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श्रील प्रभुपाद लीलमृत  »  अध्याय 26: स्वामीजी का प्रस्थान  » 
 
 
 
 
 
सैन फ्रांसिस्को हवाई अड्डे पर प्रभुपाद मुसकराते रहे, लेकिन बोले कुछ नहीं, जबकि भक्त समुदाय ने फूलों और कीर्तन से उनका अभिवादन किया । इस बार यह पहले से भिन्न था। वे एक छड़ी की सहायता से सीधे आगे बढ़ते गए।

प्रभुपाद को एक निजी मकान में, जो नगर के उत्तर में, स्टिन्सन बीच में किराए पर लिया गया था, ले जाने के लिए जयानंद अपनी स्टेशन वैगन के साथ प्रतीक्षा कर रहा था। लेकिन प्रभुपाद ने कहा कि पहले वे सैन फ्रांसिस्को के राधा-कृष्ण मंदिर में जाना चाहते थे। जयानंद उन्हें ५१८ फ्रेडरिक स्ट्रीट ले गया। प्रभुपाद कार में से उतरे और उन्होंने छोटे स्टोरफ्रंट में प्रवेश किया जो प्रतीक्षा कर रहे भक्तों और अतिथियों से भरा था । मुसकराते हुए जगन्नाथ - विग्रहों के सामने उन्होंने सिर झुकाया, और बिना एक शब्द बोले, कमरे से बाहर आए, कार में बैठे और स्टिन्सन बीच चले गए।

तटीय खड़ी चट्टानों की यात्रा इतनी चक्करदार और चढ़ाई वाली थी कि प्रभुपाद का जी मिचलाने लगा। पीछे की सीट पर लेट जाने और जयानंद से गाड़ी धीरे चलवाने से भी कोई खास लाभ नहीं हुआ। कीर्तनानंद ने अनुभव किया कि प्रभुपाद के लिए स्टिन्सन बीच से सैन फ्रांसिस्को मंदिर जाना बहुत कठिन होगा, लेकिन हो सकता है कि इससे अच्छा ही हो, वे अपना सारा समय स्वास्थ्य लाभ करने में लगा सकते थे ।

यह एक आधुनिक एक - मंजिला छह- कमरों वाला मकान था जिसकी छत जापानी ढंग की थी। बाहर सामने की ओर उसका नाम पैराडीसियो लिखा था । श्रील प्रभुपाद ने देखा कि उसके सामने के अहाते में लान के आकर्षक सुन्दर फर्नीचर के बीच, भगवान् बुद्ध की एक प्रतिमा थी— लान के अलंकार स्वरूप। जब प्रभुपाद मकान में प्रविष्ट हुए तो उन्होंने मुकुन्द और उसकी पत्नी जानकी को प्रतीक्षा करते पाया । वे नत मस्तक हुए और प्रसन्नता के मारे जानकी रो पड़ी। प्रभुपाद मुसकराए, लेकिन वे धीमी गति से, चुपचाप मकान के बीच चलते रहे। प्रशान्त महासागर की ओर का उनके रहने का बड़ा कमरा जदुरानी - कृत भगवान् विष्णु, राधा और कृष्ण और भगवान् चैतन्य बड़ा के चित्रों से सजाया गया था; भारत में निर्मित जगन्नाथ पुरी के चित्रों से भी वह अलंकृत था। प्रभुपाद का शयनकक्ष भी महासागर के सामने था और उसमें सरकने वाली खिड़कियाँ लगी थीं। दीवार पर श्रील भक्तिसिद्धान्त सरस्वती का एक रूप - चित्र था और राधा और कृष्ण के भी रंग- चित्र लगे थे। प्रभुपाद मुसकराए और बोले कि चित्र बहुत अच्छे थे।

भक्तों में सहमति थी कि केवल कीर्तनानन्द और उपेन्द्र प्रभुपाद के साथ रहेंगे और उनकी सेवा करेंगे। वे चाहते थे कि स्वामीजी शान्तिपूर्वक रहें ताकि उनके स्वास्थ्य में सुधार हो ।

उस रात में प्रभुपाद के दिल में पीड़ा रही और वे सो नहीं सके। और अनुवाद करने के लिए सवेरे नहीं उठे । पाँच बजे कीर्तनानन्द उनके कमरे में आया और उसने खिड़की थोड़ी-सी खोल दी जिससे प्रभुपाद को मंद सागर समीर मिल सके। प्रभुपाद अपने बिस्तर में उठ बैठे और भगवान् कृष्ण और राधारानी के चरणों की ओर देखते हुए जप करने लगे। पूरब की दिशा में एक पर्वत श्रृंखला से अवरुद्ध होने के कारण सवेरे का सूर्य दिखाई नहीं दे रहा था ।

प्रभुपाद को लकवा लगने के दिन से कीर्तनानन्द नित्य सुबह - शाम उनकी मालिश करता रहा था । वह प्रभुपाद के सिर की ज़ोर से मालिश करता और फिर उनके पीछे बैठ कर उनकी पीठ की मालिश करता। तब वह उनकी छाती, बाहों, और टाँगो की मालिश करता। पूरी मालिश में कभी-कभी उसे एक घंटे से अधिक समय लग जाता। अस्पताल छोड़ने के दिन से प्रभुपाद हर दिन सवेरे टहलने भी जाते थे; लोअर ईस्ट साइड में भी वे ऐसा करते थे। और उस दिन सवेरे वे कीर्तनानन्द और उपेन्द्र के साथ सागर तट पर टहलने गए।

जब प्रभुपाद सागर तट पर टहल रहे थे तो उन्होंने अपनी छड़ी से रेत में उठते कुछ बुलबुलों की ओर संकेत किया और कहा, "देखो, जीवित प्राणी सर्वत्र हैं; कोई जगह नहीं है जहाँ जीवित प्राणी न हों। और फिर भी वे कहते हैं कि चन्द्रमा पर जीवन नहीं है। तट चट्टानदार था और तटीय चट्टानों पर लहरें वज्रपात के समान टूटती थीं। " तुम यह आवाज सुन रहे हो ?” श्रील प्रभुपाद बोले, "यह गोपियों की धड़कनों की प्रतिध्वनि है; वे कृष्ण के वियोग का अनुभव कर रही हैं। "

वे एक घंटे तक टहलते रहे, जब तक कि उनके दोनों युवा सेवक थक नहीं गए । “क्या टहलने में मैं तुम्हें थका रहा हूँ ?" वे हँसे, "इस टहलने और मालिश से ही मेरे जीवन की, एक-एक दिन करके, रक्षा हो रही है ।" तब वे आगे टहलते रहे ।

अंत में ग्यारह बजे तक सूर्य बादलों से निकलकर पहाड़ों के ऊपर प्रकट हुआ। श्रील प्रभुपाद एक तौलिए से अपना सिर ढके हुए, तट पर पड़ी एक फोल्डिंग चेयर में बैठ गए, सूर्य-प्रकाश का सेवन करते हुए। वे कहते रहे कि उन्हें और अधिक प्रकाश की आवश्यकता थी। दोपहर के खाने के बाद आकाश फिर मेघाच्छन्न हो गया ।

संध्या समय प्रभुपाद ने कीर्तनानन्द और उपेन्द्र को बड़े कमरे में बुलाया और मंद ध्वनि में उनके साथ हरे कृष्ण और गोविन्द जय-जय कीर्तन किया । वे कमरे में एक बड़े वृत्त में उनके आगे-आगे चलते रहे। कृष्ण के चित्र के सामने रुक कर हाथ जोड़े हुए वे नत मस्तक हो जाते। फिर मुड़ कर वृत्त में चलने लगते ।

८ जुलाई को, जब प्रभुपाद पैराडीसिओ में दो दिन बिता चुके थे, श्यामसुंदर और मुकुंद सैन फ्रांसिस्को से वहाँ कार से पहुँचे । अगला दिन रथ-यात्रा का था और श्यामसुंदर और मुकुंद ने, जो प्रभुपाद के स्टिन्सन बीच पहुँचने के बाद, उनके पास आने वाले पहले भक्त थे, उन्हें रथ यात्रा की तैयारियों के बारे में बताया । निस्सन्देह पूरा उत्सव प्रभुपाद के विचार की उपज था, और सैन फ्रांसिस्को के भक्त ठीक वही करने की कोशिश कर रहे थे जो प्रभुपाद ने उनसे करने को कहा था ।

उत्सव का विचार प्रभुपाद के मन में पहले पहल तब आया जब वे फ्रेडरिक स्ट्रीट स्थित अपने कमरे की खिड़की से बाहर देख रहे थे, समतल फर्श वाले ट्रकों को नीचे सड़क पर गुजरते देख कर प्रभुपाद के मन में आया कि किसी ऐसे ट्रक पर जगन्नाथ - विग्रहों को आसीन कर अमरीकी ढंग का रथ यात्रा - उत्सव मनाया जा सकता था। उन्होंने एक ऐसे ट्रक का खाका बनाया था जिसके पिछले भाग में चार खंभों के ऊपर चंदवा टँगा था और जो पताकाओं, घंटियों और फूल-मालाओं से सजा था। और उन्होंने श्यामसुंदर को बुला कर कहा था, " रथ यात्रा के लिए ऐसी गाड़ी तैयार करो।" अब, वैसी ही एक गाड़ी, फ्रेडरिक स्ट्रीट में मन्दिर के बाहर खड़ी थी जो पीले रंग की भाड़े की एक हर्ट्ज ट्रक थी और डिगर्स की ओर से दी गई थी। उसमें पाँच फुट वाले खंभे लगे थे जिन पर पिरामिड स्टाइल कपड़े का चंदवा तना था ।

