, "हम लोगों ने इसे व्यवहार में देखा है। कीर्तन में एक बालक भी भाग ले सकता है, या एक कुत्ता भी इसमें शामिल हो सकता है। ...किन्तु कीर्तन भगवान् के एक विशुद्ध भक्त के मुख से सुना जाना चाहिए ।" और वे अंत तक पढ़ते चले गए, ... अतः इस युग में आध्यात्मिक साक्षात्कार का इससे बढ़ कर कोई और प्रभावशाली साधन नहीं है कि हम हरे कृष्ण, हरे कृष्ण, कृष्ण कृष्ण, हरे हरे / हरे राम, हरे राम, राम राम हरे हरे महामंत्र का जप करें ।' एलेन पुन: स्टूडियो से भागता हुआ प्रभुपाद के पास आया। उसने कहा यह बहुत सुंदर था । उसने कहा कि उन लोगों ने भाषण में किंचित् प्रतिध्वनि रेकर्ड कर ली है जिससे भाषण श्रोता के लिए विशिष्ट बन जाय । चश्मे को अंगुलियों से पीछे हटाते हुए उसने कहा, 'अब भाषण के लिए निर्धारित समय में से दस मिनट और बचे हैं। क्या आप पुनः कीर्तन करना पसंद करेंगे ? अथवा, अब बहुत देर हो चुकी है ?” प्रभुपाद मुसकराए। नहीं, बहुत देर नहीं हुई है। वे अपने सद्गुरु की स्तुतियों का गान करेंगे। प्रभुपाद के शिष्य स्टूडियो की चारों ओर चक्कर लगाते हुए अपने सद्गुरु और इंजीनियरों के प्राविधिक कार्यकलापों को देखते रहे और प्रभुपाद ने अपना गायन आरंभ किया। हारमोनियम की गूँज फिर सुनाई देने लगी, उसके बाद तम्बूरे और ढोल बजे, लेकिन पहले से लय का समूह बहुत कम था । वे गाते रहे — बिना पुनः रेकार्डिंग के । और तब उन्होंने ढोल के उच्च वादन और हारमोनियम के क्षीण होते स्वर के मध्य अपना गायन समाप्त किया—उस संध्या के कार्यक्रम का भी तभी समापन हुआ । एलेन पुनः बाहर आया और स्वामीजी को इतने धैर्यवान् और सफल स्टूडियो संगीतज्ञ होने के लिए धन्यवाद दिया । प्रभुपाद अब भी बैठे थे। उन्होंने स्वीकार किया, " अब हम लोग थक गए हैं। " एकाएक स्टूडियो के लाउडस्पकीर यंत्र पर हरे कृष्ण कीर्तन का, पूरी प्रतिध्वनि के साथ, प्रतिश्रवण होने लगा। जब प्रभुपाद ने कीर्तन का सफल रेकार्डिंग सुना तो वे प्रसन्न हो गए और उठकर नाचने लगे। वे भावातिरेक में नृत्य-रत महाप्रभु चैतन्य की शैली में आगे-पीछे दोलायमान होते हुए और कटि प्रदेश को किंचित् झुकाते हुए नृत्य में लीन हो गए। निर्धारित कार्यक्रम समाप्त हो चुका था, अब स्वामीजी अपनी स्वत: स्फूर्त भावनाओं से उस सायंकाल का सर्वोत्तम कार्यक्रम प्रस्तुत कर रहे थे। जब वे नृत्य करने लगे तो उनके अर्ध सुषुप्त शिष्य चौंक उठे और खड़े होकर उन्हीं की शैली में वे भी नृत्य करने लगे । और शीशे के पीछे रेकार्डिंग कक्ष में इंजीनियर भी अपने हाथ उठा कर नृत्य और गायन करने लगे । बर्फ जैसी ठंडी मैनहट्टन की उस संध्या में जब प्रभुपाद स्टूडियो से विदा लेकर जा रहे थे, उन्होंने मि. कालमैन से कहा, “आपने अपना सर्वोत्तम रेकार्ड अब बनाया है।" स्वामीजी वाक्सवेगन बस की अगली सीट पर बैठ गए और हरे कृष्ण कीर्तनकारी 'अपने वाद्य यंत्रों के साथ' गाड़ी के पिछले भाग में बैठ गए और रूपानुग ने उन लोगों को लोअर ईस्ट साइड - स्थित उनके घर पहुंचा दिया । दूसरे दिन प्रात: काल प्रभुपाद नहीं उठे। वे क्लांत थे। कीर्तनानंद, जो व्यक्तिगत रूप से उनकी सेवा कर रहा था, चिन्ताकुल हो गया, जब स्वामीजी ने उसे अपने हृदय की गति के विचलन और उठ सकने में असमर्थता के बारे में बताया। पहली बार यह बात स्पष्ट हुई कि वे बहुत अधिक श्रम कर रहे थे। कीर्तनानंद को पिछले शिशिर और ग्रीष्म की याद आई, जब स्वामीजी घंटों कीर्तन के लिए उन्हें पार्क में ले जाया करते थे या शाम को देर तक उनके साथ कार्यक्रम रखा करते थे— ये सारे कार्यक्रम उनके लिए प्रति दिन की बात हो गए थे। किन्तु कीर्तनानंद को लगा कि अब स्वामीजी के स्वास्थ्य के बारे में चिन्ता करने का कारण था। उन्हें दोपहर के भोजन की इच्छा नहीं हुई, यद्यपि तीसरे पहर उन्हें भूख लग आई और वे अपने नित्य के कार्यों में व्यस्त हो गए । उसी दिन सैन फ्रांसिस्को से मुकुंद का पत्र आया । मुकुंद और जानकी अपने विवाह के कुछ समय बाद ही वेस्ट कोस्ट चले गए थे। मुकुंद ने स्वामीजी को बताया था कि वह भारतीय संगीत का अध्ययन करने के लिए भारत जाना चाहता था, लेकिन दक्षिण ओरेगान में कुछ सप्ताह बिताने के बाद, वह सैन फ्रांसिस्को जाकर वहीं पड़ा रहा था। अब उसके मन में एक और सुंदर विचार उठा था । वह किराए पर एक स्थान लेना चाहता था और प्रभुपाद को आमंत्रित करना चाहता था कि वे वहाँ आएँ और हेट- ऐशबरी डिस्ट्रिक्ट में उसी प्रकार हरे कृष्ण आंदोलन आरंभ करें जैसा वे लोअर ईस्ट साइड में कर रहे थे। उसने कहा कि वहाँ कृष्णभावनामृत की संभावनाएँ बहुत अच्छी हैं। यह जान कर प्रभुपाद अपनी विस्तारशील योजनाओं का ब्यौरा शिष्यों को देने लगे। उन लोगों को चाहिए कि वे न केवल सैन फ्रांसिस्कों में, वरन् एक-एक करके सारे विश्व में मंदिर स्थापित करें, यहाँ तक कि रूस और चीन में भी। उन्हें भगवद्गीता को भी विभिन्न भाषाओं में प्रकाशित करना चाहिए। और उनकी योजना श्रीमद्भागवत के सभी खण्डों का अंग्रेजी में अनुवाद करने और उसके बाद भक्तों का एक दल लेकर भारत वापस जाने की थी । भक्तों ने प्रभुपाद की ये बातें सुनी और वे आश्चर्य-विभोर हो गए। कीर्तनानंद को सवेरे प्रभुपाद के खराब स्वास्थ्य के जो चिन्ताजनक लक्षण दिखाई दिए थे और जो विचार उसके मन में उठे थे, वे सब उसे भूलने लगे। उसने सोचा, यदि कृष्ण