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श्रील प्रभुपाद लीलमृत  »  अध्याय 25: ‟हमारे गुरु महाराज ने अपना कार्य पूरा नहीं किया है”  » 
 
 
 
 
 
ऐसी कोई चेतावनी नहीं थी कि श्रील प्रभुपाद का स्वास्थ्य खराब हो जायगा, या, यदि कोई थी, तो किसी ने उस पर ध्यान नहीं दिया था। जब वे सैन फ्रांसिस्को के अपने भक्तों से, न्यू यार्क के भक्तों के पास गए तो किसी ने यह नहीं कहा कि उन्हें कार्य से कुछ विश्राम लेना चाहिए। साढ़े पाँच घंटे की जेट-उड़ान के बाद प्रभुपाद ने कानों के बंद होने की शिकायत की, अन्यथा वे बिल्कुल ठीक लगते थे। उन्होंने विश्राम नहीं किया, वरन् हवाई अड्डे के उत्साहपूर्ण स्वागत के बाद वे सीधे २६ सेकंड एवन्यू के स्टोरफ्रंट में तीन घंटे तक जोरदार व्याख्यान और कीर्तन में व्यस्त रहे। अपने न्यू यार्क के शिष्यों को वे चमत्कृत कर देने वाले और प्रिय लगते थे और अपनी उपस्थिति, दृष्टि और शब्दों से वे उनकी कृष्ण चेतना में वृद्धि करते थे। उनके लिए प्रभुपाद की वयोवृद्धता, जो अब ७२ वर्ष को पहुँच रही थी, उनकी एक अन्य दिव्य विशिष्टता थी। वे अपने शिष्यों की शक्ति थे और उनके शिष्य प्रभुपाद की शक्ति के बारे में कभी नहीं सोचते थे ।

मंदिर में मखमल से आच्छादित पाठ-मंच के पीछे नए आसन से बोलते हुए प्रभुपाद ने कहा, “मेरी अनुपस्थिति में यहाँ की स्थिति में सुधार हुआ है ।" ताजा पेंट की हुई सफेद दीवारों पर नए चित्र टँगे थे। अन्यथा यह वही छोटा स्टोरफ्रंट था जहाँ उन्होंने इस्कान आरंभ किया था ।

उन्होंने अपने शिष्यों को लिखा था कि वे अपनी वापसी पर नए भवन में प्रवेश करना चाहते थे, लेकिन शिष्य असफल रहे। और उन्होंने अपनी मूर्खता से छह हजार डालर खो दिए थे। किन्तु इस विषय की चर्चा न करके प्रभुपाद ने एक अधिक महत्त्वपूर्ण बात कही: उनके शिष्यों ने, अपने गुरु महाराज की शारीरिक अनुपस्थिति के बावजूद, उनके आदेशों का पालन करके तरक्की की थी ।

ताजा पेंट की गई दीवारों और अपने शिष्यों के चमकते चेहरों को प्रसन्नतापूर्वक देखते हुए प्रभुपाद ने बताया कि किस तरह गुरु के आदेशों का विनम्रतापूर्वक पालन करने से कृष्णभावनामृत में दक्षता प्राप्त की जा सकती है। उन्होंने उदाहरण दिया कि एक इंजीनियर का शागिर्द विशेषज्ञ नहीं होता, किन्तु यदि वह इंजीनियर के सीधे निर्देशन में एक पेंच घुमाता है तो वह विशेषज्ञ के रूप में कार्य कर रहा होता है। बहुत-से शिष्यों को यह सुन कर राहत अनुभव हुई। वे जानते थे कि सांसारिक इच्छाओं का त्याग कठिन था और एक दिन में वे शुद्ध भक्त नहीं बन सकते थे। ब्रह्मानन्द ने तो एक कविता तक लिखी थी जिसमें उसने कहा था कि यदि कई जन्मों के बाद भी वह ध्यानपूर्वक हरे कृष्ण मंत्र की एक माला भी पूरी कर लेगा तो वह उसे अपनी सबसे बड़ी सफलता मानेगा। प्रभुपाद उन्हें समझा रहे थे कि यद्यपि वे कृष्ण-प्रेम में विशेषज्ञ न भी हों, लेकिन यदि वे एक विशेषज्ञ के अधीन कार्य करते हैं तो वे भी विशेषज्ञ के रूप में कार्य करने वाले माने जायँगे।

दूसरे दिन, जब प्रभुपाद के स्वागत की धूमधाम समाप्त हो गई तो यह स्पष्ट होने लगा कि उनके शिष्य अपने गुरु महाराज पर अब भी कितना निर्भर थे नियमित भक्तों की संख्या एक दर्जन के आसपास थी और प्रभुपाद खामोशी से स्टोरफ्रंट में प्रविष्ट हुए और कीर्तन कराने लगे। किन्तु जब भक्तों के, अनुकरण में, गाने का समय आया और प्रभुपाद ने उनका पहला सामूहिक गान सुना तो वे आश्चर्य और सहानुभूति से उनकी ओर देखने लगे। अब वे सुन सकते थे: भक्त कमजोर हो गए थे, वे काँव-काँव अधिक कर रहे थे, गा कम रहे थे। उनकी अनुपस्थिति में शिष्यों में गिरावट आई थी। जब वे वहाँ नहीं थे, उस बीच कीर्तन बदल गया था और अब वे सुन रहे थे कि उनके भक्त क्या हो गए हैं : असहाय आत्माएँ जो बिना आनन्द या उत्साह के काँव-काँव कर रही थीं।

श्रील प्रभुपाद चैतन्य चरितामृत से व्याख्यान देने लगे, “सैन फ्रांसिस्को से विमान द्वारा यात्रा करते हुए मैने देखा कि विमान बादलों के सागर से ऊपर उड़ रहा था। जब मैं भारत से जहाज द्वारा यहाँ आया तो मैंने जल का सागर देखा था और विमान में मैंने बादलों का दृष्टिपर्यन्त सागर देखा । बादलों के ऊपर सूर्य है लेकिन जब हम बादलों के बीच से निकल कर जमीन पर उतरते हैं तो न्यू यार्क में हर चीज धुंधली और आच्छन्न है। लेकिन सूर्य फिर भी चमक रहा है। वे बादल सारे संसार को आच्छन्न नहीं कर सकते। वे सारे. संयुक्त राज्य तक को भी आच्छन्न नहीं कर सकते जो ब्रह्माण्ड में एक धब्बे के आकार से अधिक नहीं है। विमान से हमें गगनचुम्बी महल बहुत छोटे लगते हैं। इसी तरह ईश्वर की दृष्टि से ये सब सांसारिक पदार्थ व्यर्थ और नगण्य हैं। एक जीवित प्राणी के रूप में मैं नगण्य हूँ और मेरी प्रवृत्ति नष्ट होने की है। किन्तु सूर्य की प्रवृत्ति नष्ट होने की नहीं है। वह हमेशा माया के बादलों से ऊपर है... ।”

एक नए लड़के ने हाथ उठाया, "ऐसा क्यों है कि एक व्यक्ति, एक आत्मा तो कृष्ण की ओर आकृष्ट होती है और दूसरी नहीं ?"

प्रभुपाद ने इस प्रश्न का उत्तर दूसरे प्रश्न से दिया, “एक आत्मा क्यों बोवरी में है और दूसरी कृष्ण मंदिर में आई है ?" वे रुक गए, लेकिन कोई भी उत्तर न दे सका। “क्योंकि एक यहाँ आना चाहती है और दूसरी नहीं।” उन्होंने व्याख्या की । यह प्रश्न इच्छा की स्वतंत्रता का है। यदि हम उसका इस्तेमाल ठीक से करते हैं तो हम कृष्ण के पास जा सकते हैं; अन्यथा हम इस पार्थिव संसार में नीचे बने रहेंगे।

स्वामीजी से हर एक कुछ पूछना चाहता था। दिन-भर भक्त उनके कमरे में आते-जाते रहते। वे व्यावहारिक प्रश्न पूछते या दार्शनिक प्रश्न। और उन्होंने फिर स्वामीजी से आदान-प्रदान का पुराना तरीका अपना लिया। स्वामीजी अच्युतानन्द को फिर बताने लगे कि दोपहर के खाने के लिए क्या पकाया जाय। उन्होंने उसे समझाया कि एक दक्ष सेवक अनुमान लगा लेता है कि उसका स्वामी क्या चाहता है, इसके पहले कि स्वामी उसकी माँग करे ।

सत्स्वरूप प्रभुपाद को 'टीचिंग्स आफ लार्ड चैतन्य' की सबसे ताजा टंकित प्रति दिखाने आया। यद्यपि सत्स्वरूप के निर्धारित कार्य में कोई अंतर नहीं आया था, लेकिन चूँकि अब प्रभुपाद और वह आमने-सामने थे, इसलिए उसे लगा कि टाइप और सम्पादन का काम उसे अधिक जिम्मेदारी से करना चाहिए। उसने पूछा कि क्या वह जन-कल्याण विभाग की नौकरी से इस्तीफा दे दे। प्रभुपाद ने कहा- नहीं।

जदुरानी ने प्रभुपाद के आवास के बाहरी कमरे में चित्र बनाने का कार्य जारी रखा। लज्जा - संकोच छोड़ कर, उसने कई प्रश्न पूछे कि कृष्ण का चित्र वह कैसे बनाए । “भगवान् विष्णु हृदय में कैसे स्थित हैं ?” उसने पूछा, "क्या वे बैठे हैं या खड़े हैं या कैसे हैं ? "

प्रभुपाद ने उत्तर दिया, “ओह, उसके लिए तुम्हें हजारों वर्ष ध्यान लगाना होगा, ” जदुरानी ने निराश होकर उन्हें देखा । तब प्रभुपाद ने कहा, “वे खड़े हैं ।" और वह प्रसन्न होकर चित्र बनाने चली गई।

जब जदुरानी ने कमजोर स्वास्थ्य की शिकायत की तो प्रभुपाद ने अच्युतानन्द से कहा कि उसे दिन में दो बार दूध मिलना चाहिए। बाहर के कमरे में जहाँ टंकण, पेंटिंग और कभी-कभी इमारत का काम भी होता था, खुलने वाली खिड़की में से प्रभुपाद ने एक दिन देखा कि जदुरानी भगवान् चैतन्य के संकीर्तन दल का चित्र बना रही थी । ज्योंही वह चित्र के नीचे महा-मंत्र के शब्द अंकित करने लगी, प्रभुपाद ने खिड़की में से पुकारा, “ महामंत्र को वहाँ न अंकित करो। "

" आपने इसे यहाँ अंकित करने को कहा था, " उसने कहा ।

" मैने अपना विचार बदल लिया है, हरे कृष्ण चैतन्य महाप्रभु के नीचे नहीं होना चाहिए ।'

एक-एक करके प्रभुपाद न्यू यार्क के अपने सभी पुराने अनुयायियों से मिले : गर्गमुनि मंदिर के कोषाध्यक्ष, जिसने हरे कृष्ण रेकर्ड और अगरबत्ती की अच्छी बिक्री के बारे में बताया; राय राम, बैक टु गाडहेड का सम्पादक जिसने अपनी खराब पाचन शक्ति के बारे में बात की; और रूपानुग जिसके पास अच्छी नौकरी थी पर जिसे अपनी पत्नी को कृष्णभावनामृत के सम्बन्ध में आश्वस्त करने में कठिनाई हो रही थी। मकान मालिक, मि. चुटे तक प्रभुपाद के पास आ धमके, लड़कों के व्यवहार के विरुद्ध शिकायत करने ।

प्रभुपाद की भेंट माइकल ब्लूमर्ट से भी हुई जो नवागंतुक था। माइकल विनाशकारी मादक द्रव्य सेवन के अनुभवों के विषय में किसी मनश्चिकित्सक से परामर्श करता रहा था। जब से वह मंदिर आने लगा था, उसके माँ-बाप स्वामीजी को एक दूसरी विनाशकारी शक्ति मानने लगे थे। लेकिन स्वामीजी से मिलने के बाद मिसेज ब्लूमर्ट उनकी प्रामाणिकता स्वीकार करने लगी थीं, यद्यपि उनके पति को संदेह बना हुआ था। “मि. ब्लूमर्ट,” श्रील प्रभुपाद ने कहा, “तुम्हारी पत्नी अधिक बुद्धि वाली है।" मि. ब्लूमर्ट ने कहा कि वे चाहते थे कि उनका लड़का डाक्टर बन कर लोगों की सेवा अधिक व्यावहारिक ढंग से करे। प्रभुपाद ने तर्क किया कि डाक्टर भी इतने अधिक थे, फिर भी लोग दुख भोग रहे थे। परन्तु कृष्णभावनामृत में डूबा व्यक्ति दूसरे व्यक्ति को दुख

से पूर्ण मुक्ति दे सकता था; इसलिए कृष्णभावनामृत के प्रसार का कार्य अधिक मूल्यवान था । मि. ब्लूमर्ट आश्वस्त नहीं हुए, परन्तु वे राजी हो गए कि वे माइकल को भक्तों के साथ रहने देंगे और उसका मनश्चिकित्सक के पास जाना बंद कर देंगे। वे स्वामीजी का आदर करने लगे, यद्यपि उनसे उनकी असहमति बनी रही ।

ब्रह्मानंद के साथ प्रभुपाद ने एक स्थायी विज़ा प्रवेश पत्र प्राप्त करने की जरूरी समस्या के सम्बन्ध में विचार-विमर्श किया। १९६५ ई. में संयुक्त राज्य में आने के बाद प्रभुपाद ने अपने प्रवेश-पत्र को बार-बार बढ़वाया था। अब आप्रवास अधिकारियों ने उसे और आगे बढ़ाने से इनकार कर दिया था। प्रभुपाद संयुक्त राज्य छोड़ना नहीं चाहते थे, लेकिन वहाँ रुकने का एक यही तरीका था कि वे स्थायी आप्रवासी बन जायँ । उन्होंने आवेदन किया था, लेकिन अभी तक सफलता नहीं हुई थी । " तुम्हारी सरकार नहीं चाहती कि मैं यहाँ रहूँ, उन्होंने कहा था, "इसलिए मुझे भारत वापस जाना पड़ेगा।"

स्वामीजी के भारत वापस जाने की संभावना दहलाने वाली थी। उनके शिष्य केवल यह मानने को तैयार हुए थे कि वे उन्हें छोड़ कर संयुक्त राज्य में अन्यत्र प्रचार के लिए जा सकते थे। यदि उन्हें भारत वापस जाना पड़ा! शिष्यों को डर लगा कि वे फिर सांसारिकता में जा फँसेंगे। स्वामीजी उनके आध्यात्मिक जीवन को सहारा प्रदान कर रहे थे। वे स्वामीजी बिना कैसे रहेंगे ? प्रभुपाद भी कुछ ऐसा ही अनुभव करते थे ।

ब्रह्मानंद को, आप्रवास कार्यालय की कार्यवाही में विलम्ब कराने हेतु, एक वकील पाने में सफलता हो गई। उनके निष्कासन का भय जाता रहा । प्रभुपाद ने मांट्रियल जाने और वहाँ स्थायी अधिवास प्राप्त करने के बारे में बात की । लेकिन उनका मुख्य इरादा अमेरिका में रह कर उस कार्य को आगे बढ़ाना था जिसे, उन्होंने शुरू किया था ।

ब्रह्मानंद ने भगवद्गीता के मुद्रण के बारे में रिर्पोट दी । पाण्डुलिपि तैयार थी, और वे इसके मुद्रण की लागत और स्थान के बारे में विचार कर रहे थे, यद्यपि उस पुस्तक को स्वयं प्रकाशित करने के लिए उन लोगों के पास रकम नहीं थी। उन्होंने एक प्रकाशक ढूंढ़ निकालने के कठिन कार्य के बारे में कभी गंभीरता से प्रयत्न नहीं किया था, लेकिन प्रभुपाद ने ब्रह्मानंद को इसके लिए प्रेरित किया : "मेरे लिए केवल एक ही आशा है कि मेरी पुस्तकें प्रकाशित हों । '

ब्रह्मानंद ने प्रभुपाद से उन छह हजार डालरों के विषय में भी बात की जो मि. प्राइस हजम कर गए थे। प्रभुपाद ने जोर दिया कि अपराधियों पर मुकदमा चलाया जाय। उन्होंने ब्रह्मानंद को वकीलों से बात करने और मि. प्राइस और मि. टाइलर को यह बताने के लिए भेजा कि "महामहिम" आ गए हैं और वे उन्हें अदालत के सामने ले जायँगे ।

इस पर वे नरम पड़ गए। मि. टाइलर ने पाँच हजार डालर के डिपोज़िट में से अधिकतर वापस कर दिया और मि. प्राइस ने ब्रह्मानंद से जो एक हजार डालर फाँस लिए थे, उनमें से ७५०/- डालर लौटा दिए। कानूनी सलाह-मशविरे में जो १००० / - डालर व्यय हुए थे—वे तो जाते रहे लेकिन प्रभुपाद ने कहा कि शेर से निबटने में खरोंच तो लगेगी ही ।

कीर्तनानंद को मांट्रियल लिखे गए एक पत्र में प्रभुपाद ने प्राइस मामले की सफल समाप्ति के बारे में लिखा, “तुम्हें यह जानकर प्रसन्नता होगी कि, कृष्ण की कृपा से, सर कानमन फ्राड (प्राइस) के पेट में गए ५००० /- डालर में से मैं ४२२७/- डालर वापस निकाल लेने में सफल हो गया हूँ।"

ऐसे लक्षण दिखाई देने लगे थे कि प्रभुपाद को अपने स्वास्थ्य के विषय में सावधान रहना चाहिए। एलेन बर्क के टी.वी. कार्यक्रम में सम्मिलित होने में उन्हें कठिनाई अनुभव हुई थी। एलेन बर्क कुख्यात था कि वह सिगार पीता बैठा रहता था और उग्र बातें, यहाँ तक कि अपने अतिथियों को अपमानजनक बातें भी सुनाया करता था । और यदि कोई अतिथि बुरा मानता तो बर्क उसे और भी भड़काता था । यह आम बात थी ।

टी.वी. कार्यक्रम आरंभ होने के पहले बर्क ने प्रभुपाद से सिगार पीने की अनुमति माँगी थी और प्रभुपाद शालीनतापूर्वक राजी हो गए थे। बर्क ने अपने अतिथि का परिचय 'वास्तविक स्वामी' कह कर कराया था। जब उसने प्रभुपाद से पूछा था कि वे यौनाचार के विरुद्ध क्यों थे तब प्रभुपाद ने कहा था कि वे विरुद्ध नहीं थे; यौनाचार विवाहित जीवन तक सीमित होना चाहिए जिससे कृष्ण - चेतना वाली संतान पैदा हो। किन्तु बर्क आग्रह करता रहा था कि वैवाहिक जीवन के बाहर यौनाचार में क्या बुराई थी । प्रभुपाद ने उत्तर दिया था कि मानव जीवन का असली उद्देश्य आत्मोपलब्धि है। जब किसी का मन यौनाचार के लिए नए-नए साथियों की खोज में लगा रहता है, तब आत्मोपलब्धि के लिए आवश्यक मानसिक शान्ति बनाए रखना असंभव हो जाता है। बर्क इससे सहमत हो गया था । वस्तुतः उस दिन उसका व्यवहार सब दिनों से अच्छा रहा। अंत में उसने प्रभुपाद को 'एक बहुत सम्मोहक सज्जन' कहा था ।

जब श्रील प्रभुपाद मंदिर को लौट रहे थे तो उन्होंने बताया कि टी.वी. के प्रकाश से उनके सिर में इतना दर्द हुआ था कि एक बार उन्हें लगा था कि वे और अधिक वहाँ नहीं रुक सकेंगे।

इसके बाद, एक दिन, रूपानुग ने, जो प्रभुपाद के आसन के निकट, एक व्याख्यान के दौरान, बैठा था, देखा कि जब वे बोल रहे थे तो उनका हाथ काँप रहा था। महीनों पहले एक रेकर्ड तैयार कर लेने के बाद प्रात: काल में कीर्तनानन्द ने देखा था कि प्रभुपाद रात भर सोए नहीं थे और उन्होंने दिल के बीच में रुक जाने और हिल-डुल न पाने की शिकायत की थी । “यदि मैं कभी बीमार पहूँ,” श्रील प्रभुपाद ने कीर्तनानंद से कहा था, “ तो डाक्टर मत बुलाना । मुझे अस्पताल मत ले जाना । केवल मुझे मेरी माला देना और हरे कृष्ण जपना । "

स्वामीजी के शिष्य उन पर अंकुश लगाना नहीं चाहते थे। कीर्तनानन्द ने रहे कोशिश की थी । एवलान में जब स्वामीजी नाच रहे थे और उछल-कूद थे और पसीने से तर थे तब कीर्तनानन्द ने आग्रह किया था कि कीर्तन बंद कर दिया जाय । किन्तु दूसरों ने उसे संभ्रमित कहा था।

इसके अतिरिक्त, स्वामीजी नहीं चाहते थे कि उन पर अकुंश लगाया जाय । और वे कौन होते थे उन पर अंकुश लगाने वाले ? वे कृष्ण के अधिकृत प्रतिनिधि थे जो किसी भी कठिनाई को पार करने में सक्षम थे । वे शुद्ध भक्त थे। वे कुछ भी कर सकते थे। क्या कई बार वे नहीं बता चुके थे कि एक सच्चा भक्त सांसारिक कष्टों से अतीत होता है।

स्वामीजी ने एक शिष्य की बीमार दादी को धीरज देने के लिए एक पत्र लिखा था । हमारे सभी कष्ट इस बाह्य शरीर के कारण हैं। यद्यपि हमें कभी कभी शारिरिक कष्ट सहने पड़ते हैं, विशेषकर वृद्धावस्था में, तब भी यदि हम में भगवत् चेतना है तो हम कष्ट अनुभव नहीं करेंगे। इसलिए सबसे अच्छी चीज यह है कि हम निरन्तर भगवान् के पवित्र नाम का जप करें।

भक्तों ने लक्ष्य किया कि यद्यपि स्वामीजी किसी की बीमार दादी को अच्छे उपदेश दे सकते थे, परन्तु उसके ऊपर जो बीत रही हो, उससे वे कभी प्रभावित होने वाले नहीं थे । यथार्थतः वे अपने को वृद्ध व्यक्ति कहा करते थे, लेकिन यह वे अधिकतर अपने व्याख्यानों में वृद्धावस्था की अनिवार्यता दिखाने के लिए कहते थे।

भक्तों के लिए प्रभुपाद का स्वास्थ्य अच्छा दिखाई देता था। उनके नेत्र आध्यात्मिक संवेगों से चमकते रहते थे, उनका रंग साफ और सुनहरा था, उनकी मुसकान से उनकी स्वस्थता और नीरोगता प्रकट होती थी। एक बार एक लड़के ने कहा था कि स्वामीजी की मुसकान इतनी ओजस्वी थी कि उससे उसे सांड और लोहे की कीलों का स्मरण हो आता था। स्वामीजी ठंडे पानी से नहाते थे, लोअर ईस्ट साइड में प्रातः कालीन भ्रमण के लिए जाते थे, मृदंग बजाते थे और खूब खाते थे। यदि उनके शिष्य इसमें कोई कमी भी कराना चाहते तो वे क्या कर सकते थे ? उनके कुछ शिष्यों ने सचमुच उन्हें ईस्ट विलेज थियेटर में कास्मिक लव-इन के विवादग्रस्त कार्यक्रम में जाने से रोकने की कोशिश की थी, लेकिन यह उनके स्वास्थ्य के कारण नहीं था; वे उनके संयुक्त राज्य में अधिवास के केस को सुरक्षित बनाना चाहते थे। श्रील प्रभुपाद, लव-इन कार्यक्रम में लुई अबोलाफिया के लिए धन-संग्रह हेतु, आमंत्रित किए गए थे। लुई अबोलाफिया संयुक्त राज्य के राष्ट्रपति पद के लिए 'लव एंड पीस' की ओर से अभ्यर्थी थे। उस कार्यक्रम में एलेन गिंसबर्ग, टिमोथी लेअरी, और अन्य कलाकार पूरे राक बैंडों के साथ सम्मिलित हो रहे थे। लेकिन जब प्रभुपाद के वकील ने सुना कि प्रभुपाद कार्यक्रम में जा रहे हैं तो उसने कहा कि इससे उनका विज़ा का केस खटाई में पड़ सकता है। कुछ लड़कों ने वकील के मत के आधार पर प्रभुपाद के जाने का विरोध किया। प्रभुपाद सहमत हो गए कि अच्छा होगा यदि वे न जायें। लेकिन कास्मिक लव-इन कार्यक्रम के दिन उनका विचार बदल गया और उन्होंने जाने का निश्चय किया । "मैं इस देश में कृष्णभावनामृत का प्रचार करने आया हूँ।” उन्होंने घोषणा की। तो समय आ गया था कि इन एल. एस. डी. नेताओं के विरोध में, जो अपने को आध्यात्मिक पुरुष कहते हैं, बोला जाय। वे कहते रहे थे कि यद्यपि वे जाना चाहतें थे, किन्तु यदि उनके शिष्यों ने मना किया तो नहीं जायँगे, पर अंत में उन्होंने केवल यह कहा कि वे जायँगे। बस, बात खतम हुई ।

मई के अंतिम सप्ताह में प्रभुपाद बिल्कुल नि:शक्त अनुभव करने लगे। वे दिल धड़कने की बात करने लगे। यह आशा करते हुए कि एक-दो दिन में ये लक्षण समाप्त हो जायँगे, कीर्तनानन्द ने प्रभुपाद से प्रार्थना की कि वे आराम करें और किसी से मिले नहीं, लेकिन प्रभुपाद की दशा बिगड़ती गई ।

कीर्तनानन्द: प्रभुपाद शिकायत करने लगे कि उनकी बाईं बांह ठीक से काम नहीं कर रही थी। और तब उनकी बाईं ओर ऐंठ होने लगी। और उनकी बांह में असह्य तनाव होने लगा। उन्हें रहस्यमय ढंग से आतंरिक या मानसिक पीड़ा होने लगी।

अच्युतानन्द : रविवार का दिन था, मेमोरियल डे दिवस के दो दिन पहले। और हम लोगों ने नगर के एक हाल में अपराह्न बृहत् कार्यक्रम का आयोजन किया था। मैं स्वामीजी को लेने ऊपर गया, क्योंकि अन्य सभी भक्त तैयार थे। स्वामीजी लेटे थे और उनका चेहरा पीला हो गया था। उन्होंने कहा, “मेरा हृदय देखो।" और मैंने उनके हृदय में थरथराता कम्पन अनुभव किया।

मैं नीचे गया, लेकिन मैं हर एक को आगाह करके तहलका मचाना नहीं चाहता था। मैं कीर्तनानन्द के पास गया और धीरे से कहा, "स्वामीजी को एक तरह की दिल की हल्की धड़कन हो रही है। और तुरन्त हम दोनों ऊपर भाग गए। स्वामीजी ने कहा, “यहाँ मालिश करो।” मैंने उनकी छाती को मलना शुरू किया और उन्होंने बताया कि यह कैसे करना चाहिए। वे बोले – “अन्य लोग चले जायँ, और अच्युतानन्द यहाँ रहें। यदि कुछ हुआ तो वह तुम लोगों को बुला लेगा।"

इसलिए अन्य लोग चले गए और कार्यक्रम संपन्न किया और मैं प्रतीक्षा करता रहा। एक या दो बार उन्होंने मुझे बुलाया और तेजी से अपनी छाती मलवाई। तब उन्होंने नजर उठाई और उनका रंग वापस आ गया था। मैं मुँह खोल कर उनकी ओर देख रहा था, और मुझे समझ नहीं आ रही थी कि मुझे क्या करना है। उन्होंने मुझे देखा और कहा, “तुम बेकार क्यों बैठे हो ? हरे कृष्ण का जप करो।” शाम को धड़कन फिर हुई, इसलिए मैं उनकी बगल के कमरे में सोया। काफी रात गए, उन्होंने मुझे बुलाया और फिर मालिश करवाई ।

कीर्तनानन्द : मंगलवार, मेमोरियल डे को तीसरे पहर मैं स्वामीजी के साथ उनके कमरे में बैठा था। जब नीचे कीर्तन चल रहा था, स्वामीजी को ऐंठ फिर अनुभव हुई। उनका चेहरा अकड़ने लगा। नेत्र घूमने लगे। तब अकस्मात् स्वामीजी पीछे गिर गए, और मैने उन्हें संभाल लिया। वे जोर से सांस ले रहे थे : “हरे कृष्ण,” और तब हर वस्तु रुक गई। मैने समझा अंत आ गया; तब वे फिर सांस लेने लगे और जप करने लगे। परन्तु उनके शरीर पर उनका नियंत्रण नहीं लौटा था ।

ब्रह्मानंद : मैं कीर्तनानन्द के साथ वहाँ था । वह मेमोरियल डे का सप्ताहांत था। हम समझ नहीं सके कि स्वामीजी को क्या हो गया है। वे बैठ नहीं सकते थे, वे कराह रहे थे और कोई भी नहीं जानता था कि क्या हो रहा था। मैंने और कृष्णानन्द ने उनकी नर्स के तौर पर परिचर्या की— हर कठिन से कठिन तरीके से। मुझे बाहर जाकर उनके लिए एक बेडपैन खरीदना पड़ा ।

प्रभुपाद के बाएं अंग को लकवा मार गया। उन्होंने कहा कि उनके गुरु महाराज का एक चित्र उनके सामने दीवार पर लगा दिया जाय। यह सोच कर कि प्रभुपाद अपना शरीर छोड़ने की तैयारी कर रहे हैं और अंत में अपने आध्यात्मिक गुरु पर ध्यान लगाना चाहते हैं, अच्युतानन्द ने चित्र को प्रभुपाद के सामने वाले दरवाजे पर टेप से चिपका दिया ।

भक्त उनके आवास के सामने वाले कमरे में प्रविष्ट हुए और प्रभुपाद ने उन्हें हरे कृष्ण जपने को कहा। तब उन्होंने उनसे कृष्ण की, उनके नृसिंह रूप में, प्रार्थना करने को कहा ।

सत्स्वरूप : स्वामीजी ने कहा कि हमें भगवान् नृसिंह की प्रार्थना करनी चाहिए कि, "मेरे गुरु महाराज ने अपना कार्य समाप्त नहीं किया है।” बारी बारी से वे हमसे अपने शरीर के विभिन्न अंगों की भिन्न-भिन्न समय पर, मालिश कराते थे। तब उन्होंने हमें नीचे जाने और रात भर कीर्तन करने को कहा।

जदुरानी : उन्होंने हमें भगवान् नृसिंह की प्रार्थना सिखाई। वे एक एक करके शब्द बोलते गए और मैं लिखती गई । मैंने सैन फ्रांसिस्को और मॉन्ट्रियल के मंदिरों को फोन किया और प्रार्थना बताई। स्वामीजी ने कहा, “तुम्हें कृष्ण से प्रार्थना करनी चाहिए कि मेरे गुरु महाराज ने अभी अपना कार्य समाप्त नहीं किया है, इसलिए उन्हें पूरा करने दें । "