तट पर प्रभुपाद के साथ बैठे हुए मुकुंद ने उन्हें बताया कि सभी भक्त किस प्रकार बड़े उत्साह से कार्य में लगे थे और हैट ऐशबरी के हिप्पी किस प्रकार अगले दिन निकलने वाली जगन्नाथ की रथ यात्रा के विषय में बातें कर रहे थे। भक्तों का प्रयत्न था कि रथ यात्रा का जुलूस गोल्डन गेट पार्क से निकले, लेकिन पुलिस विभाग की ओर से उन्हें केवल फ्रेडरिक स्ट्रीट से नीचे की ओर सागर तट जाने की अनुमति थी । मुकुंद ने बताया कि भक्तों की योजना थी कि जगन्नाथ, चंदवा के नीचे, ट्रक की दाईं ओर देखते हों, सुभद्रा पीछे की ओर और बलभद्र बाईं ओर । वह जानना चाहता था कि क्या यह ठीक होगा ? प्रभुपाद ने कहा कि वास्तव में विग्रहों को अलग-अलग गाड़ियों में निकलना चाहिए जिन्हें रस्सियों से बाँध कर जन-समूह सड़कों में खींचता चले; हो सकता है कि आगे के वर्षों में यह संभव हो ।

" 'इसे अच्छे ढंग से करना", प्रभुपाद ने आगाह किया, “जल्दी मत करना, भक्तों को चाहिए ट्रक को सड़कों में धीरे-धीरे चला कर समुद्र-तट ले जायँ और कीर्तन लगातार करते रहें ।

मुकुंद और श्यामसुंदर ने जयानंद का यश गाया: वह अनुदान, फल और फूल इकट्ठा करने के लिए सारे सैन फ्रांसिस्को में घूमता फिरा; उसने ट्रक सजाने वालों को खोज निकाला, ट्रक पर ध्वनि विस्तारक यंत्र लगाया, और स्टोरों में जा जा कर इश्तहार बाँटे। वह अथक था, और उसका उत्साह हर एक को भाग लेने के लिए प्रेरित कर रहा था। महिलाएँ दिन-भर चपातियाँ बनाने में लगी रही थीं, फलतः जन-समुदाय में बाँटने के लिए हजारों चपातियाँ हो गई थीं। भक्तों ने हजारों हरे कृष्ण रथ-यात्रा उत्सव गुब्बारे तैयार किए थे जिन्हें जुलूस शुरू होने पर सड़कों पर छोड़ा जायगा ।

जब भक्तों ने पूछा कि उन्हें और क्या करना चाहिए तो प्रभुपाद बोले कि यही पर्याप्त था — जुलूस, प्रसाद वितरण, कीर्तन । लोगों को भगवान् जगन्नाथ के दर्शनों और हरे कृष्ण कीर्तन का अवसर मिलना चाहिए। पूरी यात्रा में रथ के सामने कीर्तन और नृत्य होना चाहिए । “ लेकिन इसे बढ़िया ढंग से करो", प्रभुपाद ने कहा, "इसे इतने बढ़िया ढंग से करो जितना तुम कर सकते हो, और भगवान् जगन्नाथ संतुष्ट होंगे। '

अगले दिन, तीसरे पहर की शान्त बेला में, प्रभुपाद अपने कमरे में माला फेरते हुए बैठे थे । उपेन्द्र उनके साथ था, और कीर्तनानन्द पाकशाला में भोज के लिए भोजन बना रहा था । सहसा प्रभुपाद ने मंजीरों की झंकार सुनी, और वे प्रसन्न हो उठे, उनके नेत्र विस्फारित हो गए। बाहर की ओर झाँक कर उन्होंने रथ यात्रा का ट्रक देखा, जिसमें भगवान् जगन्नाथ, सुभद्रा, बलराम आसीन थे । दर्जनों भक्त और हिप्पी प्रभुपाद के दर्शनों के लिए आतुर थे । उनका अभिवादन करने के लिए वे बाहर गए और विग्रहों को भक्तों के द्वारा अंदर लिवा लाए और उन्हें पिआनो के ऊपर स्थापित कराया । भक्त समुदाय और अतिथि अंदर आने लगे । कमरा पूरा भर गया। मुसकराते हुए प्रभुपाद ने कुछ लोगों का आलिंगन किया, जबकि अन्य लोगों ने उनके चरणों में अभिवादन किया। कुछ भक्त पाकशाला में कीर्तनानन्द की मदद करने में लग गए जिससे उसके द्वारा तैयार किए गए भोजन का वितरण हो सके । अन्य रथ यात्रा उत्सव की सफलता पर अपने विवरण देने लगे।

यह महान् था । यह आश्चर्यजनक था । यह बहुत सुंदर दिन था, उन्होंने कहा। और भक्तों द्वारा दिए गए उत्सव के वर्णन को सुन कर प्रभुपाद गद्गद् हो गए। बहुत-से हिप्पियों ने इस महान् जुलूस में भाग लिया था । मुकुंद, हरिदास, हयग्रीव और महिलाओं में से कुछ विग्रहों के साथ गाड़ी में थीं और, यमुना की हारमोनियम ध्वनि सहित अन्य बाजों की ध्वनियों को माइक्रोफोन से प्रसारित किया गया था । सड़कों पर हर एक ने इसे पसंद किया था। साथ में चलती मोटर में बैठी पुलिस ने भक्तों से जल्दी कराने की कोशिश की थी, लेकिन सामने इतनी अधिक भीड़ थी कि जुलूस लाचारी में बहुत धीरे-धीरे आगे बढ़ा। स्वामीजी यही चाहते भी थे। सुबल रास्ते भर नाचता रहा था और जयानंद करताल बजाता हुआ ऊपर-नीचे उछल-कूद रहा था । ट्रकों से कुछ महिलाओं ने संतरे, सेब और केले के काटे हुए टुकड़े बाँटे थे और कुछ ने फूल फेंके थे। भीड़ ने इसे बहुत पसंद किया था ।

श्यामसुंदर ने बताया कि ढालू पहाड़ की चढ़ाई कैसी थी । श्यामसुंदर ट्रक चला रहा था, उसका कुत्ता राल्फ उसके साथ सामने की सीट पर बैठा था। तब ट्रक सहसा बंद हो गया। उसने इंजिन को चालू करने की कोशिश की थी, लेकिन वह सफल नहीं हुआ था। तभी ब्रेक फेल हो गया; ट्रक ढाल पर नीचे की ओर खिसकने लगा था। अंततः उसने किसी तरह उसे रोका था। लेकिन जब उसने ऊपर जाने की कोशिश की थी तब इंजिन फिर बंद हो गया था और ट्रक नीचे जाने लगा था। वह इंजिन चालू करता, ट्रंक ऊपर की ओर आगे चलता, फिर इंजिन बंद हो जाता, और ट्रक नीचे जाने लगता। हर एक को चिन्ता होने लगी थी। अंत में ट्रक ऊपर की ओर चलने लगा और जुलूस की तट की ओर यात्रा जारी रही ।

श्रील प्रभुपाद मुसकराए। यह भगवान् जगन्नाथ की लीला थी, उन्होंने कहा । यही तब भी हुआ था जब भगवान् चैतन्य जगन्नाथ पुरी में रथ-यात्रा में सम्मिलित हुए थे। तब भी रथ रुक गया था और कोई भी उसे हिला नहीं सका था । उड़ीसा के राजा ने सबसे शक्तिशाली पहलवानों को रस्सियों को खींचने और रथ को ठेलने में लगाया था, लेकिन वह चला नहीं था । हाथी भी उसे चला नहीं सके थे। तब भगवान् चैतन्य महाप्रभु ने अपना सिर लगा कर रथ को ढकेला था, तभी रथ आगे बढ़ा था। अब रथ-यात्रा पश्चिम में आ गई है और उसके साथ भगवान् जगन्नाथ की लीला भी आई है।

प्रभुपाद ने देखा कि कुछ भक्त वहाँ नहीं थे। " यमुना और जानकी कहाँ हैं ?” उन्होंने पूछा। भक्तों ने बताया कि कुछ हिप्पियों ने एल. एस. डी. में लगी मिसरी बाँटी थी और भक्तों में से कुछ ने अनजाने में उसे स्वीकार कर लिया था। वे अब उसके प्रभाव से ठीक हो रहे थे।

सुबल ने बताया कि उत्सव के बाद, किस प्रकार वह अन्य तीस भक्तों के साथ जगन्नाथ, सुभद्रा और बलराम के श्रीविग्रहों को फूलों से सजे और चंदवा से ढके ट्रक में रख कर यात्रा पर निकल गया था। पहाड़ों के बीच से उनकी यह यात्रा एक ऐसी गाड़ी में हुई जो उस क्षेत्र के लिए जरूर एक असामान्य सवारी रही होगी ।

जब सभी मेहमान चले गए तो श्रीविग्रह प्रभुपाद और उनके सेवकों के साथ घर में रह गए। प्रभुपाद को संतोष था कि उनके शिष्यों ने रथ यात्रा - उत्सव का आयोजन सफलतापूर्वक किया । यद्यपि वे अप्रशिक्षित थे, पर वे कर्त्तव्यनिष्ठ थे । भक्तिसिद्धान्त सरस्वती और भक्तिविनोद ठाकुर यह पहली अमेरिकन रथ-यात्रा देख कर प्रसन्न हुए होते।

उस संध्या को अपने कमरे में एकत्रित सभी भक्तों को प्रभुपाद ने बताया कि सारा विश्व चिन्ताकुल है। केवल वैकुंठ - लोक में ही चिन्ता से मुक्ति रहती है। कृष्णभावनामृत का उद्देश्य सभी चिन्ताओं से मुक्त होकर वैकुण्ठ-लोक को वापस जाना है। और रथ-यात्रा जैसे उत्सवों से लोगों में कृष्ण - चेतना आती है। ऐसे उत्सवों के सम्बन्ध में स्वामीजी के पास अनेक विचार थे। उन्होंने कहा कि यदि उनके पास धन और जन-शक्ति होती तो वे प्रतिदिन उत्सव रचाते। कुष्णभावनामृत की कोई सीमा नहीं है। यह रथ यात्रा - उत्सव पश्चिम में कृष्णभावनामृत के स्वागत का एक और अच्छा लक्षण था ।