की इच्छा हुई तो स्वामीजी कुछ भी कर सकते हैं। *** १९ नवम्बर को जब प्रभुपाद अपनी सवेरे की कक्षा लेने के लिए नीचे आए तो अपने साथ वे सामान्य भूरे रंग के स्थान पर लाल रंग का बड़ा-सा ग्रंथ लिए थे। किन्तु किसी ने इस अंतर को लक्ष्य नहीं किया । सदैव की तरह उन्होंने अपने गुरु महाराज के प्रति कोमल स्वर में स्तोत्र - गायन आरंभ किया; उनके बोंगो से निकलने वाली क्षीण लय उनका साथ दे रही थी ( पड़ोस में लोग अब भी सोए थे । ) मौसम ठंडा था; किन्तु भाप देने वाली मशीनों ने स्टोरफ्रंट को गर्म कर रखा था। अब घर के बाहर कीर्तन का आयोजन नहीं होना था। मैनहट्टन में ग्रीष्मऋतु में नगर खूब खुला रहता है, किन्तु जाड़े में कस कर बंद रहता है। इसका तात्पर्य यह था कि शाम की कक्षाओं के समय दरवाजे के बाहर शोर-गुल करने वाले बच्चे नहीं होंगे। यद्यपि प्रातः कालीन कक्षाएँ सदैव शान्त रहती थीं— ग्रीष्मऋतु में भी — किन्तु अब शीतऋतु के निकट होने से स्वामीजी का व्याख्यान सुनने के लिए आने वाले छात्रों की संख्या केवल प्रतिबद्ध और कर्त्तव्यनिष्ठ समुदाय तक सीमित हो जायगी । २६, सेकंड एवन्यू में इस्कान को आरंभ हुए चार महीने बीत गए थे। स्वामीजी ने अब तक तीन अलग-अलग दीक्षा समारोह किए थे और उनमें उन्नीस भक्तों को दीक्षित किया था। उनमें से अधिकतर दत्तचित्त हो गए थे, यद्यपि कुछ 'अब भी' कभी-कभी आने वाले अभ्यागत की तरह थे। अब, इन प्रातः कालीन कक्षाओं में, स्वामीजी उन्हें विस्तार से बताना चाहते थे कि भक्त कैसे बना जा सकता है। बीस मिनट तक वे हरे कृष्ण कीर्तन की अगुवाई करते रहे, शिष्यों को सावधान करते हुए कि वे मंद स्वर में अनुसरण करें ताकि कोई पड़ोसी छत से पानी न डाल दे —– यद्यपि कुछ समय से किसी ने ऐसा नहीं किया था। प्रभुपाद किराएदारों से हमेशा सहयोग करने का प्रयत्न करते थे, किन्तु कभी-कभी कोई किराएदार उनके विरुद्ध आवेदन पत्र दे देता - जिसका कोई विशेष महत्त्व नहीं होता था — कभी-कभी प्रभुपाद किराएदारों के कूड़ा - कबाड़ की सफाई में मकान मालिक, मिस्टर चूटे, की सहायता कर देते थे । मकान मालिक के अन्य कामों में भी वे हाथ बँटा देते थे । मकान मालिक, मि. चूटे, मोटी तोंदवाले पोलिश शरणार्थी थे जो पहली मंजिल के एक अपार्टमेंट में अकेले रहते थे। मि. चूटे स्वामीजी की अवस्था और विद्वत्ता के कारण उनका आदर करते थे और स्वामीजी उनके प्रति बहुत सौहार्दपूर्ण थे। मि. चूटे जब भी प्रभुपाद के अपार्टमेंट में आते तो वे अपने जूते कभी न उतारते और प्रभुपाद हमेशा यही कहते, “ठीक है, सब ठीक है।" और एक बार जब प्रभुपाद के अपार्टमेंट में नल ठीक काम नहीं कर रहा था तब वे नीचे गए थे और उन्होंने मि. चूटे के अपार्टमेंट में स्नान किया था । किन्तु स्वामीजी मि. चूटे को मूर्ख भौतिकतावादी का एक पक्का उदाहरण मानते थे, क्योंकि, यद्यपि उन्होंने अपने जीवन की सारी कमाई इस इमारत को खरीदने में लगा दी थी, फिर भी उन्हें इतना कड़ा परिश्रम करना पड़ता था कि प्रभुपाद कहते कि अपने जीवन की सारी कमाई से यह जीर्ण-शीर्ण इमारत खरीद कर वे मूर्ख बन गए है, क्योंकि उसकी हालत इतनी खराब थी कि उसके रख-रखाव के लिए उन्हें गधे की तरह काम करना पड़ता था। प्रभुपाद कहते — “भौतिकतावादी इसी तरह काम में लगे रहते हैं । ' मिस्टर चूटे, यद्यपि स्वामीजी को आदर की दृष्टि से देखते थे, लेकिन वे भक्तों को पसंद नहीं करते थे। प्रभुपाद ने अपने शिष्यों से कहा, "उनके साथ ऐसा व्यवहार करो मानो वे तुम्हारे पिता हों।" अतः वे ऐसा ही करने लगे। जब भी उन्हें मिस्टर चूटे से काम पड़ता तो वे उनके पास यह कहते हुए जाते कि, “हम आपके लड़के हैं। " वे शिष्य जो स्टोरफ्रंट में रहते थे साढ़े छह बजे उठ गए थे, उन्होंने स्नान कर लिया था और वे सात बजे तक नीचे एकत्र हो गए थे, जबकि बाहर रहने वाले शिष्य अलग-अलग पहुँच रहे थे और अपने कोट उतार कर प्रदर्शन - खिड़कियों के खानों में एक पर एक रखते जा रहे थे। यद्यपि महिलाएँ हमेशा शाम की बैठकों में आती थीं, जदुरानी सामान्यतः अकेली लड़की थी जो सवेरे की सभाओं में आती थी। नाश्ते के बाद वह ऊपर स्वामीजी के कमरे में पेंटिंग का काम शुरू करती थी। नौसिखियों की विधि का प्रयोग करते हुए वह चित्र - फलक को खड़ी और समतल रेखाओं से खानों में विभक्त करती थी और तब किसी फोटो के अनुसंगित भागों को एक एक करके उन खानों में स्थानान्तरित करती थी। यह प्रक्रिया कष्ट साध्य थी और कभी कभी उसकी पेंटिंग अनुपातहीन हो जाती थी। लेकिन जदुरानी में निष्ठा थी, इसलिए प्रभुपाद उससे प्रसन्न थे। उसने चतुर्भुज विष्णु के कई चित्र बनाए थे, एक नया चित्र उसने राधाकृष्ण का और एक चित्र भगवान् चैतन्य और उनके पार्षदों का बनाया था। जब भगवान् चैतन्य का चित्र बन कर तैयार हो गया तो प्रभुपाद ने उसे मंदिर में टंगवा दिया। उन्होंने घोषणा की, " अब यहाँ व्यर्थ के काम नहीं होने चाहिए; भगवान् चैतन्य यहाँ उपस्थित हैं। " प्रातः कालीन कीर्तन के बाद प्रतिदिन की भाँति स्वामीजी ने कहा, 'अब एक माला और कीर्तन करो।” उनका अनुसरण करते हुए शिष्यों ने एक साथ कीर्तन किया। उन सब ने प्रतिदिन सोलह माला जपने का संकल्प लिया था, लेकिन वे पहला कीर्तन सवेरे स्वामीजी की उपस्थिति में करते जिससे वे उनमें से प्रत्येक को देख सकें। कीर्तन करते समय स्वामीजी ने