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श्रील प्रभुपाद लीलमृत  »  अध्याय 23: मिस्टर प्राइस का मामला  » 
 
 
 
 
 
न्यूयार्क में स्वामीजी के शिष्य आश्चर्य में थे कि स्वामीजी की अनुपस्थिति में भी न्य वे उनका कार्य कर सकते थे। शुरू में, सवेरे-सवेरे उठना, स्टोरफ्रन्ट जाना, कीर्तन करना और कक्षा लगाना, कठिन मालूम होता था । स्वामीजी के बिना हर चीज खाली लगती थी । परन्तु स्वामीजी ने उन्हें सिखा दिया था कि क्या करना चाहिए, और धीरे धीरे उन्हें अनुभव हो गया था कि उन्हें केवल उसका अनुकरण करना चाहिए जो वे उन्हें दिखा गए हैं, ठीक जैसे एक बच्चा अपने माँ-बाप का अनुकरण करता है।

और यह सफल रहा। पहले उन्हें बहुत शरम लगती थी, व्याख्यान देने या कीर्तन कराने में; इसलिए वे स्वामीजी के कीर्तनों और व्याख्यानों का टेप चलाया करते थे, लेकिन जब शाम पर शाम आती रही और अतिथि मंदिर में आते गए, तब भक्तों को 'सजीव' व्याख्यान देने को लाचार होना पड़ा। राय राम, ब्रह्मानंद, सत्स्वरूप और रूपानुग बारी-बारी से छोटे व्याख्यान देने लगे और लोअर ईस्ट साइड के उन्हीं श्रोताओं के चुनौती - भरे प्रश्नों के उत्तर भी देने लगे जिन्हें श्रील प्रभुपाद ने ( अपने उत्तरों से ) छह महीने वशीभूत कर रखा था। उनके बिना चीजें डांवाडोल बनी रहीं और उनकी अनुपस्थिति खटकती रही, तब भी एक अर्थ में वे अब भी उपस्थित थे। और भक्तों ने पाया कि हर कार्य — जप, भोजन बनाना, प्रसाद वितरण, प्रचार-कार्य- अब भी चल सकता है।

१९ जनवरी को, सैन फ्रांसिस्को पहुँचने के ठीक तीन दिन बाद, प्रभुपाद ने अपने न्यू यार्क के शिष्यों को लिखा था। वे उनकी आध्यात्मिक संतान थे और उन्हें बहुत प्रिय थे । यद्यपि वे अपनी मातृभूमि, भारत, से बहुत दूर थे, लेकिन उन्होंने वहाँ किसी को लिखने की बात नहीं सोची थी। वे संन्यासी थे, इसलिए किसी पारिवारिक सदस्य या सम्बन्धी को लिखने में उनकी रुचि नहीं थी । जहाँ तक उनके गुरुभाइयों को लिखने का प्रश्न था, उसका कोई महत्त्व नहीं था, क्योंकि उन्होंने उनकी सहायता करने के प्रति बार-बार उदासीनता दिखाई थी । किन्तु नए शहर और नए लोगों के बीच पहुँचने और सफलता की प्रारंभिक धूमधाम प्राप्त कर लेने के बाद प्रभुपाद चाहते थे कि वे अपना समाचार उन लोगों तक पहुँचाए जो उस समाचार को जानने के लिए उत्सुक थे । वे अपने उन शिष्यों को पुनः आश्वस्त करना चाहते थे जिनसे, केवल कुछ महीनों के प्रशिक्षण के बाद, वे न्यू यार्क में कृष्णभावनामृत आन्दोलन चलाने की आशा करते थे ।

प्रिय ब्रह्मानंद

हयग्रीव

कीर्तनानंद

सत्स्वरूप

गर्गमुनि

अच्युतानंद

जदुरानी

मेरा अभिवादन और गुरु गौरांग गिरिधारी गंधर्विका का आशीर्वाद स्वीकार करें। आपको हमारे यहाँ सकुशल पहुँचने और यहाँ के भक्तों द्वारा हमारे अच्छे स्वागत का समाचार मिल चुका है। मिस्टर एलेन गिंसबर्ग और पचास या साठ अन्य लोगों ने हवाई अड्डे पर हमारी अगवानी की और जब मैं अपने कमरे में पहुँचा तो वहाँ कुछ पत्र संवाददाता भी मौजूद थे जिन्होंने मेरे मिशन की ओर ध्यान दिया। एक्जामिनर और क्रानिकल्स जैसे दो-तीन पत्र, समाचार छाप चुके हैं। एक समाचार इस पत्र के साथ भेज रहा हूँ। मेरी इच्छा है कि इस समाचार की एक हजार प्रतियाँ तुरंत आफ-सेट प्रणाली से छपा ली जाएँ जिनमें से सौ प्रतियाँ यथाशीघ्र यहाँ भेज दी जायँ ।

मुझे मालूम है कि आप को मेरी अनुपस्थिति खल रही है। कृष्ण आप को शक्ति देंगे। शारीरिक उपस्थिति का महत्त्व नहीं है; गुरु महाराज से प्राप्त दिव्य ध्वनि की उपस्थिति जीवन में मार्ग-दर्शक होनी चाहिए। उससे हमारा आध्यात्मिक जीवन सफल होगा। यदि मेरी अनुपस्थिति बहुत खले तो आप मेरे बैठने के स्थानों पर मेरे चित्र रख सकते हैं। यह आपके लिए प्रेरणा का स्त्रोत होगा ।