उन्होंने न्यू यार्क में ब्रह्मानंद को लिखा :

मकान एक असाधारण सुंदर स्थान में स्थित है और स्वयं बहुत शानदार है। इसलिए स्थान या मकान के बारे में शिकायत की कोई बात नहीं है। कठिनाई केवल है कि मैं घुमावदार सड़क और पहाड़ों को पार कर, मंदिर नहीं जा सकता । जो भी हो, भक्त यहाँ नित्य आते हैं और रथ यात्रा - उत्सव बड़ी धूमधाम से मनाया गया। पाँच सौ से अधिक लोग जुलूस में सागर तट तक गए और उसमें लगभग दो दर्जन कारें थीं। भक्तों ने हजारों चपातियाँ वितरित कीं, और अंत में श्री जगन्नाथ, सुभद्रा और बलदेव का कृपापूर्ण आगमन हमारे घर में हुआ जहाँ वे एक सप्ताह रहेंगे, फिर वापस जायँगे ।

***

श्रील प्रभुपाद भारत लौटने की बात अब भी करते थे। उन्होंने जाने का एक प्रकार से निर्णय कर लिया था। प्रश्न अब यह था कि उन्हें कब जाना था और वे जापान होकर पश्चिम के मार्ग से जायँगे या न्यू यार्क होकर पूर्व के मार्ग से स्टिन्सन बीच के धूसर आकाश और बेमौसम ठंडे तापमान से उन्हें निराशा हुई थी। उनका स्वास्थ्य अब भी कमजोर था । वे मरने तक की बात करते थे। उन्होंने कहा कि इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि वे अमेरिका में मरते हैं या वृंदावन में। यदि कोई वैष्णव वृंदावन में मरता है जहाँ कृष्ण का आविर्भाव हुआ था तो वैकुण्ठ-लोक में कृष्ण से उसका मिलना निश्चित हो जाता है। तो भी जब भगवान् चैतन्य वृन्दावन से बाहर पर्यटन पर थे, उनके शिष्य, अद्वैत, ने उन्हें विश्वास दिलाया कि 'जहाँ आप हैं, वहीं वृंदावन है।” कृष्ण के विषय में सतत चिन्तन में मग्न रहना भी वृंदावन में रहना है। इसलिए कृष्णभावनामृत का प्रचार करते हुए संसार में कहीं भी यदि उनकी मृत्यु हो जाती है, तो वे निश्चय ही आध्यात्म लोक की शाश्वत नगरी वृन्दावन को प्राप्त होंगे।

फिर भी, प्रभुपाद वृंदावन जाना चाहते थे। मरने या स्वास्थ्य-लाभ के लिए यह सर्वोत्तम स्थान था। इसके अतिरिक्त, उनकी योजना अपने शिष्यों के प्रशिक्षण के लिए उन्हें वृन्दावन ले जाने की थी। उन्होंने अपनी इस योजना का उल्लेख सिंधिया स्टीमशिप कम्पनी की मालकिन श्रीमती सुमति मोरारजी को लिखे एक पत्र में किया था :

ज्योंही मुझमें कुछ शक्ति आ जायगी, मैं भारत वापस आने की सोच रहा हूँ। मैं काफी वृद्ध हो गया हूँ। अगले सितम्बर मैं ७२ वर्ष का हो जाऊँगा । लेकिन मैने पश्चिम में जो कार्य आरंभ किया है वह अभी पूरा नहीं हुआ है और कुछ अमरीकी लड़कों को प्रशिक्षित करने की जरूरत है ताकि वे हमारे मत का प्रचार सारे पश्चिमी संसार में कर सकें। इसलिए यदि मैं भारत लौटता हूँ तो मुझे कुछ लड़कों को प्रशिक्षण के लिए साथ ले जाना पड़ेगा। प्रशिक्षण प्राप्त करने के लिए वे सभी बहुत अच्छे लड़के हैं। अतः इस दिशा में आपके सहयोग की बड़ी आवश्यकता है। आप मेरे कुछ लोगों को भारत से यहाँ आने की निःशुल्क व्यवस्था कर चुकी हैं; उसी तरह यदि आप मेरे कुछ अमरीकी शिष्यों के लिए निःशुल्क यात्रा का प्रबन्ध कर दें तो वे वृंदावन में प्रशिक्षण के लिए भारत जा सकते हैं। बात यह है कि इस वृद्धावस्था में मैं नहीं जानता कि मृत्यु मुझे कब उठा लेगी । और मेरी इच्छा, जीवन के अन्तिम दिनों में, वृंदावन में मरने की है ।

प्रभुपाद ने कीर्तनानन्द, हयग्रीव और अन्यों से कहा कि वे उन्हें अपने साथ ले जायँगे और कृष्ण के पवित्र लीला स्थलों को दिखाएँगे। न्यू यार्क मंदिर के भवन - कोष से वे वृंदावन में अमेरिकन भवन बनवाएँगे ।

मैं मान्ट्रियल आऊँगा और राधा - कृष्ण - विग्रह के स्थापना - समारोह का उद्घाटन करूँगा । तब मैं छह महीने के लिए भारत जाऊँगा, क्योंकि वहाँ वृंदावन में प्रचारकों के प्रशिक्षण के लिए एक अमेरिकन भवन के निमार्ण की योजना है। इस विश्व में वृंदावन ही वह अकेला दिव्य स्थान है जहाँ कृष्णभावनामृत स्वयं प्रकट होता है । इसलिए मेरी प्रबल आशा अपने कुछ शिष्यों को, प्रचार कार्य के लिए, प्रशिक्षण देने की है; यह कार्य मेरी अनुपस्थिति में भी हो सकता है। मैं अब वृद्ध हो गया हूँ, और गंभीर रोग से पीड़ित हूँ। मृत्यु मुझे कभी उठा ले जा सकती है । अतएव मैं कुछ प्रशिक्षित प्रचारक छोड़ जाना चाहता हूँ जो पश्चिम जगत में कृष्णभावनामृत के प्रसार का कार्य कर सकें। यही मेरी अभिलाषा है। मुझे आशा है कि तुम सब कृष्ण से प्रार्थना करोगे जिससे मैं अपने कर्त्तव्य का पालन अच्छी तरह कर सकूँ ।

जब गोविन्द दासी ने प्रभुपाद को लिखा कि वह उनकी उसी तरह सेवा करने को आतुर थी जैसी न्यू जर्सी में की थी तो प्रभुपाद ने उत्तर दिया कि वे भारत में एक अमेरिकन भवन के निमार्ण की कोशिश करने जाने वाले थे " जहाँ तुम्हें पूरे समय रहने के लिए आमंत्रित किया जायगा । तुम और तुम्हारे पति दोनों को कृष्ण की पूजा के लिए वृंदावन में बहुत शान्त वातावरण मिलेगा । "

यात्रा के लिए जरूरी शक्ति पाने की प्रतीक्षा करते हुए प्रभुपाद स्टिन्सन बीच में अपना दैनिक कार्यक्रम पूरा करते रहे। सैन फ्रांसिस्को से एक या दो भक्त उनसे मिलने के लिए आया करते थे। उनका सवेरे सागर तट पर टहलना, बादलों के बीच से सूर्य के प्रकट हो जाने पर प्रकाश-सेवन के लिए बैठ जाना, सांध्यकालीन कीर्तन या अपने शयन कक्ष में ही पुस्तकावलोकन—ये उनके नित्य के कार्यक्रम शान्त, अबाधित रूप में चलते रहे ।

उपेन्द्र : वे अपने कमरे में सागर तट की ओर की कुर्सी में बैठ जाते थे। उन्हें हमारा पानी में जाना और जल-क्रीड़ा करना देखना पंसद था । पहले मुझे पानी में उतरने में, यह सोच कर कुछ संकोच हुआ कि स्वामीजी मुझे देख रहे थे। पर मैं गया और अपना शरीर धोने लगा। जब मैने स्वामीजी की ओर देखा तो वे अपनी कुर्सी में बैठे इशारा कर रहे थे। उन्होंने अपनी बाहें इस तरह उठाई जैसे पानी उछाल रहे हों। वे ऐसा करते रहे जब तक कि मेरी समझ में नहीं आ गया कि वे चाहते थे कि मैं पानी उछालूं और जल-क्रीड़ा करूँ। जब मैने पानी उछालना और उसमें इधर-उधर कूदना - फाँदना शुरू किया तो सिर हिलाकर वे खुलकर मुसकराने, लगे ।

मुकुंद : मैं स्वामीजी के साथ समुद्र के किनारे घूमने गया, और जब वे बैठे तो उनके सामने मैं भी बैठ गया। तब उन्होंने पूछा, “तुम कृष्ण की क्या परिभाषा करते हो ?” मैने कहा, “कृष्ण भगवान् हैं। वे परमात्मा हैं। हमारा कर्तव्य उनकी पूजा और सेवा करना है।” स्वामीजी काफी संतुष्ट हुए और बोले, "तुम्हें हर दिन अपनी माला पर चौंसठ माला मंत्र जपना चाहिए।” मैं इस पर दंग रहा और मुझसे जवाब नहीं बना। मैं केवल स्वामीजी को देखता रहा और वे मुझे देखते रहे। कुछ समय बाद वे बोले, “या तुम्हें कम-से-कम बत्तीस माला हर दिन जप करना चाहिए ।" मैं तब भी मौन रहा। मेरे विचार से सोलह माला जप करना भी मेरे लिए बहुत कठिन था। मैं परेशान था कि भला मैं बत्तीस माला जप कैसे कर पाऊँगा । कुछ समय के बाद स्वामीजी ने कहा, “तुम्हें कम-से-कम सोलह माला जप प्रतिदिन करना चाहिए।" मैं बोला, “हाँ, स्वामीजी।” मैं जानता था कि मैं उतना करने की कम-से-कम कोशिश कर सकता था ।