सेकंड एवन्यू की ओर बाहर देखा जो प्राय: उजाड़ लगता था; फिर उन्होंने दीवाल पर टंगे चित्रों पर दृष्टि डाली, फिर चिन्ताभरी दृष्टि से उन्होंने एक-एक करके भक्तों को देखा। भक्तों को इतनी निष्ठा से कीर्तन करते देख, प्रभुपाद को कभी-कभी आश्चर्य होता था । भक्त पवित्र नाम की उस शक्ति का साक्ष्य दे रहे थे जो अत्यन्त पतितों का भी उद्धार करती है। कोई कोई भक्त अपनी माला को प्रभुपाद की भाँति छोटी-सी थैली में रखते थे। किन्तु जब वे प्रात:काल प्रथम कीर्तन एक साथ करते तो प्रभुपाद का अनुसरण करते हुए वे माला थैली में से निकाल कर दोनों हाथों में ले लेते और उनके साथ हरे कृष्ण का कीर्तन करते रहते जब तक माला की एक फेरी पूरी नहीं हो जाती थी । तब प्रभुपाद ने अपरिचित लाल पुस्तक को हाथ में लिया। उन्होंने कहा, "क्योंकि तुम लोग कुछ उन्नति कर चुके हो, इसलिए आज मैं चैतन्य चरितामृत से पढ़ने जा रहा हूँ।” चैतन्य क्या ? उच्चारण किसी की समझ में नहीं आया । उन्होंने चैतन्य के बारे में निश्चित रूप से सुना था, लेकिन इस नई पुस्तक के विषय में नहीं । किन्तु एक रात पहले अपने कमरे में उन्होंने कुछ भक्तों को सूचित किया था कि वे एक नई पुस्तक, चैतन्य चरितामृत, से वाचन आरंभ करने वाले हैं। उन्होंने कहा कि महाप्रभु चैतन्य ने अपने एक शिष्य को बताया था कि कृष्ण को समझ पाना वास्तव में संभव नहीं है, किन्तु वे कृष्णभावनामृत के सागर की केवल एक बूंद देंगे जिससे शिष्य समझ सकेगा कि पूरा सागर किस तरह का होगा। प्रभुपाद ने कहा "धैर्य रखो, मैं इसे प्रस्तुत कर रहा हूँ। यह क्रान्तिमय है, किन्तु तुम लोगों को धैर्य रखना चाहिए ।' स्टोरफ्रंट में जब स्वामीजी ने बंगाली पद्य पढ़ने आरंभ किए तो ब्रह्मानंद ने टेपरेकार्डर चालू कर दिया और सत्स्वरूप और उमापति नोट लेने को उद्यत होकर अपनी नोट बुकें खोल कर बैठ गए। वहाँ कक्षा का वातावरण बन गया, जब प्रभुपाद ने अपना गला साफ किया, चश्मा पहन लिया और विशाल पुस्तक में अभीष्ट पृष्ठ पर पहुँचने के लिए वे उसके पन्ने पलटने लगे। जब भी वे चश्मा धारण करते तो गहन वैष्णव विद्वत्ता का एक नया व्यक्तित्व उद्घाटित करते हुए प्रतीत होते थे । स्वामीजी का यह वैशिष्ट्य उनकी वृद्धावस्था पर बल देता था— यह नहीं कि यह उनकी दुर्बलता या अशक्यता प्रकट करता था, अपितु यह उनकी विद्वत्ता, बुद्धिमत्ता और शास्त्रों के उनके अनुशीलन पर बल देता था; उनका यह वैशिष्ट्य टाम्पकिंस स्क्वायर में उनके सशक्त ढोल वादन या नई इमारत खोजते समय उनके सतर्क व्यापारिक व्यवहार के बिल्कुल विपरीत लगता । प्रभुपाद ने सनातन और उनके भाई 'रूप' की कहानी का वाचन और उसका अनुवाद आरंभ किया कि वे दोनों किस प्रकार महाप्रभु चैतन्य के अंतरंग पार्षद बने । ('सनातन' को सत्स्वरूप ने अपनी नोटबूक में "सूटा " लिखा और उमापति ने "सोनोटन " ) । यह एक ऐतिहासिक विवरण था । रूप और सनातन भारत वर्ष में ब्राह्मण के रूप में उत्पन्न हुए थे, लेकिन उन्हें मुसलमानों की सरकार में नौकरी करनी पड़ी थी जो उस समय सत्ता में थे। दोनों भाइयों ने मुस्लिम नाम तक धारण कर लिए थे। किन्तु जब भगवान् चैतन्य उनके क्षेत्र में यात्रा कर रहे थे तो वे लोग उनसे मिले थे और यह संकल्प ले लिया था कि वे भौतिकतावादी जीवन-पद्धति का त्याग करके भगवान् के विशुद्ध प्रेम के पथ का अनुसरण करेंगे। रूप ने जो कि इतने सम्पन्न थे कि उनके पास दो नावों को भर देने-भर का पर्याप्त सोना था, उच्च सरकारी नौकरी छोड़ दी, अपनी सम्पत्ति का वितरण कर दिया, भिक्षुक बन गए और भगवान् चैतन्य के साथ हो गए। परन्तु सनातन के मार्ग में और अधिक बाधाएँ थी । नवाब शाह, जो बंगाल प्रांत का प्रमुख मुस्लिम शासक था, प्रबन्ध विषयक विशेष जानकारी के लिए सनातन पर निर्भर करता था । सनातन ने घर रहना और बीमारी की रिपोर्ट भेजना शुरू कर दिया, जबकि वास्तव में वे एक दर्जन ब्राह्मणों को घर पर रख कर उनसे श्रीमद्भागवत की शिक्षा लेने लगे थे । नवाब ने सनातन के स्वास्थ्य की असली हालत जानने के लिए अपना हकीम भेजा और जब नवाब को मालूम हुआ कि सनातन वास्तव में बीमार नहीं है तो एक दिन वह स्वंय पहुँच गया और उसे देख सनातन और ब्राह्मण आश्चर्य में पड़ गए। नवाब ने आदेश दिया कि सनातन तुरन्त सरकारी कार्य का भार संभाल ले जिससे वह आखेट खेलने और सैनिक अभियान पर जाने के लिए और बंगाल छोड़ने के लिये समय निकाल सके । किन्तु सनातन ने कहा कि वे ऐसा नहीं कर सकते, क्योंकि उनका संकल्प शास्त्रों का अध्ययन करने का था और नवाब जो चाहे, उनके साथ करे । इस चुनौती पर नवाब ने सनातन को जेल में डाल दिया । ... प्रभुपाद ने अपनी घड़ी देखी। प्रातः कालीन कक्षाएँ सायंकालीन कक्षाओं से आधा घंटा छोटी होती थीं, क्योंकि रूपानुग, सत्स्वरूप और ब्रह्मानंद को अपने-अपने काम पर जाना होता था । प्रभुपाद ने वाचन यहीं रोक दिया – “ तो हम लोग कल आगे विचार करेंगे।” उन्होंने पुस्तक बंद कर दी और कुछ अनौपचारिक वार्ता के बाद वे उठ खड़े हुए और स्टोरफ्रंट से चले गए। उनके पीछे उनकी पुस्तक और ऐनक लिए हुए कीर्तनानंद ने अनुसरण किया । सवेरे का जलपान प्रतिदिन स्टोरफ्रंट में होता था । अच्युतानंद या कीर्तनानंद भक्तों के लिए ओटमील ( जई का आटा) का नाश्ता लाता था । सत्स्वरूप ने रामायण के किसी अंग्रेजी संस्करण में पढ़ा था कि कुछ ऋषि “स्वर्गीय दलिया” नामक एक रहस्यमय खाद्य तैयार करते थे। यह नाम चल पड़ा और भक्तगण अपने खाद्य को स्वर्गीय दलिया कहने लगे। उनका यह प्रिय खाद्य अत्यन्त गर्म दलिया अर्थात् ओटमील में गुलाबजामुन का शीरा, गर्म दूध और फल मिला कर बनाया जाता था । और साथ में हर भक्त को एक इस्कान गोली ( अर्थात् गुलाबजामुन ) मिलती थी । आज सवेरे के नाश्ते के समय रूप और सनातन के विषय में बात चली । उमापति ने बताया कि चैतन्य चरितामृत का अंग्रेजी अनुवाद उपलब्ध था, किन्तु हो सकता है कि स्वामीजी न चाहें कि भक्त उसे पढ़ें। कीर्तनानंद बोला, “हम उसे स्वामीजी से सुनेंगे।" हयग्रीव ने कक्षा के आकस्मिक समापन पर हल्का-सा व्यंग्य किया; मुक्त हँसी हँसता हुआ वह बोला, “कल फिर ट्यून करो और सुनो कि क्या हुआ... उसका नाम क्या है ?" भक्तों ने भिन्न-भिन्न उत्तर दिए : " सन्तन"..." सोनोटोन"..." सनातन ।" हयग्रीव ने कहा: “हाँ, कल ट्यून करो और सुनो। क्या सनातन जेल से छूटेंगे ?" शिष्यगण जब एक साथ होते तब वे, विशेष कर जब वे गाढ़ी मीठी चाशनी खा लेते, तब वे गंभीर नहीं रह पाते थे । अच्युतानंद ने थोड़ी-सी चाशनी गलीचे पर गिरा दी तो कीर्तनानंद ने उसे डाँट बताई। जदुरानी ने अपना खाना चुपचाप समाप्त किया और अपनी पेंटिंग का काम शुरू करने के लिए स्वामीजी के कमरे में जल्दी से चली गई। सत्स्वरूप ने अपनी टाई ठीक की और वह तथा रूपानुग और ब्रह्मानंद अपने काम पर चले गए । दूसरे दिन प्रातः काल चैतन्य चरितामृत गोष्ठी फिर आरंभ हुई कि सनातन ने जेल से छूटने और महाप्रभु चैतन्य से मिलने की क्या योजनाएँ बनाई । सनातन के भाई रूप ने उनके पास एक पत्र भेजा कि उन्होंने सनातन के लिए एक पंसारी के पास बहुत-सा सोना रख दिया है। सनातन ने वह सोना जेलर को घूस में देना चाहा। उन्होंने जेलर से कहा, “ श्रीमन्, मैं जानता हूँ कि आप बहुत बड़े विद्वान् हैं। आपके कुरान में कहा गया है कि यदि आप किसी को आध्यात्मिक जीवन में प्रवेश करने की सहायता दें तो आप समुन्नत होकर उच्च पद पर पहुँच जायँगे। मैं महाप्रभु चैतन्य के पास जा रहा हूँ और यदि आप मेरे भाग निकलने में मेरी सहायता करेंगे तो आपको आध्यात्मिक लाभ प्राप्त होगा। मैं आपको पाँच सौ सोने की मुहरें भी दूँगा । इस प्रकार आपको साथ - साथ भौतिक लाभ भी होगा ।" जेलर ने कहा, “ठीक है, लेकिन मैं बादशाह से डरता हूँ ।" तो सनातन ने उसे सलाह दी, “ केवल यह कहना कि जब मैं नदी तट पर शौच के लिए गया हुआ था, तो जंजीरों सहित मैं नदी में गिर पड़ा और बह गया ।" जेलर सात सौ सोने की मुहरों पर सनातन की सहायता के लिए तैयार हो गया और उनकी जंजीरें काट दीं। तब सनातन अपने नौकर के साथ पीछे की सड़कों से भागे और रात होने पर वे एक होटल में पहुँचे । यह होटल चोरों का था; वहाँ एक ज्योतिषी ने सनातन की हस्त रेखाएँ देखीं और ग्रहों के आधार पर उसने निर्णय किया कि सनातन के पास धन है । जब सनातन ने जंगली पहाड़ों को पार करने में सहायता की याचना की तो होटल वाले ने कहा कि वह आधी रात के सन्नाटे में भागने में उनकी मदद करेगा। उन्होंने सनातन के साथ आदरपूर्वक व्यवहार किया। इससे उनके मन में संदेह हुआ, क्योंकि उन्होंने तीन दिन से कुछ नहीं खाया था और उनके कपड़े गंदे हो गए थे। तब उन्होंने उनके नौकर से पूछा कि क्या उनके पास कुछ धन है। नौकर बोला- हाँ, सात सोने की मुहरे हैं। सनातन मुहरे लेकर तुरंत होटल वाले के पास गए जो रात में उन्हें मार डालने और धन ले लेने की योजना बना रहा था । ... स्वामीजी ने अपनी घड़ी देखी । पुनः समय अधिक हो गया था । पुस्तक बंद करते हुए उन्होंने कहा, “ तो हम कल इसे जारी रखेंगे कि सनातन डकैतों से कैसे बच निकलते हैं। " कीर्तनानंद, ब्रह्मानंद, अच्युतानंद, गर्ग मुनि, सत्स्वरूप, हयग्रीव, उमापति, जदुरानी, रूपानुग, दामोदर ( डान क्लर्क ) – इनके जीवन में पूरा परिवर्तन आ गया था। कई महीनों से उन्होंने अपने जीवन का केन्द्र स्वामीजी को मान लिया था; उनकी हर चीज स्वामीजी की कक्षाओं, कीर्तनों, प्रसाद और स्टोरफ्रंट में आने-जाने की चारों ओर घूमती थी । ब्रह्मानंद और गर्ग मुनि अपने स्थानों को कई महीने पहले छोड़ कर स्टोरफ्रंट में आ गए थे । अच्युतानंद के अपार्टमेंट की छत एक दिन उसके कक्ष से बाहर निकलने के कुछ मिनट बाद ही गिर गई थी और उसने भी स्टोरफ्रंट में चले आने का निर्णय किया था । हयग्रीव और उमापति ने अपने माट-स्ट्रीट स्थित निवास की सफाई कर डाली थी और वे उसका उपयोग केवल कीर्तन, सोने और स्वामीजी के भागवतम् को पढ़ने के लिए कर रहे थे। सत्स्वरूप ने एक दिन घोषित किया कि मंदिर की बगल में स्थित उसके अपार्टमेंट का उपयोग स्नान के लिए भक्तगण कर सकते हैं। दूसरे ही दिन रायराम उसमें आ गया, और अन्य भक्त उसका उपयोग मंदिर के उपभवन के रूप में करने लगे। जदुरानी ने ब्रांक्स से नित्य सवेरे आने का क्रम जारी रखा। (स्वामीजी ने कहा था कि स्वामीजी को उनके अपार्टमेंट के दूसरे कमरे में उसके रहने में कोई आपत्ति नहीं थी, किन्तु लोग इसकी चर्चा करेंगे ) रूपानुग और दामोदर भी, जिनकी पृष्ठभूमि और रुचियाँ भिन्न प्रति सप्ताह तीन दिन प्रातः कालीन तथा सायंकालीन कक्षाओं पर निश्चित रूप से निर्भर थे। उन्हें इस बात का भी निश्चित रूप से पता था कि जब भी उन्हें आवश्यकता हो वे स्वामीजी को उनके