भवन के सम्बन्ध में अन्तिम निर्णय के बारे में जानने को मैं उत्सुक हूँ। मैं १ मार्च १९६७ तक भवन खोलना चाहता हूँ। इस विषय में प्रबन्ध होशियारी से किया जाय। डिक्टाफोन के लिए अभी तक मुझे टेप नहीं मिले हैं। आपको टेप मैने कल भेजे हैं— कृपा करके मेरा आशीष श्रीमान नील को पहुँचाएँ ।

श्रीमान रायराम भोजन अच्छा बना लेते हैं और भक्तों को प्रसाद बाँटते हैं जिनकी संख्या कभी-कभी ७० तक पहुँच जाती है। यह बहुत उत्साहजनक है। मेरा विचार है कि यह केन्द्र जल्दी ही बहुत अच्छी शाखा बन जायगा। हर चीज प्रत्याशित है। आशा है आप सब अच्छी तरह हैं। शीघ्र उत्तर की प्रतीक्षा में ।

पत्र सहायक सिद्ध हुआ— विशेषकर उसका दूसरा अनुच्छेदन । ब्रह्मानन्द ने उसे स्टोरफ्रंट में लगा दिया था । स्वामीजी ने स्पष्ट उल्लेख किया था कि वे सब अब भी उनके साथ थे और स्वामीजी भी न्यू यार्क में उनके साथ थे । यह एक विशेष बात थी— अलग होते हुए भी गुरु महाराज की सेवा और सैन फ्रांसिस्को के शिष्य भी जो स्वामीजी के साथ हर दिन रह रहे थे, ऐसी सेवा का विशेष स्वाद अभी तक नहीं जान पाए थे। न्यू यार्क में भक्तजन जब अपना हर दिन का कार्य करते थे तो वे प्रायः स्वामीजी के पत्र से उद्धरण देते थे और उसे स्मरण करते थे, “कृष्ण आपको शक्ति देंगे। पार्थिव उपस्थिति का इतना महत्त्व नहीं है; गुरु महाराज से प्राप्त दिव्य ध्वनि की उपस्थिति ही जीवन में पथ-प्रदर्शक होनी चाहिए। वही हमारे आध्यात्मिक जीवन को सफल बनाएगी ।'

यद्यपि प्रभुपाद ने लिखा था कि उनका चित्र उन के बैठने के स्थानों पर रखा जा सकता था, पर किसी के पास स्वामीजी का चित्र नहीं था । उसके लिए उन्हें सैन फ्रांसिस्को के शिष्यों को लिखना पड़ा। एक लड़के ने मामूली रंगीन फोटो खींचे और उन्हें न्यू यार्क भेज दिया, और भक्तों ने उन में से एक को स्वामीजी के कमरे में उनके आसन पर रख दिया । यह कार्य सहायक सिद्ध हुआ ।

प्रभुपाद के लिए भी जो पत्र, उन्होंने न्यू यार्क के शिष्यों को लिखा था वह एक मील का पत्थर बन गया। उसी आधार पर वे एक विश्वव्यापी आन्दोलन चलाने की आशा रखते थे । वे एक स्थान से दूसरे स्थान की यात्रा करते रह सकते थे, और अपने उपदेशों के माध्यम से एक साथ बहुत-से स्थानों में उपस्थित रह सकते थे।

न्यू यार्क मंदिर के अध्यक्ष के रूप में ब्रह्मानन्द अक्सर सैन फ्रांसिस्को फोन किया करते थे। " जप ही केन्द्रबिन्दु है,” उन्होंने हयग्रीव से कहा । 'हम सदा बैठ सकते हैं और कीर्तन कर सकते हैं। हमारी समझ में आने लगा है कि जब स्वामीजी कहते थे, कि अलग होने पर उपासना अधिक आस्वाद्य बन जाती है, तो उनका क्या आशय था । "

और श्रील प्रभुपाद अपने सप्ताह में एक बार लिखा करते थे । ब्रह्मानंद को अधिकतर कारोबार सम्बन्धी आदेश मिला करते थे : न्यू यार्क में एक नया मकान खरीदने की व्यवस्था कीजिए, मिस्टर कालमैन से मिलिए और कीर्तन के रेकार्ड की प्रतियाँ प्राप्त कीजिए, एक फिल्म वाले ने भक्तों का जो एक चलचित्र बनाया था उसकी एक प्रति प्राप्त कीजिए, भगवद्गीता को प्रकाशित करने की संभावना के बारे में मालूम कीजिए । “मुझे एक अच्छी टाइप राइटर मशीन की सहायता मिल जाय..." प्रभुपाद ने ब्रह्मानंद को लिखा, " तो हर तीन महीने में हम एक पुस्तक प्रकाशित कर सकते हैं। और हमारे पास जितनी ही अधिक पुस्तकें होंगी हम उतने ही अधिक सम्मान्य बनेंगे ।"

सत्स्वरूप को प्रभुपाद का पत्र मिला कि वे नई पुस्तक टीचिंग्स आफ लार्ड चैतन्य के लिखाए गए टेपों को टाइप कर डालें। यद्यपि प्रभुपाद का टाइपिस्ट नील सैन फ्रांसिस्को गया था, लेकिन एक दिन के बाद वह गायब हो गया था ।