प्रभुपाद ने कीर्तनानन्द से कहा कि वे पियानो बजाना चाहते थे। ( जगन्नाथ के श्रीविग्रह जो एक सप्ताह तक पियानो पर बिराजते रहे थे, अब सैन फ्रांसिस्को के मंदिर में लौट चुके थे ।) किन्तु जब कीर्तनानन्द और उपेन्द्र ने पियानो को दीवार से परे हटाया तो किसी चीज के खट से गिरने की आवाज सुनाई दी । "यह क्या है ?" प्रभुपाद ने पूछा, कीर्तनानन्द पियानो के पीछे गया और वहाँ से मद्रासी कपड़े में लिपटा एक फ्रेम किया हुआ केन्वेस का चित्र उठाया। उसने कपड़ा हटा दिया और देखा कि वह भगवान् नृसिंहदेव का चित्र था । "यह पियानो के पीछे क्यों छिपाया गया है ?" प्रभुपाद ने पूछा। उस समय जानकी वहीं थी और उसने स्वीकार किया कि जब वह प्रभुपाद के लिए मकान ठीक कर रही थी तब किसी ने उस चित्र को भेजा था। उसने उसे देख लिया था और छिपा दिया था । वह भयानक था, उसने बताया । भगवान् नृसिंह हिरण्यकशिपु का पेट चीर रहे थे और हर जगह रक्त फैल रहा था ।

प्रभुपाद ने धैर्यपूर्वक समझाया कि यद्यपि सांसारिक लोग हिरण्यकशिपु के लिए दया अनुभव करते हैं, पर भक्तजन भावविभोर हो उठते हैं जब वे भगवान् नृसिंहदेव को हिरण्यकशिपु का पेट चीरते देखते हैं। उन्होंने बताया कि हिरण्यकशिपु ने सारे विश्व को आतंकित कर रखा था और उसने स्वर्ग के स्वामी इन्द्र का सिंहासन छीन लिया था । हिरण्यकशिपु ने अपने पाँच वर्ष के पुत्र प्रह्लाद को भी, जो कृष्ण का सच्चा भक्त था, उत्पीड़ित किया था । इसलिए भगवान् नृसिंह की लीला में कोई अन्याय नहीं था । वस्तुतः, भगवान् द्वारा मारे जाने से, हिरण्यकशिपु को मुक्ति मिल गई।

चित्र को दीवार पर लगाने के लिए भक्तों को आदेश देने के बाद प्रभुपाद बैठे और पियानो बजाने लगे। भक्तों ने प्रभुपाद को भारतीय हारमोनियम बहुत सुंदरता से बजाते देखा था— बाएं हाथ से वे धौंकनी चलाते और दाहिने हाथ की अंगुलियाँ कुंजी-फलक पर घुमाते रहते। पर उन्हें पियानो बजाते उन्होंने कभी नहीं देखा था। उन्हें यह भी नहीं मालूम था कि उन्होंने पियानो बजाना कैसे सीखा । किन्तु प्रभुपाद बहुत दक्षतापूर्ण ढंग से भारतीय भजनों का स्वरमाधुर्य दर्शाते रहे। लगभग पाँच मिनट बाद वे रुक गए।

किसी-किसी संध्या को प्रभुपाद भाषण करते या वाद-विवाद की व्यवस्था कराते, यद्यपि कीर्तनानन्द उन्हें लगातार सावधान करता रहता। जब प्रभुपाद व्याख्यान देने का निश्चय कर लेते तो उनके शिष्यों में से किसी के लिए भी उन्हें रोक पाना असंभव होता। कभी कभी वे कीर्तनानन्द को, उनसे मिलने आए हुए किसी भक्त से, वाद-विवाद करने को कहते। एक भक्त . निराकारवादियों या नास्तिकों की ओर से तर्क प्रस्तुत करता और दूसरा कृष्ण - चेतना वाले लोगों की ओर से प्रभुपाद निर्णय करते । लेकिन ज्योंही तर्क-विर्तक शुरू होता प्रभुपाद हस्तक्षेप करते और कृष्ण - चेतन भक्त का पक्ष लेकर नास्तिक या निराकारवादी तार्किक को हरा देते। भक्तों को यह पसंद आता । प्रभुपाद एक मौन निर्णायक या स्वास्थ्य लाभ करते हुए रोगी की भूमिका तक अपने को सीमित रख सकने में असमर्थ थे ।

"हम निराकारवादियों पर इतना जोर क्यों देते हैं ?” कीर्तनानंद ने पूछा, " हम उन पर इतना आक्रमण क्यों करते हैं? हम अपने आक्रमण को नास्तिकों की ओर उन्मुख क्यों नहीं करते ?"

“ तुम ऐसा इसलिए कहते हो कि तुम निराकारवादी हो ?” प्रभुपाद ने क्रोधपूर्वक उत्तर दिया ।

एक अन्य अवसर पर प्रभुपाद ने कहा कि जो भक्त नहीं हैं और निरीह जनता को भ्रम में डालते हैं, वे राक्षस हैं और उनका पर्दाफाश होना चाहिए । कीर्तनानंद ने आपत्ति की, “यदि हम उन्हें राक्षस कहेंगे, तो उनका सुधार कभी नहीं होगा ।"

" लेकिन वे राक्षस हैं।” प्रभुपाद ने उत्तर दिया ।

" लेकिन हम उन्हें राक्षस नहीं कह सकते, स्वामीजी ।'

“हाँ, वे राक्षस हैं। जब तक तुम इस बात को नहीं समझते तब तक तुम कृष्णभावनामृत में आगे नहीं बढ़ सकते।'

" क्या राक्षस भक्त बन सकते हैं?" कीर्तनानंद ने “हाँ, हाँ, " प्रभुपाद ने जवाब दिया, “यदि वे और सेवा करें तो राक्षस भी भक्त बन सकते हैं।"

अधिकतर भक्तों को, स्वामीजी से मिलने का अवसर पाने की आशा में, सैन फ्रांसिस्को में रुकना पड़ा। उन्होंने निश्चित रूप से जानने वाले कुछ लोगों से स्वामीजी के भारत जाने की योजना के और शायद फिर कभी न वापस आने के बारे में सुना था। इसे सुन कर उन्हें दुख हुआ था । उनका मृत्यु के मुख में लगभग चले जाना, लेकिन कृष्ण कृपा से बच कर सैन फ्रांसिस्को में अपने भक्तों से मिलना, फिर भी पहले की तरह उनके साथ न रह पाना, और अब भारत जाने की उनकी योजना, कदाचित् हमेशा के लिए— ये सब ऐसी घटनाएँ थीं जिनसे भक्तों के मन में स्वामीजी के प्रति चिन्ता और प्रेम दोनों प्रगाढ़ हो गए।

भक्त यह सोच कर परेशान थे कि स्वामीजी के बिना काम कैसे चलेगा। एक भक्त ने सुझाया कि अच्छा हो कि स्वामीजी के कोई गुरु-भाई अमेरिका आएँ और उनका स्थान लें और यदि कोई दुर्भाग्यपूर्ण घटना घट भी जाय, तो वे इस्कान का नेतृत्व सँभाल लें। जब यह सुझाव स्वामीजी तक पहुँचा तो उन्होंने बिना तुरन्त उत्तर दिए, उस पर विचार किया ।

मुकुंद : मैं स्वामीजी के साथ अकेला उनके कमरे में बैठा था और वे बहुत गंभीर और मौन थे। उनके नेत्र बंद थे। तब सहसा उनके नेत्रों से आँसू बहने लगे। और वे अवरुद्ध आवाज में बोले, "मेरे गुरु महाराज कोई साधारण गुरु महाराज नहीं थे ।” तब वे कुछ देर तक रुक गए, और नेत्रों से आँसू पोंछते हुए और भी अधिक अवरुद्ध वाणी में बोले, “उन्होंने मुझे बचाया ।" उस समय " गुरु महाराज" का तात्पर्य मेरी समझ में आने लगा और कभी भी स्वामी का स्थानापन्न खोजने का विचार मैंने मन से निकाल दिया ।

दो दिन के बाद प्रभुपाद ने कहा कि वे अपने शिष्यों का भार लेने के लिए अपने किसी गुरु- भाई को नहीं बुलाएँगे । वे बोले, “यदि यह व्यक्ति, जो कुछ मैं कह रहा हूँ उससे एक शब्द भी भिन्न बोलता है, तो तुम सब भ्रम में पड़ जाओगे।” उन्होंने कहा कि सचमुच ऐसा विचार ही गुरु महाराज के प्रति अपमानजनक है।

प्रभुपाद ने कहा कि वे सैन फ्रांसिस्को के नए अनुयायियों को दीक्षा देंगे और आदेश दिया कि वे सैन फ्रांसिस्को में रात भर रहने के लिए एक-एक करके आएँ । बिना कोई हवन आदि किए, वे नवागन्तुक से केवल बात करते और उसे चार नियमों का पालन करने और हर दिन सोलह मालाएँ मंत्र जपने का आदेश देते। जब अनुयायी ऐसा करने की प्रतिज्ञा करता तब वे अपने बिस्तर पर बैठे हुए, जबकि अनुयायी उनके निकट फर्श पर बैठा रहता, उसे दीक्षा प्रदान करते । प्रभुपाद शिष्य की माला पर चुपचाप मंत्र जपते और उसे पुरुष या स्त्रियोचित आध्यात्मिक नाम देते ।

एक दिन दीक्षा के लिए एक नया अभ्यर्थी घबराया हुआ आया और प्रभुपाद के सामने झुक गया। वह उठा नहीं । " अब तुम उठ सकते हो। प्रभुपाद ने कहा, “ तो तुम दीक्षित होना चाहते हो ?” लड़का बोला "हाँ". और वह मंत्र जपने लगा। उसकी समझ में नहीं आया कि और क्या कहे। "मैं तुम्हारी माला पर जप करूँगा ।" प्रभुपाद बोले । दस मिनट तक जप करने के बाद, उन्होंने माला उसे दे दी और कहा कि, " तुम्हारा नाम अनिरुद्ध है । "

" इसका अर्थ क्या है ?” लड़के ने पूछा ।

" वह कृष्ण का पौत्र है। क्या तुम्हें और कुछ पूछना है ?"