दामोदर : मैं मंदिर में गया । नीचे कोई नहीं था, इसलिए कुछ मालाएँ फेरने के लिए मैं बैठ गया। तब एक भक्त बहुत घबराया - सा नीचे आया, मैंने पूछा कि क्या हो रहा है। जब उसने मुझे बताया तो मैं भाग कर ऊपर गया। सभी दूसरे कमरे में बैठे थे जहाँ से दीवार की खिड़की में से स्वामीजी को देखा जा सकता था। सब अपनी-अपनी माला फेर रहे थे। जदुरानी सब को कागज के छोटे-छोटे टुकड़े दे रही थी, जिन पर कुछ लिखा था। उसने बताया कि स्वामीजी चाहते हैं कि हम यह प्रार्थना करें ।

ब्रह्मानंद : हम भगवान् नृसिंह का चित्र स्वामीजी के कमरे में ले गए और हम सभी जप कर रहे थे। जब स्वामीजी को भगवान् नृसिंह के चित्र के सामने बेडपैन इस्तेमाल करना पड़ता था तो वे भगवान् नृसिंह से क्षमा-याचना करते थे। वे समझ रहे थे कि भगवान् नृसिंह उनके ठीक सामने बैठे थे। मैं उसे एक चित्र समझता था, किन्तु स्वामीजी मानते थे कि वहाँ स्वयं भगवान् नृसिंह बैठे थे।

स्वामीजी की हालत खराब होती जा रही थी-वे बिल्कुल अशक्त हो चले थे और उनके शरीर में हर प्रकार की कमज़ोरी आ रही थी। मुझे कोई डाक्टर नहीं मिल पाया, क्योंकि वह मेमोरियल दिवस था और सब कुछ बंद था। मैने अपने फेमिली डाक्टर को भी फोन किया, किन्तु वे घर पर नहीं थे । हर एक अवकाश पर चला गया था, क्योंकि मेमोरियल दिवस पर हर एक नगर छोड़ देता है। मैं किसी को नहीं पा सका। मैंने अस्पतालों और डाक्टरों सभी को टेलिफोन किया, लेकिन मुझे कोई नहीं मिल पाया। अंत में न्यू यार्क सिटी मेडिकल डिपार्टमेंट के आपात नम्बर पर सम्पर्क करने से मुझे एक डाक्टर मिला । डाक्टर आया। वह जोर से बोलने वाला वृद्ध आदमी था। जब उसने स्वामीजी को देखा तो वह बोला, "मैं समझता हूँ कि यह वृद्ध पुरुष प्रार्थना का अतिरेक कर रहा है। मुझे लगता है कि उसे कुछ कसरत करनी चाहिए। उसे सवेरे टहलने जाना चाहिए ।'

अच्युतानन्द : डाक्टर कुछ अधिक जानकार नहीं था। उसने बताया कि स्वामीजी को सर्दी हो गई है। मैने कहा, “आपका मतलब क्या है ? स्वामीजी का दिल धड़क रहा है। "

" हम्म, मुझे नहीं मालूम कि क्या करना चाहिए। क्या ये व्हिस्की लेते हैं ?" मैंने कहा, "वे काफी या चाय भी नहीं पीते । "

"ओहहह, बहुत अच्छा, बहुत अच्छा, मेरे विचार से उन्हें सर्दी हो गई है । "

द्वारकाधीश दास : वह आया और उसने चारों ओर देखा और कोई भी उसी क्षण बता सकता था कि उसने जो कुछ देखा, वह उसे पसंद नहीं आया। उसने सोचा कि हम लोग केवल हिप्पी हैं। वह बिना रुके चला गया। लेकिन वह बोल गया, “ओह, इन्हें इंफ्लूएंजा हो गया है।" यह बहुत हास्यास्पद निदान था। और तब उसने कहा, “मुझे मेरी फीस दो", तो हमने दे दी। डाक्टर चला गया और स्वामीजी की हालत और बिगड़ गई।

भक्तों ने एक दूसरा डाक्टर बुलाया। उसने श्रील प्रभुपाद का निदान करके बताया कि उन्हें हल्का सा दिल का दौरा पड़ा है। उसने कहा कि प्रभुपाद को अविलम्ब अस्पताल ले जाना चाहिए ।

मैक्स लर्नर ( भक्तों का एक वकील मित्र ) : मुझे एक दिन फोन मिला कि स्वामीजी को हल्का - सा दिल का दौरा पड़ा है और मैं कुछ सहायता कर सकता हूँ। उस समय वे लोग उन्हें बेलिव्यु अस्पताल ले जा रहे थे, लेकिन मैने सुझाया कि कम-से-कम मुझे उन्हें एक निजी अस्पताल में दाखिल कराने के लिए कोशिश करने दी जाय। अस्पताल के लोगों से कई घंटे की बातचीत और मोल- तोल के बाद अंत में हम स्वामीजी को बेथ इजरायल अस्पताल में भरती कर सके ।"

ब्रह्मानंद : मेमोरियल दिवस के बाद वाले दिन हमें एक ऐम्बुलेंस की व्यवस्था करनी पड़ी। बेथ इजरायल के पास ऐम्बुलेंस नहीं थी, इसलिए मैंने एक प्राइवेट एम्बुलेंस कम्पनी को फोन किया। अस्पताल के लोगों से बात हो गई थी कि स्वामीजी वहाँ सवेरे नौ बजे पहुँच जायँगे। लेकिन ऐम्बुलेंस दोपहर तक नहीं आई। इस बीच स्वामीजी कराहते रहे। तब अंत में ऐम्बुलेंस आई, और वे बड़े भयानक लोग थे। उन्होंने स्वामीजी के साथ कपड़े की गाँठ जैसा सलूक किया। मुझे लगा कि अच्छा होता, यदि हम स्वामीजी को एक टेक्सी में ले गए होते।

कीर्तनानन्द के सिवाये, जो अस्पताल में स्वामीजी की नर्स के रूप में रहा, और किसी को वहाँ रुकने की अनुमति नहीं थी । प्रभुपाद के अनुरोध के अनुसार वे सभी, रात भर कीर्तन करने के लिए, मंदिर लौट गए। कीर्तनानन्द ने सैन फ्रांसिस्को में हयग्रीव को फोन करके जो कुछ हुआ था बताया कि स्वामीजी किस प्रकार पीछे की ओर गिर पड़े थे और उनके मुंह से “ हरे कृष्ण" निकला था और फिर तीस सेकंड के लिए कुछ नहीं हुआ था और फिर एक गहरी सांस : “हरे कृष्ण ! हरे कृष्ण !” कीर्तनानन्द ने हयग्रीव से कहा कि सैन फ्रांसिस्को के भक्तों को रात भर भगवान् नृसिंह देव की प्रार्थना करनी चाहिए :

तव कर-कमल-वरे नखं अद्भुत श्रृंगम्

दलित- हिरण्यकशिपु-तनु-भृगंम्

केशव धृत- नरहरि - रूप जय जगदीश हरे

भगवान् नृसिंह देव, भगवान् कृष्ण के अर्ध पुरुष, अर्ध सिंह अवतार के रूप में अपने सच्चे भक्त प्रह्लाद की रक्षा और हिरण्यकशिपु राक्षस का संहार करने के लिए एक अन्य युग में प्रकट हुए थे। प्रभुपाद ने अपने शिष्यों को कहा था कि वे यह विशेष मंत्र जप कर भगवान नृसिंहदेव की प्रार्थना करें और ध्यान करें कि " हमारे गुरु महाराज ने अपना कार्य पूरा नहीं किया है। कृपा करके उनकी रक्षा करें।" लड़के मंदिर में गए और एक साथ प्रार्थना करने लगे, लेकिन कुछ घंटे के बाद वे सो गए। वे विश्राम करना चाहते थे जिससे वे दूसरे दिन अस्पताल जा सकें।

हरिदास : जब हमने इसके बारे में सैन फ्रांसिस्को में सुना तो लोग दुखी हुए और रोने लगे। स्वामीजी के लिए लोगों में अत्यंत प्रेम था और सभी उन्हीं के विषय में सोच रहे थे। हर एक का ध्यान इसी बात पर था कि वे बीमारी से कैसे उबरें। सभी कृष्ण, भगवान् चैतन्य और जिस किसी से भी संभव था, प्रार्थना कर रहे थे कि स्वामीजी को शक्ति दें जिससे वे कष्ट की घड़ी को पार कर सकें। लोग माला फेरते मंदिर में आते थे और अपने विश्वास, धर्म या मत की सारी शक्ति स्वामीजी को अच्छा करने में लगा देना चाहते थे। वे सभी हमारे साथ मंत्र जपते थे ।

हयग्रीव: यह एक ऐसी रात है जिसे मैं कभी नहीं भूलूँगा । हमने जगन्नाथ - विग्रहों की वेदी के पीछे की बत्तियाँ जला दी हैं। मोमबत्तियाँ जला दी हैं और झिलमिलाते प्रकाश में हम मंत्र जपने लगे हैं। हम मंत्र बड़ी गंभीरता से जप रहे हैं। नृत्य तो उससे भी अधिक गंभीरता से हो रहा है। हैट स्ट्रीट में समाचार शीघ्र फैल जाता है, मंदिर में भीड़ लग गई है, लोग रात भर हमारे साथ कीर्तन करने के लिए जमा हो गए हैं।

मुकुंद और जानकी ने न्यू यार्क को फोन किया। लेकिन कोई नया समाचार नहीं मिला है। कीर्तनानन्द अस्पताल में स्वामीजी के बिस्तर के पास रात बिता रहा है। और किसी को अंदर जाने की इजाजत नहीं है। अस्पताल का यही नियम है। न्यूयार्क में हर एक कीर्तन कर रहा है।

हम आधी रात के बाद तक कीर्तन करते रहे हैं। अधिकतर अतिथि चले गए हैं, लेकिन हम में से किसी को नींद नहीं आ रही है। हम कीर्तन की लहरों में तैर रहे हैं। मेरा मन स्वामीजी के पास जा पहुँचता है, न्यू यार्क में, और भविष्य और भूत काल की बातें सोचने लगता है। मैं उसे बलात् कमरे में खींचता हूँ वर्तमान का सामना करने के लिए, और यह अनुभव करने के लिए कि हम कृष्ण से यह प्रार्थना करने के लिए कीर्तन कर रहे हैं. कि वे हमारे गुरु महाराज को थोड़ा समय और दें ताकि वे भगवान् चैतन्य के यशस्वी संकीर्तन - आन्दोलन का प्रसार संसार - भर में कर सकें।

कीर्तन साग्रह चलता रहता है। रात में दो बजे हैं, मुझे थकान अनुभव होने लगी है। केवल जागते रहने के लिए मैं वाद्य यंत्र बदलता रहता हूँ, मैं कभी मृदंग बजाता हूँ, कभी मंजीरे या हारमोनियम । बहुत से भक्त जागते रहने के लिए नृत्य कर रहे हैं। लड़कियाँ प्रसाद रूप में सेब के टुकड़े बाँटती है, दीवार के पास बैठना खतरे से भरा होता है, क्योंकि उसका सहारा लेते ही नींद आने लगती है। हम इतने दुर्बल हैं।

हरे कृष्ण से शान्ति मिलती है। कीर्तन हमें बहुत-सी अनावश्यक आकुलताओं से बचाता है। इसके माध्यम से हम अपना तनाव कम कर सकते हैं, दुख, तर्क और आशा व्यक्त कर सकते हैं।

प्रातः काल के तीन और चार बजे के बीच का समय है। यह उषाकाल के पूर्व ब्राह्म मुहूर्त की अतिशय भावविभोरता की घड़ी होती है। यदि स्वामीजी इस समय जीवित हैं तो वे अवश्य बच जायँगे ।

हम गाते हैं। हम माला फेरते मंत्र जपते हैं । निरन्तर हरे कृष्ण गाते हैं। हम सामान्यत: सात बजे सवेरे तक चलने वाले कीर्तन तक मंत्र जपते रहते हैं और उसके बाद भी कीर्तन करते रहते हैं। हम अविराम गति से चौदह घंटे कीर्तन करते हैं। अपने मन के दर्पण से हम सारी मैल साफ कर देते हैं। हमे सर्वत्र कृष्ण और स्वामीजी दिखाई देते हैं। निश्चय ही अब वे ठीक हो गए हैं।

रात में प्रभुपाद के दिल में दर्द रहा। दूसरे दिन उनकी हालत संकटापन्न थी। वे बोल सकते थे, लेकिन बहुत धीरे से और नि:शक्त इतने हो गए थे कि वार्तालाप नहीं कर सकते थे। डाक्टरों के विषय में उन्हें सन्देह था, उन्होंने अपने रोग का निदान स्वयं किया : दिल का दौरा जिससे उनका मस्तिष्क प्रभावित था जिससे शरीर के बाएं अंग को लकवा मार गया था। उन्होंने कहा, इसकी दवा मालिश है।

१ जून को सवेरे कीर्तनानन्द के साथ प्रभुपाद के कमरे में और शिष्य आ गए और बारी-बारी से वे लगातार उनकी मालिश करते रहे। प्रभुपाद के आदेशानुसार वे बारी-बारी से उनके सिर, छाती और टांगों की मालिश करते रहे। इस साधारण कार्य से प्रभुपाद से उनका निकट का संबंध हो गया ।

जब प्रभुपाद ने सुना कि न केवल न्यू यार्क में, वरन् सैन फ्रांसिस्को में भी भक्तों ने रात भर कीर्तन किया और प्रार्थनाएँ कीं, तो उन्होंने संतोष प्रकट किया, अपनी आम हार्दिक मुसकान से नहीं, वरन् बहुत हल्के ढंग से सिर हिला कर और प्रशंसा के कुछ शब्द कह कर । दुर्बलता के बावजूद वे पूरी तरह होश में थे।

डाक्टर, और बहुत करके उनके सहायक, प्रभुपाद का खून लेते, सूई लगाते और छानबीन करते थे। उनका निदान किसी निष्कर्ष पर ले जाने वाला नहीं था; उनकी योजना प्रयोग करते जाने की थी । अचानक एक डाक्टर आया और उसने दूसरे प्रस्ताव की घोषणा की : रीढ़ की हड्डी को टैप करने की । प्रभुपाद इतने कमजोर हो गए थे कि वे इस प्रस्ताव की अच्छाई-बुराई के बारे में विचार-विमर्श नहीं कर सकते थे। उन्होंने अपने को कृष्ण और अपने भक्तों के हवाले कर दिया था।

डाक्टर अपने कार्य में बाधा नहीं देखना चाहता था। उसने बताया कि रीढ़ की हड्डी का टैप क्यों जरूरी था, लेकिन वह विचार-विमर्श या अनुमति माँगने के लिए तैयार नहीं था। जिस समय डाक्टर ने रीढ़ की हड्डी को टैप करने का प्रयोग किया, कमरे से हर एक को चला जाना पड़ा, कीर्तनानन्द के सिवाय जो वहाँ रुकने पर अड़ा रहा। न तो प्रभुपाद ने, जो बहुत कमजोर थे, और न उनके शिष्यों ने, जो नहीं जानते थे कि प्रभुपाद की ओर से क्या किया जाय, डाक्टर का विरोध किया। जब डाक्टर ने एक बहुत भयावह सूई, जैसी कि शिष्यों ने पहले कभी नहीं देखी थी, तैयार की, तो वे प्रभुपाद के कमरे से पंक्तिबद्ध रूप में बाहर हो गए।

उन्हें जब फिर कमरे में आने की अनुमति हुई तो एक शिष्य ने सावधानी से पूछा, " स्वामीजी, क्या आपको कष्ट हुआ ?” श्रील प्रभुपाद, जिनका सुनहरी त्वचा वाला शरीर अस्पताल के सफेद कपड़ों से ढँका था और जो सफेद चादरों के बीच लेटे थे, धीरे से करवट लेकर बोले, "हम सहिष्णु हैं । "