“मै समझता हूँ आपके पास पाँच टेप हैं, क्योंकि मेरे पास केवल तीन हैं, " प्रभुपाद ने लिखा, “ ध्यान रखिए कि टेप खो न जायँ ।” सत्स्वरूप ने यह जानने के लिए लिखा कि दिव्य ज्ञान उनकी समझ में कैसे आएगा । " आप भगवान् के सच्चे भक्त हैं, " प्रभुपाद ने उत्तर दिया, "और आपके आध्यात्मिक ज्ञान के शुभ विकास में भगवान् निश्चय ही आपकी सहायता करेंगे ।"

रायराम को एक पत्र प्रोत्साहित करने वाला मिला कि वे पत्रिका प्रकाशित करते रहें। बैक टु गाडहेड सदैव हमारे संघ का मूलाधार रहेगा... आपकी अभिलाषा हमेशा यह होनी चाहिए कि उसकी गुणवत्ता में सुधार कैसे हो...।"

अच्युतानन्द जो भक्तों में सबसे कम उम्र (केवल अठारह वर्ष) का था रसोई में अब अकेला कार्य कर रहा था । पाँच भक्तों को लिखे गए एक पत्र में, जिस पर श्रील प्रभुपाद ने पाँच बार हस्ताक्षर किए थे, उन्होंने अच्युतानन्द को लिखा, “क्योंकि कीर्तनानन्द अनुपस्थित है, इसलिए तुम्हें निश्चय ही कुछ अधिक भार मालूम हो रहा होगा। किन्तु कृष्ण की जितनी ही सेवा करोगे, उतना ही शक्तिशाली बनोगे। मुझे आशा है कि तुम्हारे अन्य गुरुभाई तुम्हारी सहायता ठीक ढंग से कर रहे हैं। '

प्रभुपाद ने गर्गमुनि को, जिसकी भी अवस्था अठारह वर्ष की थी, उपदेश दिया कि वह अपने से अधिक अवस्था के गुरुभाइयों के साथ सहयोग करे । गर्गमुनि से यह जाँचते हुए कि वह अपनी माँ को देखने गया था या नहीं, प्रभुपाद ने आशा व्यक्त की कि अब वे अच्छी होंगी। क्योंकि गर्गमुनि मंदिर का कोषाध्यक्ष था, इसलिए श्रील प्रभुपाद ने उसे उपदेश दिया कि, “चेक सोच समझ कर ही काटने चाहिए ।"

प्रभुपाद ने जदुरानी को लिखा, "मैं तुम्हें हमेशा सबसे अच्छी लड़की के रूप में याद करता हूँ, क्योंकि तुम कृष्ण की सेवा इतनी भक्ति के साथ कर रही हो ।” जदुरानी ने प्रभुपाद को सूचित किया था कि उसके एक मित्र लड़के ने उसे धोखा दिया था। श्रील प्रभुपाद ने उत्तर लिखा, " अच्छा हो कि तुम कृष्ण को अपना पति मान लो, और वे कभी विश्वासघात नहीं करेंगे... इसलिए अपने को २४ घंटे कृष्ण की सेवा में लगाए रखो और तुम पाओगी कि तुम हर तरह से प्रसन्न हो ।'

रूपानुग ने प्रभुपाद को लिखा था कि न्यू यार्क में तापमान शून्य डिग्री से नीचे गिर गया था और दो दिन तक बर्फानी तूफान चलता रहा था । श्रील प्रभुपाद ने लिखा-

यह स्थिति मेरे लिए निश्चय ही कुछ कष्टदायक होती, क्योंकि मैं बुड्ढा आदमी हूँ। मैं समझता हूँ कि यहाँ सैन फ्रांसिस्को में स्थानान्तरित करके कृष्ण मेरी रक्षा करना चाहते थे । यहाँ का जलवायु भारत जैसा है और मैं आराम से हूँ। लेकिन तकलीफ भी है, क्योंकि न्यू यार्क, तुम जैसे कई प्रिय शिष्यों के कारण, मुझे बहुत अच्छा लगता था । जिस तरह मेरी अनुपस्थिति तुम्हें खल रही है, उसी तरह तुम लोगों की अनुपस्थिति मुझे भी खल रही है। किन्तु कृष्णभावनामृत के कारण हम प्रसन्न हैं, चाहे यहाँ रहें, चाहे वहाँ रहें। प्रार्थना है कि कृष्ण की दिव्य सेवा में, वे सदा हमारी सहायता करें।

न्यू यार्क के नए शिष्यों को उनके आध्यात्मिक गुरु के शब्दों और स्वयं अपने अनुभवों से सान्त्वना मिली । वियोग में सेवा दिव्य वास्तविकता है। माला फेरते हुए जप करने का उनका अभ्यास तरक्की पर था और न्यू यार्क केन्द्र आगे बढ़ रहा था । " जब तक हमारा कीर्तन ठीक चलेगा,' प्रभुपाद ने लिखा, “ वहाँ तक कोई कठिनाई न होगी । "

किन्तु एक कठिनाई थी। जब तक प्रभुपाद न्यू यार्क में मौजूद थे, एक नया मकान खरीदने के प्रयत्न ठीक से चल रहे थे, लेकिन उनके वहाँ से जाते ही, वे एक समस्या बन गए। प्रभुपाद के सैन फ्रांसिस्को के लिए प्रस्थान के बाद ही ब्रह्मानंद ने मिस्टर प्राइस को एक हजार डालर दिए थे, और मिस्टर प्राइस ने वादा किया था कि वे मकान प्राप्त करने में भक्तों की सहायता करेंगे। जब प्रभुपाद को यह मालूम हुआ तो वे चिन्तित हो गए।