अनिरुद्ध को और कुछ नहीं सूझा — वह अपना नाम भूल चुका था — और प्रभुपाद ने कहा कि तुम जा सकते हो ।

बाद में प्रभुपाद ने अनिरुद्ध को बुलाया, लेकिन अनिरुद्ध नहीं जानता था कि उसका नाम पुकारा जा रहा था । "अनिरुद्ध" कीर्तनानंद ने कहा और उसकी ओर देखा, “स्वामीजी तुम्हें बुला रहे हैं।'

एक दूसरे लड़के को, जो दीक्षा के लिए आया था, उद्धव नाम मिला, अगले दिन जब प्रभुपाद आँगन में बैठे थे तो उन्होंने पुकारा, “कीर्तनानन्द, उपेन्द्र, उद्धव ।" वे उन्हें एक श्लोक पढ़ कर सुनाना चाहते थे जो उन्हें श्रीमद्भागवत का अध्ययन करते समय मिला था । कीर्तनानंद और उपेन्द्र आये और प्रभुपाद के चरणों में बैठ गए। “ओह! उद्धव कहाँ है ?” प्रभुपाद ने पूछा । उपेन्द्र ने बताया कि उद्धव पहाड़ी पर गायों को देखने और उन्हें मंत्र सुनाने गया था । उपेन्द्र ने सोचा कि प्रभुपाद यह सुन कर प्रसन्न होंगे कि उनका नया शिष्य पहाड़ी पर गायों को केवल मंत्र सुनाने के लिए चढ़ गया था। लेकिन प्रभुपाद अप्रसन्नतापूर्वक अपना सिर हिलाने लगे : “बेचैनी ! ' वे चाहते थे कि उनका नया शिष्य उस श्लोक को सुनता ।

जयति जयदि देवो देवकी - नन्दनोऽसौ

जयति जयति कृष्णो वृष्णि-वंश प्रदीप:

जयति जयति मेघ - श्यामलः कोमलांगो

जयति जयति पृथ्वी-भार- नाशो मुकुन्दः

प्रभुपाद ने इसकाअनुवाद सुनाया : “ उन श्री भगवान् की जय हो जो देवकी - पुत्र हैं। उन श्री भगवान् की जय हो जो वृष्णि वंश के दीपक हैं। उन श्री भगवान की जय हो जिनके शरीर की कान्ति श्याम मेघ के समान है और जो कमल पुष्प के समान कोमल है। उन श्री भगवान की जय हो जो इस पृथ्वी का राक्षसों के अत्याचार से उद्धार करने और प्रत्येक को मुक्ति देने के लिए अवतार लेते हैं" । संस्कृत मूल और उसका अनुवाद फिर से सुनाने के बाद, प्रभुपाद ने शिष्यों से कहा कि वे अपने-अपने काम पर जा सकते थे।

***

प्रभुपाद ने कीर्तनानन्द से कहा कि वे निश्चय कर चुके थे कि जितनी शीघ्र संभव होगा, वे न्यू यार्क होते हुए भारत चले जायँगे । कीर्तनानन्द ने स्वामी के सामान को बाँध दिया और मंदिर में रात बिताने के लिए उन्हें सैन फ्रांसिस्को ले गया। उन्होंने अगले सवेरे वहाँ से चल देना था ।

मंदिर में और प्रभुपाद के आवास में भी उस रात काफी खलबली थी । प्रभुपाद से मिलने के लिए बहुत से भक्त और मेहमान प्रतीक्षा कर रहे थे और दर्जनों दीक्षा लेना चाहते थे। जब कीर्तनानन्द ने सलाह दी कि प्रभुपाद संध्या के कार्यक्रम के लिए नीचे उतर कर अपने पर जोर न डालें तो उन्होंने आग्रह किया कि वे कम-से-कम कीर्तन के समय वहाँ पर बैठेंगे।

जब वे स्टोरफ्रंट में प्रविष्ट हुए तो भक्तों ने उसी क्षण कीर्तन बंद कर दिया और सब झुक कर उन्हें प्रणाम करने लगे। शान्ति छा गई। उनके प्रति नए प्रकार के सम्मान का प्रदर्शन हो रहा था। हो सकता था कि उन्हें देखने का भक्तों के लिए यह अंतिम अवसर हो। वे उनकी ओर देखते रहे, जब वे करताल बजा कर उनके साथ अंतिम बार गा रहे थे। जो अदीक्षित थे वे उन्हें अपना आध्यात्मिक गुरु स्वीकार करना चाहते थे — उसी रात, इसके पहले कि और विलम्ब हो जाय ।

श्रील प्रभुपाद ने माइक्रोफोन माँगा । किसी को आशा नहीं थी कि वे बोलेंगे। कीर्तनानंद, जो अकेला ऐसा व्यक्ति था जो उन्हें बोलने से रोक सकता था, औरों की तरह उनके सामने विनीत और आशान्वित बना, चुप बैठा रहा। प्रभुपाद ने अपने मिशन के सम्बन्ध में शान्त वाणी में कहा : अपने गुरु महाराज के आदेशानुसार वे भगवान् चैतन्य का आन्दोलन अमेरिका लाए थे और कृष्ण ने कृपा करके उन्हें बहुत से कार्यनिष्ठ सहायक दिए थे । “अपने पारिवारिक जीवन के दिनों से भारत में मेरी कुछ संतानें हैं। " उन्होंने कहा, “किन्तु तुम लोग मेरी वास्तविक संतान हो । अब थोड़े समय के लिए मैं भारत जा रहा हूँ ।"

हर एक का ध्यान स्वामीजी पर केन्द्रित था, जब वे मद्रासी कपड़े से आच्छादित दीवार के सहारे झुक कर बैठे हुए नरमी से बोल रहे थे। सहसा दरवाजा खुला और उदास रवीन्द्र स्वरूप ने प्रवेश किया। हर एक जानता था कि रवीन्द्र स्वरूप कृष्णभावनामृत का त्याग करना चाहता था । उसने अपनी दीक्षा की प्रतिज्ञा को गंभीरतापूर्वक नहीं लिया था। वह अपने ढंग से आगे जाना चाहता था । उसे आध्यात्मिक गुरु की और अधिक आवश्यकता नहीं थी । अन्य भक्तों ने उसे मना किया था, लेकिन वह अपने निश्चय पर अड़ा था। अन्य भक्तों को विश्वास नहीं हो रहा था। भला स्वामीजी के प्रस्थान की पूर्व रात में वह यह कैसे कर सकता था !

रवीन्द्र- स्वरूप स्वामीजी को अभिवादन अर्पित करने के लिए फर्श पर लेट गया। लेकिन वह उठा नहीं । उसकी बजाय वह अपने हाथों और घुटनों के बल प्रभुपाद की ओर रेंगने लगा । रवीन्द्र का प्रायः अपना ढंग था, उसके सुंदर चेहरे, अस्तव्यस्त बालों और दाढ़ी से इस अखड़पन में और भी वृद्धि हो जाती थी। लेकिन इस समय वह बहुत दीन-हीन था, सिसक रहा था और सनकी दिख रहा था। वह प्रभुपाद की ओर रेंगता रहा, जो एक साधारण रेडवुड के आसन पर फर्श से दो कदम की ऊँचाई पर बैठे थे। प्रभुपाद ने दया भाव से देखा : “यहाँ आओ, मेरे बच्चे, ” रवीन्द्र सीढ़ियों से ऊपर खिसक गया और अपना गुच्छेदार बालों वाला सिर उनकी गोद में रख दिया। भक्त दया से पिघल कर देखते रहे जबकि प्रभुपाद रवीन्द्र का सिर सहलाते रहे। रवीन्द्र रोता रहा और रोता रहा ।

" क्या गड़बड़ है, मेरे बच्चे ? तुम्हें इतना दुखी नहीं होना चाहिए ।"

रवीन्द्र चीख उठा, “मैं चाहता हूँ... उसने सिसकी “आह... कि... आह... भगवान् तक सीधे पहुँचूँ ! बिना किसी के बीच में आए हुए । "

प्रभुपाद रवीन्द्र के सिर पर थपकी देते और उसे सहलाते रहे: “नहीं, यदि संभव हो तो तुम हम लोगों के साथ रहो । पागल मत बनो ।” रवीन्द्र का रोना बंद हो गया और प्रभुपाद रवीन्द्र और कमरे में बैठे भावावेश - ग्रस्त समुदाय को सम्बोधन करते रहे। “मैं एक बूढ़ा व्यक्ति हूँ।” उन्होंने कहा, “मैं किसी भी क्षण मर सकता हूँ। लेकिन आप कृपया यह संकीर्तन - आन्दोलन चलाते रहें। आपको विनम्र और सहनशील बनना है। जैसा कि भगवान् चैतन्य ने कहा है, घास के तिनके की तरह विनम्र बनिए और वृक्ष से अधिक सहनशील । इस कृष्ण- चेतना दर्शन को आगे बढ़ाने के लिए आप में उत्साह और धैर्य का होना जरूरी है । "

सहसा रवीन्द्र के आँसू रुक गए। वह उछल कर निराश भाव से खड़ा हुआ । एक क्षण के लिए हिचका, तब शीघ्रता से दरवाजे के बाहर हो गया, उसे ज़ोर से बंद करता हुआ ।