रूपानुग: जब स्वामीजी पहली बार अस्पताल में दाखिल हुए तो मुझे बहुत दुख हुआ । मैं नहीं समझ रहा था कि मुझे क्या करना चाहिए । इस तरह की आपात स्थिति का मुझे विशेष अनुभव नहीं था । मैं निश्चय नहीं कर सका कि स्वामीजी की क्या सेवा करूँ। यह भयप्रद अनुभव था ।

स्वामीजी का जीवन खतरे में था, पर उनके शिष्य नहीं जानते थे कि उन्हें बचाने के लिए क्या किया जाय। वे बिस्तर में पड़े थे, मानों उनकी कृपा पर हों, किन्तु अस्पताल के लोग उन्हें अपनी सम्पत्ति समझते थे-दिल की बीमारी से ग्रस्त एक वृद्ध व्यक्ति, उनकी खोज-बीन का एक विषय । और स्वामीजी के शिष्यों के लिए मि. प्राइस और उनके गुट से निबटने की तुलना में यह सौ गुना अधिक कठिन हो रहा था । वह विषय केवल धन के साथ नहीं वरन् स्वामीजी के जीवन के साथ खतरा मोल लेना था। क्या वे 'ई. ई. जी.' की अनुमति देंगे ? 'ई. ई. जी.' क्या होती है ? क्या आपरेशन आवश्यक था ? आपरेशन ! किन्तु स्वामीजी ने तो कहा था कि उन्हें कभी अस्पताल भी न ले जाया जाय। "मेरी मालिश करो,” उन्होंने केवल यही कहा था, और "हरे कृष्ण जपो । ”

जब श्रील प्रभुपाद ने कहा कि भारत में उपलब्ध आयुर्वेदिक उपचार उन्हें अधिक पसंद था, तो कुछ भक्तों ने भारत से डाक्टर बुलाने का सुझाव दिया । व्यय पर विचार करने के बाद स्वामीजी ने पहले एक पत्र लिखने का निर्णय किया। बैठने या लिखने में असमर्थ होने के कारण उन्होंने श्री कृष्णपंडित को धीरे-धीरे बोल कर एक पत्र लिखवाया। श्री कृष्णपंडित ने प्रभुपाद को अपने दिल्ली के मंदिर में कई वर्ष रहने का स्थान दिया था । सत्स्वरूप ने पत्र पढ़ कर प्रभुपाद को सुनाया और अस्पताल के उनके कमरे में ही उसे टाइप किया।

मैं यह पत्र अस्पताल से लिख रहा हूँ। अचानक मुझे सिर दर्द और दिल की धड़कन की बीमारी हो गई है। जब मैं अपनी छाती पर मालिश करता हूँ तो मुझे बाएं हाथ में कुछ सनसनी मालूम होती है और जब मैं बाएं हाथ मालिश करता हूँ तो मुझे छाती में सनसनी अनुभव होती है । मेरा बायां हाथ अब अपने आप काम नहीं कर सकता। इसलिए मेरा आप से अनुरोध है कि यदि मथुरा में कोई योग्य आयुर्वेद चिकित्सक हो जो मुझे ओषधि दे सकता हो तो आप उसे खरीद कर हवाई डाक से हमारे मंदिर के पते पर भेज दें: इस्कान, २६ सेकंड एवन्यू, न्यू यार्क, एन वाई. मुख्य लक्षण यह है कि मुझे गहरा सिर-दर्द होता है। और हर दस-पन्द्रह मिनट पर बाएं हाथ में कम्पन होता रहता है। मुझे भय है कि यह लकवा तो नहीं है। यहाँ मेरे लड़के मेरी पूरी सेवा कर रहे हैं, सेवा की कमी नहीं है। फिर भी यह शरीर नश्वर है। मैं यहाँ अपने गुरु महाराज के उद्देश्य को पूरा करने आया था, लेकिन मेरा दिल धोखा दे रहा है । निस्संदेह, मुझे माया का डर नहीं है। मैं जानता माया मेरा स्पर्श नहीं कर सकती। तब भी, यदि मैं इस दशा में मर जाता हूँ तो मेरा उद्देश्य अधूरा रह जायगा । इसलिए कृपा करके महाप्रभु चैतन्य और वृन्दावन बिहारी कृष्ण से प्रार्थना कीजिए कि वे इस बार मुझे बचा लें; मेरा उद्देश्य अभी पूरा नहीं हुआ है। मैं कुछ दिन और जीना चाहता हूँ। लड़के किसी अनुभवी आयुर्वेद चिकित्सक को बुलाना चाहते हैं जो इस तरह के रोगों का उपचार करता हो, लेकिन मैने अनुमति नहीं दी है। किन्तु यदि आवश्यक हो, यदि आप कोई विशेषज्ञ चिकित्सक दे सकें जो यहाँ आ सके, तो हम उन के यहाँ आने के लिए आवश्यक धन भेज देंगे या हवाई टिकट की व्यवस्था कर देंगे। आप ढाका शक्ति औषधालय के प्रभारी से परामर्श कर सकते हैं।

अंत में आपको बता दूँ कि मेरी रुझान आयुर्वेदिक उपचार की ओर है। आप वृन्दावन के आयुर्वेदिक चिकित्सक से विचार-विमर्श कर सकते हैं जो गौड़ीय वैष्णव हैं। वे मुझे अच्छी तरह जानते हैं। वे मेरी पुस्तकों के विक्रेता भी हैं।

यदि संभव हो तो दो चीजे करनी हैं; मुझे ठीक औषधि भेजिए और उसके सेवन की विधि। यह बहुत अच्छा रहेगा। यदि मुझे वापस आना हो तो मैं वह भी कर सकता हूँ। कृपया यथाशीघ्र अंग्रेजी में उत्तर भेजिए, क्योंकि मेरे शिष्य हिन्दी नहीं पढ़ सकते। जब तक मैं बिस्तर में पड़ा हूँ, मेरे लिए पत्र पढ़ना संभव नहीं है। आप इस पत्र को बहुत आवश्यक समझें। योग्य चिकित्सकों से विचार-विमर्श करके मुझे लिखें कि मुझे क्या करना है। मथुरा में निस्सन्देह बहुत-से अच्छे चिकित्सक हैं और बहुत-से नीमहकीम भी हैं। नीमहकीमों से दूर रहने का प्रयास करें। मैं भारत तुरन्त लौट आता, लेकिन डाक्टर कहते हैं कि इसमें खतरा है। यदि आवश्यक हुआ तो यात्रा की थकान सहन करने की शक्ति प्राप्त होते ही मैं लौट आऊँगा ।

मैं अपने लक्षणों का फिर से उल्लेख करता हूँ जिससे आप आवश्यक सावधानी बरत सकें। अचानक चार दिन पहले मेरे दिल और पेट के बीच में कुछ धड़कन होने लगी। मैं इतना निःशक्त हो गया कि मुझे बेहोशी-सी होने लगी। तब मैने एक डाक्टर से सलाह ली। वह आया और उसने कुछ दवा दी, लेकिन उससे कोई लाभ नहीं हुआ। तब मेरे शिष्य मुझे तुरन्त अस्पताल ले आए जहाँ वे लगभग चार सौ रुपए प्रतिदिन खर्च कर रहे हैं। यहाँ उपेक्षा का कोई प्रश्न नहीं है। सभी वैज्ञानिक उपचार हो रहा है। पर मैं सोचता हूँ कि आयुर्वेदिक उपचार ठीक होगा। इसलिए मेरी प्रार्थना है कि आप तुरन्त आवश्यक कदम उठाएँ और मुझे उत्तर दें।

विश्वास है कि इस पत्र से आपको सही स्थिति का ज्ञान हो जायगा । इसे पढ़ते समय आप किसी ऐसे मित्र से सहायता लें जो अंग्रेजी अच्छी तरह जानता हो जिससे वह इसे सही-सही पढ़ सके और ठीक जवाब लिख सके। बंगाली या हिन्दी में पत्र-व्यवहार का यहाँ मौका नहीं है।

कृष्ण की कृपा से, अस्पताल में दूसरे दिन श्रील प्रभुपाद की हालत में कुछ सुधार दिखाई देने लगा। उनका दिल का दर्द अब भी बना था, उनका चेहरा उदास था, उस पर कोई हँसी नहीं थी, परन्तु उनमें कुछ अधिक शक्ति आ गई थी। कनिष्ठ डाक्टर, नर्सों और डाक्टर अपने समय पर आते रहे और निर्वैयक्तिक ढंग से उनका उपचार करते रहे। एक डाक्टर ने प्रभुपाद के कार्य के बारे में कुछ रुचि दिखाई, और प्रभुपाद की प्रार्थना पर कीर्तनानन्द ने टेप किया हुआ प्रभुपाद का एक भाषण उसे सुनवाया । उसने नम्रतापूर्वक सुना और तब कहा, "इससे घंटी नहीं बजती।” (कोई असर नहीं होता । )

डाक्टर ने कहा कि वह कुछ और परीक्षण करना चाहता था और यदि सब कुछ ठीक रहा, तो स्वामीजी कुछ सप्ताह के बाद अस्पताल से जा सकेंगे। श्रील प्रभुपाद ने कृष्ण के बारे में बताने की इच्छा से डाक्टर से बात करने की कोशिश की । यदुरानी अपने चित्रों में से दो चित्र अस्पताल के कमरे में लाई थी — एक राधा-कृष्ण का था और दूसरा हिरण्यकशिपु राक्षस को चीरते हुए उग्र अर्ध- सिंह, अर्ध- मानव रूप में भगवान् नृसिंह का था । बहुत धीमी आवाज में बोलते हुए प्रभुपाद ने कहा कि ये दो चित्र बताते हैं कि भगवान् के कितने रूप हो सकते हैं: "एक में वे प्रेम का आदान-प्रदान कर रहे हैं, दूसरे में हम देखते हैं कि वही कृष्ण भगवान् किस प्रकार क्रोध प्रकट करते हैं।"

डाक्टर विनम्रतापूर्वक बोला कि उसका अपना निजी दर्शन था और स्वामीजी को चाहिए कि वे दुर्बलता की ऐसी दशा में प्रचार कार्य न करें; उन्हें आराम करना चाहिए। उनके शिष्यों से यह कहते हुए कि वे अपने गुरु को बात न करने दें, डाक्टर अपने राउंड पर आगे निकल गया ।

श्रील प्रभुपाद की दशा में थोड़ा सुधार हुआ तो उन्होंने अस्पताल के लोगों के हाथों में रहने की असहमति प्रकट की। उन्होंने कहा कि वे लोग कुछ कर नहीं पा रहे थे। सब कुछ कृष्ण के अधिकार में था : “यदि कृष्ण आपको मारना चाहते हैं तो आपको कोई भी नहीं बचा सकता । किन्तु यदि कृष्ण आपको बचाना चाहते हैं तो कोई भी मार नहीं सकता । "

दामोदर : मैं वहाँ अस्पताल में था, जब एक डाक्टर प्रभुपाद की प्रतिक्रिया जाँचने के लिए आया । रबर की एक छोटी हथौड़ी से उनके घुटने पर ठोंक-ठाक हुई और इसी तरह की और चीजें। उस आदमी के इस तरह आने और प्रभुपाद के शरीर पर ठोंक-ठाक करने से उन्हें चिढ़ हुई । वे स्वयं रोग का निदान करने और उपचार बताने में समर्थ थे, और उन्हें ऐसे लोगों से चिढ़ होती थी, जो स्पष्टत: नहीं जानते थे कि वे क्या कर रहे हैं, फिर भी आते थे और स्वास्थ्य लाभ की प्रकिया में हस्तक्षेप करते थे ।

अच्युतानन्द: नर्स हर बार दरवाजा जोर से बंद करती थी और हर बार जब दरवाजा जोर से बंद होता, तब स्वामीजी चौंक जाते थे। वे कहते, “ उससे कहो कि दरवाजा जोर से बंद न करे ।" वह कहती “बहुत अच्छा ।' और तब दरवाजे को फिर जोर से बंद कर देती ।

श्रील प्रभुपाद अपनी शैय्या पर बैठने लगे और मंदिर का प्रसाद ग्रहण करने लगे। उसके साथ वे अस्पताल के भोजन से निरामिष वस्तुएँ भी लेने लगे। वे प्रार्थना करते और अस्पताल के भोजन को अपने गुरु महाराज के चित्र को अर्पण करते। उनके शिष्य उनके चरणों में बैठ कर देखा करते, जब प्रभुपाद गाजर, मटर और मसले हुए आलू को दाएं हाथ से मिलाते । वे अपने भोजन में से कुछ अंश हमेशा अपने शिष्यों में बाँट देते थे ।

जदुरानी : हम उनके लिए तरह-तरह के फल लाते थे। हम उनसे कहते कि हम उनके लिए सेब लाए हैं, लेकिन वे इतने थके होते कि केवल "ओह ।” कहते, और कोई रुचि न दिखाते। हम कहते कि हम संतरे लाए हैं, पर फिर वही “ ओह ।” उनके मुख से थकान भरे इतने 'ओह' निकलते जैसे किसी चीज में उनकी अभिरुचि नहीं रह गई हो। अंत में मैने कहा, " हम आपके लिए तरबूज़ लाए हैं।” और तुरन्त उनके चेहरे पर चमक आ गई, "ओहहह !"

चार-चार घंटे की पारी लगा कर दो भक्त प्रभुपाद के पास हमेशा रहते थे। यद्यपि वे जागते रहते पर दीर्घ अंतराल तक मौन बने रहते । किन्तु उनकी मालिश बराबर चलती रहती, सिवाय उस समय के जब वे निद्रा में होते; धीरे-धीरे उनके बाएं अंग का लकवा जाता रहा ।

एक बार श्रील प्रभुपाद पलंग पर बैठे हुए थे। एक लड़का उनकी बाई टांग मल रहा था और दूसरा उनकी गर्दन के पिछले भाग को नरमी से थपथपा रहा था। प्रभुपाद बोले कि यदि वे बीमार न होते तो इस तरह की मालिश और थपथपाने को कुछ अधिक आत्मीय समझते ।

दामोदर : मैं एक हाथ से स्वामीजी की कनपटी मल रहा था। मेरा अँगूठा उनकी एक कनपटी पर था और अन्य अंगुलियाँ दूसरी कनपटी पर । जब मैं मालिश कर रहा था, स्वामीजी कह रहे थे " और कड़ाई से । और कड़ाई से ।" और मैं और कड़ाई से दबाता था । मैं सोचता था कि मुझे इतनी कड़ाई से वे जोर देते रहे, नहीं दबाना चाहिए, क्योंकि स्वामीजी बीमार थे। लेकिन “ और कड़ाई से । और कड़ाई से । "

पुरुषोत्तम : मैं स्वामीजी का सिर दबा रहा था और मैं श्रीकृष्ण - चैतन्य मंत्र गाने लगा। जब मैं गाने लगा तो स्वामीजी के चेहरे पर बहुत सुंदर मुसकान बिखर गई । यद्यपि मैंने जरा-सा ही गाया, प्रभुपाद को उसे सुनने में आनन्द आया। उन्हें लग रहा था कि मैं उनकी सेवा श्रीकृष्ण चैतन्य गाकर कर रहा हूँ ।

जब प्रभुपाद में बल आ गया, तब उनके शिष्यों ने प्रश्न पूछना आरंभ कर दिया। पुरुषोत्तम ने पूछा, “स्वामीजी, जब शास्त्रों में कृष्ण का कमलचरण कह कर वर्णन करते हैं तो इसका मतलब क्या ? – कमलचरण । "

तब प्रभुपाद ने एक श्लोक गाया :

समाश्रिता ये पद - पल्लव- प्लवम्

महत्-पदं पुण्य-यशो मुरारे:

भवांबुधिर वत्स - पदं परं पदम्

पदं पदं यत् विपदां न तेषाम्

तब वहाँ उपस्थित तीनों भक्तों को उन्होंने हर पंक्ति को, उनका अनुकरण करते हुए, बार-बार दुहराने को कहा, जब तक कि उन्हें उनकी लय और शब्द याद न हो जायँ । “ श्रीमद्भागवत के इस श्लोक में" प्रभुपाद ने अपने पलंग पर बैठे हुए बताया, मृत्यु के समय की तुलना एक महासागर के पार करने से की गई है। यह बहुत डरावना है। कोई नहीं जानता कि उसे दूसरे जन्म में कहाँ जाना पड़ेगा। और इस पार्थिव संसार में हर कदम पर खतरा है। पर जिसने भगवान् कृष्ण के कमलवत् चरणों में शरण ले ली है उसके लिए जन्म-मरण का यह विशाल आपदा- संकुल महासागर सिमट कर कीचड़ में बनाए गए एक बछड़े के खुर के निशान से अधिक चौड़ा नहीं रह जाता। खतरा है, लेकिन भक्त उसकी चिन्ता नहीं करता । यह उसी तरह है जैसे एक व्यक्ति यदि किसी वाहन में यात्रा कर रहा है तो मार्ग में आने वाला छोटा गड्ढा उसके लिए नगण्य होता है। तो क्या तुम समझ गए कि 'कमलचरण' का क्या अर्थ होता है ?" यह स्पष्ट था ।

तब पुरुषोत्तम ने एक अन्य प्रश्न पूछा : “ लोग यह क्यों कहते हैं कि भगवान् का कोई नाम नहीं है ?" श्रील प्रभुपाद ने उत्तर में यह प्रश्न किया कि चूँकि भगवान् सब कुछ हैं, इसलिए उनका नाम क्यों नहीं होना चाहिए ? वास्तव में, उन्होंने कहा, सभी नाम कृष्ण का वर्णन करते हैं। प्रभुपाद ने पुरुषोतम से पूछा कि दीक्षा के पहले उसका नाम क्या था ।

" पाल, ” उसने कहा ।

" पाल का क्या अर्थ है ?" प्रभुपाद ने पूछा ।

" इसका अर्थ है " छोटा । "

“हाँ,” प्रभुपाद ने कहा, “ वे कृष्ण हैं। वे छोटों में सबसे छोटे हैं।” सत्स्वरूप ने तब अपना नाम लिया, स्टीफन, जिसका अर्थ है, “मुकुट ।" “हाँ,” प्रभुपाद ने उत्तर दिया, “कृष्ण राजा हैं। "

लेकिन इस तरह की चर्चाएँ विरल थीं। सामान्यतः वहाँ शान्ति रहती थी । प्रभुपाद आराम करते थे ओर देखभाल करने वाले भक्त उनकी दोनों ओर कुर्सियों पर बैठ कर पढ़ते थे या माला फेरते हुए धीरे-धीरे मंत्र जपते थे । एक दिन तीसरे पहर जब मैनहट्टन का क्षितिज गोधूलि में रंगा था, प्रभुपाद, एक घंटे तक मौन रहने के बाद, अपने पलंग पर बैठ गए और बोले, "मैं कृष्ण को नहीं जानता, किन्तु मैं अपने गुरु महाराज को जानता हूँ।”

एक दिन ब्रह्मानंद न्यू यार्क मंदिर की वित्तीय दशा का प्रभुपाद को विस्तृत लेखा-जोखा दे रहा था । विस्तृत विवरण के बीच में ब्रह्मानंद सहसा रुक गया, प्रभुपाद की ओर देखा और बोला, "क्या आप चाहते हैं कि मैं पूरा विवरण दूँ? मैने सोचा कि आप जानना चाहेंगे। मेरा तात्पर्य है कि आपको जानना चाहिए।” प्रभुपाद ने उत्तर दिया कि यदि बिना उन्हें बताए ब्रह्मानंद हिसाब ठीक-ठाक रख सके, तो अच्छा है।

एक दिन हठ योग के विख्यात गुरु, स्वामी सच्चिदानन्द, सहसा प्रभुपाद के कमरे में अपनी लम्बी सफेद दाढ़ी के बीच मुसकराते हुए प्रविष्ट हुए । वे केसरिया रंग का रेशमी कुर्ता और योगी की लुंगी पहने हुए थे और अपने साथ एक युवा अमरीकी शिष्य लिए थे। श्रील प्रभुपाद इस सुखद आश्चर्य पर मुसकराते हुए अपने पलंग पर बैठ गए। वे पहले कभी नहीं मिले थे। श्रील प्रभुपाद ने स्वामी सच्चिदानन्द को अपने पलंग के पास आसन दिया और जदुरानी को खड़ी होकर, अपना आसन स्वामी सच्चिदानन्द के शिष्य को देने को कहा।

प्रभुपाद और स्वामी सच्चिदानन्द की बात हिन्दी में हुई, और कमरे में अन्य कोई उनके वार्तालाप को नहीं समझ सका । लेकिन एक बार प्रभुपाद ने अपना हाथ ऊपर उठाया और पहले उपेक्षापूर्वक और तब निराशापूर्वक उसे देखा । यद्यपि वे हिन्दी में बोल रहे थे, लेकिन उनके संकेत और व्यंग्यपूर्ण चेहरे से उनका भाव स्पष्ट था: यह शरीर सांसारिक तत्वों से बना है, इसलिए इसके कुशल रहने की आशा नहीं की जा सकती ।

प्रभुपाद ने अच्युतानन्द से श्रीमद्भागवत के एक विशेष तात्पर्य को पढ़ने को कहा।

यदि पर्याप्त दूध, पर्याप्त अनाज, पर्याप्त फल, पर्याप्त कपास, पर्याप्त रेशम और पर्याप्त रत्न हैं तो लोग यंत्र और उपकरणों के रूप में आर्थिक विकास की आवश्यकता क्यों अनुभव करते हैं ? क्या मशीनें और उपकरण मनुष्य और पशुओं को स्फूर्ति और शक्ति दे सकते हैं? क्या मशीनें अनाज, फल, दूध या आभूषण या रेशम उत्पन्न कर सकती हैं ? क्या आभूषण और रेशम तथा घी और अनाज से तैयार किए गए विविध प्रकार के खाद्य व्यंजन, और दूध या फल मनुष्य के शुद्ध सुखमय और स्वस्थ जीवन के लिए पर्याप्त नहीं हैं ? तो फिर सिनेमा, कार, रेडियो, सामिष भोजन और होटेल का कृत्रिम विलासमय जीवन क्यों हो ? क्या इस सभ्यता ने कुत्ते की मानसिकता से अच्छा कोई नतीजा पैदा किया है जिसके वशीभूत होकर हम व्यक्तिगत और राष्ट्रीय दोनों स्तरों पर परस्पर लड़ते रहते हैं ? क्या इस सभ्यता ने, हजारों लोगों को नरकतुल्य फैक्टरियों और व्यक्तिविशेष की सनक पर युद्धभूमि में भेज कर समानता और भ्रातृत्व के उद्देश्य को अग्रसर किया है ?

जब प्रभुपाद ने उस रेकर्ड को बजाना चाहा जिसे उन्होंने और उनके शिष्यों ने तैयार किया था, तो स्वामी सच्चिदानन्द विनम्रतापूर्वक राजी हो गए। किन्तु जब प्रभुपाद ने रेकर्ड की दूसरी तरफ बजानी चाही, तो स्वामी सच्चिदानन्द ने कहा कि उन्हें जाना है। उन्होंने प्रभुपाद को कुछ फल भेंट किए, और प्रभुपाद ने उन्हें स्वीकार करने के बाद अपने शिष्यों से कहा, "इन्हें बाँट दो; और बदले में स्वामीजी को अपने फल दो ।"

जब स्वामी सच्चिदानन्द जाने को खड़े हुए तो श्रील प्रभुपाद काँपते हुए सहसा अपने बिस्तर से उतर खड़े हो गए। "नहीं, नहीं, नहीं,” स्वामी सच्चिदानन्द ने प्रतिवाद किया, “अपने को कष्ट न दें।" और तब वे चले गए। अच्युतानन्द उन्हें पहुँचाने गया । श्रील प्रभुपाद बिस्तर में लेट गए।

" क्या वे स्वामी हैं ?” जदुरानी ने पूछा ।

" क्यों नहीं ? " प्रभुपाद ने उत्तर दिया । किन्तु कुछ क्षणों के बाद उन्होंने जोड़ा, “स्वामीजी का अर्थ है वह जो कृष्ण को जानता हो ।” इसके बारे में आगे बात नहीं हुई, लेकिन इस अप्रत्याशित आगमन से प्रभुपाद प्रसन्न थे ।

श्रील प्रभुपाद के युवा शिष्यों के, जो मस्तक पर तिलक लगाए थे और तरबूज़, विशेष भोजन, फूल और कृष्ण के चित्र लिए होते थे, लगातार आने-जाने से अस्पताल के स्टाफ में एक विशेष उत्सुकता पैदा हो गई। कभी तो अस्पताल के कार्यकर्ता उनसे प्रश्न पूछते और कभी भक्त उनसे हरे कृष्ण आन्दोलन के बारे में बातें करते। एक बार एक नर्स प्रभुपाद के कमरे में आई और पूछा, “भारत की वर्ण-व्यवस्था में सब से ऊँचे वर्ण का क्या नाम है ? उन्हें क्या कहते हैं ?"

" कृष्ण - चेतन" प्रभुपाद ने दृढ़तापूर्वक उत्तर दिया। उन्होंने एक शिष्य से नर्स को प्रसाद देने को कहा।

५ जून को प्रभुपाद ने सैन फ्रांसिस्को से एक प्रेम भरा पत्र पाया जिस पर उनके सभी शिष्यों के हस्ताक्षर थे। यह पढ़ कर कि वे किस तरह प्रभुपाद उनके नीरोग होने के लिए रात-भर कीर्तन और प्रार्थना करते रहे, ने एक छोटा-सा पत्र लिखवाया ।

मेरे प्रिय लड़कों और लड़कियों,

मैं तुम लोगों का कितना कृतज्ञ हूँ कि तुम सब मेरे जीवन की रक्षा के लिए कृष्ण से प्रार्थना करते रहे । तुम्हारी सच्ची और प्रबल प्रार्थना के कारण, कृष्ण किन्तु ने मेरे जीवन की रक्षा की है। मंगल को मेरी मृत्यु निश्चय ही हो जाती, चूँकि तुम सब ने सच्चे मन से प्रार्थना की, इसलिए मैं बच गया। अब मैं धीरे-धीरे अच्छा हो रहा हूँ और अपनी पहली हालत में पहुँच रहा हूँ। अब मैं तुम सब से फिर मिलने और तुम लोगों के साथ हरे कृष्ण का कीर्तन करने की आशा कर सकता हूँ। मुझे तुम्हारी प्रगति के समाचार से बड़ी प्रसन्नता हुई है और आशा है कि कृष्णभावनामृत के बोध में तुम्हें कोई कठिनाई नहीं होगी। मेरे शुभाशीष सदा तुम्हारे साथ हैं और पूरे विश्वास के साथ तुम सब जप करते रहो — हरे कृष्ण, हरे कृष्ण, कृष्ण कृष्ण, हरे हरे / हरे राम, हरे राम, राम राम, हरे हरे ।

दूसरे दिन मुकुंद को भेजा हुआ एक टेप मिला : जिसमें सैन फ्रांसिस्को के भक्तों द्वारा 'श्री राम, जय राम, जय जय राम' और अन्य भजन गाकर रेकर्ड किए गए थे। प्रभुपाद ने एक दूसरा पत्र लिखवाया जिसमें उन्होंने कहा कि ज्योंही यात्रा करने का बल उनमें आ जायगा, वे फिर सैन फ्रांसिस्को पहुँचेंगे ।

" इस बीच ” उन्होंने लिखा "मुझे यह जान कर प्रसन्नता होगी कि तुम लोग रथ-यात्रा उत्सव के लिए क्या प्रबन्ध कर रहे हो । विशाल जुलूस निकालो और संयुक्त राज्य के लिए इसे एक अनुपम नई चीज बना दो ।"

एक रात स्वामीजी के कुछ शिष्य २६ सेकंड एवन्यू के स्टोरफ्रंट में एकत्र हुए। रंग फीका पड़े हुए गलीचे पर गोलाई में बैठ कर उन लोगों ने स्वामीजी की बीमारी के अर्थ के बारे में विचार-विनिमय किया। उन्होंने कहा था कि जब उन्हें दिल का दौरा पड़ा था तो उसका तात्पर्य था उनकी मृत्यु; इसलिए उन्होंने ऊँची आवाज में पुकारा था, 'हरे कृष्ण,' यह सोच कर कि उनकी मृत्यु का क्षण आ गया था । कीर्तनानन्द को याद आया कि स्वामीजी ने एक बार उससे कहा था कि जब वे जहाज से अमेरिका आ रहे थे तो कप्तान की पत्नी ने उनका हाथ देख कर बताया कि यदि वे अपने जीवन के इकहत्तरवें वर्ष को पार कर गये, तो वे सौ वर्ष तक जीवित रहेंगे।

मधुसूदन ने पूछा कि एक शुद्ध भक्त मृत्यु के अधीन कैसे हो सकता है ? कीर्तनानन्द ने उत्तर दिया कि यह सोचना निर्वैयक्तिक है कि, क्योंकि स्वामीजी एक शुद्ध भक्त हैं, अत: उन्हें कुछ नहीं हो सकता और उन्हें इस बारे में कोई चिन्ता नहीं करनी चाहिए । निस्सन्देह, एक शुद्ध भक्त का बाह्य दुख या उसकी मृत्यु एक सामान्य व्यक्ति की भान्ति नहीं होते । स्वामीजी ने एक बिल्ली का उदाहरण दिया था । कभी-कभी वह अपने बच्चों को अपने मुँह में उठाकर ले जाती है और कभी-कभी उन्हीं जबड़ों में वह एक चूहे को पकड़ लेती है। चूहा उन जबड़ों में मृत्यु का रूप अनुभव करता है, किन्तु बच्चा उनमें सुरक्षा और प्यार का अनुभव करता है। अतः भले ही स्वामीजी की मृत्यु का बुलावा एक सामान्य व्यक्ति के बुलावे की तरह लगता हो, किन्तु स्वामीजी के लिए उसमें कोई भय या खतरा नहीं था ।

जब शिष्य अपने अनुभवों के बारे में विचार कर रहे थे, तो उनका संदेह दूर होने लगा कि उनके गुरु महाराज के स्वास्थ्य में देखते-देखते यह गिरावट क्यों आ गई थी । सत्स्वरूप ने उस पत्र की चर्चा की जो उसने स्वामीजी की ओर से अस्पताल में टाइप किया था । पत्र में स्वामीजी ने कहा था कि वे माया से नहीं डरते थे और माया उन्हें छू भी नहीं सकती थी । लेकिन उन्होंने यह भी उल्लेख किया था कि उनके दिल ने उन्हें धोखा दिया था। ब्रह्मानंद ने बताया कि स्वामीजी ने एक बार उससे कहा था कि एक गुरु को अपने शिष्यों के पापों का परिणाम भुगतना पड़ सकता है, क्योंकि उसे शिष्यों का कर्म स्वीकार करना पड़ता है। स्वामीजी के अब लगभग पचास शिष्य थे, तो हो सकता है कि उन के हार्ट अटैक का कारण वही रहा हो। वे बातें कर रहे थे कि यह जरूरी है कि उन्हें बहुत कठोरता से रहना चाहिए और कोई पाप नहीं करने चाहिए जो कि उनके गुरु महाराज के लिए भार बनें।