यहाँ के भक्तों और न्यासियों की राय है कि एक हजार डालर बिना किसी समझौते के खतरे में पड़ गए हैं। मुझे मालूम है कि आप भरसक प्रयत्न कर रहे हैं, लेकिन निर्णय लेने में तब भी भूल हुई है। मैं आप से अप्रसन्न नहीं हूँ। लेकिन लोगों का कहना है कि मिस्टर प्राइस अन्य किसी स्रोत से वित्तीय सहायता दिलाने में कभी भी सफल नहीं होंगे। वे केवल समय निकाल रहे हैं, एक के बाद एक बहाना करके । इसलिए आप ने जो कुछ उन्हें दे दिया है उसके अलावा एक पैसा भी आगे न दें। अगर वे और पैसे चाहते हों तो आप साफ मना कर दें।

श्रील प्रभुपाद को मिस्टर प्राइस और उनसे पहली भेंट की याद थी । सुनहरे बाल और सुरुचिपूर्ण वेशभूषा वाले व्यापारी, मिस्टर प्राइस, ने जिनका चेहरा शीतकाल में भी तांबे के रंग का था, पहली भेंट में प्रभुपाद को, 'योर एक्सीलेंसी' ( महामहिम) कह कर सम्बोधित किया था । अकेले इस संबोधन के कारण ही प्रभुपाद का उस पर से विश्वास उठ गया था। एक बंगाली कहावत है कि अत्यधिक भक्ति एक चोर का सूचक है। प्रभुपाद जानते थे कि व्यवसायियों की प्रवृत्ति धोखा देने की होती है और एक अमरीकी व्यवसायी से व्यवहार करना विशेष रूप से कठिन है। प्रभुपाद के अमरीकी शिष्य सांसारिक मामलों में सीधे-सादे थे । वे उन शिष्यों को कदम-कदम पर सलाह देने को तैयार थे, किन्तु इस समय वे, उनसे परामर्श लिए बिना, एक गलत धंधे में फँस गए थे जिससे संघ के एक हजार डालर, बिना किसी लिखा-पढ़ी के, खतरे में पड़ गए थे।

श्रील प्रभुपाद ने स्टूइवेसेंट स्ट्रीट में उस मकान को देखा था और वे उसे चाहते थे। वह एक ऐतिहातिक, अच्छी तरह रखा हुआ, शानदार मकान था जो उनके न्यू यार्क के मुख्यालय के उपयुक्त था । यदि वे दे सकें तो वह एक लाख डालर के योग्य था। लेकिन सैन फ्रांसिस्को में होते हुए प्रभुपाद के लिए यह जानना कठिन था कि ब्रह्मानंद और व्यवसायियों के बीच बात कैसे चल रही थी ।

और उस कठिनाई में और वृद्धि हो गई जब ब्रह्मानंद के पत्रों और टेलीफोनों से मालूम हुआ कि उस बातचीत में और लोग भी शामिल हो गए हैं। मिस्टर प्राइस के अतिरिक्त एक मिस्टर टाइलर थे जो मकान के मालिक थे और फिर मिस्टर टाइलर का वकील था जो मिस्टर टाइलर से स्वतंत्र लगता था । और अन्तत: इस्कान का वकील था जिसका भी अपना ही निजी विचार था ।

यद्यपि प्रभुपाद के शिष्य आमतौर से उनके आदेशों को मानते थे, लेकिन इस मामले में वे व्यवसायियों के वादों पर विश्वास करने पर तुले लगते थे, यद्यपि उनके आध्यात्मिक गुरु ने उन्हें ऐसा न करने के लिए सावधान कर दिया था। प्रभुपाद को चिन्ता हो गई। सैन फ्रांसिस्को में उनके प्रचार को खतरा पैदा हो गया था, इस डर से कि न्यू यार्क में, उन्होंने जो कार्य शुरु किया था, उसमें उन्हें व्यवसायियों से धोखा होगा ।

किसी जिम्मेदार सलाहकार के न होने से, प्रभुपाद इस समस्या पर कभी - कभी अपने कमरे में मुकुंद और अन्य भक्तों से विचार-विनिमय करते । वे सभी सहमत थे कि सौदे में अनियमितता हुई मालूम पड़ती थी; ब्रह्मानंद शायद गलत वादों पर चल रहे थे।

किन्तु ब्रह्मानंद मि. प्राइस को एक विरल व्यक्ति मानते थे, जो एक सफल आदमी थे और भक्तों की सहायता करना चाहते थे। दूसरे किसी सम्मानित व्यवसायी ने उनके प्रति कभी कोई रुचि नहीं प्रदर्शित की थी, लेकिन मि. प्राइस ने उनकी बात सुनी और सहानुभूति दिखाई थी। वे भक्तों को 'हरे कृष्ण' कह कर अभिवादन करते थे । ब्रह्मानंद को भक्तों की कमजोर आर्थिक और सामाजिक स्थिति भलीभाँति ज्ञात थी । वे सभी पहले के हिप्पी थे और गरीब थे। लेकिन मि. प्राइस सम्पन्न व्यक्ति थे जिनकी कमीज़ पर हीरे के कफलिंक्स लगे थे और जो उनसे मिल कर हमेशा प्रसन्न होते थे, हाथ मिलाते थे, पीठ थपथपाते थे और भारत के धर्म को और भक्तों की छोटी मंडली के नैतिक व्यवहार को सराहते थे।