रवीन्द्र स्वरूप के कृष्णभावनामृत से इस नाटकीय बहिर्गमन से भक्तों को धक्का लगा। प्रभुपाद तब भी बैठे रहे और गंभीरतापूर्वक भाषण करते रहे। उन्होंने भक्तों से एकजुट होकर अपने निजी और अन्यों के लाभ के लिए आन्दोलन को आगे बढ़ाने के लिए कहा। उन्होंने कहा कि भक्तों ने जो कुछ सीखा था उसका उन्हें अभ्यास करना चाहिए ।

भक्तों ने अनुभव किया, कदाचित् पहली बार, कि वे प्रभुपाद के प्रचार कार्य एवं उनके आन्दोलन का अंग थे। वे केवल अच्छे समयों और अच्छी मानसिक तरंगों के लिए ही साथ नहीं थे अपितु स्वामीजी और कृष्ण के प्रति उनका प्रेमपूर्ण दायित्व भी था ।

प्रभुपाद अपने कक्ष में वापस गए, जहाँ शीघ्र ही अव्यवस्था फैल गई। देर हो रही थी । दीक्षा चाहने वाले अनेक थे। मुकुंद, जयानन्द, और मंदिर के अन्य प्रधान कार्यकर्त्ता यह निश्चय करने में लगे कि अभ्यर्थियों में से निष्ठावान कौन थे। आधे दर्जन अभ्यर्थियों को बारी-बारी से चुन कर, वे प्रभुपाद के कमरे में भेजने लगे।

प्रभुपाद अपनी छोटी डेस्क के पीछे बैठे रहे। वे हर एक अभ्यर्थी की माला पर जप करते और अभ्यर्थी को एक आध्यात्मिक नाम देकर, उसे माला लौटा देते। कीर्तनानन्द ने इसे बंद कर देने की प्रार्थना की; आगे की दीक्षा डाक द्वारा हो सकती थी । किन्तु प्रभुपाद ने कहा कि जो लोग वहाँ उपस्थित थे, उनकी दीक्षा वे जारी रखेंगे।

मुकुंद और जयानन्द ने प्राथमिकताएँ निश्चित कीं। कुछ लोग दीक्षित होने की प्रतीक्षा महीनों से कर रहे थे और स्पष्टतः वे निष्ठावान थे । अन्य लोगों को वापस भेजना पड़ेगा ।

जान कार्टर : व्याख्यान के अंत में मुझे निश्चय हो गया कि मैं दीक्षित होना चाहता था । और यद्यपि डाक द्वारा दीक्षा देने की चर्चा चल रही थी, मैं अपने आध्यात्मिक गुरु से व्यक्तिगत सम्बन्ध चाहता था, और उनके द्वारा व्यक्तिगत रूप से दीक्षित होना और स्वीकृत होना चाहता था। मैं मुकुंद के पास गया और कहा, “सूची में कितने लोग हैं? मैं अपना नाम सूची में चाहता हूँ ।"

उसने कहा, "स्वामीजी किसी विशेष क्रम में उन्हें नहीं ले रहे हैं। हम सबसे अधिक निष्ठावान लोगों को चुनने की कोशिश कर रहे हैं। "

" कृपा करके मेरा नाम सूची में डाल दें,” मैने कहा, डाल दें, ” मैंने कहा, “मैं वास्तव में निष्ठावान हूँ, मैं सचमुच दीक्षित होना चाहता हूँ ।"

इस तरह उसने मेरा नाम सूची में सम्मिलित कर लिया और वह सूची स्वामीजी के पास ले गया। स्वामीजी एक-एक करके लोगों को बुलाने लगे। तीसरे व्यक्ति के बाद जब मेरा नाम नहीं बुलाया गया तो मुझे कुछ परेशानी हुई। तब चौथे व्यक्ति के बाद मैं सचमुच किनारे पर बैठा था । जब चौथे व्यक्ति का नाम पुकारा गया और वह नाम मेरा नाम नहीं था तो मैं पूरी तरह बरबाद हो गया। मुझे लगा, “ओह ! वे भारत जा रहे हैं, तब वे कृष्ण के पास वापस जा रहे हैं। मैं अपना अवसर खो बैठा हूँ। बस । अब और जीवित रहने का कोई लाभ नहीं । "

मैं कोट के रैक की ओर जाने की कोशिश कर रहा था जिससे अपना कोट लेकर मैं वहाँ से निकल जाऊँ, इसके पहले कि कोई मुझे क्रंदन करता हुए देखे । मैने रोना शुरू नहीं किया था, पर मुझे लगा कि रुलाई आने वाली है। एक-दो लोगों ने मेरी पीठ थपथपाई और कहा, "ठीक है, वे तुम्हें पत्र लिख कर तुम्हारा नाम बता सकते हैं।” मेरे मन में जो विचार आया, वह यह था, "जिस तरह वे रात में बात कर रहे थे, उससे तो यही लगता है कि यह कभी नहीं रह रहा था। मैं बाहर गया और गाड़ियों के हुआ गोल्डन गेट पार्क की ओर बढ़ने लगा। एक तरह से मैं गोल्डन गेट ब्रिज की ओर बढ़ रहा था। मैने सोचा, “मैं कूद पडूंगा।” मैं वहाँ काफी समय से नहीं गया था कि यह बात मेरी समझ में आती कि आत्महत्या करने वाला प्रेत बनता है। मुझे लग रहा था कि मेरा जीवन व्यर्थ है ।

मैंने पार्किंग स्थल को आधा पार किया था कि मेरे मन में विचार आया, “यदि मैं एक दो नामों की और प्रतीक्षा कर लेता तो कैसा रहता ? हो सकता है उसके बाद ही मेरा नाम हो ?" इस विचार से मेरे मन में आशा का ऐसा उद्रेक हुआ कि मैं मुड़ा और भाग कर वापस मंदिर जा पहुँचा । और जब मैं मन्दिर के सामने पहुँचा ही था, कि जानकी दौड़ कर आई और बोली, " वे एक शिष्य और लेंगे।" और किसी और को पकड़ कर वह सीढ़ियों से ऊपर चढ़ गई। मैने अनुभव किया कि मेरे घुटने जवाब दे रहे हैं और मेरी आँखों से आसूँ उमड़ने लगे। हर्षराणी वहीं खड़ी थी । उसने मेरी बाँह पकड़ ली और कहा, "मेरे साथ आओ ।" वह मुझे घसीटते हुए सीढ़ियों पर दौड़ कर चढ़ी और उनके सिरे पर पहुँची; और दरवाजा खटखटाए बिना ही स्वामीजी के कमरे में घुस गई।

स्वामीजी ने आश्चर्य से देखा। उसने कहा, “स्वामीजी, आपको इस बालक को दीक्षा देनी है।" मैं चीख रहा था, स्वामीजी हँसने लगे। वे बोले, “ठीक है, रोओ मत। सब ठीक हो जायगा ।” उन्होंने मेरी माला पर जप किया और मुझे जीवानंद नाम दिया।

***

अगले सवेरे स्वामीजी को अपने प्रिय अनुयायियों को छोड़ना था। भक्तों से भरी कई गाड़ियाँ उनके साथ सैन फ्रांसिस्को के हवाई अड्डे गईं।

नन्दराणी : कुछ भक्त निष्ठावान थे, और कुछ रुदन कर रहे थे क्योंकि गुरु महाराज के विदा लेते समय रुदन करना समुचित था । वास्तव में हम में से कोई भी अधिक नहीं जानता था कि गुरु महाराज क्या थे ।

जानकी ने शरारतवश प्रभुपाद के हाथ से उन का टिकट और पासपोर्ट चुरा लिया । " अब आप नहीं जा सकते।" उसने कहा ।

" ठीक है, " वे मुसकराए । “ वायुयान में चढ़ने का टिकट मेरे पास आ चुका है। मैं भारतीय हूँ। वे मुझे अपने देश में घुसने देंगे।'

प्रभुपाद अपने प्रशंसक अनुयायियों की ओर मुड़े जो प्रवेश द्वार के पास उन्हें घेर कर खड़े थे : “वास्तव में मेरी एक ही इच्छा है, और जो कोई उसे पूरा करेगा उससे मुझे बड़ी प्रसन्नता होगी। अब मेरे पास एक मंदिर मान्ट्रियल में है, एक न्यू यार्क में है और एक सैन फ्रांसिस्को में है। लेकिन लास एंजीलस में कोई मंदिर नहीं है।” उन्होंने उन्हें कृष्णभावनाभावित बने रहने को और प्रचार करने को कहा ।

वे सब देखते रहे, जब प्रभुपाद प्रवेश द्वार की ओर मुड़े और आगे बढ़े। उनके एक हाथ में छड़ी थी और दूसरे में वायुयान में सवार होने का अनुमति - पत्र ।

***

न्यू यार्क में उदास अनुभव करने का समय ही नहीं था । श्रील प्रभुपाद ने श्री कृष्ण पंडित को तार भेजा कि वे दिल्ली २४ जुलाई को ७.३० बजे सवेरे पहुँचेंगे और उनको चाहिए कि छिप्पीवाड़ा मंदिर में प्रभुपाद का कमरा ठीक कर रखें। तार में प्रभुपाद ने उल्लेख किया कि उनका इरादा दिल्ली में एक डाक्टर से सलाह लेने का था; उसके बाद वे वृंदावन जायँगे । वे वृंदावन जाने को व्यग्र थे ।

प्रस्थान के एक दिन पहले प्रभुपाद ने सुमति मोरारजी को लिखा। उनके आखिरी पत्र के उत्तर में श्रीमती मोरारजी ने लिखा था कि वे उनके भारत लौटने के लिए निःशुल्क जल जहाज यात्रा का प्रबन्ध कर देंगी, किन्तु उनके शिष्यों के लिए नहीं । “चूँकि मैने आपकी अमेरिका - यात्रा का प्रबन्ध कर दिया था, इसलिए मेरा कर्त्तव्य है कि मैं आप के भारत सकुशल लौटने का भी प्रभध करूँ, विशेषकर इसलिए भी कि आप का स्वास्थ्य अच्छा नहीं है।” लेकिन वे किसी शिष्य की निःशुल्क यात्रा की अनुमति नहीं देंगी ।