कीर्तनानन्द ने कहा कि स्वामीजी की बीमारी का दूसरा कारण यह था कि कृष्ण ऐसा चाहते ही थे ताकि स्वामीजी के शिष्य उनके बहुत निकट पहुँच कर उनकी घनिष्ठ सेवा में अपने को लगा सकें। एक पवित्र भक्त की सेवा करने से कृष्ण की कृपा प्राप्त होती है और कृष्ण उन्हें अवसर दे रहे थे कि स्वामीजी की मालिश और घनिष्ठ सेवा से वे पवित्र बन जायँ ।

सत्स्वरूप को याद आया कि स्वामीजी ने सैन फ्रांसिस्को के शिष्यों को लिखाए गए एक पत्र में कहा था कि उन्हें मर जाना चाहिए था, लेकिन उनकी प्रार्थनाओं ने उन्हें बचा लिया था। स्वामीजी ने कीर्तनानन्द से कहा था कि कृष्ण ने भक्तों की प्रार्थनाएँ सुन ली थी और उनकी अभिलाषाएँ पूरी की थीं। कृष्ण स्वामीजी को पश्चिम में कृष्णभावनामृत के प्रसार में लगे रहने के लिए स्वीकृति दे रहे थे। स्वामीजी अपने लिए नहीं वरन् अपने उद्देश्य की पूर्ति के लिए जीवित रहना चाहते थे ।

कीर्तनानन्द से इस बात में सभी सहमत थे कि यह एक प्रकार का निराकारवाद होगा यदि वे यह सोचें कि चूँकि स्वामीजी एक पवित्र भक्त थे इसलिए उन्हें उनकी प्रेमपूर्ण सेवा-शुश्रूषा की जरूरत नहीं थी । स्वामीजी के अच्छे हो जाने पर भी उन्हें उनकी सेवा करते रहना चाहिए । स्वामीजी ने अपने को शिष्यों के संरक्षण में रख दिया था और उन्हें भी विनिमय- पूर्वक व्यवहार करना था । स्वामीजी ने कहा था कि वे उनके पिता - तुल्य थे, इसलिए उन्हें स्वामीजी को नगाड़ा देर तक और जोर से नहीं बजाने देना चाहिए, घंटों पार्क में गाने नहीं देना चाहिए, बहुत रात तक बातें करते जागने नहीं देना चाहिए या उन्हें कोई ऐसा काम नहीं करने देना चाहिए जिससे उनके स्वास्थ्य को खतरा हो ।

राय राम ने कहा कि स्वामीजी ने उसे वेस्ट कोस्ट के भक्तों से प्राप्त कई पत्रों का उत्तर लिखने और समझा देने को कहा था कि अब वे शायद सार्वजनिक भाषणों का भार कभी नहीं बर्दाश्त कर सकेंगे; संकीर्तन-आन्दोलन का दायित्व अब उनके कंधों पर था । राय राम ने भक्तों को समझा कर लिख दिया था कि यह कृष्ण की कृपा थी कि स्वामीजी अब भी उनके साथ थे और इस योग्य थे कि जब कभी मामला बिगड़ जाए वे उनका मार्गदर्शन कर सकें।

वार्तालाप इस ओर मुड़ा कि आवश्यक था कि वे स्वामीजी के आदेशों को समझें और उनके पक्के भक्त बनें। हर एक सहमत था कि वे स्वामीजी की पुस्तकें अधिक सावधानी से पढ़ कर और उनके आदेशों के अनुसार हमेशा आचरण करके, ऐसा कर सकते थे।

जब उन लोगों ने स्वामीजी को अपने दार्शनिक विचार-विनिमयों के बारे में बताया तो उन्होंने संक्षेप में कहा: “कृष्ण ने तुम लोगों की सभी सच्ची प्रार्थनाएँ सुनी और उन्होंने सोचा, “ठीक है, उसे जीवित रहने दो और मनमाना करने दो — उसके लिए इतने अधिक भक्त प्रार्थना कर रहे हैं !"

***

प्रभुपाद की बीमारी से पहले भक्तों ने ४ जून रविवार को टाम्किन्स स्क्वायर पार्क में एक बृहत् समारोह की योजना बनाई थी। पार्क के अधिकारियों ने उन्हें लाउड स्पीकर व्यवस्था और बैंड-कक्ष में रंगमंच के इस्तेमाल की सुविधा दी थी। मि. कालमैन ने, जो हरे कृष्ण रेकार्ड के निर्माता थे, भक्तों को विज्ञापन देने के लिए प्रोत्साहित किया था और स्वयं टी.वी. स्टेशनों से सम्पर्क किया था। भक्तों की ओर से हरे कृष्ण मंत्र के चिह्न के साथ विज्ञापन दिए जाने लगे थे जिससे हर एक, यहाँ तक कि टी.वी. देखने वाले भी, उस मंत्र का जप कर सकें।

यद्यपि अब श्रील प्रभुपाद समारोह में जाने में असमर्थ थे फिर भी उन्होंने कहा कि समारोह होना चाहिए; वे एक विशेष भाषण तैयार करेंगे जिसे कीर्तनानन्द को पढ़ कर जन समूह को सुनाना था। अस्पताल में बिस्तर पर पड़े हुए, उन्होंने एक छोटा-सा भाषण लिखवाया : “अमरीकी युवकों को सम्बोधन,” ए. सी. भक्तिवेदान्त स्वामी द्वारा ।

४ जून को टाम्किन्स स्क्वायर में बैंड कक्ष के इर्द-गिर्द, कई सौ लोग इकठ्ठे हो गए, जबकि भक्त हारमोनियम, करताल, मृदंग बजाने में और लाउडस्पीकर पर से हरे कृष्ण कीर्तन में लग गए। भीड़ में से बहुत से लोग अपने वाद्य यंत्र बजाते हुए कीर्तन में शामिल हो गए और कुछ तो रंगमंच पर चढ़ कर भक्तों का साथ देने लगे। कीर्तनानन्द माइक्रोफोन के सामने खड़ा हुआ और बोला कि यद्यपि भक्तिवेदान्त स्वामी बेथ इसरायल अस्पताल में बीमार पड़े हैं, तो भी उन्होंने प्रत्येक के लिए एक संदेश भेजा है। लोअर ईस्ट साइड के बहुत से लोग भक्तिवेदान्त स्वामी और उनके हरे कृष्ण कीर्तन से परिचित थे । कीर्तनानन्द पढ़ने लगा तो वे ध्यानपूर्वक सुनने लगे ।

अमेरिका के मेरे प्रिय सुन्दर लड़को और लड़कियो,

मैं तुम्हारे देश में बड़ी आशा और एक महान् मिशन लेकर आया हूँ। मेरे गुरु, ओम् विष्णुपाद परमहंस परिव्राजक आचार्य श्री श्रीमद् भक्तिसिद्धान्त सरस्वती गोस्वामी महाराज ने मुझ से भगवान् श्री चैतन्य महाप्रभु का यह मत पाश्चात्य जगत में फैलाने को कहा था। वह बीजारोपण घटना थी । क्रमशः बीज बढ़ कर फल में परिवर्तित हुआ और मैं पाश्चात्य जगत में आने को तैयार हुआ । मैं नहीं जानता कि अमेरिका की भूमि में मेरे लिए इतना आकर्षण क्यों था । किन्तु मेरे अंतर में विराजमान कृष्ण ने मुझे आदेश दिया कि योरप जाने से अच्छा होगा कि मैं अमेरिका जाऊँ। इस तरह तुम देख सकते हो कि मैं तुम्हारे देश में एक वरिष्ठ अधिकारी के आदेश से आया हूँ। यहाँ पहुँचने के बाद मैने देखा कि कुछ युवाजनों को पथ भ्रष्ट किया जा रहा है, वे भ्रमित और निराश हैं, इसलिए मैने अपने मन में सोचा कि यदि मैं अपने संदेश को अमरीकी युवकों तक पहुँचाऊँ और वे इस आन्दोलन में मेरे साथ सम्मिलित हो जायँ तो यह सारे संसार में फैल जायगा और संसार की सभी समस्याओं का समाधान मिल जायगा । यह समस्या केवल तुम्हारे देश की ही समस्या नहीं है, यह हर देश की समस्या है कि युवाजनों की उपेक्षा हो रही है, यद्यपि हर एक की भावी आशा वे ही हैं। मेरी कितनी अभिलाषा थी कि आज मैं तुम लोगों के साथ होता, किन्तु कृष्ण ने इसे अवरुद्ध कर दिया है, इसलिए मुझे तुम सब क्षमा करना और इस लिखित रूप में मेरी शुभकामनाएँ स्वीकार करना ।

संकीर्तन का यह ढंग — यह नाचना और गाना कितना अच्छा है, क्योंकि यह शुरू से ही हर एक को आध्यात्मिक स्तर पर ले जाता है। हमारे अस्तित्व के कई स्तर हैं; शारीरिक स्तर, मानसिक स्तर, बौद्धिक स्तर और आध्यात्मिक स्तर । जब हम आध्यात्मिक स्तर पर अपने को स्थित कर देते हैं, तो शरीर, मन, बुद्धि और अहं की आवश्यकताओं द्वारा पैदा की गई सारी समस्याएँ हल हो जाती हैं। इसलिए मैं आप सब से प्रार्थना करता हूँ कि आप इस आन्दोलन में पूरे मनोयोग से सम्मिलित हों। इसकी प्रक्रिया अति सरल है। हम हर एक से कहते हैं कि वह आए और हमारे संकीर्तन में सम्मिलित हो, भगवान् कृष्ण द्वारा सिखाए गए जीवन-दर्शन को न्यूनाधिक सुने, थोड़ा प्रसाद ग्रहण करे, और शान्तिपूर्वक, मन को ताजगी से भर कर, अपने घर वापस जाय । यही हमारा मिशन है।

हमारे कुछ प्रतिबंध हैं, व्यवहारतः वे प्रतिबंध नहीं हैं, वरन् कुछ खराब चीजों की जगह अच्छी चीजें हैं। उस दिन मि. एलन बर्क ने टी.वी. के कार्यक्रम में मुझसे पूछा था : “स्वामीजी, आप विवाह का आग्रह क्यों करते हैं?" और मैने उत्तर दिया था, "जब तक किसी को घरेलू जीवन में शान्ति नहीं मिलती तब तक वह जीवन या ज्ञान के किसी अन्य क्षेत्र में प्रगति कैसे कर सकता है। इसलिए शान्ति और सुख दोनों के लिए विवाह आवश्यक है।” तुम सभी सुन्दर, अच्छे, शिक्षित लड़के-लड़कियाँ हो, तुम्हें ब्याह करके सुखी जीवन क्यों नहीं बिताना चाहिए ? यदि तुम शान्त नियमित जीवन बिताते हो, कृष्ण के प्रसाद के अतिरिक्त कुछ नहीं खाते हो, तो तुम्हारे मस्तिष्क की रगों का विकास आध्यात्मिक चेतना और संबोध के लिए ही होगा ।

यदि तुम इन सरल प्रतिबंधों के लिए तैयार नहीं हो, तो भी मैं तुमसे प्रार्थना करता हूँ कि कीर्तन में हमारे साथ सम्मिलित हों। हर एक इसे कर सकता है और इससे धीरे-धीरे सब स्पष्ट हो जायगा, सब समस्याएँ हल हो जायँगी और तुम्हारे जीवन में एक नए अध्याय का आरंभ होगा। इसी सप्ताह में मुझे न्यू जर्सी से एक लड़की का पत्र मिला है जिसे ऐसा ही अनुभव हुआ है। वह लिखती है :

प्रिय स्वामीजी,

" आप मेरा नाम नहीं जानते, लेकिन मैं वह लड़की हूँ जो गत शनिवार को वाशिंगटन स्क्वायर में आपके जुलूस में शामिल हुई थी ।

जब पहले मैने आपकी मंडली देखी तो मुझे लगा कि आप सनकी हैं। या फिर आप सब कोई नशा खाए हैं। आप में से कुछ के साथ बात करने और संकीर्तन सुनने के बाद मुझे अनुभव हुआ कि इन दोनों में से कोई बात सही नहीं है। आप लोग जो कुछ कर रहे हैं उसमें आप लोगों का पूरा विश्वास है और इसके लिए मैं आपकी प्रशंसा करने लगी; लेकिन मेरी उत्सुकता ने मुझे आगे बढ़ाया और मुझे मालूम करना पड़ा कि ऐसा क्यों है । इसलिए मैं आपके पीछे लगी, और जब मैने ऐसा किया तो जो कीर्तन आप करते हैं मैं उसमें बँधने लगी। जो दूसरी चीज मुझे मालूम हुई वह यह है कि मैं अपने से स्वतंत्र हो गई और स्वयं भी कीर्तन करने लगी। मैं नहीं जानती थी कि मैं कहाँ थी और कहाँ जा रही थी। मुझे इसकी चिन्ता नहीं रह गई थी । कीर्तन समाप्त होने के बाद ही मैं जान सकी कि मैं कहाँ हूँ ।

उस समय तक मुझे थोड़ा-बहुत ज्ञान हो गया था कि कृष्णभावनामृत क्या है। आपके सदस्यों में से किसी ने मुझसे आपके मंदिर में जाने को कहा और मैं आपके पीछे और दूर तक लगी रही, इस आशा में कि मैं जान सकूँ कि वह क्या चीज है जो आपको इतना बल देती है और जिसके बारे में मैने कभी सुना भी नहीं था ।

आपके साथ भोजन करने और आपका साहित्य पढ़ने के बाद मैं चली आई, किन्तु अकेली नहीं। मेरे साथ जीवन का एक नया बोध आया। मुझे लगा कि जीवन में सांसारिक पदार्थों की मेरी इच्छाएँ कितनी व्यर्थ हैं, और नए वस्त्र, बड़ा मकान, रंगीन टी.वी. महत्त्वपूर्ण नहीं है। यदि लोग आँखें खोल कर उन असंख्य आनंदों की ओर देखें जो कि ईश्वर की ओर से हमें प्राप्त हैं, तो और अधिक आनन्द खोजने की जरूरत नहीं रह जायगी ।

आप लोग सचमुच भाग्यशाली हैं। आपको बहुत सारी चीजों के बिना काम चलाना पड़ता होगा, लेकिन इसी कारण आप संसार के ईश्वर - प्रदत्त आनंदों के कोष का उपयोग करते हैं; अपनी आस्थाओं के कारण आप सम्पत्तिशाली हैं; और उस सम्पत्ति में से छोटा-सा अंश जो आपने मुझे दिया उसके लिए मैं आपको धन्यवाद देती हूँ ।"

इसलिए हम आपको आमंत्रित करते हैं कि आप हमारे साथ कीर्तन करें - यह कितनी बढ़िया चीज है। यदि आपका जी चाहे तो आप हमारे मंदिर में आएं, थोड़ा प्रसाद ग्रहण करें और प्रसन्न हों। यदि आप गाएँ तो यह कोई कठिन नहीं है; हरे कृष्ण, हरे कृष्ण, कृष्ण कृष्ण, हरे हरे / हरे राम, हरे राम, राम राम, हरे हरे । इससे आपकी रक्षा होगी। आपको बहुत धन्यवाद । भगवान् आपका भला करे ।

***

श्रील प्रभुपाद अस्पताल छोड़ने को उत्सुक थे। कई दिनों से वे वहाँ से जाना चाह रहे थे । “ ये लोग केवल सूइयाँ चुभो रहे हैं।” उन्होंने शिकायत की थी । और हर दिन उनके संघ पर कर्ज़ अधिक होता जा रहा था । भक्तों ने न्यू जर्सी के लांग ब्रांच में समुद्र के किनारे एक छोटा-सा मकान किराए पर ले लिया था जहाँ स्वास्थ्य लाभ के लिए स्वामीजी रह सकते थे। उन्होंने तय किया कि कीर्तनानन्द स्वामीजी का रसोइया होगा और सैन फ्रान्सिस्को से गौरसुन्दर और उसकी पत्नी गोविन्द दासी स्वामीजी का घर सँभालने और उनकी सहायता के लिए आ रहे थे। लेकिन डाक्टर चाहता था कि मस्तिष्क की तरंगों के और परीक्षण तथा अन्य जाँचों के लिए स्वामीजी और रुकें ।