मि. प्राइस अपने कमरे में भक्तों के एक समूह से अतिथि रूप में मिले थे और उन्होंने उनमें से हर एक के बारे में अच्छी बातें कही थी। उन्होंने कहा था कि हयग्रीव बहुत अच्छे लेखक थे, और यह कि बैक टु गॉडहेड बाजार में सबसे अच्छी पत्रिका थी और मिमियोग्राफ से निकली हुई इसकी प्रतियों का रूप मुद्रित पुस्तकों से भी अच्छा लगता था। उन्होंने कहा था कि वे भक्तों को चलचित्र का एक प्रोजेक्टर देंगे । और वे यह कहते-कहते रह गए थे कि यदि उनके कुछ पैसे उन्हें नकद वापस मिल गए तो वे संघ के लिए मकान दे देंगे।

ब्रह्मानंद, जो हर सप्ताह मि. प्राइस से कई बार मिलते थे, ऊँची आशाएँ लेकर प्रसन्नता से फूले हुए लौटते थे। उन्हें उमीद थी कि इस सम्पन्न व्यक्ति के संरक्षण में कृष्णभावनामृत-आन्दोलन भारी सफलता प्राप्त कर सकेगा। मि. प्राइस का आफिस छोड़ने के बाद ब्रह्मानंद शाम को अन्य भक्तों से मिलते और जो कुछ हुआ होता, उसे बताते । उन रातों में जब सार्वजनिक कीर्तन न होता तब भक्तजन आपस में बैठक करते थे जिसे स्वामीजी ने 'इष्ट गोष्ठी' का नाम दिया था। इन गोष्ठियों में गुरु महाराज के आदेशों पर चर्चा होती थी, किन्तु अब इन गोष्ठियों में मि. प्राइस और मकान की बातों का प्राधान्य हो गया ।

एक रात को ब्रह्मानंद ने बताया कि उन्होंने मि. प्राइस को एक हजार डालर क्यों दिया था। मि. प्राइस ने काम शुरू करने के लिए कुछ धन की माँग की थी। यह धन पेशगी के तौर पर था और मि. प्राइस की पिट्सबर्ग की यात्रा के लिए भी था जहाँ उन्हें यह मालूम करने के लिए जाना था कि क्या वे कृष्ण की सेवा के लिए वहाँ से अपना कुछ धन दे सकते थे।

एक लड़के ने पूछा कि क्या कोई रसीद या लिखित अनुबंध था। स्वामीजी ने उन्हें सिखाया था कि उन्हें रसीदों का इस्तेमाल करना चाहिए, कम-से-कम अपने बीच । गर्गमुनि और सत्स्वरूप, कोषाध्यक्ष और सचिव के रूप में, हर प्रमाण पत्र पर हस्ताक्षर करते थे और गर्गमुनि उन्हें फाइल में रखते थे। इसमें वे "हैट के लिए पचास सेंट" और " जूतों के लिए तीन डालर " जैसे वाउचर भी शामिल थे। ब्रह्मानंद ने बताया कि उन्होंने मि. प्राइस से लिखित अनुबंध की चर्चा की थी, लेकिन इस मामले पर बल नहीं दिया था। जो भी हो, यह आवश्यक नहीं था और न ही वांछनीय था, क्योंकि वे मि. प्राइस से न केवल व्यावसायिक वार्ता चला रहे थे वरन् उनके साथ सम्बन्ध का अनुशीलन भी कर रहे थे। मि. प्राइस एक शुभ-चिन्तक थे, एक मित्र थे जो उदारतावश उनकी सहायता कर रहे थे। वे महान् कार्य करने जा रहे थे और मकान प्राप्त करने में अपने प्रभाव का इस्तेमाल कर रहे थे। यह एक हजार डालर मकान के मामले में संघ की ओर से रुचि - प्रदर्शन का एक संकेत था और मि. प्राइस के मित्रों को बताना था कि भक्त - जन केवल परिहास नहीं कर रहे थे, वरन् उनके पास कुछ धन था ।

वास्तव में, भक्तों के पास दस हजार डालर थे— पाँच हजार छोटे-छोटे अनुदानों को मिला कर और पाँच हजार एक धनी हिप्पी का अनुदान । अनुदानों के अलावा मंदिर की आठ सौ डालर प्रति मास की नियमित आय थी- ब्रह्मानंद को न्यू यार्क सिटि पब्लिक स्कूलसंगठन में स्थानापन्न अध्यापक के रूप में कार्य करने के लिए चार सौ डालर मिलते थे और सत्स्वरूप कल्याण विभाग का कार्य देखने के लिए चार सौ डालर पाते थे ।

लेकिन भक्त कोई मकान खरीदने की स्थिति में नहीं थे और उन्हें इस बात का पता था — इसका एक कारण यह भी था कि ब्रह्मानंद ने इष्ट गोष्ठी में बताया कि उन्हें मि. प्राइस पर क्यों निर्भर रहना था । उन्होंने तर्क दिया कि स्वयं स्वामीजी ने उन्हें प्रेरित किया था कि एक लाख डालर वाला मकान खोजें । स्वामीजी जानते थे कि ऐसे मकान की कीमत वे नहीं दे सकते, जब तक कि कोई असामान्य ढंग न निकले। और ब्रह्मानंद ने इस बात पर जोर दिया कि वह ढंग मि. प्राइस ही हो सकते थे। स्वामीजी मकान चाहते थे। सैन फ्रांसिस्को पहुँचते ही, उन्होंने लिखा था कि, "मैं मकान के सम्बन्ध में अंतिम निर्णय जानने को उत्सुक हूँ। मैं मकान का उद्घाटन पहली मार्च १९६७ तक करना चाहता हूँ और इस सिलसिले में हर इंतजाम सावधानी के साथ किया जाय ।'