२० जुलाई को प्रभुपाद ने लिखा :

मेरी तीव्र इच्छा है कि मैं वृंदावन में वृंदावन बिहारी भगवान् कृष्ण के कमलवत् चरणों में वापस आऊँ; इसलिए मैने भारत अविलम्ब लौटने का निश्चय किया है, मैं जलमार्ग से लौटना पसंद करता, जिसके लिए आपने कृपापूर्वक निःशुल्क यात्रा की सुविधा देने को लिखा है, लेकिन मेरे स्वास्थ्य की वर्तमान नाजुक स्थिति में यह संभव नहीं है। इसलिए कृष्ण कृपा से और यहाँ के एक मित्र की सहायता- से, किसी तरह, मुझे वायुयान-यात्रा का टिकट मिल गया है और मैं यहाँ से नई दिल्ली के लिए अगले शनिवार को प्रस्थान करने की आशा करता हूँ। मैं पालम हवाई अड्डे पर २४ जुलाई को ७.३० बजे सवेरे पहुँचूँगा । कुछ दिन दिल्ली में विश्राम करने के बाद मैं वृंदावन चला जाऊँगा ।

यह बात मेरी समझ में आ रही है कि वर्तमान में आप मेरे शिष्यों को निःशुल्क यात्रा की सुविधा नहीं दे सकतीं। किन्तु यदि सन्निकट भविष्य में भी आप ऐसा नहीं कर पाएँगी, तो मेरा मिशन आधा समाप्त हो जायगा या विफल हो जायगा । मैं अपने एक प्रधान शिष्य, ब्रूस स्कार्फ, को लिखे गए प्रशंसा के दो पत्र संलग्न कर रहा हूँ जो उसे प्रोफेसर डेविस हैरोन और न्यू यार्क विश्वविद्यालय के प्रो. राबट्र्स ने भेजे हैं। मेरी समझ में ये पत्र आपको आश्वस्त कर देंगे कि कृष्णभावनामृत का मेरा आंदोलन पश्चिमी जगत में किस प्रकार जड़ें पकड़ रहा है। कृष्ण के पवित्र नाम का जप अब केवल इसी देश में नहीं होता, अपितु मेरी जानकारी के अनुसार, इंगलैंड, हालैंड और मेक्सिको में भी होता है। यह और भी व्यापक बन सकता है। मैने आप के लिए एक ग्रामोफोन रिकर्ड भेजा है जो आशा है अब तक आपको मिल गया होगा। आपको यह जान कर प्रसन्नता होगी कि कृष्ण का पवित्र नाम किस तरह पश्चिमी संसार में सराहा जा रहा है।

अच्युतानन्द ने प्रभुपाद से कहा कि वह भारत जाना चाहता था ताकि वह मनोयोगपूर्वक अध्ययन कर सके, अनुभव उपार्जित करे और कृष्ण में अनुरक्त बने। उसने प्रभुपाद को यह कहते सुना था कि अमेरिका में दस वर्ष रहने की अपेक्षा वृंदावन में कोई दो दिन रहकर अधिक कृष्णभावनाभावित बन सकता है। “क्या आप समझते हैं कि मैं जा सकता हूँ?” अच्युतानन्द ने पूछा ।

“विश्वास रखो,” प्रभुपाद ने उससे कहा कि, “हम ब्रज में फिर मिलेंगे । ' भक्त जन सत्स्वरूप से बराबर कह रहे थे कि वह अपनी नागरिक सेवा नौकरी की बदली बोस्टन करा ले ताकि एक कृष्ण - चेतना केन्द्र वहाँ खोल सके। उन्होंने रूपानुग से भी बफैलो के लिए वही करने को कहा। सत्स्वरूप और रूपानुग प्रभुपाद के पास यह जानने को गए कि वे क्या चाहते थे । प्रभुपाद बहुत प्रसन्न हुए। उन्होंने बताया कि सुबल एक केन्द्र सन्ता फे में खोलने जा रहा था और दयानंद लास एंजेलस जाने वाला था । "हरे कृष्ण मंत्र एक बड़ी तोप के समान है,” प्रभुपाद ने बताया, “जाओ और इस तोप को दागो, जिससे हर एक सुन सके और इससे माया भाग जायगी ।”

भक्त पूछना चाहते थे कि, “यदि आप न लौटे, तो?" वे भयभीत थे । यदि कृष्ण स्वामीजी को वृंदावन में रख लेते हैं तो क्या होगा ? यदि स्वामीजी कभी भी वापस न आए, ते क्या होगा ? तो वे माया से कैसे बच सकेंगे ? किन्तु स्वामीजी उन्हें विश्वास दिला चुके थे कि यदि वे कभी भी वापस न आएँ, तो भी जो कुछ कृष्णभावनामृत वे शिष्यों को प्रदान कर चुके थे वह पर्याप्त होगा ।

हवाई अड्डे के लिए प्रस्थान करने के ठीक तीस मिनट पहले स्वामीजी अपने कमरे में बैठे हुए एक लड़की की माला पर जप कर रहे थे जो दीक्षित होना चाहती थी । तब जैसा कि वे पहले भी कई बार कर चुके थे, वे अपने कमरे को छोड़ कर सीढ़ियों से नीचे उतरे, आँगन को पार किया और स्टोरफ्रंट में प्रविष्ट हुए ।

पुराने गलीचे पर बैठ कर वे शान्त भाव से और निजी तौर पर कहने लगे, "मैं चला जाऊंगा, किन्तु गुरु महाराज एवं भक्तिवेदान्त यहाँ रहेंगे।” उन्होंने अपने आध्यात्मिक गुरु और भक्तिविनोद ठाकुर के चित्रों को निहारा । " मैने उनसे प्रार्थना की है कि वे तुम सब की, मेरी आध्यात्मिक संतानों की, देखभाल करें। अपने पौत्रों की देखभाल दादा, उनके पिता की अपेक्षा, हमेशा अधिक सावधानी से करते हैं। इसलिए डरो मत, अलग होने का कोई प्रश्न नहीं है। ध्वनि तरंगें हमें इकट्ठे बाँधे रखती हैं, चाहे पंचभूत शरीर पास न हों। इस पंचभूत शरीर की क्या चिन्ता ? बस, हरे कृष्ण का जप करते रहो, और हम एक सूत्र में बँधे रहेंगे। तुम लोग यहाँ जप करोगे और मैं वहाँ जप करूँगा, यह ध्वनि तरंग सारे संसार में फैलेगी।

कई भक्त प्रभुपाद के साथ टैक्सी में गए— ब्रह्मानंद ड्राइवर के साथ सामने की सीट कर बैठा था। राय राम और कीर्तनानन्द अपने गुरु महाराज के साथ पीछे की सीट पर थे। " जब कीर्तनानन्द वृन्दावन को देखेगा, ” प्रभुपाद ने कहा, " तो उसकी समझ में नहीं आएगा कि मैं उस स्थान को छोड़ कर यहाँ कैसे आ सका। यह इतना अच्छा है। वहाँ, यहाँ की भाँति हू-हू करती और दुर्गंध फैलाती, भागती मोटर गाड़ियाँ नहीं हैं। वहाँ केवल हरे कृष्ण हैं। हर एक हमेशा जप में लीन है। हजारों-हजारों मंदिर हैं। मैं तुम्हें यह सब दिखाऊँगा, कीर्तनानन्द । हम चारों ओर घूमेंगे और मैं तुम्हें दिखाऊँगा।”

ब्रह्मानंद रोने लगा, और प्रभुपाद उसके पीठ पर थपथपाने लगे । “मैं समझ सकता हूँ कि तुम्हें बिछोह खल रहा है,” उन्होंने कहा, "मैं अपने गुरु महाराज का बिछोह अनुभव कर रहा हूँ। मैं समझता हूँ कि कृष्ण यही चाहते हैं । तुम मेरे पास वहाँ आ सकते हो और प्रशिक्षण ले सकते हो, और हम इस आन्दोलन को संसार भर में फैलाएँगे । राय राम, तुम इंगलैंड जाओगे । ब्रह्मानंद, तुम जापान जाओगे या रूस ? ठीक है।”

भक्तजन एयर इंडिया के प्रतीक्षालय में जमा हो गए, जो एक भीड़ वाले शराब - घर के निकट था । स्वेटर पहने हुए और चादर को सफाई से कंधे पर लपेटे हुए, प्रभुपाद एक कुर्सी में बैठे थे। उनके शिष्य उनके चरणों के इर्द-गिर्द सट कर बैठे थे। प्रभुपाद के हाथ में एक छाता था, ठीक वैसा ही जैसे तब था जब वे लगभग दो वर्ष पूर्व न्यू यार्क में आए थे। यद्यपि वे थके थे, पर मुसकरा रहे थे ।

प्रभुपाद ने एक भित्तिचित्र देखा जिसमें भारतीय महिलाएँ अपने सिरों पर बड़े-बड़े घड़े लिए जा रही थीं और उन्होंने एक लड़की को बुलाया जो अपने पति, हंसदूत के साथ हाल में ही मांट्रियल में इस्कान में सम्मिलित होने के लिए गई थी । "हिमावती, क्या तुम भारत जाना चाहोगी और इन भारतीय महिलाओं की तरह अपने सिर पर पानी का घड़ा उठा कर चलना सीखोगी ?"