कमरे में मिल सकते हैं । किन्तु भक्तों की इस सुरक्षा - भावना के लिए कुछ खतरे भी थे। प्रभुपाद कभी कभी कहा करते थे कि यदि उन्हें स्थायी रूप से रहने की सरकारी अनुमति नहीं मिली, तो उन्हें देश छोड़ना पड़ेगा। लेकिन वे एक वकील के पास हो आए थे और प्रारंभिक खतरे का संकेत मिलने के बाद ऐसा प्रतीत होने लगा था कि स्वामीजी को अनिश्चित काल तक रहने की अनुमति मिल जायगी । इस बात का भी खतरा भक्तों को था कि स्वामीजी सैन फ्रांसिस्को जा सकते हैं। वे कहते थे कि वे जा रहे हैं, फिर कभी-कभी कहते थे नहीं जा रहे हैं। स्वामीजी ने कहा कि यदि टेंथ स्ट्रीट की इमारत का, मिस्टर प्राइस के माध्यम से, सौदा हो जाता है तो वे न्यू यार्क सिटी को अपना मुख्यालय बनाएँगे और सैन फ्रांसिस्को नहीं जायँगे । किन्तु कम-से-कम प्रातः कालीन कक्षाओं में जब उनके शिष्य चैतन्य चरितामृत पर उनके व्याख्यान सुनते उस समय उनके मन से यह खतरा गायब रहता था। उस समय उनका पूरा ध्यान प्रभुपाद की शाश्वत अंतरंग शिक्षाओं पर केन्द्रित होता था । कृष्णभावनामृत एक संघर्ष था जिसमें प्रभुपाद के विधान का माया के विरुद्ध पूरा पालन करना था — अवैध यौनाचार नहीं, मादक द्रव्य सेवन नहीं, द्यूत-क्रीड़ा नहीं, मांस भक्षण नहीं। यह तब तक संभव था जब तक शिष्य उनका गायन सुनेंगे, चैतन्य चरितामृत पर उनका व्याख्यान सुनेंगे, और उसे पढ़ते रहेंगे। शिष्यों को कृष्णभावनामृत की प्राप्ति होती रहे, इसके लिए प्रभुपाद की उपस्थिति अनिवार्य थी। वे शिष्यों के नवार्जित आध्यात्मीकृत जीवन के केन्द्र थे; कृष्णभावनामृत सम्बन्धी उनके ज्ञान का सर्वस्व वे ही थे। जब तक वे उनके पास आते रहेंगे, उनका दर्शन करते रहेंगे, तब तक उनके लिए कृष्णभावनामृत सुनिश्चित था— प्रभुपाद के वहाँ रहने तक । पुराने गलीचे पर बैठे हुए शिष्यगण प्रभुपाद की ओर देख रहे थे और प्रतीक्षा कर रहे थे कि वे आगे की कथा आरंभ करें। प्रभुपाद ने अपना गला साफ किया और ब्रह्मानंद पर दृष्टि डाली जो चुपचाप चलते हुए टेप रेकार्डर की बगल में बैठा था । सत्स्वरूप ने अपनी नोटबुक में तारीख अंकित की। प्रभुपाद ने बंगाली पद्यों को पढ़ते हुए उनका पदान्वय आरंभ किया... सनातन ने सातों सोने की मुहरें अपने नौकर से लीं और उन्हें होटल वाले को दे दिया। ज्योतिषी ने कहा, “तुम्हारे पास आठ मुहरें हैं।” सनातन गए और पता किया कि उनका नौकर आठवीं मुहर अपने पास रखे हुए था। सनातन ने पूछा, “तुम सड़क पर अपने साथ यह मौत की घंटी लेकर क्यों चलते हों ? तुम धन पर बहुत अधिक आसक्त हो ।” और उन्होंने नौकर से वह सोने की मुहर ले ली और उसे घर लौट जाने को कहा । तब सनातन सोने की आठवीं मुहर होटल वाले के पास ले गए। किन्तु होटल वाला, जिसने स्वीकार किया कि उसका इरादा धन के वास्ते सनातन को मार डालने का था, बोला, “तुम अच्छे व्यक्ति हो, तुम अपना धन अपने पास रख सकते हो।" लेकिन सनातन ने इनकार कर दिया। तब होटल वाले ने सनातन को चार सहायक दिए। उन्होंने सनातन को जंगल पार कराया, फिर अकेला छोड़ दिया। सड़क पर अकेले आगे बढ़ते हुए सनातन को अनुभव हुआ कि अब वे अपने नौकर की झंझट और डकैतों से मुक्त हो गए हैं। शीघ्र ही उनकी भेंट उनके बहनोई से हुई जो उसी सड़क से यात्रा कर रहे थे। उनके बहनोई धनाढ्य व्यक्ति थे जो बहुत अधिक धन लेकर घोड़े खरीदने जा रहे थे । सनातन के बहनोई ने कहा, "कृपा करके मेरे साथ रहिए, कम-से-कम कुछ दिन के लिए। आपकी यह दशा देख कर सचमुच खराब लगता है ।" बहनोई जानते थे कि सनातन आध्यात्मिक जीवन अपनाने जा रहे हैं, उन्होंने उनसे प्रार्थना की कि एक कीमती कम्बल उनसे स्वीकार करके सनातन अपने पहनावे को सुधार लें। सनातन ने कम्बल ले लिया और अपने मार्ग पर चलते रहे । अंत में सनातन वाराणसी पहुँचे, और सीधे चन्द्रशेखर के घर गए, जहाँ भगवान् चैतन्य ठहरे हुए थे। वे दरवाजे के बाहर प्रतीक्षा करने लगे। भगवान् चैतन्य को मालूम हो गया था कि सनातन पहुँच गए हैं और उन्होंने चन्द्रशेखर से अनुरोध किया कि दरवाजे पर जाकर वे जो भक्त वहाँ प्रतीक्षा कर रहा था उसे अंदर आने को कहें। चन्द्रशेखर बाहर गए, किन्तु वहाँ उन्होंने केवल फटेहाल सनातन को देखा जिसे उन्होंने अर्धविक्षिप्त मुसलमान फकीर समझा । चन्द्रशेखर लौट कर भगवान् चैतन्य के पास गए और बताया कि बाहर कोई भक्त नहीं था । महाप्रभु ने पूछा, "वहाँ कोई था भी ?" चन्द्रशेखर ने कहाँ, "हाँ, कोई फटेहाल फकीर ।" तब भगवान् चैतन्य दरवाजे पर गए और सनातन को गले लगा लिया। भाव-विभोर महाप्रभु अश्रुपात करने लगे, क्योंकि उन्होंने अंत में एक ऐसा भक्त पा लिया था जो, वे जानते थे, उनकी सम्पूर्ण शिक्षाओं को प्राप्त करने का उपयुक्त पात्र था। और सनातन हर्षातिरेक में आँसू बहाने लगे कि उनके जीवन की आकांक्षा पूर्ण हो रही है । किन्तु क्योंकि यात्रा के कारण वे मैले कुचैल बन गए थे और उपयुक्त अवस्था में नहीं थे, उन्होंने महाप्रभु से प्रार्थना की कि वे उनका स्पर्श न करें। महाप्रभु ने उत्तर दिया, “तुम को स्पर्श करने से मेरा लाभ है; जो कोई एक सच्चे भक्त का स्पर्श करता है, वह धन्य हो जाता है। प्रभुपाद ने एक और प्रातः कालीन सत्र का समापन करते हुए पुस्तक बन्द कर दी । प्रभुपाद की मुख्य चिन्ताओं में एक चिन्ता भगवद्गीता का यथासंभव शीघ्र अनुवाद और टीका समाप्त कर उसे प्रकाशित