एकत्रित भक्तों ने ब्रह्मानंद का स्पष्टीकरण सुना, उनके साथ सहानुभूति प्रकट की और कृष्ण और स्वामीजी के कार्य करने के बारे में जो उनकी समझ थी, उसे भी बताया। कुछ टिप्पणियाँ और विरोधी थे, लेकिन मुख्य रूप से सभी सहमत थे कि ब्रह्मानंद जो वार्ता मि. प्राइस से चला रहे थे वह ठीक थी ।

जब कीर्तनानन्द और रायराम सैन फ्रांसिस्को से न्यू यार्क लौटे, तो उन्होंने ब्रह्मानंद से विचार-विनिमय किया। तब ब्रह्मानंद मि. प्राइस के पास गए, उन्होंने वादा किया कि यदि किसी तरह मकान उन्हें नहीं मिला तो वे कम-से-कम ७५० डालर उन्हें वापस कर देंगे । ( शेष २५० /- डालर भक्तों के काम से यात्रा में खर्च हो गए थे । ) परन्तु उन्हें मकान मिल कर रहेगा, मि. प्राइस ने विश्वास दिलाया ।

तब मि. प्राइस ने ब्रह्मानंद को नवीनतम बात बताई : उन्हें एक सम्पन्न वित्तदाता, मि. हाल, मिल गए थे जो मकान के लिए पूरा एक लाख डालर देने को राजी हो गए थे। मि. प्राइस मि. हाल को, जो उनके गहरे मित्र थे, तैयार करने में लगे थे। संभावनाएँ अच्छी थीं । किन्तु भक्त जनों को भी अपनी भूमिका निभानी थी, मि. प्राइस ने कहा; उन्हें पाँच हजार डालर इकठ्ठे करने थे। तब मि. प्राइस बाकी सब व्यवस्था कर देंगे ।

मि. प्राइस ने एक वास्तुशिल्पी से पार्क एवन्यू में एक मीटिंग तय की और शीघ्र ही ब्रह्मानंद और सत्स्वरूप, मि. प्राइस और उनके वास्तुशिल्पी मित्र के साथ बैठ कर मकान की रूपरेखा पर सिंहावलोकन करने लगे, मकान को वास्तविक भारतीय मंदिर का रूप देने के लिए वास्तुशिल्पी ने उसके लिए ऐसे अग्रभाग का प्रस्ताव किया जिसमें मेहराब हों, और यदि वे पसंद करें तो गुम्बद भी हों। यह सब कुछ बहुत अच्छा था । पर किसी का साहस यह पूछने का नहीं हुआ कि इस पर लागत कितनी आएगी । मि. प्राइस ने संकेत किया कि यह कार्य निःशुल्क हो सकता है। स्वयं अपने लिए और अपने मित्र के लिए गिलास में शराब डाल लेने के बाद, मि. प्राइस ने ब्रह्मानंद और सत्स्वरूप को भी देनी चाही ( यद्यपि वे जानते थे कि वे दोनों इसे नहीं स्वीकार करेंगे ) । मि. प्राइस और उनके मित्र ने टमटमाते गिलासों को उठाया, वे मुसकराए और शिष्टतापूर्वक गिलासों को छुआते हुए, एक दूसरे के और दोनों लड़कों के स्वास्थ्य की शुभकामना के जाम 'हरे कृष्ण' कहते हुए पी गए ।

लिफ्ट से नीचे उतरते हुए मि. प्राइस ने भक्तों की भगवद्-भक्ति का उत्साहपूर्वक बखान किया। उन्होंने कहा कि दूसरे लोग ईश्वर के अस्तित्व के विषय में तर्क- विर्तक कर सकते हैं, किन्तु भक्तों का निजी अनुभव इस विषय में सबसे अधिक विश्वासोत्पादक चीज है। 'आपका व्यक्तिगत साक्ष्य, " मि. प्राइस ने विश्वास दिलाया, “सर्वश्रेष्ठ तर्क है। यह बहुत शक्तिशाली चीज है । "

दोनों लड़कों ने सिर हिलाया । बाद में वे शराब के बारे में आपस में हँसते रहे; लेकिन तब भी उन्हें लगा कि ये लोग सहायता करना चाहते थे ।

जब श्रील प्रभुपाद को नवीनतम गतिविधियों का पता चला तो अपने शिष्यों की आशावादिता से वे सहमत नहीं हुए । ३ फरवरी को उन्होंने गर्गमुनि को लिखा :

मैने तुम्हारे भाई ब्रह्मानंद से कल फोन पर बात की थी। मुझे प्रसन्नता है कि मि. प्राइस ने वादा किया है कि मकान की बिक्री तय नहीं हुई तो वे ७५०/- डालर लौटा देंगे। लेकिन किसी भी हालत में जो कुछ दिया जा चुका है, उसके अलावा एक सेंट भी न तो मि प्राइस को देना, न उनके वकील को, जब तक कि वास्तविक विक्रय अनुबंध न हो जाय। मुझे इस सौदे से बड़ी निराशा है क्योंकि १००० /- डालर का भुगतान करने के पहले वकील से या सम्पत्ति के मालिक से कोई आधारिक समझौता नहीं हुआ। यह कारोबारी ढंग नहीं है। जब तक कि आधारभूत समझौता न हो जाय, तब तक सौदा कैसे होगा ? यदि कोई आधारभूत समझौता नहीं हुआ, तो समय और शक्ति का यह अपव्यय क्यों ? मेरी समझ में तो आता नहीं । और यदि कोई आधारभूत समझौता हुआ था तो इतनी जल्दी उसमें परिवर्तन क्यों ? इसलिए मेरा मन क्षुब्ध है। यदि कोई आधारभूत समझौता नहीं हुआ था तो वकील नियुक्त करने की क्या आवश्यकता थी ? जो हो, तुम्हें मेरी यह नसीहत है कि और धन देने के पहले तुम मुझसे परामर्श कर लेना । पर मुझे आशा है कि बिना और अधिक विलम्ब किए, तुम इस मामले को सफलतापूर्वक निबटाओगे ।