एक दिन जब ब्रह्मानन्द और गर्गमुनि प्रभुपाद को मिलने आ रहे थे, डाक्टर कमरे में प्रविष्ट हुआ और बोला कि स्वामीजी को एक्स-रे के लिए नीचे जाना है।

" सूई नहीं लगेगी ?” प्रभुपाद ने पूछा ।

"हाँ,” डाक्टर ने उत्तर दिया, जब नर्स पहिए वाला पलंग " ठीक है ।'

जब नर्स पहिये बाला पलंग लेकर आई तो प्रभुपाद ने कहा कि वे चाहते थे कि गर्गमुनि उसे ठेले । तब वे पालथी मार कर उस पर बैठ गए और उन्होंने अपना हाथ माला की नर्स के पीछे-पीछे, उनका पलंग ठेल हाल में से होते हुए वह लिफ्ट के थैली में डाल लिया, और गर्गमुनि, कर कमरे के बाहर ले गया। फिर अन्दर पहुँचा । वे तीसरी मंजिल पर वहाँ नर्स ने उन्हें अकेले छोड़ दिया। गर्गमुनि प्रभुपाद की बेचैनी समझ गए। वह भी अधीर हो गया । नीचे उतरे और एक कमरे में प्रविष्ट हुए। अपने गुरु महाराज के साथ होने के लिए उसे यह स्थान अजीब लगा । तब एक दूसरी नर्स सूई लिए आई।” स्वामीजी को सूई लगाने का समय हो गया है । "

"नहीं, " प्रभुपाद ने अपना सिर हिलाया ।

" नहीं, नहीं" गर्गमुनि ने साफ-साफ कहा, “सूई नहीं लगवानी है । "

नर्स अधीर हो उठी, लेकिन वह मुसकराई “ इससे दर्द नहीं होगा ।'

"मुझे वापस ले चलो ।” प्रभुपाद ने गर्गमुनि को आदेश दिया। जब नर्स ने आग्रह किया तो गर्गमुनि अपनी सामान्य प्रवृत्ति के अनुसार उतावला हो उठा और वह नर्स और श्रील प्रभुपाद के बीच खड़ा हो गया ।

“ जरूरत हुई तो मैं लड़ने को तैयार हूँ।” गर्गमुनि ने सोचा, "मैं सूई नहीं लगाने दूँगा ।" उसने कहा और पलंग को कमरे के बाहर ठेल ले गया। नर्स पीछे रह गई ।

गर्गमुनि गुमराह हो गया । वह तीसरी या चौथी मंजिल पर था, हर तरफ गलियारे और दरवाजे थे। और प्रभुपाद का कमरा छठी मंजिल पर था । अनिश्चय की अवस्था में वह प्रभुपाद का पलंग गलियारों में से चलाता रहा । प्रभुपाद पालथी मार कर बैठे हुए माला जपते रहे।

गर्गमुनि के चले जाने के कुछ ही क्षण बाद ब्रह्मानन्द एक्स-रे प्रयोगशाला में पहुँचा। नर्स और एक इन्टर्न डाक्टर ने, जो कुछ हुआ था, उसकी उससे शिकायत की।

ब्रह्मानंद : उन्होंने इसे चोरी समझा ? स्वामीजी उनकी सम्पत्ति थे। जब तक वे अस्पताल में थे तब तक वे उनके थे और वे जो कुछ चाहें उनके साथ कर सकते थे। गर्गमुनि स्वामीजी को उनसे चुरा ले गया था।

गर्गमुनि लिफ्ट के पास पहुँच गया। उसे लिफ्ट में पलंग चढ़ाने में दिक्कत हुई और जल्दबाज़ी के कारण दीवार से टकरा गया। वह भूल गया कि स्वामीजी का कमरा किस मंजिल पर था। उसे केवल इतना ज्ञान था कि वह स्वामीजी की रक्षा कर रहा था, जो चाहते थे कि कोई उन्हें वहाँ से दूर ले जाय ।

जब गर्गमुनि अन्त में प्रभुपाद के कमरा नं. ६०७ में पहुँचा, तो एक इन्टर्न, वहाँ मौजूद था और क्रोधपूर्वक बात करने लगा। “मुझे परवाह नहीं है, ' गर्गमुनि ने कहा, “प्रभुपाद और अधिक सूई लगवाना या परीक्षण कराना नहीं चाहते। हम जाना चाहते हैं।" ब्रह्मानन्द वहाँ आ गया और उसने अपने छोटे गुरु-भाई को शान्त किया और प्रभुपाद को उनके बिस्तर में लेटा दिया ।

प्रभुपाद ने कहा कि वे वहाँ से जाना चाहते थे। जब डाक्टर आया तो वे उठ कर बैठ गए और निश्चय के स्वर में बोले, “डाक्टर, मैं ठीक हो गया हूँ। मैं जा सकता हूँ।” और उन्होंने डाक्टर से हाथ यह दिखाने के लिए मिलाया कि वे पूर्णतः स्वस्थ थे। डाक्टर बड़बड़ाया। उसने कहा कि यद्यपि प्रभुपाद में शक्ति आ रही थी तब भी उन्हें अस्पताल में कुछ दिन और रुकना पड़ेगा। वे अभी भी खतरे से बाहर नहीं थे । उन्हें सावधानीपूर्ण डाक्टरी देखरेख की जरूरत थी । डाक्टरों को एक और परीक्षण ई ई जी करना था ।

प्रभुपाद के दिल में अब भी दर्द उठता था, लेकिन उन्होंने डाक्टरों से कहा कि उनके लड़कों ने सागर तट पर उनके विश्राम के लिए जगह ले रखी थी। डाक्टर बोला कि यह बहुत अच्छा था, लेकिन वह उन्हें तब भी जाने देने को राजी नहीं था ।

लेकिन प्रभुपाद निश्चय कर चुके थे। ब्रह्मानंद और गर्गमुनि ने किराए की कार का इंतजाम किया। उन्होंने प्रभुपाद की चीजें इकट्ठी कीं और वस्त्र पहनने में उनकी सहायता की। जब वे उन्हें कमरे से बाहर ले जा रहे थे और अस्पताल के स्टाफ ने देखा कि लड़के बुड्ढे आदमी को सचमुच लिए जा रहे थे, तब कुछ डाक्टरों और नर्सों ने रोकने की कोशिश की । ब्रह्मानंद ने कहा कि वे चिन्ता न करें; स्वामीजी लड़कों को बहुत प्रिय थे और वे उनकी पूरी सेवा करेंगे। उनकी नियमित मालिश होगी, और वे खूब आराम करेंगे और डाक्टरों ने जो भी ओषधियाँ निर्धारित की थीं वे सब उन्हें मिलती रहेंगी। सागर तट पर विश्राम के बाद वे पुनः जाँच के लिए आएँगे ।

ब्रह्मानंद : तब डाक्टर ऊब गए। उन्होंने धमकी दी, “ यह आदमी मर जायगा, ” उन्होंने हमें सचमुच डरा दिया, वे बोले, "यह आदमी मर जायगा, और इसका दोष तुम पर होगा । " जब हम जाने को हुए तो भी उन्होंने कहा, “इस आदमी की मौत अवश्यंभावी है।" यह बड़ा डरावना लगा ।

८ जून को दस बजे वे लोग अस्पताल छोड़ कर बाहर आए । प्रभुपाद लांग ब्रांच के मकान में जाने के पहले २६ सेकंड एवन्यू के मंदिर में थोड़ी देर रुकना चाहते थे। स्टोरफ्रंट में प्रविष्ट होकर और काँपते हुए कदम बढ़ाते हुए वे अपने गुरु महाराज भक्तिसिद्धान्त सरस्वती और उनके पिता भक्तिविनोद ठाकुर के चित्रों के सामने पहुँचे। पहली बार उनके शिष्यों ने भक्तिवेदान्त प्रभुपाद को साष्टांग प्रणाम करते देखा। जब वे अपने गुरु महाराज के सामने साष्टांग प्रणाम कर रहे थे तो प्रभुपाद के शिष्यों ने भी वैसा ही किया और उन्हें अनुभव हुआ कि उनकी भक्ति में वृद्धि हो गई है।

जब प्रभुपाद एक बजे लांग ब्रांच के अपने कुटीर में पहुँचे तो उन्होंने कीर्तनानन्द से दोपहर का भोजन बनवाना तुरंत आरंभ करा दिया। नौ दिन पहले उन्हें लकवा लगने के बाद यह प्रभुपाद का पहला नियमित गरम भोजन था — भात, दाल, चपाती, सब्जी ।

प्रभुपाद अपने बिस्तर में गए, पर जल्दी उठ गए और रसोई घर में यह कहते हुए घुसे, “क्या भोजन तैयार है ?” कीर्तनानंद ने कुछ बहाने बनाए और कहा कि वह जल्दी करेगा। कुछ मिनटों के पश्चात् प्रभुपाद वापस आए। वे क्रुद्ध दिखाई देते थे और कहने लगे " तुम इतनी देर क्यों लगा रहे हो ?” कीर्तनानन्द जितनी जल्दी कर सकता था, कर रहा था, परन्तु दाल को वह और तेजी से तो नहीं उबाल सकता था । " तुम्हारे पास जो कुछ भी है," प्रभुपाद बोले, “लाओ, मैं खाऊँगा, मुझे चिन्ता नहीं अगर वह कच्चा है । " कीर्तनानन्द ने भोजन परोसा और प्रभुपाद ने उसे एक स्वस्थ व्यक्ति जैसा स्वाद लेकर खाया । कीर्तनानन्द ने अपने साथी हयग्रीव को सैन फ्रांसिस्को फोन किया, “उन्होंने खूब अच्छा भोजन किया। देख कर आश्चर्य होता था । "

प्रभुपाद का एक मंज़िल का कुटीर सागर तट से थोड़ी दूरी पर एक शान्त उपनगरी में स्थित था । उसका पिछवाड़ा वृक्षों और झाड़ियों से परिवृत्त था और पड़ोस सुगंधित गुलाबों से भरा था ।

लेकिन मौसम अक्सर तूफानी रहता और आकाश धुँधला बना रहता । प्रभुपाद स्वास्थ्य लाभ करने के लिए भारत लौटने की बात करते रहते। दिल्ली में श्री कृष्ण पंडित ने प्रभुपाद की आयुर्वेदिक उपचार की आग्रहपूर्ण प्रार्थना को अस्वीकार कर दिया था : " आप इतनी दूर हैं— यदि दवा की कोई विपरीत प्रतिक्रिया हुई तो उसे ठीक करने का उपाय कैसे होगा ?" प्रभुपाद ने फिर लिखा था कि क्या कोई आयुर्वेदिक चिकित्सक अमेरिका भेजा जा सकता था, लेकिन यह प्रस्ताव अव्यावहारिक लगा था। प्रभुपाद के लिए अच्छा होगा कि वे भारत जायँ । उन्हें स्वामी नारायण महाराज का पत्र मिला कि चूँकि कोई आयुर्वेदिक चिकित्सक अमेरिका नहीं जायगा इसलिए स्वामीजी को चाहिए कि वे आएँ और कलकत्ता में अपनी चिकित्सा कराएँ । नारायण महाराज ने प्रभुपाद के सचिव, राय राम, को भी एक पत्र संलग्न किया: “चिन्ता करने की जरूरत नहीं है। उनके कानों के पास हमेशा हरि नाम बोलो। (हरे कृष्ण, हरे कृष्ण, कृष्ण कृष्ण, हरे हरे / हरे राम, हरे राम, राम राम, हरे हरे। ) भगवान सब भला करेंगे।"

श्रील प्रभुपाद केवल अपने स्वास्थ्य के लिए भारत नहीं लौटना चाहते थे; उन्होंने कीर्तनानन्द और गौरसुंदर को बताया कि वे वृंदावन में एक 'अमरीकी भवन' स्थापित करना चाहते थे जहाँ उनके अमरीकी शिष्य संसार-भर में प्रचार कार्य करने के लिए वैदिक संस्कृति का ज्ञान प्राप्त कर सकें। उन्होंने यह भी कहा कि वे कीर्तनानन्द, ब्रह्मानंद, हयग्रीव आदि अपने कुछ शिष्यों को संन्यासी बनाना चाहते थे और यह कार्य भी भारत में ही होना था । किन्तु यदि वे अपना स्वास्थ्य पुनः प्राप्त कर सकें तो उनका असली कार्य अमेरिका में ही था। लेकिन पथप्रदर्शन कहाँ था ?

गोविन्द दासी सैन फ्रांसिस्को में स्वामीजी से मिलने के बाद से ही उनकी व्यक्तिगत सेवा करने की अभिलाषा मन मे संजोए आ रही थी । उसने देखा कि' स्वामीजी निःस्वार्थ थे और अपने शिष्यों के लिए उनके मन में ऐसा प्रेम था जैसा उसने अन्यत्र कहीं नहीं पाया था। अपने मन की अभिलाषा उसने किसी को भी नहीं बताई थी, गौरसुंदर को भी नहीं। पर उसे और गौरसुन्दर को न्यू जर्सी आकर, स्वामीजी की सेवा का अवसर देकर, कृष्ण अब उसकी अभिलाषा पूरी कर रहे थे। न्यू यार्क के भक्तों को यह प्रबन्ध सबसे अच्छा जँचा था कि स्वामीजी की सेवा में एक विवाहित युगल को रखा जाय और गोविन्द दासी एवं गौरसुंदर इसके लिए उपलब्ध थे । ये बाहरी बातें थी, किन्तु गोविन्द दासी तो यही समझ रही थी कि कृष्ण उसकी अभिलाषा पूरी कर रहे थे ।

स्वामीजी की सेवा करने में गोविन्द दासी को पूरा संतोष था । अब चूँकि उसने अपने को स्वामीजी के प्रति सचमुच अर्पित कर दिया था, जैसा कि वह हमेशा से चाह रही थी, इसलिए उसके मन में और कोई बात नहीं रह गई थी। कीर्तनानन्द के साथ कार्य करने के बावजूद — जो यह सोचता था कि स्त्री होने के कारण उसे कम बुद्धि थी और जो कभी कभी उसमें गलतियाँ दिखा कर उन्हें सही किया करता था — गोविन्द दासी था—प्रसन्न थी।

गोविन्द दासी : स्वामीजी एक छोटे सोफा पर बैठते और उनके सामने एक मेज होता । गौरसुंदर और कीर्तनानन्द के साथ मैं फर्श पर बैठती । परिवार के समान हम सब एक साथ भोजन करते। हम आपस में बातें करते । एक बार चावल की बात चली। कीर्तनानन्द ने कहा, “सफेद चावल मनुष्यों के लिए है और भूरा चावल पशुओं के लिए।” तो मैंने कहा, "मैं जरूर एक पशु हूँ, क्योंकि मुझे भूरा चावल पसंद है।" और स्वामीजी हँसने लगे तो हँसते ही रहे। उन्होंने सोचा होगा यह कितनी हँसी की बात थी । मेरी समझ में यह साधारण-सी बात थी। लेकिन वे हँसने लगे तो हँसते रहे।

प्रभुपाद कुटीर के पिछवाड़े बैठे हुए थे, जब गोविन्द दासी ने देखा कि एक बड़ा-सा घोंघा एक दीवार पर चढ़ रहा था । उसने प्रभुपाद को दिखाया । प्रभुपाद बोले, "गरीब जीव के लिए प्रार्थना करो और गोविन्द दासी हरे कृष्ण मंत्र जपने लगी।