कर देने की थी । और एक दिन ऐसा कुछ घटित हुआ, जिससे उन्होंने पाण्डुलिपि तैयार करने के अपने कार्य में वृद्धि कर दी । अप्रत्याशित रूप से प्रभुपाद के पास नील नामक एक लड़का पहुँचा। वह एंटिओक कालेज का छात्र था और एक विशेष कार्यानुशील कार्यक्रम पर शोध कर रहा था । उसे कालेज से अनुमति प्राप्त हुई थी कि वह स्वामी भक्तिवेदान्त के आश्रम में, जिसके विषय में उसे समाचार-पत्रों से ज्ञात हुआ था, एक सत्र तक कार्य करे। नील ने उल्लेख किया कि यदि स्वामीजी को इससे कोई सहायता हो सके तो वह एक अच्छा टाइपिस्ट था। प्रभुपाद ने इसे कृष्ण का प्रसाद माना । तुरन्त ही उन्होंने किराए पर एक डिक्टाफोन मँगाया और टेपों पर अपनी व्याख्या रिकार्ड करना आरंभ कर दिया। हयग्रीव ने अपना बिजली से चलने वाला टाइपराइटर दे दिया और नील ने स्वामीजी के सामने के कमरे में बैठ कर प्रतिदिन आठ घंटे टाइप करना शुरू कर दिया। इससे प्रभुपाद को प्रेरणा मिली और उन्हें अधिक अनुवाद करने को बाध्य होना पड़ा। वे भगवद्गीता यथारूप पर तेजी से कार्य करने लगे, कभी कभी रात और दिन भर । उन्हें इस्कान की स्थापना किए पाँच महीने हो गए थे, तब भी उन्हें अपनी कक्षाओं में डा. राधाकृष्णन के भगवद्गीता के अनुवाद से पढ़ना पड़ता था, उन्होंने अपने शिष्यों को बताया कि जब भगवद्गीता यथारूप अंत में प्रकाशित हो जायगी तो वह कृष्णभावनामृत आन्दोलन के लिए बड़े ही महत्त्व की चीज होगी। अंततः गीता का एक प्रामाणिक संस्करण उपलब्ध हो जायगा । स्वामीजी जो कुछ कहते थे या करते थे, उनके शिष्य उसके विषय में जानना चाहते थे। धीरे-धीरे स्वामीजी के प्रति उनके विश्वास और भक्ति में वृद्धि होती गई और वे उन्हें भगवान् का प्रतिनिधि मानने लगे। उनके कार्यों और शब्दों को वे निरपेक्ष अथवा सम्पूर्ण मानते थे । शिष्यों में से कोई एक जब कभी स्वामीजी के साथ एकान्त में कुछ समय रह लेता था, तो शेष सभी शिष्य उसके चारों ओर इकठ्ठे होकर जो कुछ घटित हुआ था उसके हर ब्योरे को जानना चाहते थे । यही कृष्णभावनामृत था । जो कुछ स्वामीजी ने कहा होता या किया होता उसे जदुरानी स्पष्ट रूप से साफ-साफ कह देती थी। एक दिन प्रभुपाद ने एक कील पर पैर रख दिया जिसे जदुरानी ने फर्श पर गिरा दिया था; जदुरानी जानती थी कि उसके गुरु महाराज के प्रति यह उसका गंभीर अपराध था, लेकिन इस घटना का सबसे बड़ा महत्त्व इस बात में है कि इस अवसर पर प्रभुपाद ने किस प्रकार अपनी दिव्य चेतना का प्रदर्शन किया। वे शान्त भाव से, बिना किसी उद्वेग के, झुके और चीखे - चिल्लाए बिना ही पैर से कील बाहर खींच ली । और एक बार जब वह प्रभुपाद के डेस्क के पीछे उनके सिर के ऊपर एक चित्र टांग रही थी, तो संयोग से उसका पैर प्रभुपाद की चटाई पर पड़ गया था। उसने पूछा था, “क्या कोई अपराध हुआ ?” और प्रभुपाद ने उत्तर दिया था, “ नहीं, सेवा के निमित्त तुम मेरे सिर पर भी खड़ी हो सकती हो ?" कभी-कभी ब्रह्मानंद कहता कि स्वामीजी ने कृष्णभावनामृत के विषय में उससे एकान्त में एक बड़ी अंतरंग बात बताई है। लेकिन जब वह वर्णन करता जो स्वामीजी ने कहा था तो शिष्यों में कोई दूसरा बोल पड़ता कि वही बात तो श्रीमद्भागवतम् में भी है। प्रभुपाद ने बताया था कि आध्यात्मिक गुरु अपनी शिक्षाओं में उपस्थित रहता है और उन्होंने भागवतम् के उन तीन खण्डों में सब कुछ कह देने का प्रयत्न किया है, और भक्तगण इसे सच पा रहे थे। स्वामीजी के भक्त - परिवार में कोई गोपनीयता नहीं थी । हर एक जानता था कि स्वामीजी द्वारा बौद्धधर्म की कठोर आलोचना से खिन्न होकर उमापति कुछ दिन के लिए चला गया था, लेकिन फिर वापस आ गया था और प्रभुपाद से सच्चे गंभीर विचार-विमर्श के बाद, उसने कृष्णभावनामृत को पुनः अंगीकार करने का निश्चय किया था। और हर एक जानता था कि सत्स्वरूप ने अपनी नौकरी से त्याग पत्र दे दिया था और जब वह स्वामीजी को इसके बारे में बताने गया तो स्वामीजी ने उससे कहा कि वह अपनी नौकरी नहीं छोड़ सकता, वरन् उसे कृष्ण के निमित्त धन कमाते रहना चाहिए और उसे इस्कान को अनुदान में दे देना चाहिए । यही उसकी सर्वोत्तम सेवा होगी । और हर एक जानता है कि स्वामीजी चाहते थे कि गर्ग मुनि अपने बाल कटवा दे; वे उन्हें “ गर्गमुनि की शेक्सपियर - लट” कहते थे। लेकिन गर्ग मुनि उनका कहा मानने को तैयार नहीं था । वर्ष का अंत आ गया। प्रभुपाद भगवद्गीता की पाण्डुलिपि पर अब भी कार्यरत थे; वे चैतन्य चरितामृत पर सवेरे और सोम, बुध और शुक्रवार को संध्या - समय भगवद्गीता पर अब भी व्याख्यान देते थे और सैन फ्रांसिस्को जाने की बात अब भी करते थे। तब नए वर्ष की पूर्व संध्या आई और भक्तों ने सुझाव दिया कि चूंकि उस दिन अवकाश था जब लोग उत्सव मनाने जाते हैं इसलिए उन्हें भी कृष्ण चेतना - उत्सव का आयोजन करना चाहिए। रूपानुग: अत: हम लोगों ने एक बड़ा भोज दिया और बहुत सारे लोग आए, यद्यपि इतनी भीड़ नहीं हुई जितनी रविवार के भोजों में होती थी । हम लोग प्रसाद ग्रहण कर रहे थे, और स्वामीजी भी मंच पर बैठे हुए प्रसाद ग्रहण कर रहे थे। उनका आदेश था कि हम प्रसाद खूब खाएँ । और तब उन्होंने कहा, "कीर्तन करो, कीर्तन करो !” तो हम खाते रहे और कौरों के बीच-बीच में कीर्तन करते रहे। और वे अधिक से अधिक प्रसाद खाने का आग्रह करते रहे। मैं विस्मित था। वे बैठे रहे और कहते रहे