श्रील प्रभुपाद ने गर्गमुनि को यह भी आदेश दिया था कि बैंक में जो दस हजार डालर थे, उन्हें वह बचा कर रखे और कभी भी इतना धन नहीं निकाले कि अवशेष राशि छह हजार डालर से कम रह जाय । प्रभुपाद एक खाता ऐसा छोड़ गए थे जो भक्तों के हस्ताक्षर से चलता था, परन्तु एक खाता ऐसा भी था जिसके नियंत्रक वे स्वयं थे। अब उन्होंने अपने शिष्यों से कहा कि वे अपने खाते से छह हजार डालर निकाल कर उनके खाते में रख दें। ब्रह्मानंद को उन्होंने लिखा "ज्योंही मकान खरीदने के लिए बिक्री का अनुबंध तैयार हो जायगा, मैं यह छह हजार डालर तुरंत ट्रांसफर कर दूँगा । "

१० फरवरी को प्रभुपाद ने कीर्तनानन्द को लिखा,

जहाँ तक मकान का सम्बन्ध है मेरी टिप्पणी सही थी कि कोई निश्चित समझौता नहीं है... ऐसे सौदे में हर चीज लिखा-पढ़ी में होती है। लिखा-पढ़ी में कोई चीज नहीं हो रही हैं, प्रत्युत हर चीज मिं प्राइस के विश्वास पर हो रही है।

इस समझौते को १ मार्च १९६७ तक पूरा कर लें और इस मामले को बंद कर दें। मैं समझता हूँ इस सम्बन्ध में यह मेरा आखिरी शब्द है । तुम सभी सयाने लड़के हो और तुम अपने विवेक का इस्तेमाल करो और इस सौदे को, अनिश्चित काल तक खींचे बिना, पूरा कर डालो। यदि हम किसी तरह एक मकान खरीदने में समर्थ नहीं होते तो इसका मतलब यह नहीं है कि हम २६ सेकंड एवन्यू में अपना कार्यकलाप बंद कर दें। इसलिए सब कुछ बंद करके वहाँ से सैन फ्रांसिस्को आने का कोई प्रश्न नहीं है।

तब १५ फरवरी को प्रभुपाद ने सत्स्वरूप को लिखा,

ब्रह्मानंद के पत्र - व्यवहार से मुझे लगता है कि कई कारणों से मकान पाना हमारे लिए संभव नहीं है। मुख्य कारण यह है कि हमारे पास देने के लिए नकद धन नहीं है और अन्य कोई उस मकान में नकद धन नहीं लगाएगा, क्योंकि यह न तो पूरा है और न उससे कोई आमदनी है। मकान पाने की आशा निरी कल्पना है और मि. प्राइस का आश्वासन झूठा है।

तुम सब अबोध बालक हो जिन्हें संसार का कोई अनुभव नहीं है। यह धूर्त संसार तुम्हें कभी भी धोखा दे सकता है। इसलिए कृष्णभावनामृत का सेवन करते हुए संसार से सावधान रहो । जब कृष्ण चाहेंगे तो मकान अपने आप हमको मिल जायगा ।

श्रील प्रभुपाद के संदेह की पुष्टि हो गई, जब मि. प्राइस ने उन्हें धन के लिए लिखा। यदि मि. प्राइस के पास इतना धन था, प्रभुपाद ने तर्क किया, तो वे प्रभुपाद को धन के लिए क्यों लिख रहे थे ।

१७ फरवरी को श्रील प्रभुपाद ने मि. प्राइस को लिखा यदि इस्कान को वास्तव में मकान खरीदना है तो उसके लिए बिक्री का अनुबंध करना पड़ेगा !

यदि बिक्री का अनुबंध हो जाता है तो मेरे यहाँ के और न्यू यार्क के शिष्य जी-जान से धन संग्रह करेंगे। अनुबन्ध के बिना हर चीज हवाई मालूम होती है और मि. टाइलर या उनके वकील अपनी बात को कभी भी बदल सकते हैं जैसा कि वे पहले कर भी चुके हैं।