गोविन्द दासी हर दिन टहलने जाती और पड़ोसियों की अनुमति से दर्जनों गुलाब के फूल तोड़ती। लौट कर वह उन्हें फूलदानों में सजाती और प्रभुपाद के कमरे में यत्र-तत्र रख देती। एक बार जब प्रभुपाद ने उसे पड़ोस से लौट कर हरे कृष्ण गाते सुना तो उन्होंने गौरसुन्दर से टिप्पणी की, "वह बहुत सरल - चित्त वाली है।'

गोविन्द दासी : स्वामीजी कृष्ण के विषय में इस तरह बात करते मानो कृष्ण कमरे में मौजूद हों। मेरे लिए यह बहुत चमत्कारपूर्ण था। वे कृष्ण की लीलाओं के बारे में बात करते - कृष्ण कैसे कभी यह करते हैं, कभी वह करते हैं और कृष्ण कैसे विचित्र हैं और माता यशोदा उनके सम्बन्ध में क्या सोचती रहती हैं, आदि। वे बात करते और ऐसी सुंदर दशा को प्राप्त हो जाते कि सारा कमरा स्वर्णिमा से मंडित हो जाता। मुझे अनुभव होता कि मानों मैं किसी अन्य लोक को स्थानान्तरित हो रही हूँ और मेरे लिए यह नितान्त नया अनुभव होता। जो कुछ घट रहा होता उसका मुझे कोई बहुत बोध न होता, किन्तु मेरे लिए यह बिल्कुल नया होता और कृष्ण की उपस्थिति का वास्तविक दिव्य अनुभव होता और उनकी लीलाओं की झलक अपने ही हृदय में दिखाई-सी देने लगती ।

गोविन्द दासी को स्वामीजी का करताल बजाना, तट पर टहलना, अपने कमरे में बैठे रहना, झपकी लेना आदि- हर चीज आश्चर्यजनक लगती थी । वे अपने हर कार्य या बात से गोविन्द दासी के और अधिक प्रिय बनते जा रहे थे। प्रभुपाद

के भक्त दो से अधिक की संख्या में नहीं और सप्ताह में केवल एक बार — मैनहट्टन से लांग ब्रांच स्वामीजी के दर्शन के लिए जाते थे। वे उन्हें अधिकतर पलंग पर बैठे पाते, परन्तु कभी-कभी वे उनके साथ सागर तट पर घूमने जाते। स्वामीजी कहते थे कि सवेरे की सूर्य किरणों से उन्हें लाभ होगा। पर आकाश अधिकतर धुँधला बना रहता ।

एक दिन जब स्वामीजी कीर्तनानन्द, गौरसुन्दर, सत्स्वरूप, गोविन्द दासी और जदुरानी के साथ रेत पर बिछे कम्बल पर बैठे थे तो उन्होंने देखा कि कुछ लड़के तरंगपट्टी नौकाओं पर तरंगों का आरोहण करते आनंद हुए ले रहे हैं। " वे सोचते हैं कि यह जल-क्रीड़ा सुखदायी है” उन्होंने कहा, " वास्तव में इसमें कुछ सुख तो है, लेकिन यह आनन्द नहीं है, आध्यात्मिक जगत का सुख नहीं है। कृष्ण-लोक में हर वस्तु चेतन है। जल चेतन है, भूमि चेतन है। और हर वस्तु आनन्द से पूर्ण है। यहाँ वह बात नहीं में है ।" भक्तजन प्रभुपाद के साथ तरंगपट्टी नौका वालों का समुद्र डूबना - तैरना देख रहे थे । “हाँ,” कीर्तनानन्द बोला, “ और यह खतरनाक भी है।" किसी भी क्षण कोई तरंगपट्टी नौका ऊपर को उछल सकती है और उनके सिर से टकरा सकती है।'

“हाँ,” प्रभुपाद ने कहा, "यह वास्तविक आनन्द नहीं है। प्रह्लाद महाराज कहते हैं कि यह पार्थिक संसार बार-बार के जन्म और मरण की चक्कियों के बीच उन्हें पीस रहा है। इस भौतिक संसार में, वे कहते हैं, वे या तो उन वस्तुओं का विछोह अनुभव करते हैं जो उन्हें प्रिय हैं या उन कठिनाइयों का सामना उन्हें करना पड़ता है जिन्हें वे नहीं चाहते। और ऐसी दशा के निराकरण का वे जो उपाय करते हैं वे कठिनाइयों से भी बदतर है। एल. एस. डी. एक ऐसा ही उपाय है जो रोग से भी गया- गुजरा है । "

सिवाय इसके कि प्रभुपाद के चेहरे पर कुछ दुर्बलता आ गई थी, उनका रूप बीमारी के पहले जैसा ही था । वे उन लोगों के बीच भूरी ऊन की चादर ओढ़े बैठे थे। भक्त जानते थे कि प्रभुपाद जो कुछ करें उसके बारे में उन्हें बहुत सावधान रहना था । भक्त अब नहीं भूलने वाले थे, जैसा कि वे पहले भूल गए थे, कि प्रभुपाद बहत्तर वर्ष के हो गए थे। उन्हें अब उनके साथ उतना समय बिताने का अवसर शायद नहीं मिलेगा जितना पहले मिलता था । निश्चय ही उनके निकट संसर्ग में आना अब एक विरल निधि पाने जैसा था ।

प्रभुपाद से कुछ इंच की दूरी पर सागर तट पर बिछे कम्बल पर बैठे हुए सत्स्वरूप ने, न्यू यार्क के शिष्यों की ओर से, एक प्रश्न पूछा ।

" स्वामीजी, क्या चमड़े के जूते पहनना अनुज्ञेय है ?"

'नहीं ।'

“यदि किसी ने हमें कुछ चमड़े के जूते दिए हैं तो उनका क्या होगा ?"

" चमड़े का अर्थ हिंसा है।” प्रभुपाद ने कहा। उन्होंने सत्स्वरूप के कीमती जूतों की ओर इशारा किया जो मनुष्यकृत सामग्री से बने थे । " तुम्हारा देश बहुत अच्छा है। अपनी प्रौद्योगिकी द्वारा तुम इन जूतों को चमड़े के बिना ही आसानी से तैयार कर सकते हो ।” सत्स्वरूप और अन्य भक्तों को उनके जीवन-भर के प्रश्न का उत्तर मिल गया था और वह समय और स्थान उनके लिए संदर्भ बन गए, जैसे शास्त्रों के अध्याय और श्लोक संख्या का संदर्भ होता है।

जब जदुरानी फूल बीनने में गोविन्द दासी की सहायता कर रही थी, उस समय दोनों लड़कियाँ आपस में बात कर रही थीं। दोनों ने पुरुषों को यह कहते सुना था कि स्त्रियाँ कम बुद्धि वाली होती हैं, उससे वे हतोत्साह हुई थीं। बाद में गोविन्द दासी ने अपनी यह समस्या प्रभुपाद के सामने रखी । “क्या यह सच है, ” उसने पूछा, “कि चूँकि हम स्त्री हैं, इसलिए हम उतनी शीघ्रता से तरक्की नहीं करेंगी जितना कि ब्रह्मचारी ?"

“हाँ, " प्रभुपाद ने उत्तर दिया, “यदि तुम अपने विषय में अपने को स्त्री मान कर सोचोगी तो तरक्की कैसे करोगी ? तुम्हें अपने को आध्यात्मिक जीव मान कर चलना चाहिए, कृष्ण की शाश्वत सेविका ।'

श्रील प्रभुपाद ने जदुरानी को अपना एक चित्र, उसकी नकल बनाने को दिया। अमेरिका आने से पहले, भारत में लिए गए इस चित्र में, वे कोरी सफेद दीवार के सामने सीधे तन कर खड़े हुए थे। "ओह, स्वामीजी, ' जदुरानी ने टिप्पणी की, “आप इसमें कितने खिन्न दिखाई देते हैं। "

"नहीं, " विचारमग्न होकर वे बोले, "नहीं" में 'ही' की ध्वनि को लम्बी करते हुए, “मैं खिन्न नहीं हूँ। यह भावविभोरता का क्षण था । "

प्रभुपाद ने दीवार पर टँगे एक चित्र की ओर जदुरानी का ध्यान खींचा। माँ यशोदा मक्खन चुराने के लिए कृष्ण को डाँट रही थीं, जबकि कुछ दूर उनके दो सखा पेड़ की आड़ में हँसते हुए छुपे थे। प्रभुपाद ने पूछा, 'क्या तुम सोचती हो कि कृष्ण अपने को पकड़वा देंगे और सखाओं को बच निकलने देंगे ?” जदूरानी ने चित्र को फिर से देखा । स्वामीजी के शब्दों के प्रकाश में वह समझ गई कि कृष्ण के सखा भी शीघ्र पकड़े जायँगे । उसे सहसा ऐसा लगा कि वह वृंदावन में है। दोनों हँसने लगे।

प्रभुपाद के साथ दो दिन रहने के बाद सत्स्वरूप और जदुरानी, दोनों भक्तों को जो न्यू यार्क से आए थे, अपनी ड्यूटी पर लौटना था। जब वे जाने वाले थे, यद्यपि उस समय प्रभुपाद विश्राम कर रहे थे वे ठीक समय पर जग गए; इसलिए वे दोनों उनके कमरे में गए। बहुत धीमी आवाज में प्रभुपाद ने अपने बिस्तर में से कुछ शब्द कहे। तब वे बैठ गए और गौरसुंदर उनकी मालिश करने लगा। जो लोग सोचते हैं कि ईश्वर मर गया है वे पागल हैं, प्रभुपाद ने कहा । यद्यपि किसी ने इस विषय को नहीं शुरू किया था, लेकिन कृष्ण के विषय में प्रचार करना प्रभुपाद सदैव प्रासंगिक मानते थे । उनका स्वर और भी ऊँचा हो गया, अब उन्होंने नास्तिकों का प्रतिवाद किया : " मान लो मैं किसी डाक्टर के पास जाता हूँ। वह मेरे दिल की जाँच करता है और मेरे दिल की धड़कन ठीक पाता है; वह मेरा रक्त चाप देखता है, वह भी ठीक है; मैं पूरी तरह से साँस ले रहा हूँ; इन सब लक्षणों को देखने के बाद मैं डाक्टर से पूछता हूँ, “सो, डाक्टर मैं कैसा हूँ ?” यदि डाक्टर कहता है कि, “प्रिय महोदय, आप मर चुके हैं। ” – तो क्या यह किसी पागल डाक्टर का निदान नहीं कहा जायगा ?"

गौरसुंदर ने, जो स्वामीजी की मालिश अभी भी कर रहा था, आँख फाड़ कर औरों की ओर देखा । अब प्रभुपाद बहुत ऊँची और ओजस्वी आवाज में बोल रहे थे, मानों वे अपने बीमारी के कमरे में कुछ दर्शनार्थियों से बात करने की बजाय एक बड़ी श्रोता - मंडली को सम्बोधित कर रहे हों । “ठीक उसी प्रकार इस विश्व में जीवन के लक्षण देखो! सूर्य ठीक समय पर निकलता है, ग्रह अपनी कक्षाओं में घूमते हैं, जीवन के कितने ही लक्षण हैं! और यह विश्व ईश्वर का शरीर है। और वे ये सारे लक्षण देख रहे हैं ओर फिर भी कहते हैं कि ईश्वर मर गया। क्या यह मूर्खता नहीं है ? वे लुच्चे हैं! मैं उन्हें चुनौती देता हूँ, वे निरे लुच्चे हैं !”

कुछ धीमे, मधुर शब्द आधे घंटे के जोरदार, ओजस्वी भाषण में बदल गए थे, जिसका उद्देश्य था नास्तिकतावादी सिद्धान्तों के विरुद्ध श्रोता - मण्डली को प्रेरित करना । यद्यपि कीर्तनानन्द ने स्वामीजी को उनके स्वास्थ्य की याद दिला कर उन्हें आगाह कर दिया था, लेकिन उन्होंने, 'ठीक है' कह कर उसकी उपेक्षा कर दी थी। पर अब वे थक चुके थे और उन्हें अपने बिस्तर में लेट जाना पड़ा ।

भक्तों ने देखा कि स्वामीजी उस सारी शक्ति को व्यय कर चुके थे जो, उन्होंने अपराह्न के विश्राम से अर्जित की थी । यद्यपि वे इस बात की प्रशंसा करते थे कि प्रभुपाद किस तरह हर वस्तु का प्रयोग कृष्ण के लिए कर रहे थे, लेकिन वे डर भी रहे थे। परन्तु वे उन्हें रोकने में असमर्थ थे। वे उलझ गये थे— वे उन्हें सुनना चाहते थे ।

जब सत्स्वरूप और जदुरानी न्यू यार्क वापस पहुँचे तो ब्रह्मानन्द ने उनसे स्वामीजी के बारे में सभी को बताने को कहा। सत्स्वरूप ने बताया कि वह किस प्रकार स्वामीजी के कमरे में सोता था और उसने अनुभव किया था कि स्वामीजी से यह निकटता उसके लिए अति शुभ थी। उसे प्रकाश और शान्ति मिली थी और रात भर वह स्वयं को कृष्ण के निकट अनुभव करता था। सत्स्वरूप और जदुरानी ने समुद्र तट पर स्वामीजी के साथ बैठने के बारे में बताया और स्वामीजी के इस कथन के बारे में कि कृष्ण-लोक में हर वस्तु चेतन है। उन्होंने यह भी बताया कि स्वामीजी किस प्रकार अपने बिस्तर में उठ कर बैठ गए थे और उपदेश में अपनी सारी शक्ति व्यय कर दी थी, सब को यह दिखाने के लिए कि हर एक को अपना सब कुछ कृष्ण की सेवा में अर्पित कर देना चाहिए । ब्रह्मानन्द ने प्रसन्नतापूर्वक अन्य भक्तों की ओर देखा । " सोचो तो, स्वामीजी के विषय में तुम्हारी वार्ता से हर एक आनन्द से भर रहा है । "

प्रभुपाद लांग ब्रांच में तीन महीने रहे। लेकिन जब श्री कृष्ण पंडित का पत्र मिला कि अमेरिका जाने को किसी आयुर्वेदिक चिकिस्तक की व्यवस्था नहीं हो सकती तब प्रभुपाद गंभीरतापूर्वक भारत लौटने की सोचने लगे । भारत में उन्हें सूर्य का प्रकाश और आयुर्वेदिक उपचार मिल सकेगा। लेकिन उनकी योजना दिन पर दिन बदलती रही— सैन फ्रांसिस्को, मांट्रियल, इंडिया, न्यू यार्क। उन्होंने कीर्तनानन्द से सैन फ्रांसिस्को के भक्तों को सूचित करने को कहा कि यदि वे रथ-यात्रा उत्सव मनाते हैं, तो वे वहाँ जायँगे ।

जून के अंत में वे २६ सेकंड एवन्यू लौटे और फिर अस्पताल में जाँच के लिए गए। डाक्टर को स्वामीजी के स्वास्थ्य लाभ पर आश्चर्य हुआ और उसने उनकी सैन फ्रांसिस्को की हवाई यात्रा पर कोई आपत्ति नहीं की । इसलिए धूपहले आकाश की खोज में और अपने अनुयायियों की पहली रथ-यात्रा को सम्पन्न करने में मार्ग-दर्शन देने की उत्कण्ठा में स्वामीजी ने अपने और कीर्तनानन्द के नाम में दो हवाई टिकट बुक करा दिए – सैन फ्रांसिस्को, अर्थात् नई जगन्नाथ पुरी के लिए ।

 
 
 
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