“हाँ, हाँ,” उसने कहा, "मैं जाऊँगी ।'

“हाँ,” श्रील प्रभुपाद ने कहा, “किसी दिन हम सब जायँगे ।"

कीर्तनानन्द के पास एक बैटरी से चलने वाला फोनोग्राफ था और हरे कृष्ण मंत्र रिकार्ड की दो प्रतियाँ थीं । “कीर्तनानन्द,” प्रभुपाद ने कहा, “ रिकार्ड क्यों नहीं बजाते ? सब को आनन्द आएगा ।" कीर्तनानन्द ने रिकार्ड धीरे बजाया; शराब - घर के लोगों का ध्यान उधर आकृष्ट हो गया । "जरा बहुत और तेज करो,” प्रभुपाद ने कहा, और कीर्तनानन्द ने आवाज ऊँची कर दी। प्रभुपाद सिर हिलाने लगे ताल का ध्यान रखते हुए ।

भक्तगण शीघ्र ही रिकार्ड के साथ सभी ताल का ध्यान रखते हुए गुनगुनाने लगे, फिर धीरे-धीरे वे जोर से गाने लगे। कीर्तनानन्द, ब्रह्मानंद और अन्य भक्त रोने लगे ।

हंसदूत : मैं स्वामीजी की बिल्कुल बगल में बैठा था और हर समय मैं सोच रहा था, “ओह ! मेरे गुरु महाराज भारत जा रहे हैं। ” और उन्होंने कहा कि, “मैं वृंदावन में मरना चाहता हूँ।” हम सभी जानते थे कि स्वामीजी जा रहे हैं, लेकिन अब अंतिम क्षण आ गया था। मैं यह भी देख रहा था कि मैने अपने गुरु महाराज के लिए कुछ नहीं किया है। " वे यह भी नहीं जानते कि मैं कौन हूँ ।" मैने सोचा । "हमारे बीच कोई सम्बन्ध नहीं बना है।” मुझे कुछ करना चाहिए। मुझे कुछ अभी करना चाहिए । मुझे किसी न किसी रूप में उनकी सेवा करनी चाहिए जिससे उनके हृदय में मेरे लिए कुछ स्थान हो जाय । कुछ।” मैं सोच रहा था । "मैं क्या कर सकता हूँ?" मैं रो रहा था और वे मेरी ओर देख भी नहीं रहे थे। यह ऐसा ही था, मानों मैं वहाँ था ही नहीं, जैसे कोई कुर्सी न हो या इस तरह की कोई अन्य वस्तु न हो। वे बराबर चारों ओर देख रहे थे, हर वस्तु को देख रहे थे, और मैं उनकी निगाह पकड़ने की कोशिश कर रहा था : ऐसा न हो कि वे सहसा कोई बात कहें।

कीर्तन तीव्र से तीव्रतर होता जा रहा था, और रुदन भी उतना ही तेज होता जा रहा था । और प्रतीक्षालय में लोग स्वामीजी को इस तरह देख रहे थे मानों वे कोई विशेष व्यक्ति हों। और इन सब के मध्य स्वामीजी पूर्णतया विश्राम की मुद्रा में बैठे थे, मानो यही उनका स्थान हो और यह हर दिन का सामान्य कार्यक्रम हो ।

जब रिकार्ड समाप्त हो गया, तो हंसदूत ने पूछा, तो हंसदूत ने पूछा, “स्वामीजी, क्या मैं चंदा इकट्ठा कर सकता हूँ?” प्रभुपाद ने सिर हिलाया । हंसदूत खड़ा हुआ और एक छोटा व्याख्यान दिया : "हमारा मिशन कृष्णभावनामृत का प्रसार करना है। न्यू यार्क में हमारा एक मंदिर है। हमें पैसे की हमेशा बड़ी जरूरत रहती है। कृपा करके हमारी सहायता करें। एक सैनिक से उसका हैट उधार लेकर हंसदूत चंदा इकट्ठा करता हुआ चारों ओर घूमने लगा

“हमारी यात्रा शुभ घड़ी में आरंभ हो रही है,” प्रभुपाद ने कहा, "अभी एक अच्छा कीर्तन हुआ है, और अच्छा चंदा इकट्ठा हुआ है। यह सब कृष्ण की कृपा है। "

तब वायुवान में सवार होने का समय आ गया । प्रभुपाद ने अपने हर शिष्य को आलिंगन किया। वे एक पंक्ति में खड़े थे, और एक-एक करके उनके पास जा रहे थे और उनको आलिंगन दे रहे थे। उन्होंने कुछ महिलाओं का सिर थपथपाया ।

रूपानुग: स्वामीजी अपने शिष्यों को आलिंगन दे रहे थे : कीर्तनानन्द, ब्रह्मानंद, गर्गमुनि आदि। मुझे कभी आशा नहीं थी कि वे मुझ से आगे बढ़ने को कहेंगे। मैं अपने को उस कोटि में नहीं गिनता था जिसमें अन्य शिष्य थे। इसलिए मुझे उस समय बड़ा आश्चर्य हुआ जब स्वामीजी ने मेरी ओर इशारा किया और मेरा नाम लेकर बुलाया, "रूपानुग।” मैं उठा और स्वामीजी की ओर बढ़ा। वह अन्तर दस फुट रहा होगा, लेकिन मुझे बहुत दूर लगा। मैंने उनका आलिंगन लिया और वह आलिंगन मेरे जीवन का स्मरणीय आलिंगन था। तुरंत मुझे स्वामीजी की शक्ति का एहसास हुआ। वे इतने शक्तिशाली थे कि यह एक युवा पुरुष का आलिंगन करने के समान था— मेरी अवस्था के पुरुष का । मैं सत्ताईस साल का था और वे मुझ से भी अधिक शक्तिशाली और युवा लग रहे थे। उन्होंने मुझे कस कर अपनी भुजाओं में जकड़ लिया और मैने भी मजबूती से उन्हें आलिंगन दिया। लम्बाई में वे मुझ से छोटे थे, इसलिए मैने अपनी ठुड्डी स्वाभाविक तौर पर उनके बाएं कंधे में धंसा दी। जब मैं उनसे आलिंगन कर रहा था तब मुझे बड़ा आनन्द आया और एक प्रकाश का अनुभव हुआ। मुझे लगा कि, मेरे चेहरे से कोई प्रकाश, कोई चमकदार शुद्ध वस्तु, कोई स्फूर्ति विकीर्ण हो रही है। मैने अपनी आँखें खोली और कीर्तनानन्द को अपनी ओर देखते पाया । वह स्वामीजी के पीछे कुछ दूरी पर खड़ा था। मैने ठीक उसकी आँखों में देखा। और मैं इतना आह्लादित और प्रसन्न था कि यह आह्लाद और प्रसन्नता किसी तरह उसकी आँखों में प्रतिबिम्बित हो रही थी। वह खुली मुसकान से भर कर मुझे देखने लगा। उसके नेत्र चमक रहे थे। ऐसा लग रहा था कि मुझसे सचमुच कोई आध्यात्मिक ऊर्जा निकल रही थी ।

हवाई अड्डे का वह दृश्य मेरे जीवन का बहुत महत्त्वपूर्ण अंग था क्योंकि मैं एक ऐसा व्यक्ति हूँ जिसे दूसरे व्यक्ति को प्यार देने में हमेशा कठिनाई रही है। स्वामीजी की विदाई ने मेरे हृदय से बलात् ऐसा प्रेम बाहर निकाला कि, जिसके मेरे हृदय में होने का मुझे भी पता नहीं था। किसी व्यक्ति के हृदय में जब अपने आध्यात्मिक गुरु के लिए प्रेम जागता है तो लगता है कि वह स्वयं आध्यात्मिक पुरुष बन रहा है। मैं एक आध्यात्मिक पुरुष बन रहा था। प्रभुपाद की विदाई के समय हमारे हृदयों से वियोग और दुख की भावनाओं का सागर उमड़ रहा था कयोंकि हम सभी जानते थे कि वे हमारे लिए जीवन और प्राण थे। और ऐसे व्यक्ति के लिए जिसे हम में से किसी को विश्वास नहीं था कि हम उनसे फिर कभी मिल सकेंगे ।

कीर्तनानन्द के साथ जो सिर मुंड़ाए था और बेतुके ढंग का काला ऊनी सूट पहने था, प्रभुपाद धीरे-धीरे गेट की तरफ बढ़े। जब वे दृष्टि से ओझल हो गए तो प्रस्थान करते हुए वायुयान को अंतिम बार देखने के लिए, भक्तजन दौड़कर निरिक्षण - डेक (छत) पर चढ़ गए।

जब भक्तजन गीले निरीक्षण-डेक के बीच से दौड़ कर जा रहे थे उस समय हवाई अड्डे पर हल्की वर्षा हो रही थी। डेक के नीचे से प्रभुपाद और कीर्तनानंद वायुयान की ओर जा रहे थे। शिष्टाचार को त्याग कर भक्त चीखने-चिल्लाने लगे। प्रभुपाद उनकी ओर मुड़े और हाथ हिलाया । गतिशील सीढ़ियों से वे ऊपर गए और सिरे पर पहुँच कर भक्तों की ओर फिर मुड़े और उन्होंने दोनों बाहें उठाईं और वे तब वायुयान में प्रविष्ट हो गए ।

भक्तजन उच्च स्वर में कीर्तन करने लगे, जबकि गतिशील सीढ़ियाँ हट गईं, दरवाजा बंद हो गया और वायुयान घूमने लगा। भक्तजन आगे बढ़ते हुए रेलिंग तक पहुँच गए थे, लेकिन जब जेट के निर्वातक से गर्म झोंके आने लगे तो वे पीछे हट गए। एयर इंडिया का जेट जिससे झिलमिलाता प्रकाश निकल रहा था, बड़े जोर की गर्जना के साथ दौड़ - मार्ग पर भागने लगा । भक्तजन तब तक हरे कृष्ण गाते रहे जब तक वायुयान जमीन से ऊपर नहीं उठा, आकाश में धब्बा बनकर गायब नहीं हो गया ।

 
 
 
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  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