श्रील प्रभुपाद का संदेश स्पष्ट था, यद्यपि ब्रह्मानंद की शिकायत थी कि सम्प्रेषण अपर्याप्त था । स्थिति हमेशा बदल रही थी और ताजा परिवर्तनों की सम्पुष्टि प्रभुपाद से ब्रह्मानंद हमेशा प्राप्त नहीं कर पाते थे। स्वामीजी अपने आदेश, पत्र में लिखते थे और यद्यपि उनके भक्त जो कुछ वे कहते थे उसका पालन हमेशा करते थे, लेकिन जब तक उनका पत्र पहुँचे, परिस्थिति प्रायः बदल गई होती थी। नई सूचना मिलने पर कभी कभी स्वामीजी भी अपना मत बदल देते थे। कभी ऐसा भी होता कि ब्रह्मानंद टेलीफोन करते और स्वामीजी उपलब्ध न होते । ब्रह्मानंद सैन फ्रांसिस्को के शिष्यों द्वारा स्वामीजी तक संदेश पहुँचाना ठीक नहीं समझते थे, क्योंकि वे जानते थे कि उन शिष्यों के मन में पूरे सौदे के प्रति संदेह था । यदि न्यू यार्क को मकान मिल जाता है तो सैन फ्रांसिस्को को एक हजार डालर का अनुदान देना पड़ेगा । और सैन फ्रांसिस्को के शिष्यों की, कृष्ण की सेवा में धन खर्च करने की, अपनी योजना थी ।

मि. प्राइस ने न्यू यार्क के शिष्यों को संकेत से बताया कि हो सकता है कि स्वामीजी न समझ पा रहे हों कि अमेरिका में सौदेबाजी कैसे होती है। उनके प्रति पूरा सम्मान जताते हुए, उन्होंने कहा कि महामहिम श्रील प्रभुपाद से किसी अन्य देश की वित्तीय व्यवस्था की बारीकियों को समझने की आशा नहीं की जा सकती। और क्रय- अनुबंध के लिए महामहिम की प्रार्थना वैसी ही है, जैसा, मि. प्राइस के शब्दों में, “घेरे द्वार लहंगे से बाहर जाना " ।

ब्रह्मानंद और सत्स्वरूप नहीं जानते थे कि इसका क्या उत्तर दें; मि. प्राइस की टिप्पणी उन्हें निन्दापूर्ण लगी। किन्तु ब्रह्मानंद और सत्स्वरूप मि. प्राइस द्वारा किए गए वादों में फँसे हुए थे और वे उनसे मिलते रहे। वे मि. प्राइस से मिलते थे और तब 'हरे कृष्ण' जपते हुए सेकंड एवन्यू को सबवे ट्रेन से लौट जाते थे।

श्रील प्रभुपाद लगभग हर दिन न्यू यार्क के कई शिष्यों को लिखते रहते थे । १८ फरवरी को उन्होंने एक पत्र ब्रह्मानंद को लिखा जिसके सिरे पर, गोपनीय, टंकित था ।

यदि आप समझते हैं कि वे हमारे लिए धन प्राप्त कर सकेंगे, यदि आप समझते हैं कि इस समय तक जो कुछ हुआ है, उससे आशा का कुछ आधार बनता है, तब आप वार्ता चलाते रहें जैसा कि वे कर रहे हैं। लेकिन उनके किसी भी तर्क में फँस कर, कृष्ण के लिए, उन्हें एक छदाम न दें। हो सकता है वे भरसक कोशिश कर रहे हों, लेकिन वे इसे कर नहीं सकेंगे, यह मेरी सच्ची राय है।

न्यू यार्क में और अधिक हानि से बचने के लिए प्रभुपाद ने सैन फ्रांसिस्को में अपना सक्रिय प्रचार कार्य जारी रखा। मुकुंद और अन्य शिष्य उनके लिए अनेक कार्यक्रम लाते थे और समारोह प्रायः बहुत उत्साहपूर्ण होते थे। उसी गोपनीय पत्र में जिसमें स्वामीजी ने ब्रह्मानंद को मि. प्राइस आदि से वार्ता चलाने की युक्ति बताई थी, उन्होंने 'बे' - क्षेत्र के कालेजों में होने वाली “ शानदार सफल" सभाओं का भव्य वर्णन किया। ये सभाएँ, उन्होंने कहा, टामकिंस स्क्वायर पार्क में होने वाले आश्चर्यजनक कीर्तनों के समान थीं। कृष्णभावनामृत के प्रसार का तरीका यह है, यह नहीं कि जमीन-जायदाद के धोखेबाज एजेंटों के साथ वार्ता के जाल में फँसा जाय ।

मैं हिमालयन एकेडेमी से प्राप्त एक पत्र की प्रतिलिपि संलग्न कर रहा हूँ; तुम देखोगे कि वे लोग हमारे शान्ति - आंदोलन की सराहना किस प्रकार कर रहे हैं। इसी प्रकार हमें अपने कार्य को बढ़ाना है। कोई भी व्यवसायी हमारी अति आदर्शवादी योजनाओं को, जैसा कि मि. प्राइस उन्हें निरूपित करते हैं, सहायता देने के लिए आगे नहीं आएगा। हमें अपने लिए स्वयं प्रयत्न करना होगा। सारांश यह है कि मि. टाइलर से किराए और क्रय-विक्रय का अनुबंध प्राप्त किया जाय और जितने संभव हों उतने सार्वजनिक कार्यक्रमों के आयोजन से अपने आंदोलन को लोक-प्रिय बनाया जाय ।

श्रील प्रभुपाद ने जो कुछ वे कर सकते थे, किया । लड़के इतने मूर्ख थे कि वे उनकी बात तक नहीं सुनते थे। लेकिन धन का संग्रह उन्होंने स्वयं किया था । यदि उनके आदेशों के बावजूद, उन्होंने उसे खो दिया तो वे और अधिक सहायता क्या कर सकते थे । इसलिए वे सैन फ्रांसिस्को में अपना प्रचार कार्य करते रहे और न्यू यार्क के लड़कों को भी परामर्श देते रहे कि वे कीर्तन के माध्यम से सफलता प्राप्त करने में विश्वास करने लगें ।

 
 
 
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