कि हम अधिक से अधिक खाएँ । वे करीब ग्यारह बजे तक रुके रहे और तब उन्हें नींद आने लगी । और इस प्रकार भोजोत्सव समाप्त हुआ । दिन-प्रति-दिन सनातन गोस्वामी की कहानी स्वामीजी के विशाल ग्रंथ से उद्घटित होती रही जिसे केवल वे ही पढ़ सकते थे और समझा सकते थे । महाप्रभु चैतन्य ने सनातन से कहा कि उन्हें कृतज्ञ होना चाहिए कि कृष्ण ने उन पर इतनी कृपा की है। सनातन ने उत्तर दिया, “आप कहते हैं कि कृष्ण बहुत कृपालु हैं। किन्तु मैं नहीं जानता कि कृष्ण कौन हैं। मेरा उद्धार आपने किया है। महाप्रभु चैतन्य के वाराणसी में बहुत से भक्त थे, और उन्होंने सनातन को अपने एक मित्र के पास भेजा जहाँ वे खाने को कुछ प्राप्त कर सकते थे, स्नान कर सकते थे, बाल बनवा सकते थे और पहनने के लिए नए वस्त्र प्राप्त कर सकते थे। किन्तु सनातन ने नए वस्त्र से इनकार कर दिया और एक स्थान पर निर्भर रह कर भोजन प्राप्त करने से भी उन्होंने मना कर दिया। चूँकि अब वे संन्यास आश्रम में प्रविष्ट हो चुके थे इसलिए हर दिन के भोजन के लिए उन्हें भिन्न-भिन्न स्थानों से याचना करना पसन्द था। जब महाप्रभु ने यह सब सुना तो वे बहुत प्रसन्न हुए, किन्तु सनातन को ऐसा आभास हुआ कि उनके बहुमूल्य कम्बल से महाप्रभु प्रसन्न नहीं हैं तो उन्होंने नए कम्बल को बदल कर एक पुराना कम्बल ले लिया । इससे महाप्रभु चैतन्य बहुत प्रसन्न हुए और बोले, “अब आप पूर्ण संन्यासी हैं। कृष्ण की कृपा से आपकी अंतिम आसक्ति चली गई । " सनातन ने अपने को भगवान् चैतन्य के चरण कमलों में समर्पित कर दिया और कहा, “इन्द्रियों को तृप्ति देने में मैंने अपना समय नष्ट कर दिया है; मैं अधम हूँ, और मेरे संसर्ग निम्न कोटि के हैं। आध्यात्मिक जीवन की योग्यता मुझ में नहीं है। मैं यह भी नहीं जानता कि मेरे लिए क्या लाभकारी है। लोग कहते हैं कि मैं विद्वान् हूँ, किन्तु मैं एक नंबर का मूर्ख हूँ । यद्यपि लोग मुझे विद्वान् कहते हैं और यद्यपि मैं इसे स्वीकार करता हूँ तो भी मैं नहीं जानता कि मैं कौन हूँ।” सनातन ने अपने को एक कोरी स्लेट के रूप में प्रस्तुत किया और उन्होंने महाप्रभु से पूछा, “मैं कौन हूँ? मैं इस भौतिक जगत में क्यों आया हूँ? मैं यातनाएँ क्यों भोग रहा हूँ ?” प्रभुपाद ने इस बात पर बल दिया कि शिष्य के लिए आध्यात्मिक गुरु को स्वीकार करने का यही श्रेष्ठ मार्ग है। सनातन द्वारा महाप्रभु को गुरु स्वीकार किए जाने की कहानी का वर्णन करने के बाद, प्रभुपाद ने, सनातन को महाप्रभु की शिक्षाओं पर, व्याख्यान आरंभ किया। महाप्रभु चैतन्य ने पहले इस बात को समझाया कि जीव कोई भौतिक शरीर नहीं है, अपितु शरीर के भीतर रहने वाला नित्य जीवन्त आत्मा है। तब दो महीने तक महाप्रभु चैतन्य ने सनातन को उपदेश दिया और वैदिक ज्ञान के सबसे उन्नत दार्शनिक सत्यों को उद्घाटित किया। उन्होंने आत्मा और कृष्ण के साथ उसके सम्बन्ध, भौतिक और आध्यात्मिक संसारों के स्वरूप, पूर्णरूप से सिद्ध आत्मा के लक्षण, और भगवान् कृष्ण की दिव्य प्रकृति और उनके अनंत रूपों, अंशों, अवतारों और दिव्य लीलाओं के सम्बन्ध में सनातन को बोध प्रदान किया। उन्होंने दार्शनिक ऊहापोह और योग - मार्ग पर भक्तियोग की श्रेष्ठता का प्रतिपादन किया । और उन्होंने सनातन को चिन्मय आनंद के दिव्य ज्ञान का रहस्य बताया जिसका अनुभव उन आत्माओं को होता है, जिन्होंने कृष्ण के प्रति विशुद्ध प्रेम की अनुभूति कर ली है। महाप्रभु के ये उपदेश महासमुद्र के समान थे जिसने सनातन गोस्वामी के मानस को अपनी मधुरता और उदात्तता से आप्लावित कर दिया । जब महाप्रभु चैतन्य ने सनातन को उपदेश देना समाप्त किया तो उन्होंने उन्हें यह आशीर्वाद दिया कि ये सब उदात्त उपदेश उनके हृदय में पूर्ण रूप से प्रकाशित हो उठेंगे और इस तरह उन्हें दिव्य साहित्य रचने की क्षमता प्रदान करेंगे। दो महीने तक महाप्रभु चैतन्य ने सनातन गोस्वामी को उपदेश दिया था और १९६६ ई. के मध्य, नवम्बर से आरंभ करके, दो महीनों तक प्रभुपाद ने ५० से अधिक व्याख्यानों में चैतन्य चरितामृत के उन उपदेशों की व्याख्या प्रस्तुत की । यद्यपि उनके व्याख्यान पद्यों में वर्णित विषय का विवेचन करते थे, किन्तु वे उसी विषय तक सीमित नहीं रहते थे, न ही उनके व्याख्यान पहले से तैयार किए हुए होते थे । *** कभी-कभी अपने कमरे में संध्याकालीन बैठकों में स्वामीजी पूछा करते कि क्या वेस्ट कोस्ट में मुकुंद तैयार है। महीनों से प्रभुपाद के सामने कई विकल्पों में से वेस्ट कोस्ट जाने का एक विकल्प था । किन्तु तभी नए वर्ष के प्रथम सप्ताह में मुकुंद का पत्र आया उसने हेट ऐशबरी तालुके के मध्य में फ्रेडरिक स्ट्रीट में एक स्टोरफ्रंट किराए पर ले लिया था । उसने लिखा: “हम इसे एक मंदिर में रूपान्तरित करने में व्यस्त हैं। और प्रभुपाद ने घोषणा की : "मैं तुरंत जाऊँगा । " मुकुंद ने बताया कि सैन फ्रांसिस्को के हैट - ऐशबरी में एक “ आदिम जातियों का सम्मेलन” हो रहा है। सारे देश से हजारों हिप्पी उसी पड़ोस में आ रहे हैं जहाँ मुकुंद ने किराए पर स्टोरफ्रंट ले रखा है। यह न्यू यार्क सिटी में चल रहे युवा जागरण से कहीं बड़ा आन्दोलन होने जा रहा है। अपने नवीन मंदिर के लिए धन एकत्र करने की योजना के रूप में मुकुंद “ मंत्र राक नृत्य" कार्यक्रम का आयोजन करने की सोच रहा था और इसमें सुप्रद्धि राक बैंड भाग लेने जा रहे थे। और स्वामी भक्तिवेदान्त और हरे कृष्ण कीर्तन इसके आकर्षण के केन्द्र बिन्दु होंगे । यद्यपि मुकुंद ने अपने पत्र के साथ एक वायुयान का टिकट भी संलग्न किया था, किन्तु स्वामीजी के अनुयायियों में से कुछ ने इनकार कर दिया कि स्वामीजी उसका इस्तेमाल करेंगे। जो लोग जानते थे कि वे न्यू यार्क छोड़कर नहीं जा सकते, वे स्वामीजी के सैन फ्रांसिस्को जाने के विचार की आलोचना करने लगे। वे सोच भी नहीं पा रहे थे कि वेस्ट कोस्ट के लोग स्वामीजी की ठीक से देख-भाल कर सकेंगे। फिर कहाँ स्वामीजी और कहाँ राक गवैये ? वहाँ के लोग ठीक से आदर करना भी नहीं जानते । जो भी हो, वहाँ पर उपयुक्त मंदिर भी नहीं था । वहाँ न कोई छापाखाना था, न बैक टु गाडहेड पत्रिका । तो फिर स्वामीजी क्यों न्यू यार्क छोड़ कर कैलीफोर्निया के अजनबियों के बीच उस समारोह में जाएँ ? उनके बिना उन सबका आध्यात्मिक जीवन किस प्रकार चलेगा ? एक या दो विरोधियों ने डरते-डरते इनमें से कुछ विचारों को अप्रत्यक्ष रूप में स्वामीजी के समक्ष प्रकट किया, मानो वे उन्हें छोड़ कर चले जाने के विचार के लिए स्वामीजी को डांटना चाह रहे हों, और यह भी संकेत दे रहे हों कि यदि वे चले गए तो न सैन फ्रांसिस्को में, न न्यू यार्क में, ठीक से काम चल पाएगा। किन्तु उन्होंने स्वामीजी को अत्यन्त विश्वासयुक्त और दृढ़ संकल्प पाया। वे न्यू यार्क में नहीं थे, वे तो कृष्ण के थे और वे कहीं भी जा सकते थे जहाँ कृष्ण की इच्छा हो कि वे धर्मोपदेश करें। प्रभुपाद ने पूर्णत: विरक्त भाव का परिचय दिया। वे यात्रा करने और हरे कृष्ण कीर्तन का प्रसार करने के लिए उत्सुक थे । ब्रह्मानंद : किन्तु हमें धक्का लगा कि वे विदा लेने वाले थे। मैने कभी नहीं सोचा था कि श्रीकृष्णभावनामृत लोअर ईस्ट साइड से आंगे जायगा, न्यू यार्क सिटी की तो बात ही और है। मैने सोचा था कि यह यहीं था और सदा-सदा के लिए यहीं रहेगा । जनवरी के द्वितीय सप्ताह के अंतिम दिनों में वायुयान से अंतिम रूप से आरक्षण करा दिया गया और भक्तजन स्वामीजी की पाण्डुलिपियों को बक्सों में बंद करने लगे । टाम्पकिंस स्क्वायर पार्क से लिए गए एक नए भक्त रणछोड़ ने वायुयान के टिकट के लिए पर्याप्त धन एकत्र कर लिया था, अतः भक्तों ने निश्चय किया कि वह स्वामीजी के निजी सहायक के रूप में उनके साथ जाए। स्वामीजी ने बताया कि वे कुछ ही सप्ताहों के लिए बाहर जा रहे हैं और वे चाहते थे कि उनकी अनुपस्थिति में सारा कार्यक्रम चलता रहे। वे अपने कमरे में बैठे प्रतीक्षा कर रहे थे, जबकि लड़के उन्हें हवाई अड्डे ले जाने के लिए कार की व्यवस्था में लगे थे। उस दिन ठंड थी और रेडिएटरों में से भाप सी-सी कर रही थी । वे केवल एक सूटकेस ले जायँगे — अधिकांश कपड़े और कुछ पुस्तकें। उन्होंने अलमारी को फिर से देखा कि उनकी पाण्डुलिपियाँ ठीक से रखी हैं। कृष्णानंद को उनके कमरे की वस्तुओं की देख-रेख करनी थी । स्वामीजी उसी चौकी पर बैठ गए जहाँ छह महीनों से भी अधिक अवधि में वे अनेक बार बैठ चुके थे और घंटो अपने टाइप राइटर पर भगवद्गीता और श्रीमद्भागवत की पाण्डुलिपियाँ तैयार की थी और जहाँ वे अनेक अतिथियों और अपने अनुयायियों से बातें कर चुके थे। किन्तु आज उन्हें किसी मित्र से न तो बात करनी थी और न कोई पाण्डुलिपि टाइप करनी थी, अपितु अपनी विदाई के पूर्व के कुछ मिनट एकान्त प्रतीक्षा में बिताने थे । न्यू यार्क में यह उनकी दूसरी शीतऋतु थी। उन्होंने कृष्णभावनामृत का आंदोलन चालू किया था। थोड़े से निष्ठावान् बालक और बालिकाएँ सम्मिलित हो गए थे। वे लोअर ईस्ट साइड में पहले से विख्यात थे— समाचार-पत्रों में अनेक सूचनाएँ छप चुकी थीं। और यह तो अभी शुभारंभ था । उन्होंने इसी के लिए वृंदावन छोड़ा था। पहले उन्हें इसका निश्चय नहीं था कि वे अमेरिका में दो मास से अधिक ठहर सकेंगे। बटलर में उन्होंने अपनी पुस्तकें भेंट की थी । किन्तु न्यू यार्क में आकर उन्होंने देखा कि डा. मिश्र ने चीजों का कैसा विस्तार कर लिया है और मायावादियों के पास विशाल भवन हो गया है। वे धन ले रहे हैं और गीता के वास्तविक संदेश तक को प्रदान नहीं कर रहे थे। किन्तु अमरीकी लोगों की दृष्टि लगी हुई थी । यह कठिनाई का वर्ष था । उनके गुरु भाई उनकी सहायता करने में रुचि नहीं दिखा रहे थे, यद्यपि उनके गुरु महाराज श्रील भक्तिसिद्धान्त सरस्वती ठाकुर की यही इच्छा थी और भगवान् चैतन्य भी यही चाहते थे। चूँकि भगवान् चैतन्य चाहते थे, इसलिए उनका आशीर्वाद प्राप्त होगा और यह होकर रहेगा। २६, सेकंड एवन्यू उत्तम स्थान था । उन्होंने वहीं शुभारम्भ किया था । लड़के इसे बनाए रखेंगे। उनमें से कुछ अपना वेतन दान दे रहे थे। यह तो शुभारंभ था । प्रभुपाद ने अपनी घड़ी देखी। उन्होंने अपना ट्वीड का बना जाड़े का कोट, अपनी टोपी तथा अपने जूते पहने, अपना दाहिना हाथ अपनी माला की थैली के भीतर डाला और जप करते रहे। वे अपने कमरे से बाहर आए, सीढ़ियों से नीचे उतरे और आंगन से होकर गुजरे जो अब बर्फ से जमा हुआ और नि:शब्द था, इसके वृक्ष नितान्त नग्न थे, एक भी पत्ती नहीं बची थी। और स्वामीजी ने स्टोरफ्रंट की ओर पीठ कर दी। वे चल पड़े, ब्रह्मानंद, रूपानुग और सत्स्वरूप अभी भी अपने-अपने काम पर थे। वहाँ न कोई विदाई का दृश्य दिखा, न ही कोई विदाई - भाषण हुआ । |